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हिंसा के फलस्वरूप नरकगामी सुभूम चक्रवर्ती मरने की बात कहने से भी दुःख होता है, तो फिर कौन समझदार ऐसा होगा जो तीखे शस्त्रों से किसी प्राणी को मारेगा? अब दृष्टान्तों द्वारा हिंसा के फल के सम्बन्ध में समझाते हैं :
श्रूयते प्राणिघातेन, रौद्रध्यानपरायणौ । सुभूमो बमदत्तश्च सप्तमं नरकं गतौ ॥२९॥
अर्थ
आगम में ऐसा सुना जाता है कि प्राणियों की हत्या से रौद्रध्यानपरायण हो कर सुभूम और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती सातवीं नरक में गए।
व्याख्या रौद्रध्यान के बिना अकेली हिंसा नरक-गमन का कारण नहीं होती। अन्यथा, सिंह का वध करने वाला तपस्वी साधु भी नरक में जाता। इसलिये रोद्रध्यान में तत्पर यानी हिसानुबन्धी रौद्रध्यानपरस्त सुभूम और ब्रह्मदत्त ये दोनों चक्रवर्ती मातवीं नरक में गए । वे दोनों किस तरह नरक में गये ? गह कथानक द्वारा क्रमशः बताते हैं
सुभूम चक्रवर्ती की कथा वसन्तपुर नामक नगर में अग्निक नाम का बालक रहता था। उसके वंश में कोई भी न रहने के कारण ऐसा मालुम होता था मानो वह आकाश से ही सीधा टपक पड़ा हो । एक दिन वह वहां आए हए एक सार्थ के साथ दूसरे देश की ओर चल पड़ा । किन्तु एक दिन अचानक ही अपने काफले में बिछुड़ कर वह अकेला घूमता-घूमता एक तापस के आश्रम में आ पहुंचा । जमद् नाम के कुलपति ने उस अग्निक को पुत्ररूप में स्वीकार कर लिया। तब से लोगों में वह 'जमदग्नि' नाम से प्रसिद्ध हुआ। साक्षात अग्नि के समान प्रचण्ड तप करने से वह भूतल में दुःसह तेजोराशि से युक्त बना । एक बार वहां वैश्वानर नाम का महाश्रावक देव और तापसभक्त धन्वन्तरि दोनों में विवाद छिड़ गया कि किसका धर्म प्रमाणभत है? श्रावकदेव ने कहा-'अरिहंत का धर्म प्रमाणभूत है ।' इस पर तापसभक्त देव ने कहा कि 'तापसधर्म प्रमाण है।' इस विवाद के अन्त में दोनों ने यह निर्णय किया कि 'जनसाधु और तापम में से किसमें अधिकता या न्यूनता है ? इन दोनों में से गुणों में अग्रगण्य कौन है ? इसकी परीक्षा की जाय ।
इधर उस समय मिथिला में नवीन धर्मप्राप्त पद्मरथ राजा श्री वासुपूज्यम्वामी के पास दीक्षा लेने हेतु भावसाधु बन (साधुवेष धारण) कर वहां से प्रस्थान करके चम्पापुरी की ओर जा रहा था। उसे जाते हुए मार्ग में उन दोनों ने देखा और उसकी परीक्षा लेने की नीयत से उन दोनों देवों ने राजा से आहार-पानी ग्रहण करने की प्रार्थना की। किन्तु क्षुधातृषातुर होते हुए भी राजा से साधु के भिमानियमों के अनुकूल आहार-पानी न होने के कारण लेने से इन्कार कर दिया। सच है, वीर पुरुष अपने सत्य से कमी विचलित नहीं होते। तब उन दोनों परीक्षक देवों ने मनुष्यों में देव-समान उस राजा के कोमल चरण-कमलों में चुमें, इस प्रकार के करवत के समान पैनी नोंक वाले कंकर और कांटे सारे रास्ते में बिखेर दिये। जिनसे उन्हें अतीव पीड़ा हुई; पैर छिद गये, उनमें से रक्त की धारा बहने लगी। फिर भी वे उस कठोरमार्ग को कमल के समान कोमल समझ कर चलते रहे। फिर उन देवों