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भिक्षाचरी के १६ उत्पादनदोष एवं १० एषणादोष
(6) मानपिट-अपनी लब्धि, विद्या, प्रभाव आदि की प्रशंसा करके और छिछोरपन से, अगंभीररूप से या क्षुद्ररूप से दूसरों से प्रशंसा करवा कर अथवा अमुक गृहस्थ की निन्दा कर या करवा कर, अभिमान करके लिया हबा आहार मानपिण्डदोष कहलाता है।
(e) मायापिर-भिक्षा के लिए अलग-अलग वेश धारण करके या भाषा को बदल कर आहार लेना मायापिंडदोष है।
(१०) लोमपिर-स्वादिष्ट आहार की अतिलालसा से भिक्षा के लिए इधर-उधर घूमना लोभपिंडदोष माना गया है।
(११) पूर्वपश्चात्संस्तवपिर-साधु जहां आहार आदि लेने जाए, वहां उसके पूर्व परिचय वाले माता-पिता और पश्चात् परिचय वाले सास, श्वसुर आदि को प्रशंसा करके या अपने साथ उनके सम्बन्ध का परिचय दे कर लिया हुआ माहार पूर्व-पश्चात्संस्तव-पिंड है। विद्या, मन्त्र, चूर्ण और योग इन चारों का भिक्षाप्राप्ति के लिए उपयोग करे तो वह विद्यादिपिंड कहलाता है।
(१२) विद्यारि-स्त्री-देवता से अधिष्ठित मंत्र, जप, या होमादि से जो सिद्ध किया जाय. वह विद्या कहलाती है । इस प्रकार की विद्या का उपयोग करके आहार लेना विद्यापिंड-दोष है।
(१३) मन्त्र-पिर-उच्चारणमात्र से सिद्ध होने वाला पुरुष देवता-अधिष्ठित शब्द समूह मंत्र कहलाता है । अतः मंत्र का प्रयोग करके आहार लेना मंत्रपिंड कहलाता है।
(१४) चूर्णपिर-जिस चूर्ण के प्रभाव से आखों में अंजन करने से अदृश्य हो जाय या और कोई प्रभाव हो ; ऐसे चूर्ण को लगा कर या गृहस्थ को ऐसा चूर्ण दे कर आहारादि लेना चूर्णपिंड दोष कहलाता है।
(१५) योगपिर-सौभाग्य या दुर्भाग्य करने वाला लेप पैरों पर लगा कर विस्मय पैदा करना योग कहलाता है; उसका प्रयोग करके आहारादि ग्रहण करना, योगपिंड कहलाता है।
(१६) मूलकमपिट-गर्भ-स्तंभन, गर्भधारण, प्रसव, रक्षाबन्धन (कवच) आदि करके आहार आदि लेना मूलकमंपिंड दोष है।
कुछ दोष गृहस्थ और साधु दोनों के निमित्त से लगते हैं। उन्हें एषणा-दोष कहते हैं। एषणादोष के दस भेद हैं
(१) शंकित (२) प्रक्षित, (३) निक्षिप्त, (४) पिहित (५) संहृत (६) दायक (७) उन्मिश्र (4) अपरिणत (S) लिप्त (१०) छर्दित ।
इनका वर्णन इस प्रकार से है
(१) शंकित-आधाकर्मादिक दोष की शंका होने पर भी आहार आदि ग्रहण कर तो वहां शकित दोष लगता है।
(२) नक्षित-पृथ्वी, जल, वनस्पति आदि सचित्त पदार्थों का रक्त, मद्य, मांस, चर्बी आदि बराब अचित्त पदार्थों के साथ मिश्रित किये हए अथवा उनसे लिप्त आहारादि जान कर ले तो वहाँ प्रक्षित दोष है।
(३) निक्षिप्त-पृथ्वीकायादि छह काय से युक्त सचित्त पदार्थों पर रखा हुआ आहारादि ले तो वहां निक्षिप्त दोष होता है।