Book Title: Yoga kosha Part 1
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग कोश (प्रथम खण्ड) CYCLOPAEDIA OF YOGA जैन दशमलव वर्गीकरण संख्या ०४०५ सम्पादक श्रीचन्द चोरडिया, न्यायतीर्थ (द्वय) २६-सी जेन दर्शन समिति प्रकाशक: जैन दर्शन समिति १६-सी डोवर लेन, कलकत्ता-७०००२६ सन् १९९३ Main Education International , Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थापक-स्व० मोहनलाल बाँठिया योग कोश (प्रथम खण्ड ) CYCLOPAEDIA OF YOGA जैन दशमलव वर्गीकरण संख्या ०४०५ सम्पादक : श्रीचन्द चोरड़िया, न्यायतीर्थ (द्वय) प्रकाशक: जैन दर्शन समिति १६-सी डोवर लेन, कलकत्ता-७०००२६ सन् १९६३ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम विषय कोश ग्रन्थमाला छट्टा पुष्प योग कोश : जैन दशमलव वर्गीकरण संख्या-- ०४०५ अर्थ सहायक : श्रीमती झमकु देवी भन्साली मेमोरियल इष्ट, कलकत्ता मारफत-श्री फतेहचन्द चैनरूप भन्साली तथा अन्य गण प्रथम आवृत्ति-५०. मूल्य-भारत में रु० १००/ विदेश में Sh १५०/ मुद्रक : भागचन्द सुराना सुराना प्रिन्टिग वर्क्स २०५, रवीन्द्र सरणी, कलकत्ता-७.०००७ दूरभाष : २३६-४३६३ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स म र्प ण जिन्होंने अपने आपको एक साहित्यकार, लेखिका, कवयित्री, नई दिशाओं में कुछ नया करने वाली एक चेतनाशील नारी (साध्वी) के रूप में प्रतिष्ठित किया है । उस श्रद्धा, सेवा, समर्पण साधना संसृति की जीवन्त प्रेरणामहानिदेशिका, महाश्रमणी साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभाजी को प्रस्तुत योग कोश सादर सभक्ति समर्पित करता हूँ । -श्रीचन्द चोरड़िया Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकलन-सम्पादन में प्रयुक्त ग्रंथों की संकेत-सूची अणुत्त०-अणुत्तरोववाइयदसाओ अणुओ०-अणुओगद्दाराई अंगु.---अंगुत्तरनिकाय अंत-अंतगडदसाओ अभिधा-अभिधान राजेन्द्र कोश आया०-आयारो आव०-आवस्सयं उत्त-उत्तरज्मयाणी उवा०-उवासगदसाओ ओव०-ओवाइयं ओघ--ओघनियुक्ति कप्पव.-कप्पवडिंसियाओ कप्पसु०-कप्पसुत्तं कप्पि-कप्पो कर्म-कर्मग्रन्थ गोक-गोम्मटसार कर्मकांड गोजी.-गोम्मटसार जीवकांड चंद-चंदपण्णत्ती जंबु०-जंबुदीवपण्णत्ती जीवा-जीवाजीवाभिगमे ठाण.-ठाणं तत्त्व-तत्त्वार्थ सूत्र तत्त्वराज.-तत्त्वार्थ राजवार्तिक तत्त्वश्लो०-तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकार तत्त्व सर्व-तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि तत्त्व सिद्ध०--तत्त्वार्थ सिद्धसे नटीका दसवे.-दसवेआलियं दसामु०-दसासु नंदी.-नंदी णाया०-णायाधम्मकहाओ निर०-निरयावलियाओ निसी-निसीहज्झयणं पण्ण-पण्णवणा पण्हा-पण्हावागराणं पाइअ०-पाइअ सद्द महाण्णवो पूचू०-पूप्फचुलियाओ पुप्फि०-पुफियाओ बिह-विहकप्पसुत्तं भग -भगवई महा०-महाभारत राय-रायपसेणियं वव०-ववहारो वहि०-वहिदसाओ विवा•-विवागसूर्य सम-समवाओ सूय.--सूयगडो सूर-सूरपण्णत्ती हेम० - सिद्धहेम शब्दानुशासनम् सिद्ध० -सिद्धहेम शब्दानुशासनम् योगस-योग समुच्चय करणप्रवसा०-प्रवचनसारोद्धार षट - षट खंडागम पउम•-पउमचरिय ध्याश•-ध्यानशतक वीरजि०-वीरजिणिंदचरिउ धर्मो०- धर्मोपदेशमाला वृ० ह. (वृह०)- वृहदहारिभद्रीय टीका विशेभा० - विशेषावश्यक भाष्य णमोकार महामंत्र पंच श्वे.-पंचसंग्रह (श्वेताम्बर) योगसा~योगसार. झीणीचर्चा कम्म-कर्मप्रकृति जैनसिदी०-जैन सिद्धांत दीपिका Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत० वृ० भा० - शतक वृहद् भाष्य योगश० - योग शतक योगबिन्दु - योगबिन्दु वीरवर्ध च० - वीर वर्धमान चरितम् 0 त्रिशलाका अभिधान चितामणि संस्कृत कोष क्रियाकोश ( 5 ) ·1 - त्रिशष्टि शलाका पुरुष चरित्र - दर्शनसार पुदुको० १-! - पुद्गल कोश, भाग १ पुदुको० २ - पुद्गल कोश, भाग २ परिको ० - परिभाषा कोश 11 . व को ० - वर्धमान जीवन कोश लेको ० - लेश्या कोश 0 लेश्याको ० - संयुक्त लेश्याकोश (दिगम्बर सोर्स) वड, ढच० - वड्ढमाणचरिउ अयोग० - अयोग व्यवच्छेदिका कसापा०—कसायपाहुड' -न्यायावतार अणुओ० हारि० - आवश्यकहारीभद्रीय वृत्ति • ज्ञानसार -समयसार Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन वाङ्मय का दशमलव वर्गीकरण मूल विभागों की रूपरेखा जे० द०व०सं० (हमारे अंकन) यू.डी०सी० के अंकन • जैन दार्शनिक पृष्ठभूमि ०१ लोकालोक ५२३.१ ०२ द्रव्य -- उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य ०३ जीव २०८ सी०एफ० ५७७ ०४ जीव परिणाम ०५ अजीव-यरूपी ०६ बजीव-रूपी-पुद्गल ११७ सौ०एफ० ५३६ ०७ पुद्गल परिणाम ०८ समय-व्यवहार-समय ११५ सी०एफ० ५२६ ०६ विशिष्ट सिद्धान्त .१ जैन दर्शन ११ आत्मवाद १२ कर्मवाद-आस्रव-बंध, पुण्य-पाप १३ क्रियावाद-संवर, निर्जरा, मोक्ष १४ जेनेतरवाद १५ मनोविज्ञान १६ न्याय-प्रमाण १७ आचार-संहिता १८ स्याद्वाद-नयवाद-अनेकान्तवादादि १६ विविध दार्शनिक सिद्धान्त .२ धर्म २१ जैन धर्म की प्रकृति २२ जैन धर्म के ग्रन्थ २३ आध्यात्मिक मतवाद २४ धार्मिक जीवन २५ साधु-साध्वी, यति, भट्टारक, क्षुल्लकादि २६ चतुर्विध संघ २७ जैन धर्म का साम्प्रदायिक इतिहास २८ सम्प्रदाय २६ जेनेतर धम : तुलनात्मक धर्म .३ समाज विज्ञान ३१ समाजिक संस्थान Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ राजनीति ३३ अर्थशास्त्र ३४ नियम - विधि कानून न्याय ३५ शासन ३६ सामाजिक उन्नयन ३७ शिक्षा ३८ व्यापार-व्यवसाय-यातायात ३६ रीति-रिवाज, लोक-कथा .४ भाषा विज्ञान - भाषा ४१ साधारण तथ्य ४२ प्राकृत भाषा ४३ संस्कृत भाषा ४४ अपभ्रंश भाषा ४५ दक्षिणी भाषाएँ (7) ४६ हिन्दी ४७ गुजराती - राजस्थानी ४८ महाराष्ट्री ४६ अन्य देशी-विदेशी भाषाएँ ५ विज्ञान ५२ गणित ५.२ खगोल ५३ भौतिकी - यांत्रिकी ५४ रसायन ५२ भूगर्भ विज्ञान ५६ पुराजीव विज्ञान ५७ जीव विज्ञान ५८ वनस्पति विज्ञान ५६ पशु विज्ञान ६ प्रयुक्त विज्ञान ६१ चिकित्सा ६२ यांत्रिक शिल्प ६३ कृषि विज्ञान ६४ गृह विज्ञान ६५ ६६ रसायन शिल्प ६७ हस्तशिल्प या अन्यथा ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३६ ४ ४१ ४६१.३ ४६१.२ ४६१.३ ४६४.८ ४६१-४३ ४६१.४ ४६१-४६ ૪૯ × ५. ५१ ५२ ५३ ५४ ५५ ५६ ५७ 2 w w w w w & | w w ५८ ५६ ६० ६१ ६२ ६३ ६४ ६६ ६७ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8 ) ६८ विशिष्ट शिल्प ६६ वास्तु शिल्प ७ कला-मनोरंजन-क्रीड़ा ७१ नगरादि निर्माण कला ७२ स्थापत्य कला ७३ मूर्तिकला ७४ रेखांकन ७५ चित्रकारी ७६ उत्कीर्णन ७७ प्रतिलिपि-लेखनकला ७८ संगीत ७६ मनोरंजन के साधन ८ साहित्य ८१ छंद-अलंकार-रस ८२ प्राकृत साहित्य ८३ संस्कृत जैन साहित्य ८४ अपभ्रंश जैन साहित्य ८५ दक्षिणी भाषा में जैन साहित्य ८६ हिन्दी भाषा में जैन साहित्य ८७ गुजराती-राजस्थानी भाषा में जैन साहित्य ८८ महाराष्ट्री भाषा में जैन साहित्य ८६ अन्य भाषाओं में जैन साहित्य ६ भूगोल-जीवनी-इतिहास ६१ भूगोल ६२ जीवनी ६३ इतिहास ६४ मध्य भारत का जैन इतिहास ६५. दक्षिण भारत का जैन इतिहास ६६ उत्तर और पूर्व भारत का जैन इतिहास १७ गुजरात-राजस्थान का जैन इतिहास ६८ महाराष्ट्र का जेन इतिहास ६६ अन्य कोश व वैदेशिक जैन इतिहास Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०४०० सामान्य विवेचन ०४०१ गति ०४०२ इन्द्रिय ०४०३ कषाय ०४०४ लेश्या ०४०५ योग ०४०६ उपयोग ०४०७ ज्ञान ०४०८ दर्शन ०४०६ चारित्र .