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प्रासषणा के ५ भेदों और आदाननिक्षेपसमिति का वर्णन
(१) संयोजना, (२) प्रामाणातिरिक्तता (अप्रमाण), (३) अंगार, (४) धूम और (५) कारणाभाव ।
आहार को स्वादिष्ट और चटपटा या रसदार बनाने के लोभ से गोचरी में आई हुई खाच. वस्तुओं के साथ खांड, घी या गर्म मसाला आदि (स्वादिष्ट बनाने के योग्य) दूसरे पदार्थ उपाश्रय में या बाहर मिला कर उन्हें स्वादिष्ट अथवा चटपटी बनाना प्रथम संयोजना-दोष है। धृति, बल, संयम तथा मन, वचन और काया का योग स्थिर रहे ; शरीर का निर्वाह हो सके, उतनी ही मात्रा में आहार करना चाहिए । मात्रा से अधिक आहार करने पर वमन आदि अनेकों व्याधियां और किसी समय मृत्यु तक हो जाती है। अतः प्रमाण से अधिक आहार करने पर दूसरा प्रमाणातिरिक्तता या अप्रमाण दोष लगता है। भोजन करते समय मिष्टान्न आदि स्वादिष्ट पदार्थों की या उन पदार्थों के दाता की प्रशंसा करना कि अहा ! यह कितना सुन्दर है ! कसा स्वादिष्ट है ! वह दाता कितना उदार है !, इस प्रकार के कथन में रागरूपी आग पालन किये हुए चारित्ररूपी इन्धन को अंगार बना देती है। इस कारण तीसरे दोष को अंगारदोष बताया है। अस्वादिष्ट या नीरस आहार की या उसके देने वाले की निंदा करते हुए आहार करे तो साधु को चौथा धूम्रदोष लगता है। जिस प्रकार धुआ महल की चित्रशाला को काला कर देता है, वैसे ही साधु निन्दारूपी धुंए से चारित्ररूपी महल या चित्रशाला को दूषित कर देता है। साध को छह कारणों से आहार करना चाहिए -(१) धा-भख सहन न होने पर (२) आचार्यादि बड़ों की सेवाभक्ति करने के लिए, (३) ईर्या-समिति आदि आठ प्रवचन-माता का अच्छी तरह पालन करने के लिये, (४) प्रेक्षा-उत्प्रेक्षा-संयम के पालन के लिए, (५) प्रवाध-जठराग्नि के उदय से प्राणों की रक्षा के लिए. (E) आरोदध्यान का त्याग करके धर्मध्यान में स्थिरता लाने के लिये । इन कारणों से साधु आहार करे । इनके अलावा और किसी कारण से आहार करे तो उसे पांचवां कारणामाव नाम का दोष लगता है। कहा भी है कि-"उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजन, अप्रमाण. अंगार, धूम्र और कारणाभाव नामक आहार-दोषों से रहित पिंड (आहार) का शोधन, अन्वेषण और बारीकी से विश्लेषण करते हुए आहारादि में प्रवृत्ति करने हेतु मुनियों के लिए एषणासमिति बताई है। अब चौथी आदान-निक्षेप-समिति का निरूपण करते हैं
आसनादीनि संवीक्ष्य, तिलिख्य च यत्नतः । गृह्णीयान् निक्षिपेद्वा यत् साधनसामतिः स्मृता ॥२६॥
अर्थ आसनादि को दृष्टि से भलीभांति देख कर और रजोहरण आदि से प्रमार्जन कर यतनापूर्वक लेना अथवा रखना आवाननिक्षेपसमिति कहलाती है।
व्याख्या बैठने की भूमि या पाट ये आसन कहलाते हैं । आदि शब्द से वस्त्र, पात्र, पट्टा, दण्ड आदि उपकरणों का ग्रहण करना चाहिए । आशय यह है कि साधु के पास जो भी धर्मोपकरण हों ; उन्हें मांखों से भलीभांति दिन में देख कर, रात्रि को बांखों से जीवजन्तु न दीखें तो रजोहरण से या गुच्छक आदि से यतना पूर्वक प्रमार्जन करके उठाना या रखना चाहिए । इस तरह न किया जाय तो अच्छी तरह प्रतिलेखना नहीं होती। शास्त्र में कहा है कि-"प्रतिलेखन करते समय परस्पर बात करे, देशकपादि करे, प्रत्याख्यान कराए, स्वयं वाचना दे या दूसरे से पाचना ले, तो वह साधक पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु,