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भिरपि भयसंचादिभिस्तिसृभिः पञ्च पञ्च शतानि स्युः सर्वमीलने च सहस्र. द्वयं स्यात्, यतश्चतस्त्रः संज्ञा इति, एतत्सहस्रद्वितयं मनोयोगेन लब्धं x x x |
पृथ्वीकाय, अप्काय आदि १० के आरम्भ में श्रोत्रे न्द्रिय की अपेक्षा से प्रत्येक में दस भेद होते हैं, जो आहार संज्ञायोग से प्राप्त होते हैं । .०४९ आहारसमितिजोगेणं (आहारसमितियोग)
- पहा• अ६।। १ सू २०1पृ० ६८८ साधु का आहार में संयम रूप व्यापार ।
चउत्थं आहारएसणाए सुद्ध उछ xxx आहार समितिजोगेणं भाविओ भवति अप्पा, xxx अहिंसए संजए सुसाहू।
टीका-प्राणधारणार्थतया-जीवितव्यरक्षणायेत्यर्थः, संयतेन-साधुना समितं यतनापूर्वकं एवममुना प्रकारेण आहारसमितियोगेन भाषितो भवति अन्तरात्मा। . आत्मा को भावित करने में एक कारण भूत, साधु का शुद्ध तथा अल्प मात्रा में ग्रहण करने में यत्नवान रहना-आहार-समिति-योग। .०५० इत्थीकहविरतिसमितिजोगेण (स्त्रीकथाविरतिसमितियोग)
-पण्हा अहाद्वा ४/सू पृ. ७०१ स्त्री सम्बन्धी कथा के प्रति विरति रूप संयम का होना ।
मूल-वितियं-नारीजणस्स मज्झे न कहेयब्धा कहा-xxx एवं इत्थीकहविरतिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा, xxx जितें दिए बंभचेरगुत्ते।
टीका-xxx स्त्री-सम्बधिनीः कथाः x x x तपःसंयमब्रह्मचर्योपघातिनीः न कथाः कथयितव्याः। xxx एवं स्त्रीकथाविरतिः एषममुना प्रकारेण स्त्रीकथाविरतिसमितियोगेन भावितो-वासितो भवति अन्तरामाजीषः।
__आत्मा को भावित करने में बाधक, संयम और ब्रह्म वर्य के उपघातक स्त्री-सम्बन्धी कथा 'द के प्रति विराग धारण कर संयम में दृढ़ रहना--स्त्रो कथा विर तिममितियोग। .८५॥ इत्यीरूवविरतिलमितिजोगेण ( स्त्रारूपवितिसमितियोग)
-पण्हा. अहाज सूहापृ० ७.२ स्त्री रूप-सौन्दर्य के प्रति विराग रूप संयम का पालन ।
मूल-ततियं-नारीण हसिय-भणिय-चेटिय x xx अणुचरमाणेणं बंभचेरं न चपखुसा न मणसा न पयसा णत्थेयवाई पावकम्माई। एवं इत्थी
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