०४ जीव परिणाम का वर्गीकरण •४१० वेद ०४११ शरीर ०४१२ अवगाहना ०४१३ पर्याप्त ०४१४ प्राण ०४१५ आहार ०४१६ योनि ०४१७ गर्भ ०४१८ जन्म - उत्पत्ति- उत्पाद ०४१६ स्थिति ०४२० मरण- च्यवन - उद्वर्तन ०४२१ वीर्य ०४२२ लब्धि ०४२३ करण • ४२४ भाव ०४२५ अध्यवसाय ०४२६ परिणाम ०४२७ ध्यान ०४२५ संख्या ०४२६ मिथ्यात्व ०४३० सम्यक्त्व ०४३१ वेदना ०४३२ सुख ०४३३ दुःख ०४३४ अधिकरण ०४३५ प्रमाद ०४३६ ऋद्धि ०४३७ अगुरुलघु ०४३८ प्रतिघातित्व ०४३६ पर्याय ०४४० रूपत्व-अरूपत्व ०४४१ उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य ०४४२ अस्ति नास्ति - अवस्थितत्व ०४४३ शाश्वतत्व' ०४४४ परिस्पन्दन ०४४५ संसार - संस्थान- काल ०४४६ संसारस्थतत्व- असिद्धत्व • ४४७ भव्या भव्यत्व ०४४८ परित्वापरत्त्व ०४४६ प्रथमा प्रथम ०४५० चरमान्तरम ०४५१ पाक्षिक ०४५२ आराधना- विराधना Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द स्वर्गीय श्री मोहनलाजी बॉठिया तथा श्रीचन्दजी चोरडिया ने जैनागम एवं वाङ्मय के तलस्पशी गम्भीर अध्ययन कर आधुनिक दशमलव प्रणाली के आधार पर अलग-अलग अनेक विषयों पर कोश प्रकाशित करने की परिकल्पना की ओर उसको मूर्त रूप देने के लिए जैन दर्शन समिति की स्थापना महावीर जयन्ती के दिन सन् १६६६ के दिन की गई। कलकत्ता युनिवर्सिटी के भाषा विज्ञान के प्राध्यापक डा. सत्यरंजन बनीं का स्व० मोहनलालजी बॉठिया के साथ घर पर १६६० में प्रथम परिचय हुआ । उस समय भारत के विभिन्न नगरों लाडD आदि में जैन दर्शन परिषद होती थी। प्रोग्राम सत्यरंजन बनर्जी के साथ मिलजुलकर बनाया करते थे। कालान्तर-तत्पश्चात् सन् १९६६ के महावीर जयंती के अवसर पर डा. बनर्जी व श्रीचन्द चोरडिया के परामर्शसे जैन दर्शन समिति की स्थापना की। जिसकी फल परिणति विभिन्न कोश परिणति है । यह संस्था स्व० मोहनलाल जी बाँठिया एवं श्रीचन्द चोरडिया द्वारा निर्मित विषयों पर कोश प्रकाशन का कार्य कर रही है। इसके द्वारा निम्नलिखित कोश प्रकाशित है जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है : (१) लेश्या कोश-प्रथम पुष्प-लेश्या अध्यवसाय का बेरोमेटर है। इस कोश में छओं लेश्यों का विस्तृत विवेचन है। इन लेश्याओं का आगम ग्रन्थों में अनेक स्थल पर उल्लेख है । उसका संकलन हुआ है। Cyclopaedia of Leshya के रूप में इस ग्रन्थ का प्रकाशन हुआ है। जिससे कि लेश्या विषय पर अनुसंधान करने वालों को व दर्शन शास्त्र में रुची रखने वालों को एक ही स्थान पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध हो सकेगी। एक अमेरिकन विद्यार्थी ने लिखा है कि हमने आपके द्वारा प्रकाशित लेश्या कोश पर शोध कार्य कर रहे हैं। (२) क्रिया कोश-द्वितीय पुष्प -- इसी प्रकार क्रिया कोश में आरम्भिकी आदि पच्चीस क्रियाओं का विस्तृत विवेचन है । क्रिया का एक रूप पुण्य-पाप का बंधन है और उसका दूसरा रूप कर्मबंधन से छुटकारा पाना है। क्रिया कोश में आगम तथा ग्रन्थों के आधार पर विस्तृत विवेचन है। (३) मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास-तृतीय पुष्प-मिथ्यात्वी प्राणी का सद् आचरण श्रेष्ठ नहीं माना जाय तो उसका आध्यात्मिक विकास कैसे हो सकता है। श्रीचन्द्रजी चोरड़िया ने लगभग दो सो ग्रन्थों का गम्भीर अध्ययन एवं आलोडन करके शास्त्रीय रूप में अपने विषय को प्रस्तुत किया है। अतः पंडित दहसुखभाई मालबणिया के शब्दों में यह ग्रन्थ लेश्या कोश तथा क्रिया कोश की कोटिका ही है। (४) वर्धमान जीवन कोश-प्रथम खंड-चतुर्थं पुष्प-प्रस्तुत ग्रन्थ जैन दर्शन समिति की कोश परम्परा की कड़ी में एक महत्व पूर्ण सन्दर्भ ग्रन्थ है। वर्धमान जीवन कोश यह Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 11 ) प्रथम भाग स्व० मोहनलाल जी बाँठिया द्वारा संकलित एवं तैयार सामग्री का व्यवस्थित सम्पादित रूप है । बाँठिया जी इस काम को अधूरा छोड़कर स्वर्गवासी ( ई० २३-६-७६ ) हो गये ? किन्तु श्रीचन्दजी चोरड़िया ने अत्यन्त परिश्रम करके इसे तैयार किया है । इसमें भगवान् महावीर के च्यवन, गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान तथा परिनिर्वाण आदि का विस्तृत विवेचन है अर्थात् गर्भ से परिनिर्वाण तक जीवन वृत्त संकलित किया गया है । (५) वर्धमाम जीवन कोश - द्वितीय खण्ड- पंचम पुष्पः जो आपके सामने है । इसमें भगवान् महावीर के पूर्वभवों का विवेचन तो है ही । इसके अतिरिक्त इसमें भगवान् महावीर के पांचों कल्याणक, नाम एवं उपनाम, उनकी स्तुतियां, समवसरण, दिव्य ध्वनि, संघ विवरण, इन्द्रभृति आदि ग्यारह गणधर, आर्य चंदना का पृथक्-पृथक् विवरण आदि संकलित है । (६) वर्धमान जीवन कोश, तृतीय खंड पष्ठम पुष्प - इसमें भगवान् महावीर के चतुर्विध धर्मसंघकी स्थापना, समकालीन राजा, प्रत्येक बुद्ध साधु, निदान, निह्नबवाद आदि का प्रमाण सहित विवेचन है । सर्वज्ञ अवस्था के भगवान के विहार स्थल, देवों का आगमन, पार्श्वपत्यीय अणगार आदि का विस्तृत विवेचन है । (७) योग कोश, प्रथम खण्ड, सप्तम पुष्प - इसमें चार मनके मोग, चार वचनके योग तथा सात काय के योग- इस प्रकार पन्द्रह योगों का सविस्तृत विवेचन है। योग की व्युत्पत्ति-ससमास, सविशेषण - सप्रत्यय आदि विशेषण सहित योग की परिभाषा भी उपलब्ध है । किस किस जीव में कितने-कितने योग होते हैं । इनका भी अलग-अलग उल्लेख है । इस प्रकार जैन दर्शन समिति के द्वारा सैकड़ों विषय पर कोश संकलन कार्य हुआ है । कोशों के सम्बन्ध में भारत उच्चकोटि के विद्वानों ने मुक्त कंठ से सराहना की है। इनमें मुख्य रूप से- (१) स्व० प्रज्ञाचक्षु पंडित सुखलालजी संघवी (२) स्व० आदिनाथ नेमीनाथ उपाध्याय (३) स्व० ज्योतिप्रसाद जैन (४) युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी (५) गणेश ललवानी (६) डा० सत्यरंजन बनर्जी (७) डा० राजाराम जैन (८) प्रो० दलसुखभाई मालबणिया (६) स्व० डा० सुनीतिकुमार चटर्जी (१०) पद्मनाथ जैन U,S.A. (११) जिनेश मुनि, शास्त्री (१२) प्रो० डा० Alsdrof Humburg आदि के नाम उल्लेखनीय है । इस प्रकार दशमलव प्रणाली के आधार पर करीब १००० विषयों पर आगम तथा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 12 ) प्राचीन भारतीय दर्शनों का तलस्पर्शी अध्ययन कर स्व० मोहनलाजी बाँठिया व श्रीचन्द चोरड़िया ने पांडुलिपि तैयार की। जिसको हमने सुरक्षित रखा है । इस समिति में भारतीय दर्शन में रुचि लेने वाले सभी सज्जन सदस्य हो सकते हैं । संस्था में दो सदस्य श्रेणी है (१) आजीवन संरक्षक सदस्य -- जिसकी सदस्यता फीस १००१) है । उन्हें संस्था द्वारा प्रकाशित साहित्य बिना मूल्य सप्रेम भेंट किया जाता है । (२) आजीवन साधारण सदस्य जिसकी सदस्यता फीस १०१) है । सदस्य व्यक्तिगत रूप से ही लिये जाते हैं । माननीय जोधपुर निवासी श्री जबरमलजी भंडारी इस संस्था के सहयोगी और शुभचिन्तक