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दोनों मुनियों द्वारा आहार त्याग और राजारानी द्वारा वन्दन
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था, मानो असमय में ही आकाश में बादल छाये हों। धीरे-धीरे धुंए ने आकाश की ओर तेजी से आगे बढ़ते हुए तेजोलेश्या का रूप ले लिया। अब वह ऐसा मालूम होता था मानो विद्युन्मण्डल से ज्वालाजाल निकल रहा । भयभीत और कौतूहलप्रिय नागरिक, विष्णुकुमार से भी अधिक तेजोलेश्याधारी मुनि सम्भूति को प्रसन्न करने के लिए दल के दल वहां पर आने लगे ।
इस विषय में आप सरीखे विचक्षण आप इस अधमोचित क्रोध का त्याग समानदृष्टि होती है ।'' चित्रमुनि ने
राजा सनत्कुमार भी वहां पर आया। क्योंकि समझदार व्यक्ति जहां से अग्नि प्रगट होती है, वहीं से उसे बुझाने का प्रयत्न करता है। राजा ने मुनि को नमस्कार कर कहा- 'भगवन् ! क्या ऐसा करना आपके लिए उचित है ? सूर्यकिरणों से तपे हुए होने पर भी चन्द्रकान्तमणि से कभी आग पैदा नहीं होती । इन सभी ने आपका अपराध किया है। इससे आपको क्रोध उत्पन्न हुआ है। क्षीर-समुद्र का मंथन करते समय क्या कालकूट विष उसके अंदर से प्राप्त नहीं होता। सज्जन पुरुषों का क्रोध भी दुर्जन के स्नेह के समान नहीं होता । कदाचित् हो भी जाय, तो भी चिरकाल तक नहीं टिकता । यदि चिरकाल तक टिक भी जाए तो भी तथारूप फलदायी नहीं बनना । से हम क्या कहें ? फिर भी आपसे प्रार्थना करता हूँ कि नाथ ! करें। आप सरीखे महानुभाव की तो अपकारी और उपकारी पर जब यह बात जानी तो श्रीसंभूतिमुनि को शान्त करने के लिए वह भी वहां आ पहुंचे । भद्र हाथी की तरह मधुरवचनों से शास्त्रानुकूल बात सुनते ही उनका कोप उसी तरह शान्त हो गया, जिस तरह मेघवृष्टि से पर्वतीय दावानल शान्त हो जाता है । महाकोपरूपी अधकार से मुक्त बने महामुनि संभूति क्षणभर में पूर्णिमा के चन्द्र के समान प्रसन्न हो गए । अतः जनसमूह उन्हें वन्दन करके क्षमायाचना करता हुआ अपने स्थान को लौट गया। चित्रमुनि और संभूतिमुनि वहां से उद्यान में पहुंचे। वहां वे दोनों मुनि पश्चात्ताप करने लगे- 'आहार के लिए घर-घर घूमने से महादुख होता है, किन्तु यह शरीर आहार के पोषण से ही चलता है। मगर योगियों को इस शरीर और आहार की क्या आवश्यकता है ?" इस प्रकार मन में निश्चय करके दोनों मुनियों ने संलेखनापूर्वक चतुविध-आहारत्यागरूप आमरण अनशन ( संथारा ) स्वीकार किया ।
एक दिन राजा ने सोचा- मैं भूमि का परिपालक हूं । मेरे राज्य में माधुओं को इस प्रकार से साधुओं को परेशान करके किसने अपमानित किया ? इसका पता लगाना चाहिए ।' किसी गुप्तचर से राजा को पता लगा कि मन्त्री नमुचि के ये कारनामे हैं ! जो पूजनीय की पूजा नहीं करता, वह पापी कहलाता है, तो जो पूजनीय पुरुष को मारता है, उसे कितना भयंकर पापी कहना चाहिए ?" अतः आरक्षकों ने चक्रवर्ती के आदेश से नमुचि मंत्री को गिरफ्तार करके उसके सामने पेश किया । भविष्य में और कोई इस तरह माधु को परेशान न करे, इस शुद्धबुद्धि से राजा ने अपराधी मन्त्री को नगर में सर्वत्र घुमाया । अन्त में, दोनों मुनियों के चरणों में मणिमय मुकुटसहित मस्तक झुका कर चक्रवर्ती ने वन्दन किया उस समय वे दोनों मुनिचरण ऐसे लगते थे, मानो राजा मस्तकस्थ मुकुटमणि से पृथ्वी को जलमय बना रहा हो । बांये हाथ से मुखवस्त्रिका से ढके मुंह से मुनियों ने दाहिना हाथ ऊंचा करके राजा को धर्मलाभ रूपी आशीर्वाद दे कर उसकी गुणग्राहिता की प्रशंसा की । राजा ने नम्रतापूर्वक निवेदन किया"मुनिवर ! आपका जो अपराधी है, उसे अपने कृत अपराध (दुष्कर्म) का फल मिलना ही चाहिए।" यों कह कर सम्राट् सनत्कुमार ने नमुचि की ओर इशारा किया। मुनिवरों द्वारा क्षमा करने का निर्देश हुआ । अतः वध करने योग्य होने पर भी गुरु आज्ञा मान कर राजा ने उसे छोड़ दिया । सर्प गरुड़ के