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( २१८ ) इसी प्रकार अवधिज्ञानी के विषय में जानना चाहिए। ( मतिज्ञानी-श्रतज्ञानी की तरह)। .७२ मनःपर्ययज्ञानी में
मणपज्जवणाणीणं भण्णमाणे xxx आहारदुगेण विणा णव जोग xxx। मणपज्जवणाण पमत्तसंजदप्पहुडि जाव खीणकसाओ त्ति ताप मूलोघ-भंगो।
-षट ० खं १, १ । २ । पृ० ७२७-२६ मनःपर्ययज्ञानी में आहारक-आहारकमिश्र काययोग के बिना नौ योग होते हैं। मनःपर्ययज्ञानी प्रमत्तसंयत से क्षीणकषायी गुणस्थान में मूलौधिक की तरह नौ योग जानना चाहिए। ( मनःपर्ययज्ञानी अप्रमत्तसंयत में नवयोग, मनःपर्ययज्ञानी अप्रमत्तसंयत से क्षीणमोहनीय गुणस्थान में नौ योग होते हैं ( सत्यमनोयोग, व्यवहारमनोयोग, असत्य मनोयोग, मिश्र मनोयोग, सत्यवचनयोग, व्यवहार वचनयोग, असत्य वचनयोग, मिश्र वचनयोग,
औदारिक काययोग)। .७३ केवलज्ञानी में
केवलणाणाणं भण्णमाणे xxx सत्त जोग अजोगो वि अस्थि xxx। सजोगि-अजोगि-सिद्धाणमालाषा मूलोघोब्ध बत्तव्वा ।
-षट० खं १, १ । पु २ । पृ० ७२६-३० केबलज्ञानी में सातयोग होते है, अयोगी भी होते है ।
सयोगी केवली में सात योग, अयोगी व सिद्ध में योग नहीं है। .७४ चक्षुदर्शनी में
बक्खुदंसणीणं भण्णमाणे X X X पण्णारह जोग xxx| तेसिं चेव पज्जत्ताणं xxx एगारह जोग xxx| तेसि चेव अपज्जत्ताणं xxx चत्तारि जोगxxx|चक्खुदंसण मिच्छाइट्ठीणंxxx तेरह जोगxxx। तेसिं चेव पज्जत्ताणं xxx दस जोग xxX । तेसिं चेव अपज्जत्ताणं xxx तिणि जोग xxx| चक्खुदंसण-सासणसम्माइट्ठिप्पहुडि जाव खीणकसाओ त्ति मूलोघ-भंगो।
-षद्० खं १, १ । पु २ | पृ०७३८-४३ चक्षुदर्शनी में पन्द्रह योग होते है। इनके पर्याप्त में ग्यारह योग (औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रियमिश्र काययोग, आहारक मिश्र काययोग कार्मणकाययोग को छोड़कर )। . चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि में तेरह योग। इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते हैं।
चक्षुदर्शनी सास्वादान सम्यग्दृष्टि यावत क्षीणमोहनीय गुणस्थान में मूलओधिक की तरह जानना चाहिए।
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