है। उनके समय-समय पर अभूतपूर्व सुझाव मिलते रहे हैं । कोशों के प्रकाशन में आर्थिक सहयोग भरभर रहा है 1 योग कोश की गतिविधि में फतेहचन्द चैनरूप भंसाली तथा भगवतीलाल तिसोदिया इष्ट, जोधपुर का सहयोग रहा है । संयुक्त लेश्या कोश, पुद्गल कोश, ध्यान कोश भी तैयार हुए है । परिभाषा कोष अधूरा है यथा समय पूरा करने की योजना है। हमारी संस्था अबतक विद्वद् योग्य सामग्री तैयार करती रही है । जनप्रिय बनाने के लिए सरल भाषा में छोटी-छोटी पुस्तकें तैयार कराकर की योजना है । और संभव हो तो उन्हें निःशुल्क वितरण किया जाये | I अस्तु स्व० मोहनलालजी बाँठिया इस संस्था के संस्थापक ही नहीं थे, प्राण थे वे श्रीचन्द्रजी चोरड़िया के सहयोग से इतने कोशों की रूप देखा तैयार करके छोड़ गये हैं कि कई विद्वान वर्षों तक कार्य करें तो भी समाप्त न हो। ऐसे मनीषि की स्मृति में ठोस कार्य होना ही चाहिए । मेरे साथी बर्तमान मंत्री पद्मचन्दजी नाहटा व नवरतनमलजी सुराना का अभूतपूर्व सहयोग रहा है । अतः संस्था को प्रकाशित करने इस संस्था का पावन उद्देश्य जैन दर्शन व भारतीय दर्शन को उजागर करना है जिससे मानव ज्ञान रश्मियों से अपने अज्ञान अंधकार को मिटा सके । इस संस्था द्वारा प्रकाशित साहित्य सस्ते दामों में वितरण कर अधिक से अधिक प्रचार हो -- यही इसका उद्देश्य है । इस पुनीत कार्य में सबका सहयोग अपेक्षित है कलकत्ता ६-१०-१६६३ भवदीय अभयसिंह सुराना, जध्यक्ष जैन दर्शन समिति Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय स्वर्गीय मोहनलालजी बाँठिया ने, अपने अनुभवों से प्रेरित होकर, एक जैन विषय कोश की परिकल्पना प्रस्तुत की तथा श्रीचंदजी चोरड़िया के सहयोग से प्रमुख आगम ग्रन्थों का मंथन करके, एक विषय सूची प्रणीत की। फिर उस विषय सूची के आधार पर जैन आगमों से विषयानुसार पाठ संकलन करने प्रारम्भ किये। यह संकलन उन्होंने प्रकाशित आगमों की प्रतियों से कतरन विधि से किया । इस प्रकार प्रायः १००० विषयों पर पाठ संकलित हो चुके हैं । सर्व प्रथम 'लेश्या कोश' नामक पुस्तक स्वयं ही ई० सन् १६६६ में प्रकाशित की। जैन दर्शन और वाङ्मय के अध्ययन के लिए जिस रूप में लेश्या कोश को अपरिहार्य बताया गया है और पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा के रूप में जिस तरह से मुक्त कंठ से प्रशंसा की गयी है, यही उसकी उपयोगिता तथा सार्वजनीनता को आलोकित करने में सक्षम है। सम्पादकों के जैनागम एवं वाङ्मय के तलस्पर्शी गम्भीर अध्ययन द्वारा प्रसूत कोश परिकल्पना को क्रियान्वित करने तथा उनके सत्कर्म और अध्यवसाय के प्रतिसमुचित सम्मान प्रकट करने की पुनीत भावनावश जैन दर्शन की संस्थापना महावीर जयन्ती ई० १६६६ के दिन की गई थी । इस संस्था के द्वारा सन् १६६६ में क्रिया कोश प्रकाशित किया । इसके बाद सम्पादकों ने पुद्गल कोश, ध्यान कोश, संयुक्त लेश्या कोश आदि का कार्य भी पूर्ण किया जो अभी प्रकाशित नहीं हुए है । जैन दर्शन समिति द्वारा श्री बाँठिया ने अपने के सहयोग से वर्धमान जीवन कोश का संकलन कर उनका आकस्मिक स्वर्गवास हो गया । बाँठिया जी के बहुत बड़ा धक्का लगा। श्रीचन्दजी चोरड़िया अपने धुनके के बाद मिथ्यात्व का आध्यात्मिक विकास जो कोश की में प्रकाशित हुआ । वर्धमान जीवन कोश, प्रथम खण्ड सन् द्वितीय खण्ड सन् १६८४ में तथा वर्धमान जीवन कोश तृतीय प्रकाशित हुआ । जीवनकाल में श्रीचन्दजी चोरड़िया लिया था । परन्तु २३-६-१९७६ में स्वर्गवास पर जैन दर्शन समिति को पक्के व्यक्ति है । उनके स्वर्गवास कोटि का ग्रन्थ का सन् १६७७ १६८० में, वर्धमान जीवन कोश, खण्ड सन् १६८८ में प्रस्तुत कोश, विद्वद् वर्ग द्वारा जितना समादत हुआ । तथा जैन दर्शन और वाङ्मय के अध्ययन के लिए जिस रूप में इसे अपरिहार्य बताया गया और पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा के रूप जिस तरह मुक्त कंठ से प्रशंसा की गई, यही उसकी उपयोगिता तथा सार्वज, निता को आलोकित करने में सक्षम है । इसी प्रयास स्वरूप योग कोश (प्रथम खंड ) आपके समक्ष प्रस्तुत है । जैन दर्शन समितिने कोश प्रकाशनकी योजनाको किसी तरह की लाभवृत्ति या उपार्जनके लिए हाथ में नहीं लिया है अपितु इसका पावन उद्देश्य एक अभाव की पूर्ति करना, अर्हत प्रवचन की प्रभावना करना तथा जैन दर्शन और वाङ्मय का प्रचार-प्रसार करना तथा इसके गहन गम्भीर तत्वज्ञान के प्रति सर्वसाधारण को आकृष्ट करना और इस तरह समाज की सेवा करना ही है । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 14 ) योग कोश को प्रकाशित करने में झमकु देवी भंसाली मेमोरियल ट्रष्ट, मारफत फतेहचन्द चेनरूप भंसाली तथा श्री जबरमलजी भंडारी द्वारा भगवतीलाल सिसोदिया ट्रष्ट ने हमें आर्थिक सहयोग दिया है। इसके लिए समिति उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करती है। अस्तु योग कोश के दो खण्ड किये गये हैं जिसका पहला खण्ड आप के सामने है । प्रस्तुत ग्रंथ का प्रतिपादान अत्यन्त प्राञ्जल एवं प्रभावक भाषा रूप में सूक्ष्मता के साथ किया गया है। जैन दर्शन समिति के भूतपूर्व सभापति श्री जबरमलजी भंडारी, वर्तमान अध्यक्ष श्री अभयसिंह सुराना, जंवरीमलजी बैद, सरदारमलजी कांक ड़िया, रिधकरण बोथरा, नवरतनमल सुराना, विजयसिंह सुराना, सादुलसिंहजी जैन, मांगीलालजी लूणिया, सुमेरमल सुराना, हीरालाल सुराना आदि समिति के उत्साही सदस्यों, शुभचिन्तकों एवं संरक्षकों का साहस और निष्ठा का उल्लेख करना मेरा कर्तव्य है जिनकी इच्छाएँ और परिकल्पनाएँ मूर्तरूप में मेरे सामने आ रही है। स्व. श्री मोहनलालजी बांठिया तथा श्रीचन्दजी चोरडिया अनेक पुस्तकों का अध्ययन पर योग कोश (प्रथम खण्ड) को तैयार कर हमें प्रकाशित करने का मौका दिया उनके प्रति हम आभारी है । हमारी समिति के द्वारा प्रकाशित अभी ५ पुस्तकें स्टोक में है। हमारी समिति के निर्णयानुसार २५०) रु० देने वाले सज्जनों को ३०५) रु. का पुस्तकें दी जाती है । १-मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास २- वर्धमान जीबन कोश, प्रथम खण्ड ३-वर्धमान जीवन कोश, द्वितीय खण्ड ४-वर्धमान जीवन कोश, तृतीय खण्ड ५-योग कोश, प्रथम खण्ड १५) . . जैन दर्शन समिति ने जैन दर्शन के प्रचार करने के उद्देश्य से इसका मूल्य केवल १०० रखा है। जैन-जेनेतर सभी समुदाय से हमारा अनुरोध है कि योग कोश प्रथम खण्ड को क्रय करके अंतत अपने संप्रदाय के विद्वानों, भंडारों में, पुस्तकालयों में उसका यथोचित वितरण करने में सहयोग दे । सुराना प्रिटिंग वर्क्स तथा उनके कर्मचारी की धन्यवाद के पात्र हैं जिन्होंने अनेक बाधाओं के होते हुए भी प्रकाशित करने में सक्षम रहे हैं । १०-६-६३ कलकत्ता पद्मचन्द नाहटा मंत्री जैन दर्शन समिति Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका विषय-कोश परिकल्पना बड़ी महत्वपूर्ण है । यदि सब विषयों पर कोश नहीं भी तैयार हो सके तो बीस-तीस प्रधान विषयों पर भी कोश के प्रकाशन से जैन दर्शन के अध्येताओं को बहुत ही सुविधा रहेगी। इस संबंध में सम्पादकों को मेरा