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योग आत्मा - आत्मा के आठ भेदों में एक योग आत्मा भी है। योग आत्मा - भाव आत्मा है । आत्मा के गुण और क्रियाओं को भाव आत्मा कहते हैं। योग की प्रवृत्ति पहले से तेरहवें गुणस्थान तक है अतः योग आत्मा पहले से तेरहवें गुणस्थान तक है ।
अध्यवसाय - चेतना की भावधारा का नाम है। चेतना की प्रारंभिक हलचल की पर्याय ही अध्यवसाय है । वह अव्यक्त रूप से होती है। योग चेतना की स्थूल हलचल है और अध्यवसाय आंतरिक है
लेश्या के दो प्रकार है - द्रव्यलेश्या और भावलेश्या । द्रव्यलेश्या पौद्गलिक है, अतः अजीव है । भावलेश्या योग के पूर्व की भावधारा है । तेरहवें गुणस्थान में एक ऐसी अवस्था भी बनती है कि लेश्याजनित कर्मबंध नहीं है परन्तु योग जनित कर्म बंध है । ' लेश्या की तरह योग भी जीव-अजीव दोनों है ।
द्रव्यलेश्या के पुद्गल द्रव्ययोग के—काययोग के अंतर्गत होते हैं । चूंकि मनोयोग व वचनयोग के पुद्गल चतुःस्पर्शी है, काययोग के पुद्गल अष्टस्पर्शी है । छओं लेश्या के पुद्गल अष्टस्पर्शी होते हैं - ऐसा भगवती सूत्र में कहा गया है। ध्यान योग बिना भी होता है चूंकि चौदहवें गुणस्थान में ध्यान है परन्तु योग नहीं है । जब तेरहवें गुणस्थान में ध्यान होता है वहाँ सिर्फ काययोग है लेकिन मयोयोग व वचन योग नहीं है 1
जहाँ योग है वहाँ लेश्या नियम से है, जहाँ लेश्या है वहाँ योग नियम से है। योग और लेश्या में क्या फर्क है इसका पूरा निर्णय सर्वज्ञ ही दे सकते हैं ।'
अशुभयोग छह गुणस्थान से आगे नहीं होता है तथा शुभयोग तेरहवें गुणस्थान में भी है। छठे गुणस्थान को प्रमत्त संयत गुणस्थान कहा है। भगवती में अशुभ योग की अपेक्षा प्रमत्त संपत को आरम्भी कहा है परन्तु अनारंभी नहीं । यद्यपि शुभयोग की अपेक्षा प्रमत्त संयत को अनारम्भी कहा है, आरम्भी नहीं ।
देशविरत, प्रमत्त संयत तथा अप्रमत्त संयत के अशुभ योग अशुभ लेश्या में आयुष्य का बंधन नहीं होता । मनुष्य तथा तिर्यंच पंचेन्द्रिय के चतुर्थं गुणस्थान में अशुभ योगअशुभ लेश्या में आयुष्य का बंधन नहीं होता परन्तु देव नारकी के चतुर्थं गुणस्थान में अशुभ लेश्या में आयुष्य का बंधन हो सकता है ।
जातिस्मरणज्ञान, विभंगज्ञान, अवधिज्ञान की उत्पत्ति के समय में शुभलेश्या - शुभयोग होता है । परन्तु अशुभलेश्या अशुभयोग नहीं । सम्यक्त्व के प्राप्ति के समय शुभयोग तथा शुभलेश्या होती है। अशुभयोग अशुभ लेश्या में सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती है ।
१- भग० श २६
२ फीणी चर्चा
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