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दुःखमोचकमत और चार्वाकमत का खण्डन
जल में उत्पन्न होने वाला कमल आग में कैसे हो सकता है ? पाप की हेतुभूत हिंसा पाप को मिटाने वाली कैसे बन सकती है ? मृत्यु का कारणरूप कालकूट विष जीवन देने वाला कदापि नहीं होता।
दुःखमोचक नामक एक नास्तिकमत है। उसका कहना है कि-संसार में बहुत से आदमी रोगादि विविध दुःख पा रहे हैं । उन दु:खियों का वध होना ही ईष्ट है। क्योंकि दुःखियों को खत्म कर देने से उनके दुःख अवश्य मिट जायेंगे ; उन्हें दुःखों से छुटकारा मिल जाएगा। यह कथन भी यथार्थ नहीं है। क्योंकि ऐसे जीव मरने के बाद प्रायः नरकगामी होते हैं । वे अल्पदुःख वाले जीव यों मर कर अनंत दु.ख के भागी बनते हैं । इसी तरह एक मत और है, जो मानता है -सुखी जीवों का घात कर देने से वे पाप करने से रुक (बच) जायेंगे । कुधार्मिकों के ऐसे वचन भी त्याज्य हैं ।
चार्वाक नाम का नास्तिक भी कहता है कि 'मूल में आत्मा ही किसी प्रकार से सिद्ध नहीं होती है, तो फिर आत्मा के बिना हिंसा किसकी होगी? और उस हिंसा का फल कौन भोगेगा ? सड़े हुए आटे आदि से जैसे पिष्टादि मद्य तैयार हो जाता है, वैसे ही पांचभूतों के एकत्र होने से चैतन्य प्रगट हो जाता है, और पांचभूतों के समूह के नष्ट होने पर उसका नाश हो जाता है । फिर वे यों भी कहते है कि आत्मा जब यहीं समाप्त हो जाती है, तो उसके परलोकगमन की तो बात ही नहीं रहती । और परलोक-गमन के अभाव में पुण्य-पाप की चर्चा करना व्यर्थ है । इसके लिए फिर विविध तपस्याएं करना, सिर्फ कष्ट भोगने का अद्भुत तरीका है। संयम मिले हुए भोगविलासों से वंचित होने के समान है । इस प्रकार वे नास्तिकता के ऐसे विचार दूसरों के गले उतार देते हैं।
अतः उनकी बातों का युक्तियुक्त उत्तर दे कर उन्हें निरुत्तर करते हैं । "मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं, इस प्रकार की प्रतीति शरीर, इन्द्रियों या मन को नहीं हो सकती ; वह तो आत्मा को ही हो सकती है । इस दृष्टि से आत्मा सिद्ध होती है। मैं घट को जानता हूँ' इस वाक्य में तीन वस्तुओं का ज्ञान होता है : कर्म, क्रिया और कर्ता । इन तीनों में कर्ता का निषेध कैसे होगा ? यदि शरीर को ही कर्ता माने तो वह भी ठीक नहीं ; क्योंकि अचेतन कर्ता नहीं हो सकता। अगर पंचभूत एवं चैतन्य के योग से उत्पन्न चेतन को कर्ता माना जाय तो वह भी संगत नहीं है। क्योंकि ऐसे चेतन में एककर्तृत्व का अभाव होने से'मैंने देखा, मैंने सुना, स्पर्श किया, सूघा, चखा या याद किया, इत्यादि कथन पंचभूत और चैतन्य को अभिन्न मानने पर घटित नहीं हो सकता ।
इस तरह जैसे स्वानुभव से अपने शरीर में भी चेतनास्वरूप आत्मा सिद्ध हुआ, वैसे दूसरों के शरीर में आत्मा की सिद्धि अनुमान से की जा सकती है। और अपने शरीर में बुद्धिपूर्वक होती हुई क्रिया को देख कर दूसरों के शरीर में भी उसी तरह जान लेनी चाहिए । इस तरह प्रमाणसिद्ध क्रिया को कौन रोक सकता है ? इसलिए जीव का जब परलोकगमन भी सिद्ध हो चुका है ; तब परलोक मानना असंगत नहीं है । उसी तरह पुण्य-पाप का स्वीकार तो अपने आप हो ही जाता है। तपस्या को कष्ट बताना इत्यादि कथन भी उन्मत्तप्रलाप की तरह अविवेकी का कथन है। ऐसे चैतन्ययुक्त पुरुष के कथन को स्व कल्पित बताना हास्यास्पद क्यों नहीं होगा ? इसलिये आत्मा निराबाध तथा स्थिति, उत्पाद और व्ययस्व. रूप है और ज्ञाता, द्रष्टा गुणी, भोक्ता, कर्ता और अपनी-अपनी काया के प्रमाण जितना है। इस तरह मात्मा की सिद्धि हो जाने पर हिंसा करना योग्य नहीं है। हिंसा का परिहार ही त्याग-रूप अहिंसा-व्रत कहलाता है।