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योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश कांक्षा - किसी के आडम्बर या प्रलोभन से आकृष्ट हो कर उस दर्शन को स्वीकार करने की इच्छा करना कांक्षा कहलाती है। यह भी देश और सर्व के भेद से दो प्रकार की है। सर्वविषयक कांक्षा है सभी मतों या धर्म-समुदायों की कांक्षा होना। देशकांक्षा है--किसी एक मत, पथ या सम्प्रदायविषयक कांक्षा होना ; उदाहरण के तौर पर कोई यह कहे कि सुगत ने भिक्षुओं के लिए कष्टरहित धर्म का उपदेश दिया है। वहां तो भिक्षुओं के लिए स्नान है, प्रिय स्वादिष्ट भोजन, पान व बढ़िया वस्त्र विहित है, गुदगुदी कोमल शय्या का विधान है। इस तरह सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं का उपभोग बता कर धर्ममार्ग सर्वसुलभ बना दिया है। उनके किसी धर्मग्रन्थ मे कहा है- "कोमल शय्या पर शयन करना, सुबह उठते ही मधुर पेय पीना, मध्याह्न में स्वादिष्ट भोजन करना, शाम वो फिर पेय पीना और मध्यरात्रि में द्राक्षा और शक्कर का आहार करना, इन सबके परिणामस्वरूप शाक्यमिह ने मोक्ष देखा है।'' यह बात सर्वसाधारण के अनुकूल होने से सट पट उस तरफ झुकाव हो जाता है। परिव्राजक, भौत, ब्राह्मण आदि के मत में बनाया है कि यहाँ विषय-सुख का स्वादन ३.ग्न वाले ही परलोक में सुखोपपभोग करते हैं। इसलिए इस मत की साधना भी करके देखनी चाहिए। इस प्रकार की कांक्षा वीतराग-प्रभु के बताये हुए आगमो में अविश्वास को जननी होने से सम्यक्त्व को दूषित करती है।
विचिकित्सा-धर्माचरण के फल में मन्देह रखना विचिकित्सा है। चिन की अस्थिरता से से, भागमोक्त महातप, सम्यक-चारित्र, सम्यग्दर्शन या मम्यग्ज्ञान की माधना ; तो बहुत ही रूक्ष, बाल के कौर के समान स्वादरहित और नीरस है, पता नहीं, इतना सब महाकप्टों के सहने के बाद भी इनका फल मिलेगा या नहीं ? ओफ ! यह तप तो बहुत ही क्लेशदायी और निजराफल से रहिन मालूम होना है ! किसान चौमासा लगते ही वर्षा का निश्चय न होने पर भी जैसे जमीन जोनने आदि की मेहनत करता है, वैसे ही इस तपस्या वगैरह के लिए किया गया कठोर श्रम निष्फल ही प्रतीत होता है और सफल भी । कहा भी है-'पूर्वकालीन साधक पुरुप यथोचित मार्ग पर चलने वाले थे, इगलिए उनको तो योग्य फल मिल मकता था परन्तु हम इम निकृष्ट युग के तथा बुद्धि और सघयण मे हीन जीव है, हमें उनके समान फल को प्राप्ति कैसे हो सकती है ?' इस प्रकार को विचिकित्मा भी गमवद्वचनों के प्रति अश्रद्धाम्प होने से सम्यक्त्व का दोप है । शंका और विचिकित्सा में अन्ना है। शंका हमेशा समग्र और अममग्र पदार्थ-विषयक द्रव्य-गण-सम्बन्धी होनी है। जबकि विचिकित्सा क्रिया के फल में सम्बन्धित होनी है। अथवा विचिकित्सा का यह अर्थ भी है- सदाचारी मुनियों के आचार के मम्बन्ध में निन्दा करना । जैसे ये मुनि शरीर पर पसीने के कारण बड़े दुर्गन्धित और मलिन क्यों रहते हैं, क्यों नहीं अच्छी तरह स्नान कर लेते ? अचित्त पानी में स्नान करने में कौन-सा दोष लग जाता है ? इस प्रकार भगवदुक्त धर्म के सम्बन्ध में अश्रद्धारूप होने में नत्वन मम्यक्त्व का दोप है।
मिष्याष्टिप्रशंसा-विपरीत दर्शन वाली-मिथ्याष्टियों की प्रशंमा करना मिथ्याष्टिप्रशसा है । यह भी देशतः और सर्वतः दो प्रकार की होती है। मवंतः प्रणंमा, जमे कोई कहे कि 'कपिल आदि मबके दर्शन युक्तियुक्ति हैं।' इस प्रकार माध्यम्थभाववाली प्रथमा करना मम्यक्त्वदूषण है। जैसा कि एक म्नुनि में कहा है-“हे नाथ ! पग्मत वाले आपमे मत्सर करते हैं, लोगो की आकृति से आपकी आकृति अतिशयसम्पन्न है, इस बात को वे नहीं मानते। इस प्रकार माध्यम्ध्य अंगीकार करके वे मणि और कांच के टुकड़े का अन्तर नहीं जानते।" देशत: प्रशंसा, यथा-- यह सुगनवचन अथवा सांस्यवचन या कणादवचन ही यथार्थ हैं । यह नो स्पष्टनः मम्यक्त्व का दोष है।