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आहारक काययोग का एक समय मात्र अन्तर प्राप्त नहीं होने का कारण यह है कि बाहारक काययोग का व्याघात नहीं हो सकता है।
___ इसी प्रकार आहारकमिश्र का प्रयोग का भी अन्तर समझना चाहिए । विशेषता यह है कि आहारक शरीर को उत्पन्न करके सबसे कम काल में पुनः आहारक शरीर को उठाने के प्रधम समय में अन्तर की समाप्ति कर देनी चाहिए।
.... आहारक काययोगी और आहारक मिश्र काययोगी जीवों का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्ध पुद्गल परिवर्तन रूप है; क्योंकि, एक अनादि मिथ्यादष्टि जीव अर्ध पुदगलपरिवर्तन रूप संसार शेष रहने के आदि समय में उपशम-सम्यक्त्व और संयम दोनों को एक साथ ग्रहण कर, उसमें अन्तर्मुहूर्त रहकर (१) अप्रमत्त होकर (२) आहारक शरीर का बन्ध करके (३) प्रतिभग्न अर्थात् अप्रमत्त से च्युत हो प्रमत्त होकर (४) आहारक शरीर को उत्पन्न करके अन्तम हुतं रहा (५) और आहारक काययोगी होकर उसका प्रारम्भ करके एक समय रहकर मर गया। इस प्रकार आहारक काययोग का अन्तर प्रारम्भ हुआ। पश्चात वही जीव उपार्धपुदगल-परिवर्तन भूमण करके संसार के अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहने पर अन्तरकाल समाप्त कर अर्थात् पुनः आहारक शरीर उत्पन्न कर (६) अन्तमहूर्त रहकर (७) अबन्धक भाव को प्राप्त हो गया। ऐसे जीव के यथाक्रम आठ या सात अर्थात आहारक काययोग का आठ और आहारकमिश्र काययोग का सात अन्तर्मुहूर्त कम अर्धपुद्गल परिवर्तन मात्र अन्तरकाल प्राप्त होता है । .०९ कार्मणकाययोगी का एक जीब की अपेक्षा अंतर कम्मइयकायजोगीणमंतर केवचिरं कालादो होदि १
__ -षट् • खं० २ । ३ । सू ७८ । पु ७ । पृ० २१२ टीका-सुगमं। जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं ।
षट० खं० २ । ३ । सू ७७ । पृ ७ । पृ० २१२ टीका-तिण्णि विग्गहे काऊण खुद्दाभवग्गहणम्मि उप्पजिय पुणो विग्गह काऊण णिग्गयस्स तिसमऊणखुद्दाभवग्गहणमेत्ततरुवलंभादो।
उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेजदिभागो-असंखेजासंखेजाओ ओसप्पिणिउस्सप्पिणीओ।
-षट् • खं० २ । ३ । सू ७६ । पृ ७ । पृ. २१२ टीका-कुदो १ कम्मइयकायजोगादो ओरालियमिस्सं वेउब्धियमिस्सं गंतूण असंखेजासंखेज मोसप्पिणी-उस्लप्पिणीपमाणमंगुलस्स असंखेजविभागमेत्तकालमच्छिय विग्गहं गदस्स तदुवलंमादो ।
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