सुझाव है कि वे पण्णवण्णा सूत्र के ३६ पदों में विवेचित विषयों के कोश तो अवश्य ही प्रकाशित कर दें। सम्पादको ने सम्पूर्ण जैन वाङ्मय को सार्वभौमिक दशमलव वर्गीकरण पद्धति के अनुसार सौ वर्गों में विभाजित किया है। जैन दर्शन की आवश्यकता के अनुसार उन्होंने इसमें यत्र तत्र परिवर्तन भी किया है अन्यथा इसे ही अपनाया है। इस वर्गीकरण के अध्ययन से यह अनुभव होता है कि वह दूरस्पी है तथा जेन दर्शन और धर्म में ऐसा कोई विरला ही विषय होगा जो इस वर्गीकरण से अछुता रह जाय या इसके अंतर्गत नही आ सके। पर्याय की अपेक्षा जीव अनन्त परिणामी है, फिर भी आगमों में जीव के दस परिणामों का उल्लेख है। जीव परिणाम के वर्गीकरण को देखने से पता चलता है कि सम्पादकों ने इन दस परिणामों को प्राथमिकता देकर ग्रहण किया है लेकिन साथ ही कर्मों के उदय से वा अन्यथा होने वाले अन्य अनेक प्रमुख परिणामों को भी वर्गीकरण में स्थान दिया है। इनमें से उत्पाद-ब्यय ध्रौव्य आदि कई विषय तो अन्य- अन्य कोशों में समाविष्ट होने योग्य है । अस्तु लेश्याकोश के बाद, जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा देश-विदेश में हुई थी, संपादकों ने क्रिया-कोश का निर्माण किया ! यह ग्रंथ भी संपादकों ने उसी लगन तथा तटस्थ शोध वृत्ति से संकलित किया था। इसके बाद ध्यान कोश, संयुक्त लेश्याकोश, ( सोर्स दिगम्बर-श्वेताम्बर ग्रंथ ) पुद्गल कोश तैयार किया था जो अभी प्रकाशित नहीं हुए है। संपादकों से मेरा सुझाव है कि उन्हें भी प्रकाशित यथा समय किया जाय । - इसके बाद मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक निकास प्रकाशित किया गया जो कोश के सदृश था। तत्पश्चात् वर्षमान जीवन कोश तीन खण्ड में प्रकाशित किया गया। जिसके अभी दो खण्ड प्रकाशित करने अवशेष हैं । __ योग कोश को दो खण्डों में विभाजित किया है। प्रथम खण्ड आप के हाथ में हैं। योग कोश एक पठनीय मननीय ग्रंथ हुआ है । योगों को समझने के लिए इसमें यथेष्ट मसाला है तथा शोधकर्ताओं के लिए यह अमूल्य ग्रंथ होगा। रेफरेन्स पुस्तक के हिसाब से यह सभी श्रेणी के पाठकों के लिए उपयोगी होगा। वर्गीकरण की शैली बिषय को सहजगम्य बना देती है, सम्पादकगण तथा प्रकाशक इसके प्रकाशन के लिए धन्यवाद के पात्र है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 16 ) योग कोश में लेश्या कोश- क्रिया कोश की तरह ससमास - सप्रत्यय, सविशेषण योग शब्दों की अकारादि क्रम से सूची तथा उनकी समूल पाठ परिभाषाएँ, विभिन्न योगों तथा उनके भेदों का आगमीय तथा आचार्यगण द्वारा की गई परिभाषाओं का संकलन, इसके संपादकगण की परिभाषा योग निर्माण की कल्पना की पूर्ति स्वतः होती जायेगी । जो जीव सयोगी होता है वह क्रिया सहित होता है, जो जीव अयोगी होता है वह क्रियारहित होता है । जहाँ योग है वहाँ क्रिया अवश्य है । मन, वचन तथा काययोगी की क्रियाओं से कर्मबंधन होता है । परिशेष का यही वक्तव्य है कि संपादक श्री श्रीचंदजी चोरड़िया जो कार्य किया है वह बहुत महत्वपूर्ण है । मेरा अपना व्यक्तिगत अनुरोध है कि वे इस तरह का कार्य बहुत लगन के साथ करते जायें - जिससे विद्वानगण अत्यधिक लाभान्वित हो सके । इस तरह शोधपूर्ण कोश कार्य जैन दर्शन में बहुत ही कम हुआ है। मुझे स्मरण है कि ऐसी वैज्ञानिक जैन-दशमलव पद्धति द्वारा ऐसा कार्य किया है। ग्रंथागार विद्या के अनुसार इन सब का वर्गीकरण हुआ है वह बहुत महत्वपूर्ण है और प्रवृत्ति गवेषक के लिए आदर्शमूलक ग्रंथ है। इसलिए संपादक श्री श्रीचंदजी चोरड़िया ने बहुत अच्छा कार्य किया है । मेरा ध्यान है कि विद्वान पंडित श्रीचंदजी चोरड़िया इस प्रकार के बहुत कार्य करके विद्वानों का पथ-प्रदर्शित करेंगे। मैं केवल यही कह सकता हूँ कि दुरुह और कठिन कार्य में इनकी यादगारी रहेगी । इस प्रसंग में एक श्लोक उद्धृत करके पं० श्रीचंदजी चोरड़िया एवं कोश कार्य के महत्व को व्यक्त करना चाहता हूँ । दश पंखा के अपने गंगास्तोत्र में गंगा का महत्व कहाँ निहित है इसके प्रसंग में कहा- १-१-६३ ते सुरधुनि मुनिकन्ये तारये सरसि निजपुण्यैस्तत्र किं यदि तु गतिविहिनं तारये सदिह तव महत्त्व तन्महत्त्वं मैं भी कहता हूँ दुरुह और कठिन इस कार्य से सहज और सरल करने में आपका भगीरथ प्रयत्न है । पुण्यवत्तम् । महत्त्वम् । पापिन मां । महत्त्वं । -- सत्यरंजन बनर्जी प्राध्यापक भाषा तत्व विज्ञान, कलकत्ता विश्वविद्यालय Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जैन दर्शन सूक्ष्म है और गहन है तथा मूल सिद्धान्त ग्रन्थों में इसका कमबद्ध तथा विषयानुक्रम विवेचन नहीं होने के कारण इसके अध्ययन में तथा इसके समझने में कठिनाई होती है। अनेक विषयों के विवेचम अपूर्ण-अधूरे हैं। अतः अनेक स्थल इस कारण से भी समझ में नहीं आते । अर्थ बोध की इस दुर्गमता के कारण जैन-अजैन दोनों प्रकार के विद्वान जैन दर्शन के अध्ययन में सकुचाते हैं । क्रयबद्ध तथा विषयानुक्रम विवेचन का अभाव जैन दर्शन के अध्ययन में सबसे बड़ी बाधा उपस्थित करता है - ऐसा हमारा अनुभव है। जब हमने नरक, पुद्गल तथा ध्यान आदिका अध्ययन प्रारम्भ किया तो हमारे सामने यही समस्या आयी । आगम और सिद्धान्त ग्रंथों का संकलन करके इस समस्या का हमने आशिक समाधान पाया। इस प्रकार जब-जब हमने जैन दर्शन के अन्यान्य विषयों का अध्ययन प्रारम्भ किया तब-तब हमें सभी आगम तथा अनेक सिद्धान्त ग्रंथों को संपूर्ण पढ़कर पाठ संकलन करने पड़े । पुराने प्रकाशनों में विषय सूची तथा शब्दसूची नहीं होने के कारण पूरे ग्रंथों को बार-बार पढ़कर नौंध करनी पड़ी। इसी तरह जिस विषय का भी अध्ययन किया हमें सभी ग्रंथों का आद्योपांत अवलोकन करना पड़ा । इससे हमें अनुमान हुआ कि विवद् वर्ग जैन दर्शन के गम्भीर अध्ययन में क्यों सकुचाते हैं । हमने सम्पूर्ण जैन वाङ्मय को १०० वर्गों में विभक्त करके मूल विषयों के वर्गीकरण की रूपरेखा (देखें पृ० ६ ) तैयार की। यह रूपरेखा कोई अंतिम नहीं है । परिवर्तन, परिवर्द्धन तथा संशोधन की अपेक्षा भी इसमें रह सकती है। मूल विषयों में से भी अनेकों के उपविषयों की सूची भी हमने तैयार की है। उनमें जीव परिणाम ( विषयांकन ०४ ) की उप विषय की सूची पृ० ६ पर दी गई है। जीव परिणाम की यह उपसूची भी परिवर्तन, परिवर्द्धन व संशोधन की अपेक्षा रख सकती है। विद्वद् वर्ग से निवेदन है कि इनके इन विषय सूचियों का गहन अध्ययन करें तथा इनमें परिवर्तन, परिवर्द्धन, संशोधन सम्बन्धी अथवा अपने अन्य बहुमूल्य सुझाव भेजकर हमें अनुगृहीत करें । कतरन व फाइल करने का कार्य पूरा होने के बाद हमने संकलित विषयों में से किसी एक विषयों में से पाठों का संपादन करने का विचार किया । संपादन में निम्नलिखित तीन बातों को हमने आधार माना है : १ - पाठों का मिलान २ - विषय के उपविषयों का वर्गीकरण तथा १३ – हिन्दी अनुवाद 3 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 18 ) अस्त लेश्या, क्रियाकोश, मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास, वर्धमान जीवन कोश के बाद हमने संपादन के लिए 'योग' विषय को ग्रहण किया। पुद्गल कोश, ध्यान कोश, संयुक्त लेश्या कोश भी तैयार किये है। प्रत्येक विषय में संकलित पाठों तथा अनुसंधित पाठों का वर्गीकरण करने के लिए हमने प्रत्येक विषय को १०० वर्गों में विभाजित किया है तथा आवश्यकतानुसार इन सौ वर्गों को दस या दस से अधिक मूल वर्गों में भी विभाजित करने का हमारा विचार है सामान्यतः सभी विषयों के कोशों में निम्नलिखित वर्ग प्रायः अवश्य रहेंगेशब्द विवेचन ( मूल वर्ग) शब्द की व्युत्पत्ति-प्राकृत-संस्कृत तथा पाली भाषाओं में ..