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योगशास्त्र : प्रथम प्रकाश (४) पिहित-सचित्त फल-फूल आदि से ढका हुआ आहार आदि ले, तो वहां पिहित दोष होता है।
(५) संहत-देने के बर्तन में से जो खाच बेकार व अयोग्य हो उसे निकाल कर अथवा सचित्त पृथ्वी आदि में डाला हुआ भोजनादि दूसरे बर्तन में डाल कर दे और साधु ले ले तो वहां संहृत दोष माना गया है।
(६) बायक-अत्यन्त छोटा बालक हो, बूढ़ा हो, नपुंसक हो या जिसके हाथ-पैर कांप रहे हों, बुखार आ रहा हो, अंधा हो, अहंकारी या पागल हो या जिसके हाथ पैर कटे हुए हों, बेड़ी से जकड़ा हो, जो कूट रहा हो, पीस रहा हो, भुन रहा हो, सागभाजी आदि सुधार रहा हो, रुई आदि पींज रहा हो, बीज बो रहा हो, भोजन कर रहा हो, षड्जीवनिकाय की विराधना कर रहा हो। ऐसे दाता से साधु आहारादि तो दायक-दोष लगता है। थोड़े समय में प्रसूति होने वाली स्त्री, रालक को गोद में उठाई हुई स्त्री, बालक को दूध पिलाती स्त्री इत्यादि के हाथों से आहारादि ले तो भी दायकदोष लगता है।
(७) सन्मित्र-देने योग्य द्रव्य, खांड, शक्कर मादि पदार्थ सचित्त धान्य आदि से मिला हो और उस आहार को लेवे तो वह उन्मिश्र दोष है।
(6) अपरिणत-पूरी तरह से अचित्त हुए बिना कोई भी पदार्थ साधु को देने पर वह ले ले तो, वहाँ अपरिणत दोष लगता है ।
(E) लिप्त-चर्बी आदि से लिप्त हाथ या भोजन आदि से देवे तो वहां लिप्त दोष होता है।
(१०) छवित-तेल, घी, दूध, दही आदि के छोटे जमीन पर गिराते हुए दाता आहार दे और साधु ले ले तो वहां छर्दितदोष होता है ; क्योंकि मधुबिन्दु की तरह नीचे गिरने से वहां कई जीवों की विराधना होने की संभावना है।
इस प्रकार उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोष कुल मिला कर बयालीस होते हैं। इन दोषी से अपित, अशन, खाद्य आदि ग्रहण करना ; उपलक्षण से सौवीर आदि का पानी तथा रजोहरण, मुखसिका, चोलपट्ट, आदि वस्त्र-पात्र वगैरह स्थविरकल्पियों के योग्य चौदह प्रकार की औधिक उपधि (उपकरण) जिनकल्पियों के योग्य बारह प्रकार की उपाधि, साध्वियों के योग्य पच्चीस प्रकार की और
ओपग्रहिक मथारा (आसन), पाट, पट्टे, बाजोट, चर्मदण्ड, दण्डासन आदि उक्त दोषों से अदूषित हों, उन्हें ग्रहण करना एषणासमिति है। रजोहरण आदि औधिक उपकरण तथा पट्ट, पाट, पटला, बाजोट, शय्या, चौकी आदि ओपग्रहिक उपकरण के बिना सर्दी, गर्मी और वर्षाकाल में ठंड, धूप, वर्षा आदि से गीली या नम भूमि पर महाव्रत का रक्षण करना अशक्य है । अतः आहारादिसहित ये सब जीवनोपयोगी वश्यक वस्तुग पूर्वोक्त दोपों से रहित हों, निर्दोष, कल्पनीय और विशुद्ध हों; उन्हें ही ग्रहण करने हेतु मुनि शोध करे उसे एपणा कहते हैं। मागम में कथित विधि के अनुसार माहादि का अन्वेषण करना ; उसके विषय में सम्यक प्रकार के उपयोगपूर्वक यतना से प्रवृत्ति करना भी एषणा-समिति है। गवेषणा और ग्रासषणा के भेद से यह एषणा दो प्रकार की है। प्रासपणा का अर्थ है- आहार-मंडली में बैठ कर साधु-साध्वी आहार का ग्रास मुह में लें; उस समय भी निम्नोक्त पांच दोष वजित करने चाहिए। वे पांच दोप इस प्रकार से हैं