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आहारक नारक की अपेक्षा अनाहारक नैरयिक हीन योग वाला होता है, क्योंकि जो नारकी ऋजुगति से आकर आहारकपने उत्पन्न होता है वह निरन्तर आहारक होने के कारण पद्गलों से उपचित ( बढा) होता है । अतः वह अधिक योग वाला होता है। जो नारकी विग्रहगति से आकर अनाहारकपने उत्पन्न होता है-वह अनाहारक होने से पदगलों का अनुपचित होता है अतः हीन योग वाला होता है ।
द्रव्य वचनयोग और भाव वचनयोग। भाषा वर्गणा के पुदगलों को द्रव्य-वचन योग कहा जाता है और जीव का जो भाषा-प्रवर्तक प्रयत्न होता है वह भाव-वचनयोग कहलाता है।
३-काययोग-काय-शरीर की प्रवृत्ति के लिए जो शरीर वर्गणा के पुदगल ग्रहण किये जाते है वे है-द्रव्यकाय योग और उन पुद्गलों की सहायता से जो जीव की प्रवृत्ति होती है वह है-भावकाय योग ।
कार्मणकाय योगी जीव आयुध्य कर्म का बंधन नही करता है, कदाचित केवल साता वेदनीय कर्म का बंधन करना है। उसके उत्कृष्ट सात कर्म का बंधन हो सकता है। तेजोलेशी असंशी जीव सयोगी होते हुए भी आयुष्य कम का बंधन नहीं करते है। तथा सम्यक्त्वी असंशी जीव भी सयोगी होते हुए भी आयुष्य का बंधन नहीं करते है।
योग के पन्द्रह भेद इस प्रकार बनते हैं - १-मनोयोग के चार भेद
(१) सत्य मनोयोग, (२) असत्य मनोयोग, (३) मिश्र मनोयोग और (४) व्यवहार मनोयोग। २-वचनयोग के चार भेद
(५) सत्यवचन योग, (६) असत्यवचन योग, (७) मिश्रषचन योग और (८) व्यवहार वचनयोग। ३-काययोग के सात भेद
(e) औदारिक काययोग, (१०) औदारिक मिश्रकाय योग, (११) वैक्रिय काय योग, (१२) वैक्रिय मिश्रकाय योग, (१३) आहारक काययोग, (१४) आहारक मिभकाय योग और (१५) कामण काययोग।
जिस प्रकार योग, ध्यान आदि के साथ लेश्या के विवेचन मिलते हैं उसी प्रकार द्रव्य लेश्या के साथ द्रव्यमन, द्रव्यवचन, द्रव्यकषाय आदि का तुलनात्मक मूल पाठ-आगम पाठ या टीकाकारोंका कथन अनेक स्थल पर है । लेश्या और योग का अविनामाव सम्बन्ध है। प्राचीन आचार्यों ने “योगपरिणामो लेश्या" अर्थात लेश्या-योग परिणाम-कहा
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