२ पर्यायवाची शब्द - विपरीतार्थक शब्द .०३ शब्द के विभिन्न अर्थ सविशेषण-ससमास-सप्रत्यय शब्द परिभाषा के उपयोगी पाठ ..६ प्राचीन आचार्यों द्वारा की गई परिभाषा .०७ भेद-उपभेद शब्द संबंधी साधारण विवेचन विविध ( मूल वर्ग) .०६ विषय संबंधी फूटकर पाठ तथा विवेचन अन्य सब मूलवर्ग या उपवर्ग संकलित पाठों के आधार पर बनाये जायेंगे। योग कोश में हमने निम्नलिखित मूलवर्ग रखें है - शब्द विवेचन द्रव्य योग (प्रायोगिक ) भाव योग (प्रायोगिक) योग और जीव सयोगी जीव विविध यथासंभव वर्गीकरण की सब भूमिकाओं में एकरूपता रखी जायेगी। योग कोश विषयांकन हमने ०४०५ किया है। इसका आधार यह है कि संपूर्ण जैन वाङमय को १०० भागों में विभाजित किया गया है। (देखें मूलवर्गीकरण सूची पृ० ६) इसके अनुसार जीव परिणाम का विषयांकन .०४ है। जीव परिणाम को सौ भागों में विभक्त किया गया है ( देखें जीव परिणाम वर्गीकरण सूची पृ. ६) इसके अनु Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 19 ) सार योग का विषयांकन •५ होता है। अतः योग का विषयांकन हमने •४०५ किया है। योग के अन्तर्गत आने वाले विषयों के आगे दशमलव का चिह्न है । योग कोश भी लेश्या कोश की तरह हमारी कोश परिकल्पना का परीक्षण (ट्रायल) है । इस परिकल्पना में पुष्ठता तथा हमारे अनुभव में यथेष्ठ समृद्धि हुई है। आचार्य पुष्पदंत और भूतबलि प्रणीत षट् खंडागम दिगम्बर परम्परा का प्रमुख आगम ग्रंथ है। प्रथम सदी ईसवी के आस-पास आचार्य धरसेन ने पुष्पदंत और भूतबलि नामक दो तपस्वियों को महिमा नगरी से बुलाया। आन्ध्र प्रदेश के दोनों योग्य मुनिराज गिरनार पर्वत पर पहुँचे । बाद में उन्होंने षट् खंडागम सूत्रों की रचना की। सन् ८१६ ई० में आचार्य वीरसेन ने इसकी 'धवला' नाम से विशाल टीका लिखी। षट् खंडागम की भाषा शौरसेनी तथा प्राकृत है। हमने प्रत्येक कोश कार्य में षट्खंडागम को ग्रहण किया है। योग, लेश्या, भाव, अध्यवसाय तथा परिणाम आदि जैन आगमों के परिभाषिक शब्द हैं। जीव का स्वरूप पंच भावात्मक है। जीव की अच्छी या बुरी कोई भी प्रवृत्ति हो, उसे पाँच भावों में से किसी न किसी साथ संबद्ध होना ही पड़ेगा। योग और लेश्या जीव की प्रवृत्तियाँ है। सिद्ध अवस्था में योग और लेश्या नहीं है परन्तु भाव है। तेरहवें गुण स्थान तक योग और लेश्या दोनों है परन्तु चौदहवें गुणस्थान में योग और लेश्या दोनों का अभाव है परन्तु भाव सब गुणस्थान में है । दव्य लेश्या अष्टस्पी है परन्तु द्रव्य योग मैं द्रव्य मनोयोग और द्रव्य वचन योग चस्पी है ( शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष ) तथा द्रव्य काययोग अष्ट स्पी है। ज्ञान का सागर अथाह है। लेश्याएं छह है-कृष्ण, नील, कापोत, तेजस्, पद्म और शुक्ल । सभी द्रव्य लेश्याएं अष्टस्पों -आठ स्पर्श वाली है। द्रव्य योग अजीव है परन्त पुण्य, पाप और बंध नहीं है। पाँच आस्रव द्वार है--मिथ्यात्व, अवत, प्रमाद और कषाय-इन चार आश्रवों में योग का समावेश नहीं होता। योग आस्रव के दो प्रकार है-शुभ योग और अशुभ योग आस्रव । झोणी चर्चा ढाल १ में कहा है 'मन वचन काया रा जोग त्रिहुँ, सलेसी कह्या जिन राय ॥ ७ ॥ अर्थात भगवान महावीर ने मन, वचन तथा काया-इन तीन योगों को सलेशी कहा है। उत्तराध्ययन में तीन योगों की अगुप्ति को कृष्ण लेश्या का लक्षण कहा है। जो योग सहित होता है यह लेश्या सहित होगा ही। जहाँ लेश्या है वहाँ योग है। योग और लेश्या में अन्तर अवश्य है। योग के दो रूप बनते है-द्रव्ययोग और भावयोग। द्रव्ययोग पौद्गलिक परिणति है और भावयोग आत्मिक परिणति है। अन्तराल गति में Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) कामण काययोग होता है और अन्य योग नहीं होते हैं परन्तु लेश्या छओं हो सकती है अतः वचनयोग और मनोयोग के अभाव में छओं लेश्या हो सकती है। निष्कर्ष यह निकला कि कावयोग के साथ लेश्या का सहावस्थान है। काय योग का सम्बन्ध शरीर की क्रिया से है। शरीर के रहते हुए भी चौदहवें गुणस्थान में योग और लेश्या नहीं होते हैं। एकेन्द्रिय में प्रथम चार लेश्या होती है परन्तु मनोयोग व वचनयोग नहीं होते है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व असंशी पंचेन्द्रियमें प्रथम तीन लेश्या होती है परन्तु मनोयोग नहीं होता है अतः मनोयोग व वचनयोग के साथ लेश्या का अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है ? सलेशी केवली के एक ऐसी अवस्था बनती है कि वर्तमान में किसी भी कर्म का बंध नहीं होता है परन्तु सयोगी केवली के ऐसी अवस्था नहीं बनती कि वर्तमान में वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं हो। प्राचीन आचार्यों ने योग परिणाम को लेश्या कहा है-यह सिद्धांत सर्व सम्मत नहीं है। कषाय के अभाव में भी सात योग होने का उल्लेख मिलता है, तथा---- १- सत्य मनोयोग २- व्यवहार मनोयोग ३. सत्य वचनयोग ४-व्यवहार वचनयोग ५-औदारिक काययोग ६-औदारिक मिअ काययोग ७-कामण काययोग अतः कषाय के साथ भी योग का अन्वय--- व्यतिरेक सम्बन्ध नहीं है । भाव मनोयोग के साथ भाव लेश्या का भी अन्वय व्यतिरेक सम्बन्ध घटित नहीं होता है - ऐसा कतिपय आचाय मानते है। शुभयोग से कर्म क्षीण होते हैं अतः उसका निर्जरी में समावेश होता है। शुभ योग से पुण्य का बंघ होता है अतः उसे योग आश्रव कहा है। मनोयोग व व चय... योग का सम्बन्ध औदारिक शरीर या स्थूल शरीर के साथ है तथा काययोग का सम्बन्ध पाँचों शरीर के साथ है। शरीर धारी के ही योग और लेश्या होते हैं । अशरीरी के नियम से योग और लेश्या नहीं होते है। शुभयोग का समावेश औदयिक आदि पाँचों भावों में होता है तथा अशुभ योग का समावेश औदयिक और पारिणामिक दो भावों में होता है शुभयोग से पुण्य कर्म का बंधन होता है अतः शुभयोग नाम कर्म के उदय से निष्पन्न औदयिक भाव है। शुभयोग वीर्य अंतराय कर्म का क्षय-क्षयोपशम है तथा मोहनीय कर्म का उपशम भी है। उपशम अवस्था में कर्म के तीव विपाकोदय का उपशम होता है। प्रदेशोदय और मंद विषाकोदय के द्वारा कर्मों का क्षय होता रहता है। इससे उपशम और क्षय दोनों होते है, इस अपेक्षा से इसका नाम क्षयोपशम है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 21 ) वस्तुतः योग का शुभ और अशुभ होना मोहनीय कर्म से सम्बन्धित है। मोहनीय कर्म के औदयिक भाव से योग अशुभ वनता है । जहाँ योग के साथ मोहनीय कर्म का औदयिक भाव नहीं जुड़ता, वहाँ वह शुभ हो जाता है। श्रीमज्जयाचार्य ने शुभयोग आश्रव