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बचनगुप्ति और कायगुप्ति का विवेचन
अर्थ संज्ञादि (इशारे आदि) का त्याग करके मौन का आलम्बन करना अथवा वचन की प्रवृत्तियों को रोकना या सम्यक् वचन को ही प्रवृत्ति करना, वचनगुप्ति कहलाती है।
व्याख्या संज्ञा का अर्थ है-दूसरों को अभिप्राय सूचित करने हेतु मुख, नेत्र, भकुटि चढ़ाने, अंगुली से बताने या चुटकी बजाने की चेष्टा करना ; आदि शब्द से कंकड़ फेंकना, उच्च स्वर से खांसना, हुँ शब्द प्रगट करना इत्यादि चेष्टाएं भी संज्ञा के अन्तर्गत समझना । इन सब ज्ञाओं का त्याग करके, बोलने की क्रिया बंद करके मौन धारण करना, अथवा वाणी की प्रवृत्ति को रोकना या कम करना तथा वैसा अभिग्रह करना बचन-गुप्ति है । यदि मौनावलम्बी साधक संज्ञा आदि से अपना अभिप्राय सूचित करता है तो उसका मौन निष्फल हो जाता है। हां, आगम-सूत्रादि की वाचना देनी हो, तत्सम्बन्धी शंका पूछनी हो, अथवा शंका का उत्तर देना हो तो उस वागुप्ति में लोक या आगम से विरोध नहीं आता । इसी तरह मुख पर वस्त्रिका रख कर बोलना अथवा वाणी पर नियन्त्रण करना भी वाग्गुप्ति का दूसरा प्रकार है। इन दोनों प्रकारों से दूषित वाणी के सर्वथा निरोध का, दूपित वाणी से वागिन्द्रिय की रक्षा करने का अथवा मौन रखने का, इन तीनों रूपों का प्रतिपादन किया है। भापासमिति सम्यक-प्रकार से बोलना है और वाग्गुप्ति वाणी की दूषणों से सम्यक् प्रकार से रक्षा करना है । इस तरह वागुप्ति और भापा-समिति में इतना-सा भेद है । इसीलिए कहा है कि-"समिति वाला निश्चय ही गुप्ति वाला होता है; किन्तु गुप्ति वाला समिति वाला होता भी है और नहीं भी (भजना वाला) होता है । कुशल वाणी को बोलते समय साधक वाग्गुप्ति और भाषासमिति दोनों से युक्त होता है।
उपसर्ग-प्रसंगेऽपि कायोत्सर्गजुषो मुनेः। स्थिरीभावः शरीरस्य कायगुप्तिनिगद्यते ॥४३॥
अर्थ कायोत्सर्ग (ध्यान) से युक्त मुनि के द्वारा उपसर्ग के प्रसंग में भी शरीर को स्थिर या निश्चल रखना काय-गुप्ति (प्रथम) कहलाती है।
व्याख्या
देवना, मनुष्य और तियंचों द्वारा किये गए उपद्रव उपसर्ग कहलाते हैं। यहां 'अपि' शब्द से उपलक्षण से क्षुधा, तृषा आदि बाईस परिषहों या दुष्कर्मोदय-जनित संकटों या अभावों को भी समझ लेना चाहिए। फलितार्थ यह हुआ कि इन सब उपसर्ग बादि प्रसंगों पर मुनि द्वारा काया के प्रति निरपेक्ष हो कर उसे निश्चल या स्थिर रखना अथवा योगों की चपलता का निरोध करना कायागुप्ति कहलाती है। अब दूमरी कायागुप्ति का निरूपण करते हैं
गायनासन-निक्षेपादान-चंक्रमणेषु यः । स्थानेषु चेष्टानमः कायगुप्तिस्तु साऽपरा ॥४४॥