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दर्शनरत्न और चारित्ररत्न का स्वरूप परिणामों के योग से कम हो जाती है और जब सिर्फ एक कोटाकोटि सागरोपम स्थिति बाकी रह जाती है तब प्रत्येक संसारी जीव यथाप्रवृत्तिकरण के योग से ग्रन्थि-प्रदेश के नजदीक पाता है। अत्यन्त कठिनाई से भेदन हो सकने योग्य रागद्वेष के परिणामों को प्रन्यी कहते हैं। जो सदा रायण की मूलगांठ के समान अत्यन्त कठिनता से छिन्न हो सकती है। प्रन्थि-स्थान तक पहुंचा हुमा यह जीव भी रागादि से प्रेरित हो कर फिर कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बांधता है और उसके फलस्वरूप चार गतियों में भ्रमण करता रहता है। उसमें कई भविष्य में कल्याण प्राप्त करने वाले भव्यजीव होते हैं, वे अपने महावीर्य को प्रगट करते हुए कठिनता से उल्लंधन की जा सकने वाली ग्रन्थि का एकदम उल्लंघन करके उसी प्रकार आगे पहुंच जाते हैं, जिस प्रकार कोई पथिक लम्बे पथ को पार करके झटपट ईष्ट स्थान पर पहुंच जाता है ; इसे अपूर्वकरण कहते हैं। इसके बाद अनिवृत्तिकरण करने पर छिन्न करने योग्य मिथ्यात्व के दलों को छिन्न कर उसी समय अन्तर्मुहुर्त की स्थिति वाला औपशमिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। यह सम्यग्दर्शन निसर्ग-सम्यक्त्व कहलाता है। आम जीवों को गुरुमहाराज के उपदेश से अथवा किसी प्रकार के आलंबन से सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। जिसे अधिगम-सम्यक्त्व कहा जाता है। यह सम्यग्दर्शन यम और प्रशम के औषध-समान, ज्ञान और चारित्र का बीज तथा तप एवं श्रतादि का हेतु है। जो सम्यक्त्व ज्ञान और चारित्र से रहित होता है, वह तो प्रशंसनीय है; लेकिन मिथ्यात्वरूपी विष से दूषित ज्ञान और चारित्र प्रशंसनीय नहीं हैं। ज्ञान और चारित्र से रहित होने पर भी सम्राट श्रेणिक ने सम्यक्त्व के प्रभाव से अनुपम सुखनिधान के समान मुक्ति का-सा सुख प्राप्त किया। संसारसमुद्र में डूबते हुए के लिए यह नौका के समान है । दुःखरूपी वन को जलाने के लिए दावानल के समान है । अतः सम्यदर्शनरूपी रत्न को इसी लोक में ग्रहण (प्राप्त) करना चाहिए। अब तीसरे चारित्ररत्न का वर्णन करते हैं
सर्व-सावद्य-योगाना, त्यागश्चारित्रमिष्यते । कोतितं तदहिंसादि-वतभेदेन पञ्चधा ॥१८॥
अर्थ समस्त पापयुक्त (सदोष) योगों का त्याग करना चारित्र कहलाता है। यह चारित्र अहिंसा आदि बत के भेद से पांच प्रकार का कहा है।
व्याख्या समस्त सावद्य-सपाप व्यापारों-मन-वचन-काया के योगों का ज्ञान-पूर्वक त्याग करना चारित्र कहलाता है । ज्ञान और श्रद्धा के बिना चारित्र सम्यग्चारित्र नहीं कहलाता। यहां देशविरतिचारित्र से इसकी पृथक्ता बताने के लिए 'सर्व' शब्द का ग्रहण किया गया है। चारित्र के दो भेद किये गए हैंमूलगुण और उत्तरगुण । मूलगुणरूप चारित्र से पंचमहाव्रतों का ग्रहण करना चाहिए । अब चारित्र के पंचमहाव्रतरूप मूलगुणों का वर्णन करते हैं :
अहिंसा-सूनृतास्तेय-रचयापारमाः । पञ्चभिः पञ्चभिर्युक्ता भावनाविरक्तये ॥१९॥