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पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएं
द्रव्य,
क्षेत्र, काल और भावरूप लक्षणों से युक्त विशेष सामग्री होने पर भी जिसका मन तृष्णा-रूपी काले सर्प के उपद्रव से रहित हो, उसी को प्रशम-मुख प्राप्ति होती है और उसी के चित्त में पूर्ण स्थिरता होती है । इसी कारण से धर्मोपकरण रखने वाले साधुओं को शरीर और उपकरणों पर ममता नहीं होने से, अपरिग्रही की कोटि में बताया है। कहा भी है-
"यहत रंग: सत्स्वप्याभरणभूषणेष्वभिषक्तः । सद्वदुपग्रहवानपि न सगमुपयाति निर्ग्रन्थः ॥
जैसे आभूषणों से विभूषित होने पर भी घोड़े को उन आभूषणों पर ममता नही होती, इसी प्रकार धर्मोपकरण के रूप में कुछ वस्तुएं रखने पर भी निर्ग्रन्थ मुनि उन पर ममत्व नहीं रखता । जिस तरह मूर्छा रहित हो कर धर्मोपकरण रखने से मुनि को दोष नहीं लगता, उसी तरह महाव्रतधारिणी रत्नत्रया राधिका, निग्रन्थ साध्वियां भी गुरु के उपदेशानुसार ममत्वभाव से रहित हो कर धर्मोपकरण रखती हैं तो, उन्हें भी परिग्रहत्व का दोप नहीं लगता। इस कारण से निग्रं न्य-साध्वियो के लिए धर्मापकरण परिग्रहरूप हैं और परिग्रह रखने के कारण स्त्रियों को मोक्ष नहीं होता, ऐसा कथन कहने वालों का प्रलापमात्र है ।
अब प्रत्येक महाव्रत की पांच-पांच भावनाओं, (जो मुक्तिप्राप्ति में सहायक हैं) की महिमा बताते हैं
भावनाभिर्भावितानि पञ्चभिः पञ्चभिः क्रमात् ।
माने नोकस्य साधयन्त्यव्ययं पदम् ॥ २५॥
अर्थ
क्रमश: पांच-पांच भावनाओं से वासित (अनुप्राणित) महाव्रतों से कौन अध्य (मोक्ष) पद प्राप्त नहीं कर सकता ? अर्थात् इन महाव्रतों की भावना सहित आराधना करने वाले अवश्यमेव मोक्ष पद प्राप्त करते हैं ।
अब प्रथम महाव्रत की पांच भावनाएं बताते हैं
मनोगुप्त्येषणादानेर्याभिः समितिभिः सदा ।
दृष्टान्न - पानग्रहणेनाहिसां भावयेत् सुधीः ॥ २६॥
अर्थ
मनोगुप्ति, एषणासमिति आदानमांड निक्षेपण समिति, ईर्यासमिति तथा प्रेक्षित ( देखकर) अन्न-जल ग्रहण करना, इन पांचों भावनाओं से बुद्धिमान् साधु को अहिंसावत को पुष्ट करना चाहिए ।
व्याख्या
(१) पहली मनोगुप्तिभावना के लक्षण आगे कहेंगे । (२) जिस आहार- पानी या वस्त्र पात्र आदि के लेने में किसी भी जीव को दुःख न पहुँचे, ऐसा निर्दोष महार आदि लेना एषणासमिति है । (३) पाद, पादपीठ, वस्त्र, पात्र आदि उपकरण लेने रखने में जीव की विराधना न हो, इस प्रकार की