को औदयिक भाव बतलाया है।' जहाँ शुभयोग है वहाँ निर्जरा अवश्यमेव होती है। यह निर्जरा रूप शुभयोग वीर्यान्तराय कर्म के क्षय-क्षयोपशम से होता है। अंतराय कर्म का क्षयोपशमिक भाव पहले से बारहवें गुणस्थान तक होता है तथा क्षायिक भाव तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में होता है। सत्य, अचौर्य, शील, दया और शुभ ध्यान सभी प्रथम चार गुणस्थानों में भी पाये जाते हैं इन सभी गुणों का ग्रहण शुभयोग के बिना नहीं होता है। योग का सम्पूर्ण रूप से निरोध चौदहवें गुणस्थान में होता है अर्थात् अयोग संवर चौदहवें गुणस्थान में होता है। वह अयोग संवर चार भाव वाला नहीं होता, केवल पारिणामिक भाव वाला होता है। अयोग संवर वाले चौदहवं गुणस्था में पाँच हस्वाक्षर ( अ, इ, उ, ऋ, 7 ) में महा निर्जरा होती है । __ अशुभ योग आव छठे गुणस्थान तक है तथा शुभयोग आश्रव तेरहवें गुणस्थान तक है । कषाय की दृष्टि से माया-प्रत्यया और अशुभयोगादिको दृष्टि से आरम्भिकी क्रिया होती है। सातवें गुणस्थान में अशुभ योग की प्रवृत्ति नहीं होती अतः आरम्भिकी क्रिया नहीं होती। ... अस्तु आस्रव के बीस भेद विवक्षित है। उनमें से मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद-ये तीन आश्रव को छोड़ कर कषाय और योग-ये दो मूल आस्रव सातवें में उपलब्ध है। मन, वचन-काय-ये तीन आस्रव योग आश्रव के अंतर्गत हो सकते हैं। फिर भी उनकी स्वतंत्र रूप से विवक्षा की गई है, शेष आस्रव अशुभ योग के अंतर्गत माने जाते हैं। सातवें गुणस्थान में अशुभ योग नहीं होता अतः उसमें पाँच आस्रव माने गये हैं। झीणीचर्चा में (ढाल ६ ) कहा है -- सातमां गुणठाणां मांय, पंच आस्रव भेदज पाय पाय कषाय जोग मनवच काया ।।७।। __ ग्यारवें, बारहवें व तेरहवें गुणस्थान में चार आस्रव होते हैं-योग, मन, वचन और काया। पहले से दशवे गुणस्थान तक शुभयोग से पुण्य बंध होता है, उसे पुण्य संपराय कहा जाता है। पहले से छठे गुणस्थान तक यदि अशुभ योग से पाप बंघ होता है, उसे अशुभ साम्परायिक क्रिया होती है। १-नाम कर्म उदैनिपन ते, छ द्रव्य मांहि जीव।। नब में जीव आत्रव कह्यो, शुभ जोग आश्रव कहीव ॥५॥ ---झीणी चर्चा दाल ३ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 22 ) मातवें गुणस्थान में बीस संवरके भेदों में पन्द्रह भेद प्राप्त होते हैं । वहाँ योग अशुभ नहीं होते है । केवल शुभयोग होते है। चूंकि इस गुणस्थान में अकषाय, अयोग, मन, वचन और काय ये पाँच संवर प्राप्त नहीं होते हैं। चौदहवें गुणस्थान में पूर्ण रूप से अयोग संवर होता है, वहाँ संवर के बीसों भेद मिलते हैं । आठ आत्माओं में एक योग आत्मा भी है। योग आत्मा में पहले से तेरहवें गुणस्थान तक मिलते हैं । ग्यारवें बारहवें व तेरहवें गुणस्थान में एक ईपिथिक क्रिया होती है वह सिर्फ शुभयोग के द्वारा होती है। चौदहवाँ गुणस्थान अयोग आत्मा है चूंकि आत्मा अनेक है । झीणीचर्चा में कहा है चवदमो गुणठाण रे, अजोग आत्मा । ढाल ७/१२ श्रीमज्जयाचार्य शुभयोग को मार्ग तथा अशुभ योग को उन्मार्ग बताया है । तथा उन्होंने अप्रमाद, अकषाय एवं अयोग संवर को धर्म नहीं माना 1 धर्म अमूल्य है । वह तीन आत्मा है-शुभयोग रूपयोग आत्मा, सावद्ययोग त्याग रूप चारित्र आत्मा और सम्यक्त्व रूप दर्शन आत्मा। अधर्म अशुभ योग रूप होने के कारण योग आत्मा भी है। शुभयोग को निर्जरा धर्म की अपेक्षा मार्ग कहा है। शुभयोग से होने वाली निर्जरा धर्म है तथा अशुभयोग अधर्म की कोटि में है फिर भी शुभयोग मार्ग की कोटि में विवक्षित है अतः अशुभयोग को मार्ग की कोटि में भी रखा गया है ।। श्री मज्जयाचार्य ने झीणीचर्चा में शुभयोग में औपशमिक भाब छोड़कर चारभाव कहा है तथा आत्मायोग कहा है। अशुभयोग में औदयिक और पारिणामिक दो भाव कहा है तथा आत्मायोग कहा है । भाव जीव में योग आदि सात आत्मा कही है। बोलना, चलना, स्नान करना, शृंगार करना, खेती करना, झूठ बोलना तथा चोरी करना आदि एक योग आत्मासे होता है। योग आत्मा अनेक है । योग आत्मा सावध भी है, निरवद्य भी है। कर्मों का क्षय योग आत्मा से भी होता है। योग के बिना अयोगी के भी ध्यान से कर्म क्षय होते हैं। करणी की अपेक्षा योग,'दर्शन तथा चारित्र आत्मा-आज्ञा में है । सर्व उत्तर गुण एक योग आत्मा है तथा सर्व मूल गुण एक चारित्र आत्मा है। शुभयोग में चार अथवा पाँच भावकी व्यवस्था मिलती है तथा अशुभयोग में औदयिक व पारिणामिक दो भावकी व्यवस्था मिलती है। वीर्य के दो भेद है-लब्धि वीर्य और करण वोर्य । करण वीर्य योग बन जाता है । योग सावध व निरवद्य बताया गया है। लब्धि वीर्य को निरवद्य कहा है । करणी की अपेक्षा योग, दर्शन तथा चारित्र आत्मा धर्म सम्मत है । योग आत्मा को सर्व उत्तर गुण व देश उत्तर गुण कहा है। शभयोमों से कम का Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 23 ) निर्जरण होता है उसे भगवान ने निर्जरा कहा है। पुण्य की कर्ता सिर्फ योग आत्मा है । योग आत्मा सप्रदेशी है। सावध योग को अपेक्षा योग आत्मा को निंदनीय कहा है। योग आत्मावाले जीवों में (भिन्न-भिन्न जीवों का अपेक्षा) बारह उपयोग होते हैं । जहाँ योग आत्मा है वहाँ कषाय, ज्ञान व चारित्र आत्मा की यजना है तथा शेष पाँच आत्मा की नियमा है । उदय के तेतीस बोलों में एक बोल सयोगी है । शुभयोग को औदयिक भाव भी माना है व्यक्ति के उससे पुण्य का आश्रव होता है । जीव परिणाम के दस भेद है उनमें योग परिणाम पाँचवाँ है तथा लेश्या परिणाम चौथा है अतः दोनों परिणाम भिन्न-भिन्न है। लेश्या परिणाम में छह लेश्याए व योग परिणाम में तीन योग समाविष्ट हैं । ____ भगवती सूत्र में प्रमत्त संयत की अपेक्षा शुभयोग को अनारम्भिक कहा है । सयोगीगित्व का नव पदार्थों में जीव-आश्रव-निर्जरा में समवतार होता है। योग का सम्बन्ध अंतराय कर्म के क्षय क्षयोपशम तथा शरीर नाम कर्म के उदय से है। इस दृष्टि से योग में उपशम भाव को बाद देकर चार भाव का उल्लेख है। क्योंकि उपशम अंतराय कम का नहीं होता है, केवल मोहनीय कर्म का ही होता है। निर्जरा मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय तथा क्षयोपशम निष्पन्न भाव के बिना नहीं होती है, इस दृष्टि से योग में पाँच भाव भी मिलते हैं। उसे सहचर बताया गया है । योग स्वयं सावद्य-निरवद्य नहीं होता है। वह मोहनीय कर्म के औदयिक भाव के साहचर्य से सावद्य बनता है तथा उसके उपशम, क्षय और क्षयोपशम निष्पन्न भाव के साहचर्य से निरवद्य बनता है। जहाँ शुभयोग से पुण्य बंध होता है वहाँ साथ साथ निजरा भी होती है। इस दृष्टि को निर्जरा को योग का सहचर बताया गया है। यद्यपि भगवती सूत्र में द्रव्य काययोग को अष्टस्पर्शी कहा है। चूँकि द्रव्य काययोग के अंतर्गत कार्मण काययोग भी है, जो चतुःस्पी है, कार्मण शरीर भी चतुःस्पर्शी है । अतः काययोग चतुःस्पर्शी व अष्टस्पर्शी दोनों होने चाहिए, किन्तु यहाँ कामण काययोग की विवक्षा की गई है। शीत, उष्ण, स्निग्ध, तथा रुक्षके चार मौलिक स्पर्श है। द्रव्ययोग चतुःस्पर्शी भी है, अष्टस्पर्शी भी है । लेकिन