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योगशास्त्र: प्रथम प्रकाश
कारक तथा सुखपूर्वक ग्रहण करना 'सात्म्य' कहलाता है। इस प्रकार के सात्म्य-रूप में जिंदगीभर मात्रा के अनुसार किया हुआ भोजन अगर विष भी हो तो वह एक बार तो हितकारी होता है। अतिसात्म्य खाद्य-वस्तु भी जो पथ्य-रूप हो, उसी का सेवन करे। रुचि के अनुकूल अपथ्य और अहितकारी वस्तु को सात्म्य समझ कर भी सेवन न करे । 'शक्तिशाली के लिए सभी वस्तु हितकारी है'; ऐसा मान कर काल कूट विष न खाये । विषतन्त्रज्ञाता और अत्यन्त दक्ष व्यक्ति की भी किसी समय विष से मृत्यु भी हो जाती है ।
(१८) परस्पर अबाधितरूप से तीनो वर्गों को साधना-धर्म, अर्थ और काम; ये तीन वर्ग कहलाते हैं । जिससे अभ्युदय और मोक्ष की सिद्धि हो, वह धर्म है। जिससे लौकिक सर्व-प्रयोजन सिद्ध होते हों, वह अर्थ है और अभिमान से उत्पन्न, समस्त इन्द्रिय-सुखों से सम्बन्धित रसयुक्त प्रीति काम है। सद्गृहस्य को इन तीनों वर्गों की साधना इस प्रकार से करनी चाहिए, ये तीनों वर्ग एक दूसरे के लिए परस्पर वाधक न बनें। परन्तु तीनों में से केवल किसी एक की या किन्हीं दो की साधना करना उचित नहीं है । नीतिकार भी कहते हैं-'त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ मोर काम इन तीनों वर्गों की परस्पर अविगेधी-रूप से साधना किये बिना जिसका दिन व्यतीत होता है, वह पुरुष लोहार की धौंकनी के समान श्वास लेते हुए भी जीवित नही हैं। यदि कोई इन तीनों में धर्म की उपेक्षा करके केवल तत्वहीन (अतथ्य) सांसारिक विषय-सुखों में लुब्ध बनता है, वह जंगली हाथी के समान आफन का शिकार बनता है, क्योंकि जो धर्म और अर्थ से उदासीन हो कर केवल विषयभोगों में ही असक्त मातन्त रहेगा; वह धर्म, अर्थ और शरीर तीनों को खो कर पराधीन एवं दुःखी हो जाएगा। इसी प्रकार जो धर्म और काम का अतिक्रमण करके केवल अर्थोपार्जन में ही लगा रहता है, वह जीवन का सच्चा मानन्द नहीं प्राप्त कर पाता, न ही मानसिक शान्ति पाता है । अन्ततोगत्वा, उसके धन का उपभोग दूसरे करते है । दामाद, हिस्सेदार, सरकार या अन्य लोग उसके धन पर कब्जा जमा लेते हैं। उसके तो सिर्फ मेहनत ही पल्ले पड़ती है। जैसे सिंह, हाथी का वध करके केवल पाप का भागी बनता है, वैसे वह भी केवल पाप का अधिकारी बनता है। अर्थ और काम का अतिक्रमण करके केवल धर्म का सेवन भी गृहस्थ के लिए उचित नहीं, क्योंकि उसे अपने सारे परिवार, समाज व देश के प्रति कर्तव्यों का भी पालन करना है । यदि वह एकान्त धर्मक्रिया में लग जाएगा तो गैरजिम्मेदार बन कर दुःखी होगा। अपनी रोटी के लिए भी उसे दूसरों का मुंह ताकना पड़ेगा। इसलिए साधु तो सर्वथा धर्म का सेवन कर सकते हैं ; लेकिन गृहस्थ सर्वथा धर्म का पालन करने में प्रायः असमर्थ होता है। वह श्रमणों की उपासना व सेवाभक्ति कर सकता है । इमलिए धर्म में रुकावट न आए, इस प्रकार अर्थ और काम का सेवन करे । बोने के लिए सुरक्षित बीजों को खा जाने वाला किसान समय पर बीज न रहने के कारण सपरिवार दुखी होता है, वैसे ही वर्तमान में धर्माचरण न करने वाला व्यक्ति भविष्य में सुखद फल या कल्याण नही प्राप्त कर पाता । वास्तव में वही व्यक्ति सुखी कहलाता है जो अगले जन्म के सुख में बाधा न पहुंचे, इस प्रकार से इस लोक के सुख का अनुभव करे । इस तरह अर्थोपाजन करना बंद करके जो धर्म और काम का ही सेवन करता है; वह कर्जदार बन जाता है। काम को छोड़ कर जो केवल धर्म और अर्थ का सेवन करता है, वह गृहस्थ मनहूम बन जाता है, उसके घर के लोग असंतुष्ट रहते हैं। इस कारण काम-पुरुपार्थ की सर्वथा उपेक्षा करने वाला गृहस्थ-अवस्था में टिक नहीं सकता। धर्म, वर्ष और काम इन तीनों में से प्रत्येक के एकान्तसेवी गहस्थ तादात्विक, मूलहर और कदर्य के समान अपने जीवन के विकास में स्वयं रुकावट डालते हैं । तादात्विक उसे कहते हैं, जो बिना सोचे-विचारे उपाजित धन को खर्च कर डालता