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०२ औधिक नारकी में
(क) आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीप णेरइयाणं भण्णमाणे अस्थि Xxx एगारह जोग x x x | संपहि णेरइय-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि xxx एगारह जोग XX X | सासगसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि x x x णव जोग x x x | सम्मामिच्छाइठ्ठीणं भण्णमणे अस्थि x x x णव जोग XXX | असंजद-सम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि x x x एगारह जोग x x x | - षट्० खं १, १ | टीका । पृ २ पृ० ४४८-५४
(ख) से किं तं नेरइया १ २ सत्तबिहा पण्णत्ता, तं जहा - रयणप्पभापुढविनेरइया जाव अहेलत्तमपुढविनेरइया, ते समासओ दुबिहा पण्णत्ता, तंजहापज्जन्ता य अपजन्ता य । तेसि णं भंते ! जीवाणं x x x तिविधे जोगे x x x | - जीवा० प्रति १ | सू ३२ | पृ० ३३
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(ग) तिवि जोगे पण्णत्ते, तं जहा - मणजोगे, वइजोगे, काययोगे । एवं णेरइयाणं × × × ⁄
-ठाणा स्था ३ । उ १ । सू १३ । पृ० ५४१
(घ) णेरइयाणं भंते ! कतिविहे पओगे पण्णत्ते १ गोयमा ! एक्कारस विहे पओगे पण्णत्ते । तं जहा - सच्चमणप्पओगे १ जाव असच्चामोसवइप्पओगे ८ asव्वियसरीरकायप्पओगे ९ वेउब्वियमीससरीरका यप्पओगे १० कम्मासरीरकायओगे ११ । पण्ण० प १६ । सू १०७० । पृ० २६१
औधिक नारकियों में चार मन के, चार वचन के, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र और कार्मण काययोग -- ये ग्यारह योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि औधिक नारकियों ग्यारह योग | सासादनसम्यग्दृष्टि औधिक नारकियों में वैक्रियमिश्र और कार्मणकाय के बिना नौ योग । सम्यग्मिथ्यादृष्टि औधिक नारकियों में नौ योग । असंयतसम्यग्दृष्टि औधिक नारकियों में ग्यारह योग होते हैं ।
नारकी सात प्रकार के होते हैं - रत्नप्रभा ( प्रथम पृथ्वी, द्वितीय पृथ्वी, तृतीय पृथ्वी, चतुर्थ पृथ्वी, पंचम पृथ्वी, षष्ठम पृथ्वी ) यावत् अधः, सप्तम पृथ्वी । वे समासतः दो प्रकार के होते हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त । इन नारकी जीवों में तीन योग होते हैं, यथामनोयोग, वचनयोग और काययोग ।
नारकियों में ग्यारह प्रयोग अर्थात् प्रकर्ष रूप से युज्यमान योग होते हैं । मन के, चार वचन के, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र और कार्मण शरीर काय प्रयोग ।
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(च) इसी से णं भंते ! रयणप्पमाए जाव नेरइया किं मणजोगी ? योगी ? कायजोगी
यथा चार
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