________________
मोक्ष-पुरुषार्थ का मूल कारण : योग
अर्थ
जिस मनुष्य के कान 'योग' के ढाई अक्षररूपी शलाका (सलाई) से नहीं बींधे हैं, ऐसे मनुष्य का जन्म पशु की तरह निरर्थक है । ऐसे व्यक्ति का जन्म ही नहीं होना चाहिए था।
आशय चाहे लोहे की सलाई से कान बींधे हों, परन्तु 'योग' के ढाई अक्षर रूपी शलाका से जिसके कान पवित्र नहीं हुए अथवा 'योग' जिसके कान में नहीं पड़ा; वह मनुष्यों में मनुष्य कहलाने योग्य नहीं है। उसका जन्म पशु के समान निष्फल और विडम्बना-रूप है । इससे बेहतर तो यह था कि वह मनुष्यजन्म में ही नहीं आता।
अब फिर आधे श्लोक से योग की स्तुति करके शेप आधे श्लोक स योग का स्वरूप बताते हैं :
चतुर्वर्गेऽग्रणीर्मोक्षो,यागस्तर च कारणम् । ज्ञान-श्रद्धान-चारित्ररूपं रत्नत्रयं च सः ॥१५॥
अर्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-रूप चार पुरुषार्थों में मोक्ष अग्रणी है। और उस मोक्ष की प्राप्ति का कारण योग है । तथा वह योग ज्ञान, श्रद्धा तथा चरित्र रूपो रत्नत्रयरूप है।
व्याख्या धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार वर्गों में मोक्ष प्रधान है। अर्थ के उपार्जन करने में, उसकी रक्षा करने में तथा उसके नाश होने पर दुःख होता है। इसलिए दु:ख के संसर्ग से दूषित होने के कारण चार वर्गों में अर्थ अग्रसर नहीं है। काम तो इन्द्रिय-जनित सुख है, जो क्षणिक और तुच्छ है। वह अर्थ से कुछ अच्छा है, लेकिन अन्त (परिणाम) में महान् दुखदायी है। कामसेवन से मनुष्य की तृप्ति तो होती नहीं, बल्कि काम-सेवन प्रायः दुर्गति का साधन होने से वह भी प्रधान नहीं है। धर्म तो इस लोक और परलोक के सुख का कारणरूप होने से अर्थ और काम दोनों से अधिक श्रेष्ठ है । फिर भी सोने की बेड़ी के समान' पुण्य कर्म बन्धन का कारण है। पुण्य से सुख मिलता है, परन्तु आत्मिक सुख नहीं मिलता। पौद्गलिक सुख तो सांयोगिक-वियोगिक है । कुछ ही अर्से तक रह कर नष्ट हो जाता है । इसलिये धर्म भी मुख्य नहीं है । आत्मिक सुख की परिपूर्णता मोक्ष में है । मोक्ष तो पुण्य पाप के क्षय होने पर होता है। इसलिए अधिक क्लेशकर नहीं। मोक्ष विष-मिश्रित भोजन के समान भोग के समय मनोहर और परिणाम में दुखदायक नहीं है और इस लोक या परलोक के फल की इच्छा के दोष से दूषित भी नहीं है । इस कारण परमानन्दमय मोक्ष इन चारों वर्गों में सर्वश्रेष्ठ है। उसी मोक्ष को प्राप्त कराने का कारण योग है । योग से मोक्ष मिलता है। उस योग का क्या स्वरूप है ? इसके उत्तर में आचार्य भगवान् कहते हैं-वह मोक्ष ज्ञान, श्रद्धा और चारित्र-रूपी रत्नत्रय-स्वरूप है ?
१-धर्मशब्द यहां 'पुण्य' के अर्थ में, लिया गया है ; आत्मा की शुद्धपरिणति या संवर-निर्जरा के अर्थ में नहीं।
-संशोधक