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योगशास्त्र : प्रथम प्रकाश
दाता से लेने पर उसके प्रतिलेखन-प्रमार्जन (पूजन) आदि में असावधानी होने की संभावना रहती है। दाता के मन में उद्विग्नता आने की संभावना रहती है, और स्वयं को भी अदत्त-परिभोग के कारण कर्मबन्ध होता है, यही तीसरी भावना है। (४) जो एक समान धर्म का पालन करते हों या एक ही धर्मपथ के पथिक हों, वे सार्मिक कहलाते हैं। सामिक साधु-वेष से भी सम होते हैं, आचार विचार से भी सम होते हैं, ऐसे साधर्मी साधुओं ने पहले का जो क्षेत्र (स्थान) स्वीकार किया हो; बाद में आने वाले साधुओं को उनसे आज्ञा ले कर रहना चाहिए; नहीं तो उनकी चोरी मानी जाती है। यह चौथी भावना हुई । (५) शास्त्रोक्त विधि-अनुसार दोषरहित अचित्त, एषणीय और कल्पनीय आहार-पानी मिले उसे ही भिक्षारूप में ला कर आलोचना करके गुरु महाराज को निवेदन करे । तत्पश्चात् गुरु की आज्ञा लेकर मंडली में अथवा अकेला आहार करे । उपलक्षण से इसके साथ यह ध्यान रखना चाहिए कि 'जो कुछ औधिक औपग्रहिक भेद वाले उपकरण अर्थात् धर्म-साधनरूप उपकरण हों, उन सभी का उपयोग गुरु की आज्ञा प्राप्त करने के बाद ही करना चाहिए । ऐसा करने से तीसरे महाव्रत का उल्लंघन नहीं होता। इस तरह तीसरे महाव्रत की ये पांच भावनाएं समझनी चाहिए । अब चौथे महाव्रत की पांच भावनाओं का वर्णन करते हैं
स्त्री-पण्ड-पशुम श्मासन यान्तरोज्झनात् । सरागस्त्रोकथात्यागात् प्राग्रतस्मृतिवर्जनात् ॥३०॥ स्त्रीरम्यांगेक्षण-स्वाङ्ग-संस्कारपरिवर्जनात् । प्रणीतात्यशन-त्यागाद् ब्रह्मचर्य तु भावयेत् ॥३१॥ [युग्मम्]
अर्थ ब्रह्मचारी साधक, स्त्री, नपुंसक और पशुओं के रहने के स्थान (तथा उनके बैठे हुए आसन या आसन वाले स्थान) का त्याग करे। इसी प्रकार जहां कामोत्तेजक या रतिसहवास के शब्द सुनाई दें, बीच में केवल एक पर्वा, टट्टी या दीवार हो, ऐसे स्थान में भी न रहे। और राग पैदा करने वाली स्त्री-कथाओं का त्याग करे । पूर्व-अवस्था में अनुभव की हुई रतिक्रोशके स्मरण का त्याग करे। स्त्रियों के मनोहर अंगोपांगों को नहीं देखे। अपने शरीर पर शोभावर्द्धक श्रृंगार-प्रसाधन या सजावट का त्याग करे और अतिस्वादिष्ट तथा प्रमाण से अधिक आहार का त्याग करे । इस प्रकार इन वस ब्रह्मचर्यगुप्तियों के अन्तर्गत पंचभावनाओं द्वारा ब्रह्मचर्य-वत की सुरक्षा करनी चाहिए।
व्याख्या ब्रह्मचारी पुरुष को नारीजाति से, नारी को पुरुषजाति से सावधान रहना अनिवार्य है। संसार में स्त्रीजाति के दो प्रकार हैं :-देव-स्त्री और मनुष्य-स्त्री। ये दोनों सजीव हैं । किन्तु चित्र के रूप में या पुतली के रूप में बनी हुई (काष्ठ या मिट्टी आदि की) स्त्री निर्जीव है। इन दोनों प्रकार की स्त्रियों का संसर्ग कामविकारोत्पादक होता है ; तथैव नपुसक (तीसरे वेद के उदय वाला) महामोहकर्म से युक्त और स्त्री और पुरुष के सेवन में आसक्त होता है। तियंचयोनि वाले गाय, भंस, घोड़ी, गधी, बकरी, भेड़ बादि में भी मैथुनसंज्ञा की संभावना रहती है। इसलिए पहली भावना