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योगशास्त्र:प्रथम प्रकाश
नय तस्स तनिमित्तो बंधो सुहमोवि रेसिमो समये ।
अणवज्जो उबमोगेन सबभावेण सो जम्हा ॥२॥ ईयर्यासमितिपूर्वक यतना से चलता हुआ मुनि चलते समय पर ऊंचा करे, उसमें कदाचित् कोई दिन्द्रियादि जीव मर जाय तो उसके लिए शास्त्र में कहा है कि उस निमित्त से उसे जरा-सा भी कर्मबन्धन नहीं होता, क्योंकि समभाव से सर्वथा उपयोगपूर्वक की हुई यह निरवद्य प्रवृत्ति है तथा अयतना एवं अवधपूर्वक प्रवृत्ति करने से जीव मरे या न मरे तो भी उसे हिंसा का पाप अवश्य लगता है । और जो सम्यक् प्रकार से उपयोगपूर्वक एवं यतनापूर्वक गमनागमन करता है, उस साधक से कदाचित् हिंसा हो भी जाय तो भी उस हिंसा से कर्म-बन्धन नहीं होता। अब दूसरी भाषासमिति के सम्बन्ध में कहते हैं :
अवद्यत्यागतः सार्वजनीनं मितभाषणम् । प्रिया वाचंयमानां सा भाषासमितिरुच्यते ॥३७॥
अर्थ वचन पर संयम रखने वाले या प्रायः मौनी साधकों द्वारा निर्दोष, सर्वहितकर एवं परिमित, प्रिय एवं सावधानीपूर्वक बोलना भाषासमिति कहलाता है।
व्याख्या वाक्यशुद्धि नामक (दशवकालिकसूत्र के सातवें) अध्ययन में प्रतिपादित भाषा-दोष के अनुसार 'तू धूर्त है, तू कामी है, तू मांस खाने वाला है, तू चोर है या नास्तिक है', इत्यादि दुर्वचनों का निष्कपटभाव से त्याग करना चाहिए और वचनशुद्धि-युक्त भाषा बोलनी चाहिए। सभी लोगों के लिए हितकारी, प्रिय, परिमित वाणी भी ऐसी बोले, जो पर्याप्त प्रयोजन को सिद्ध करने वाली हो । कहा भी है-"वही वचन बोलना चाहिए, जो मधुर हो, बुद्धियुक्त हो, अल्प हो, कार्यसाधन के लिए यथावश्यक, गर्व-रहित, उदार, आशायुक्त, बुद्धि से पहले धारण किया हुआ और धर्म-युक्त हो। इस प्रकार की वाणी को भाषासमिति कहते है. अथवा बोलने में सम्यक प्रकार से सावधानी रखना, भापासमिति है। इस तरह की मापा मुनियों को इष्ट होती है । शास्त्रों में बताया गया है कि बुद्धिशाली साधक उस भाषा को न बोले जो सत्यामृषा हो, या मृषा हो और पंडितों द्वारा आचरित न हो। अब तीसरी एपणासमिति का वर्णन करते हैं :
द्विचत्वारिंशद-भिक्षादोषानत्यम षितम् । मुनिर्यदन्नमादत्ते, संषणा-समितिर्मता ॥३८॥
अर्थ मुनि हमेशा मिक्षा के ४२ बोषों से रहित जो आहार-पानी ग्रहण करता है, उसे एषणा-समिति कहते हैं।
व्याख्या भिक्षा में लगने वाले ४२ दोषों को तीन विभागों में बांटा गया है-(अ) उद्गम-दोष, (ब) उत्पादनदोष और (स) एषणा-दोष ।