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पांच अणुव्रतों की पालनविधि के विविध विकल्प
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मिष्याष्टिका गाढ परिचय-ऐसे मिथ्यादृष्टियों के साथ एक स्थान में रहना, परस्पर वार्तालाप आदि व्यवहार बढ़ा कर उनका अतिपरिचय करना। एक जगह साथ रहने से या बारबार उनके सम्पर्क में आने से, उनकी प्रक्रिया के सुनने-देखने में दृढ़सम्यक्त्वी की दृष्टि में भी शिथिलता आना सम्भव है ; तब मन्दबुद्धि वाले, धर्म का स्वीकार करने वाले नवागन्तुकों के मन में भिन्नता आ जाय इसमें तो कहना ही क्या ? इस दृष्टि से मिथ्यादृष्टि के गाढपरिचय को सम्यक्त्व का दूषण बनाया गया है।
अन यह आवश्यक है कि जिसे विशिष्ट द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप मम्यक्त्वसामग्री प्राप्त हुई हो, वह उमे टिकाने और यथार्थरूप मे पालन करने हेतु गुम्देव में विधिपूर्वक मम्यक्त्व ग्रहण करे । कहा भी है - दोप की मम्भावना की स्थिति में श्रमणो गमन मिथ्या-व में वापिम हटने की दृष्टि से पहले द्रव्य और भाव में पुन: मम्यक्त्व अंगीकार करे । तत्पश्चात उसे परमती देवों या देवालयों में प्रभावना, वन्दना-पूजा आदि कार्य नहीं करना चाहिए और न ही लोकप्रवाह में बह कर लौकिक तीर्थों में (पूज्यबुद्धि मे) स्नान, दान, पिंडदान यज, वन, तप, मंक्रान्ति, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण आदि के अनुष्ठान इत्यादि करना चाहिए।
जब मिथ्यात्वमोहनीय कर्म की कुछ कम एक मागरोपम कोटाकोटि स्थिति शेष रह जाती है, तब जीव मम्यक्त्व प्राप्त करना है। और शेप रही हुई स्थिति में से दो से नौ पल्योपम की स्थिति जब पूर्ण करता है तब देशविरतिश्रावकगुणस्थान प्राप्त करता है। कहा भी है-"सम्यक्त्वप्राप्ति के बाद पल्योपम पृथक्त्व में अर्थात् ऊपर कहे अनुसार दो से नौ पन्योपम की स्थिति और पूर्ण करने पर व्रतधारी श्रावक होता है।
हमने पहले कहा था-'पांच अणवन मम्यक्त्रमूलक होने हैं। इनमें से सम्यक्त्व का स्वरूप विस्तार में बना कर अब अणुव्रतों का स्वरूप बनाते हैं
विरतिः स्थूल हिंसादेद्विविध-त्रिविधादिना। अहिंसादीनि पंचाणुव्रतानि जगजिनाः ॥१८॥
अर्थ स्थल हिसा आदि से द्विविध विविध आदि यानी ६ प्रकार आदि रूप से विरत होने को श्रोजिनेश्वरदेवों ने अहिंसादि पांच अणुव्रत कहे हैं।
व्याख्या मिथ्यादृष्टियों अथवा स्थूलदृष्टि वालों में भी जो हिंमारूप से प्रसिद्ध है, उसे स्थूलहिंसा या त्रस जीवों की हिंसा कहते हैं। स्थूलशब्द से उपलक्षण से निरपराधी त्रसजीवों को संकल्पपूर्वक हिंसा का अर्थ भी गृहीत होता है । आदि शब्द से स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल अब्रह्मचर्य और स्थल अपरिग्रह का भी समावेश हो जाता है। स्थूलरूप से हिंसा आदि का त्याग करना या इनसे निवृत्त होना ही पंचाणवत हैं ; जिनके अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह नाम लोकप्रसिद्ध हैं। इन पांच अणुव्रतों का प्रतिपादन तीर्थकर भगवन्तों ने किया है । प्रश्न होता है कि तीर्थंकरों ने सर्व (सामान्यतः)विरति (त्याग) श्रमणोपासकों के लिए क्यों नहीं बताई ? दिविष-विविधरूप से ही क्यों बताई ?