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१.३ परिणाम विशेष को भाव कहते है। यह मनोयोग से संबंधित परिणाम है। अध्यवसाय, लेश्या व योग के समुचित रूप को ही भाव कहते हैं। भाव, शुभ-अशुभ दोनों होते है। व्यवहार में मोक्ष के चार मार्गों में भाव का भी उल्लेख है। यही वह परिणाम विशेष भाव है । भाव शुभ-अशुभ दोनों होते हैं।
अमनस्क जीवों की क्रिया भाव शुन्य होती है। उन जीवों में अध्यवसाय तो होता है किन्तु मनोयोग न होने से जो भी क्रिया होती है उसमें भावों का अभाव रहता है।
माता मरुदेवा प्रथम गुणस्थान से चौथे, सातवें, फिर श्रेणी चढते हुए तेरहवें गुणस्थान में सर्वश बनी, तत्क्षण योग निरुद्ध कर सिद्ध, बुद्ध व मुक्त बनीं।
जीव की अवस्था रूप भाव-औदायिक आदि पाँच भाव है। जीव के उदय निष्पन्न के तेतीस प्रकार है
चार गति, छह काय, छह लेश्या, चार कषाय, तीन वेद, मिथ्यात्व, अविरति, अमनस्कता, अशानित्व, आहारता, सयोगिता, संसारता, असिद्धता, अकेवलित्व, छदमस्थता ।
जीवाभित पारिणामिक के दस भेद है---गति, कषाय, योग, ज्ञान, चारित्र, इन्द्रिय, लेश्या, उपयोग, दर्शन व वेद ।
___ कुछ उदय जन्य प्रकार क्षयोपशमिक भाव के साहचर्य से निरवद्य माने गये है। जैसे-तीन शुभ लेश्या ( शुभयोग भी)।
देवायु के बंध के चार कारणों में एक कारण अकाम निर्जरा है। यह निर्जरा भी शुभयोग या शुभलेश्या या शुभ अध्यवसाय के बिना नहीं होती है ।
करण की उत्तर प्रकृतियाँ ५५ है-५ द्रव्य, ५ शरीर, ५, इन्द्रिय, ४ मनोयोग, ४ वचनयोग, ४ कषाय, ६ लेश्या, ४ संज्ञा, ३ रष्टि, ७ समुद्घात, ३ वेद, ५ आस्रव= कुल ५५।
शुभ प्रवृत्ति के समय अशुभ व अशुभ प्रवृत्ति के समय शुभ कर्म का बंध नहीं होता । एक समय में एक का ही बंध होता है। यह योग से संबंधित है।
कर्म बंध के दो प्रकार है(१) सांपरायिक बंध और (२) ईयापथिक बंध ।
जो सकषायी है उनके सांपरायिक क्रिया से बंध होता है। कषाय और योग की चंचलता सांपरायिक क्रिया का मुख्य हेतु है। दसवे गुणस्थान तक कषाय की विद्यमानता से इस क्रिया में बंध होता है । ईयोपथिक का अर्थ है-योग। जहाँ मात्र योग की चंच
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