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योगशास्त्र: प्रथम प्रकाश
उपशम श्रेणी और भपकणी । उदय में आए हुए स्थूल कषाय के परिणाम को अन्दर ही अन्दर निवर्तन (उपशान्त) करने वाले साधक का गुणस्थान निवृत्तिबादर कहलाता है। (९) जिसमें प्रयत्नपूर्वक अंदर ही अंदर परिणामों की निवृत्ति (उपशम) न हो, वह अनिवृत्तिबादर नाम का नौवां गुणस्थानक कहलाता है । इसमें दोनों श्रेणियां रहती हैं। (१०) लोभ नामक कषाय जहां सूक्ष्मरूप में रहता हो, वहाँ दशवा सूक्ष्म-सम्पराय-गुणस्थान कहलाता है। इसमें भी दोनों श्रेणियां होती हैं। (११) जहां मोह उपशान्तदशा में रहता हो, सर्वथा क्षीण न हुआ हो, वहाँ उपशान्त-मोह नामक गुणस्थान होता है। (१२) जहाँ मोह सर्वथा क्षीण (निमूल) हो जाय, वहां क्षीणमोह नामक बारहवां गुणस्थान होता है। (१३) आत्मगुणों का घात करने वाले ४ घाती (ज्ञानावरण दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय) कमों का क्षय हो जाय; वहां तेरहवां सयोगी केवली गुणस्थान कहलाता है। (१४) मन-वचन-काया के योग का जहां क्षय हो जाय, वहां अयोगी-केवली नामक चौदहवां गुणस्थानक होता है। इस तरह जीवतत्व का स्वरूप समझना।
अजीव-तस्व धर्मास्तिकाय, अधर्माल्तिकाय, आकाशास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय और काल इन पदार्थों को मोव कहा है। सर्वज्ञों ने इन पांचों के साथ जीव को मिला कर षद्रव्य की प्ररूपणा की है। इनमें से काल को छोड़ कर शेष सभी पदार्थ प्रदेशों के रूप में इकट्ठे होते हैं। इसलिए ये द्रव्य-स्वरूप हैं और जीव के सिवाय शेष द्रव्य चेतना-रहित और अकर्ता-रूप माने गये हैं । काल अस्तिकायरहित है। पुद्गलास्तिकाय को छोड़ कर शेष त्र्य अमूर्तस्वरूप अथवा मरूपी माने जाते हैं । ये सभी द्रव्य उत्पन्न होते हैं; नष्ट होते हैं, और स्थिर रहते हैं। पुद्गल का लक्षण है-जो स्पर्श, रस, गंध और वर्ण वाला हो। पुद्गल के दो प्रकार हैं--- अणुरूप और स्कन्धरूप । इसमें अणु बहुत ही सूक्ष्म होता है, और अनन्त अणुओं के समूह को स्कन्ध कहते हैं । और गन्ध, शब्द, सूक्ष्मता, स्थूलता आदि आकृति वाले तथा अंधकार, आतप उद्योत, खण्ड, छाया, कर्म-वर्गणा, औदारिकादि शरीर, मन, भाषा-वर्गणा, स्वासोच्छ्वास देने वाला, सुख-दुख व जीवन-मृत्यु में सहायता देने वाला पुद्गल स्कन्ध कहलाता है । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, ये तीनों द्रव्य अलग-अलग हैं । तथा ये तीन द्रव्य सदा अमूर्त, निष्क्रिय और स्थिर होते हैं । एक जीवद्रव्य के असंख्यात प्रदेश होते हैं। जितना लोकाकाश का प्रदेश है, उतने में ही धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय होते हैं। इन दोनों में प्रदेश अधिक या कम नहीं होता। जलचर जीवों को जैसे जल में गति करने में पानी सहायता करता है, वैसे ही जीव या अजीव को चारों तरफ गमनागमन की प्रवृत्ति करने में धर्मास्तिकाय सहायता करता है। जैसे पथिक के लिए स्थिर होने में छाया सहायक बनती है, वैसे ही जीव और पुद्गल जो स्वयं स्थिर बनते हैं, उनको जो सहायता दे कर स्थिर करता है वह अधकोस्तिकाय है । अपने स्थान पर रहते हुए स्वयं में प्रतिष्ठित हो कर जो जीवों और पुदगलों को अवकाश (स्थान) देता है, वह आकाशास्तिकाय कहलाता है । वह अनंत -प्रदेश-स्वरूप है, लोक और आलोक दोनों में व्याप्त है। लोकाकाश के प्रदेश में रहे हुए द्रव्यों से भिन्न द्रव्य काल है; जो अण्ड पदार्थों को परिवर्तन करने में समर्थ है. वही काल कहलाता है। जैसे नये को पुराना करना, युवक से वृद्ध बनाना ; यह सब काल का ही काम है । ज्योतिषशास्त्र में समय, पल, विपल, घड़ी, मुहुर्त, प्रहर, दिन, रात, महीना, वर्ष, युग इत्यादि जो समयसूचक शब्द है, इन सबको काल का ही परिमाण कहा है । उस काल के तत्वज्ञों ने उसे व्यवहारिक काल की संज्ञा दी है। नवीन, जीणं आदि के रूप में पुकारे जाने वाले पदार्थ जगत् में