________________
सत्यमहावत और अस्तेयमहाव्रत कहना अप्रिय (आपातकारी) वचन होने से वह सत्य नहीं कहलाता। इसी प्रकार कोई बात तय्ययुक्त होने पर भी अहितकारी होगी तो वह भी सत्य नहीं कहलाएगी। शिकारी जंगल में किसी सत्यवर्ती से पूछते हैं कि 'हिरण किस ओर गया है ? क्या तुमने देखा है ?' अगर सत्यव्रती उस समय कहता है कि 'हाँ, मैंने हिरण को इस ओर जाते देखा है।' तो इस प्रकार के कथन में प्राणिहिंसा की संभावना रही हुई है। अतः ऐसा वचन हिंसाकारक होने से यथार्थ वचन होते हुए भी प्राणिहितकारी (पथ्य) न होने के कारण सत्य नहीं कहा जा सकता।
निष्कर्ष यह है कि दूसरों को खेद पहुंचाने वाला और परिणाम में अनर्थकर सत्य वचन भी सत्य नहीं है ; अपितु प्रिय और हितकर तथ्य वचन ही वास्तविक सत्य है।' अब नीसरे महाव्रत का वर्णन करते हैं :
अनादानमदत्तस्यास्तेयवतमुदीरितम् । बाह्यः प्राणो नृणामर्थो, हरता तं हता हिते ॥२२॥
अर्थ वस्तु के स्वामी की आज्ञा के बिना किसी भी वस्तु को ग्रहण नहीं करना, अस्तेय (अचौर्य) व्रत कहा गया है। धन मनुष्यों का बाह्य प्राण है ; उसके हरण करने से उसके प्राण का हनन हो गया, समझो।
व्याख्या धन या किसी भी चीज को स्वामी के दिये बिना या उसकी आज्ञा के बिना ग्रहण न करना तीसरा अदत्तादान महाव्रत कहा है। वह त्यागियों के लिए (१) स्वामी-अदत्त, (२) जीव-अदत्त, (३) तीर्थंकर-अदत्त और (४) गुरु-अदत्त : इस तरह चार प्रकार का बताया है। घाम, तृण, पत्थर, लकड़ी आदि पदार्थ उसके स्वामी ने नहीं दिये हों अथवा लेने की आज्ञा न दी हो ; उसे ग्रहण करना स्वामी. अदत्त है । स्वामी की आज्ञा तो हो, परन्तु स्वयं जीव को आज्ञा न हो, जैसे कि दीक्षा के परिणाम-रहित जीव (मनुष्य) को उसके माता-पिता, गुरु को दे दें ; परन्तु उस व्यक्ति (जीव) की स्वयं की इच्छा के बिना दीक्षा देना जीव-अदत्त है । तीर्थकर भगवान् के द्वारा निषिद्ध आधाकर्मादि दोषयुक्त आहार ग्रहण करना ; तीर्थकर-अदत्त है । किसी वस्तु के लेने की स्वामी ने आज्ञा दे दो ; वह वस्तु आधाकर्म आदि दोष से भी रहित है, किन्तु गुरु की आज्ञा उस वस्तु को ग्रहण करने की नहीं है, तो गुरु की आज्ञा के बिना उस वस्तु को लेना गुरु-अदत्त (चोरी) है। अहिंसा से आगे के सभी व्रत प्रथम अहिंसावत की रक्षा के हेतु हैं । यहां शंका होती है कि अदत्तादान में हिंसा कैसे संभव है ? इसके उत्तर में कहते हैं कि धन को ११ वा बाह्य-प्राण लोक-व्यवहार में कहा है। धन पर ममत्वभाव अधिक होने से वह प्राणसमान है । उसके चुराये जाने अथवा चले जाने से जीव का हृदय फट जाता है, बड़ा आघात पहुंचता है और मृत्यु तक भी हो जाती है । इसलिए शास्त्रकार ने धन को बाह्य प्राण कहा है। इस दृष्टि से घनहरण करने वाला वास्तव में उसके मालिक के प्राण-हरण करता है।
१-इसीलिए महाभारत में सत्य की परिभाषा की गई है-'यद् भूतहितमस्यन्तमेतत्सत्य
मतं मम' जिसमें प्राणियों का एकान्त हित हो उसे ही मैंने सत्य माना है। संशोधक