लेश्या को अष्टस्पर्शी कहा है । वयालीस दोष व बावन अनाचार को जयाचार्य ने अशुभयोग आत्मा कहा है। ईपिथिक में केवल पुण्य का बंध होता है । शुभयोग के बिना पुण्य का बंध नहीं होता है । चूँकि उदयनिष्पन्न भाव जीव है, उसके तेंतीस बोल है। उसमें एक बोल--- सयोगित्व है, तथा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 24 ) १ - चारगति, छहकाय, छहभाव लेश्या, चार कषाय, तीन वेद- मिथ्यादृष्टि, अवती, असंशित्व, अज्ञानित्व, आहारता, संसारता, असिद्धत्व, अकेबलित्व, छद्मस्थता और सयोगित्व | इनमें आहारकत्व और मयोगित्व सावद्य - निरवद्य दोनों है । साधु आहार करता है वह शुभयोग है उससे पुण्य का बंध होता है । इसके विपरीत गृहस्थ का आहार करना अशुभ योग है, उससे पाप का बंध होता है । कषायकुशील चौथे निर्ग्रथ में कार्मण काययोग को बाद देकर चतुर्दश योग होते हैं । चूँकि तेरहवें गुणस्थान में सयोगी व चौदहवें गुणस्थान में अयोगी होते हैं । सिद्ध भी योग रहित होते हैं । जयाचार्य ने झीणीचर्चा में छट्ठ गुणस्थान में चौदह योग कहे हैं ( ढाल २१।१४ ) 1 तीन योग - मानसिक- वायिक काचिक प्रवृत्ति से हिंसा की जाती है वह प्राणातिपत आस्रव है । क्रोध से विकृत ( तप्त ) जीव प्रदेश को कषाय आस्रव कहा है। उदीरणापूर्वक किये जाने वाले क्रोध को अशुभ योग कहा जाता है। नौवें और आठवें गुणस्थान शुद्धया और शुभयोग होता है फिर क्रोधादि से जीव प्रदेशों को कषाय आस्रव कहा जाता है । अशुभ योग की लालिमा सातवें गुणस्थान से लेकर आगे के गुणस्थान में नहीं है । द्रव्य क्रोध, मान, माया और लोभ चतुःस्पर्शी है लेकिन अशुभयोग चतुःस्पर्शी तथा अष्टस्पशीं दोनों है । मद्यपान, विषय, उदीरणापूर्वक होने वाला कषाय, भावनिद्रा एवं विकथा - ये पाँचों योग रूप प्रमाद है। लब्धि का प्रयोग करना अशुभ योग है। उसे अपेक्षा से प्रमाद कहा है तथा वह योग आस्रव में है । अस्तु प्रमाद के दो भेद है : १ – आन्तरिक अनुत्साह रूप व २ -- विषय कषाय आदि अशुभ योग की प्रवृत्ति रूप । यदि साधु के अशुभ योग की प्रवृत्ति होती है तो उससे उत्कृष्टतः छह मासिक प्रायश्चित आता है । छट्ठे गुणस्थान प्रमाद आस्रव निरन्तर होता है। आसव निरन्तर होता है । उनसे निरन्तर पाप लगता है । कहलाता है । दसवे गुणस्थान तक कषाय वह तीनों योगों से पृथक् मद्य-पान, विषय तथा कषाय आदि प्रबल प्रवृत्तियों को पाँच प्रमाद कहा है। वे भी अशुभ योग और असमाधि के कारण पाँचवें आखव योग के अन्तर्गत होते है । छ प्रमत्त संयंत गुणस्थान में निरंतर प्रमाद स्वीकार किया है । तीर्थंकरों के समुद्घात नहीं होता हैं। सामान्य केवली के यदि केवली समुद्घात होता है तो उस समय उनके काय संबंधी तीन योग होते हैं। शेष योग नहीं होते । केवली Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 25 ) समुदघातके पहले और आठवें समय औदारिक काययोमा होता है । दारे, खाने तथा सातवें समय में औदारिक मिध काय योग होता है। तीसरे, चौथे तथा पाँचवें समयमें कामण काय योग होता है परन्तु केवली समुद्घात के आठों समय में शुद्ध लेश्या होती है। यद्यपि द्रव्य कामण काय योग चतुःस्पर्शी है परन्तु द्रव्य शुद्ध लेश्या अष्टस्पर्शी है। अस्तु योग पन्द्रह होते है। केवली समुद्घात के समय केवल तीन योग होते हैं। शेष बारह योग नहीं होते है। साधु के पांच मंडली भोज के दोष में पहला संयोग है। स्वाद के लिए खाद्य वस्तुओं का संयोग करना संयोग दोष है । जब सयोगी केवली के मन-वचन-योग या निरोध हो जाता है पर काययोग का पूर्ण निरोध नहीं होता उस स्थिति में सूक्ष्म-क्रिया-अप्रतिपाती शुक्लम्यान होता है । काययोग की शेष प्रवृत्तियों को क्षीण करने पर शैलेशी अवस्था प्राप्त होती है। उसमें पूर्ण योग निरोध हो जाता है। वहाँ समुच्छिन्न-क्रिया-अनिवृत्ति शुक्लध्यान होता है। ईयादि पाँच समिति में आत्मा एक योग होती है । भाव जीव में आत्मायोग आदि सात आत्मा होती है। योग आत्मा में पाँच भाव होते हैं। योग आत्मा उत्तर गुण है परन्तु चारित्र आत्मा मूलगुण है । बीस आस्रव में सोलह आस्रव (मिथ्यात्व, अवत, प्रमाद व कषाय को छोड़कर) योग आत्मा है। बीस संवर में अयोग-मन-वचन-काय ने चार संवार भाव एक पारिणामिक है तथा आत्मा अनेरी माना है । पन्द्रह योगों में-सत्यमन, सत्यभाषा, व्यवहारमन, व्यवहार भाषा, औदारिकइन पाँच योग में भाव पाँचों होते है । औदारिक मिश्र, कामणमें भाव तीन-उदय-क्षायिक पारिणामिक । आहारक, वैक्रिय में भाव तीन-उदय, क्षयोपशम व पारिणामिक । अवशेष छह योग में भाव दो उदय-पारिणामिक होते हैं । ऐसी कतिपय आचार्यों की मान्यता है । द्रव्ययोग अजीव तथा भावयोग जीव है । द्रव्ययोग रूपी ; भाययोग अरूपी है। असत्यमन, असत्यभाषा, मिश्रमन, मिश्रभाषा, आहारिकमिश्र तथा वैक्रियमिश्र-ये छः योग सावद्य है । अवशेष नौ योग-सावद्य-निरवद्य दोनों है। चारमनोयोग, चारवचनयोग और एककामण-ये नौ योग चतुःस्पशी है शेष छः अष्टस्पशी है । असत्य मन, असत्यभाषा, मिश्रमन, मिश्रभाषा, वे क्रियमिश्र तथा आहारकमिश्र ये छः योग नवतत्व में जीव व आश्रव है; अवशेष नौ योग आश्रव, जीव व निर्जरा है। योग तथा लेश्या परिणामी में भाव पाँच तथा आत्मा एक योग माना है। योग परिणाम नौ तत्व में जीव, आस्रव व निर्जरा है। मन, वचन-काय एवं योग आस्रव-ये चार आस्रव सावद्य-निरवद्य दोनों है । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 26 ) भाषक की सामायिक यदि तीन करण तथा तीन योग से की जाती है तो नवकोटी सामायिक होती है। यदि दो करण तीन योग से की जाती है तो छह कोटी सामायिक होती है। यदि करने, कराने का तीन योग से, अनुमोदन की वचनसे तथा कायसे सामायिक की जाती है तो वह आठ कोटी सामायिक है।' औदयिक भाव के ३३ बोलों में एक भेद सयोगी है उसमें भाव चार औदायिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक व पारिणामिक होते है, नव तत्व में जीव, आस्रव व निर्जरा है। सावद्य-निरवद्य दोनों है। योग शाश्वत भी है, अशाश्वत भी है ( किसी अपेक्षा से ) सयोगी जीव में किसी न प्रकार का योग होता ही है लेकिन एक योग हरदम नहीं होता है। अतः बोग शाश्वत भाव भी है तथा अशाश्वत भाव भी है। कहा है तत्थ णं जे ते पमत्त संजया ते सुहं जोगं पडच्च णो अणारंमा, णो परारंभा, णो तदुभयारंभा अणारंभा। -भग श १ । १ । प्र४८ अर्थात् जब प्रमत्त संयत के शुभयोग होता है तब वह अनारम्भी होता है, अतः शुभयोग प्रवर्तते हुए अनारम्भी प्रमत्त संयत को आरम्भ का अभाव होने से प्रारम्भिकी क्रिया नहीं होती है। केवली समुद्घात की अवस्था में केवल काययोग होता है। यह समुद्घात आयुष्य के पूर्ण होने के अन्तर्मुहूर्त पूर्व होता है । कृत समुद्घात अथवा समुद्घात किये बिना सयोगी केवली जीव जव चतुर्दश गुणस्थान में प्रवेश करते हैं तब उनके अन्तमहूर्त-स्थिति-सीमित संसाररूप तथा समुच्छिन्न-क्रिया-अनिवृत्तिशुक्लध्यानरूपा अंतक्रिया होती है। शरीर, वचन एवं मन के द्वारा होने वाले आत्म-प्रयत्न को योग कहते हैं। आत्मप्रयत्न में जिन पुद्गलों की सहायता ली जाती है वह