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चित्र और सम्भूति पांच जन्मों तक साथ-साथ
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पढ़ा दोगे तो मैं तुम्हें अपने बन्धु के समान मान कर तुम्हारी रक्षा करूंगा । नमुचि ने मातंग के वचन को स्वीकार किया, क्योंकि जीवितार्थी मनुष्य के लिए ऐसी कोई बात नहीं, जिसे वह न करे ।' अब नमुचि चित्र और संभूति दोनों को अनेक प्रकार की विद्याएं पढ़ाने लगा । इसी दरम्यान मातंगाधिपति की पत्नी से उसका अनुचित सम्बन्ध हो गया । वह उसके साथ अनुरक्त हो कर रतिक्रीड़ा करने लगा । भूतदत्त को जब यह पता चला तो वह उसे मारने के लिए उद्यत हुआ । 'अपनी पत्नी के साथ जारकर्म (दुराचार कौन सहन कर सकता है ? मातंग-पुत्रों को यह मालूम पड़ा तो उन्होंने नमुचि को चुपके से वहां से भगाया और उसे प्राणरक्षा रूपदक्षिणा दी। वहां से भाग कर नमुचि हस्तिनापुर में आ गया। वहां वह सनत्कुमारचक्री का मन्त्री बन गया। इधर युवावस्था आने पर चित्र और सम्भूति अश्विनीकुमार देवों की तरह बेवटh भूमण्डल में भ्रमण करने लगे। वे दोनों हा-हा, हू-हू देव गन्धर्वो से भी बढ़कर मधुर गीत गाने लगे । और तम्बूरा तथा वीणा बजाने में नारद से भी बाजी मारने लगे । गीत-प्रबन्ध में उल्लिखित स्पष्ट सात स्वरों से जब वे वीणा बजाते थे, तब किन्नरदेव भी उनके सामने नगण्य लगते थे । और धीर-घोप वाले वे दोनों जब मृदंग बजाते थे, तब मुरदैत्य के अस्थिपंजरमय वाद्य को लिये हुए कृष्ण का स्मरण हो आता था। नाटक भी वे ऐसा करते थे, जिससे महादेव (शिव) उवंशी, रंभा, मुंज, केशी, तिलोत्तमा आदि भी अनभिज्ञ थे। ऐसा मालूम होता था, मानो ये दोनों गान्धर्वविद्या के सर्वस्व और विश्वकर्मा के दूसरे अवतार हों। सचमुच, प्रत्यक्ष में अभिव्यक्त होने वाला उनका संगीत मला किसके मन को हरण नहीं करता ?
एक बार उस नगर में मदन महोत्सव हो रहा था । तब नगर की मंडलियाँ चित्र और संभूति के निकट से गुजरीं। बहुत से नागरिक नर नारी हो कर हिरणों के समान झुंड के झुंड आ कर इनके पास जमा होने लगे।
संगीतप्रवीण सुन्दर गीत - इनके गीतों से आकर्षित यह देख कर कुछ नागरिकों
राजा से जा कर यह शिकायत की कि "नगर के बाहर दो मातंग आए हुए हैं । सुन्दर गीत गाबजा कर अपनी ओर आकर्षित कर लेते है और अपनी तरह सभी को दूषित कर रहे हैं । "यह सुनते ही राजा ने नगर के बड़े कोतवाल को उलाहना देते हुए आज्ञा दी - 'खबरदार ! ये दोनों नगर में कदापि प्रविष्ट न होने पाएँ।' इस राजाज्ञा के कारण वे दोनों तभी से वाराणसी के बाहर रहने लगे । नगरी में एक दिन कौमुदी -महोत्सव हुआ । उस दिन इन दोनों चंचलेन्द्रिय मातंगपुत्रों ने राजाज्ञा का उल्लंघन कर हाथी के गंडस्थल में भ्रमण की तरह नगर में प्रवेश किया। सारे शरीर पर बुर्का डाले हुए दोनों मातंगपुत्र वेष बदल कर चोरों की भांति गुपचुप उत्सव देखते हुए नगर में घूम रहे थे। जैसे एक सियार की आवाअ सुन कर दूसरा सियार बोल उठता है, वैसे ही नगर के संगीतज्ञों का स्वर सुन कर ये दोनों भी अत्यंत मधुरकंठ से गीत गाने लगे । 'भवितव्यता का उल्लंघन नहीं किया जा सकता । उनके कर्णप्रिय मधुरगीत सुन कर नगर के युवक इस प्रकार मंडराने लगे, जैसे मधुमक्खियां अपने छत्ते पर मंडराती हैं। लोगों ने यह जानने के लिये कि ये कौन है ? उनका बुर्का खींचा। बुर्का खींचते ही उन्हें देख कर लोग बोल उठे - 'अरे ये तो वे ही दोनों चाण्डाल हैं ! 'दुष्टो ! खड़े रहो ;' यों कह कर लोग एकदम उन पर टूट पड़े। कइयों ने लाठी, डेले, पत्थरों आदि से उन्हें मारा-पीटा और उनका भयंकर अपमान किया । इसमे वे दोनों गर्दन झुकाए शर्मिन्दा हो कर उसी तरह नगरी से बाहर निकल गये, जैसे कुत्ते गर्दन नीची किए घर से चले जाते हैं। एक ओर जनता की विशाल भीड़ उनके पीछे लगी थी; दूसरी ओर, वे दोनों ही थे। उस समय वे ऐसे लगते थे, मानो एक छोटे-से खरगोश पर सारी सेना टूट पड़ी हो । कदम-कदम पर ठोकर खाते हुए भागते-दौड़ते बड़ी कठिनता से वे गम्भीर नामक उद्यान