द्रव्ययोग है। आत्म-प्रयत्न भाव योग है। द्रव्ययोग अजीव है, भावयोग जीव है । मनोयोग, वचनयोग और काययोग के भेद से योग के तीन भेद है। प्रकारान्तर से योग के पन्द्रह भेद है । (१) मनोयोग-मन के द्वारा होने वाला आत्मा का प्रयत्न मनोयोग है ! मन की प्रवृत्ति के लिए जो मनोवर्गणा के पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं-वह द्रव्वमनोयोग। उन गृहीत पुदगलों की सहायता से जो मनन होता है, वह भाव मनोयोग है ! (२) वचनयोग-भाषा के द्वारा होने वाला आत्मा का प्रयत्न वचनयोग है। वह दो प्रकार का है। कहा है १ झीणीचर्चा पृ. २४६ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 27 ) सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया-द्रव्यसंग्रह-अर्थात् एक तत्व में दो परस्पर विरोधी रूप नहीं हो सकते। यदि है तो उनमें कोई एक ही रूप मौलिक एवं वास्तविक हो सकता है। शान, दर्शन व उपयोग आदि में जीव जो परिणमन करता है उससे उसके आत्म प्रदेशों का परिस्पंदन नहीं होता है। योग और क्रिया परिस्पंदनात्मक है। परिणाम और क्रिया दोनों जीव के भाव है। जब कोई जीव क्रिया करता है तब उसके आत्म प्रदेशों का परिस्पंदन होता है। परिस्पंदनात्मक भाव में एजनादि क्रिया तथा देशान्तर प्राष्टि रूप क्रिया करता है। चतुर्दशगुणस्थानवी जीव के सम्पूर्ण योग निरोध हो जाते है। जो जीव अयोगी होता है वह क्रियारहित होता है, अयोगी जीव अलेशी होते है। जहाँ योग है वहाँ क्रिया अवश्य है। मन-वचन-काययोगी की क्रियाओं से कर्मबंधन होता है। योग के साथ कषाय होती है तो सांपरायिकी क्रिया होती है, योग के साथ कषाय नहीं होती है तो ऐयोपथिकी क्रिया होती है। कहा है सूक्ष्मवादर-काय-वाङ्-मनोयोगनिरोधादक्रियाxxx सयोगित्वात सक्रिया। -पण्ण• प २२ । सू १५७३ । टीका अर्थात सूक्ष्म-बादर कायवाङ्-मनोयोग का निरोध होने से जीव अक्रिय हो जाता है। सयोगी जीव योग के कारण सक्रिय होता है। उपयोग जीव का मौलिक गुण है। यह गुण सयोगी व अयोगी जीव में होता है। अयोगी सर्वज्ञ का केवल ज्ञानोपयोग तथा केवल दर्शनोपयोग सर्वथा अपरिस्पंदनात्मक अकरण वीर्यवाला अर्थात सब प्रकार की क्रिया से रहित होता है । __ मति-भत-अवधि-मनःपर्यव वाले जीव सयोगी होते है, अयोगी नहीं होते हैं । केवलशानी जीव सयोगी भी होते है, अयोगी भी। वचनयोग-भाषा रूप है । द्रव्ययोग रूपी है, अचित्त है व अजीव है । यद्यपि भाषा जीवों के होती है, अजीवों के नहीं होती। बोलने के पूर्व, बोलने के पश्चात् भाषा नहीं कहलाती है। परन्तु बोलने के समय भाषा कहलाती है। बोलने से पूर्व तथा पश्चात भाषा का भेदन नहीं होता है। बोलने की भाषा का भेवन होता है। अस्तु भाषा जीव के द्वारा बोली जाती है और वह जीव के बंध और मोक्ष का कारण होती है। सयोगी जीव वर्तमानकाल में किसी न किसी कर्म को बांधता है लेकिन सलेशी शुक्ललेशी जीवों में ऐसा भी जीव होता है वह वर्तमान में किसी भी प्रकार का कर्म बंधन नहीं करता है। भग• श २६ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 28 ) मनोयोगी, वचनयोगी व काययोगी में छओं लेश्या होती है। सयोगी गुणस्थान में एक शुक्ल लेश्या होती है परन्तु अयोगी जीव लेश्या रहित ही होते हैं। भग० श २६ उदय के तेतीस बोलों में-आहारता सयोगी ये दो बोल सावद्य-निरपद्य दोनों है । सयोगी-नाम तथा मोहनीय कर्म का उदय है । ___कतिपय आचार्यों ने छः लेश्वा आहारता-सयोगी को योग आत्मा के अंतर्गत माना है। धर्म में आत्मा तीन योग, दर्शन-चारित्र, अधर्म में तीन आत्मा-कषाय-योग-दर्शन माना है। दया में दो आत्मा योग और चारित्र ; हिंसा में आत्मा एक योग माना है । शुभयोग में पाँच भाव, अशुभ योग में भाव दो उदय व पारिणामिक । आत्मा केवल योग माना है। शुभयोग नव तत्व में तीन-आस्रव-जीव-निर्जरा, अशुभ योग नव तत्व में-जीव, आभव माना है। (१) एक योग अपर्याप्तक अनाहारक में-कार्मणकाययोग । (२) दो योग-विकलेन्द्रिय के पर्याप्तक में-औदारिक और व्यवहार भाषा । (३) तीन योग-वायुकाय के अतिरिक्त चार स्थावर में-औदारिक, औदारिकमिभ और कार्मण काययोग। (४) चार योग-विकलेन्द्रिय में-औदारिक, औदारिकमिश्र, व्यवहार भाषा और कार्मण। (५) पाँच योग-वायुकाय में-औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिभ और कामण। (६) छह योग-असंज्ञी प्राणी में-औदारिक-औदारिकमिश्र, वैकिय, वैक्रियमिभ, व्यवहार भाषा और कार्मण । (७) सात योग-केवली में-सत्यमन, सत्यमाषा, व्यवहार मन, व्यवहार भाषा, औदारिक, औदारिकमिश्र और कामण । (८) आठ योग-संशी के अलब्धक आहारक-असंशी तथा सर्वश में सत्य मन, सत्यभाषा, व्यवहार मन, व्यवहार भाषा, औदारिक, औदारिकमिभ, वैक्रिय तथा वैक्रियमिश्र । (E) नव योग-पूर्ण आहारक शरीर में-चारमन के, चार वचन के और आहारक । (१०) दस योग-मिश्र गुणस्थान में-चार मन के, चार वचन के, वैक्रिय तथा औदारिक। (११) ग्यारह योग-नारक एवं देवों में, चारमन के, चार वचन के, वैक्रिय, वैक्रिय मिभ एवं कार्मण। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 29 ) (१२) बारह योग-श्रावक में-आहारक, आहारकमिश्र तथा कार्मण को छोड़कर । (१३) तेरह योग-तिय च एवं स्त्री में- आहारक एवं आहारकमिश्र को छोड़कर । (१४) चौदह योग-आहारक में कार्मण को छोड़कर । (१५) पन्द्रह योग-सइन्द्रिय में । धर्म और पुण्य दो है। धर्म आत्मा की सत्प्रवृत्ति है और पुण्य शुभयोग के द्वारा आत्मा के चिपकने वाले शुभकर्म पुद्गल है । सयोगी केवली गुणस्थान-केवली होने पर भी जो मन, बचन तथा काय की प्रवृत्तिवाला होता है, उसकी आत्मविशुद्धि । अयोगी केवली गुणस्थान-जो केवली योगकी प्रवृत्ति रहित होता है, उसकी आत्मविशुद्धि। पृथ्वी, पानी,अग्नि तथा वनस्पति में योग तीन-औदारिक, औदारिकमिश्र व कार्मण योग होते है। वायुकाय में पाँच योग होते हैं। तीन ऊपर के तथा वैक्रिय, वैक्रियमिश्र होता है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय में योग चार-औदादिक, औदारिकमिश्र, व्यवहार भाषा व कार्मण होते है। तिर्यंच पंचेन्द्रिय में तेरह योग होते है-(आहारिक-आहारिकमिभ काययोग को छोड़कर)। मनुष्य में योग पन्द्रह होते हैं तथा देव-नारकी में ग्यारह योग होते है-४ मन के, ४ वचन के, वै क्रिय, वैक्रियमिश्र व कार्मण काययोग होते है । कों की निर्जरा योग आत्मा से भी होती है, योग आत्मा के बिना चौदहवें गुणस्थान में भी निर्जरा होती है। कर्म की कर्ता तीन आत्मा है---योग, कषाय व दर्शन। योग आत्मा-भावजीव है परन्त द्रव्य जीव नहीं है। उदयभाव-तीन आत्मा है --कषाय-योग व दर्शन । उपशमभाव तीन आत्मा-योग, दर्शन, वचारित्र । योग आत्मा-आशाश्वत भी है । योग, दर्शन आत्मा सावध भी है, निरवद्य भी है। सावद्य-निरवद्य काम करने वाली आत्मा एक-योग। भगवती सूत्र में कहा हैमणजोगे, वइजोगे य चउफासे, कायजोगे अठ्ठफासे । -भग• श० १२।११७ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 30 ) अर्थात् मनोयोग, वचनयोग के पुद्गल चतुःस्पर्शी है तथा द्रव्य काययोग अष्टस्पर्थी है । नहीं है । प्रमत्त संयत शुभयोग की अपेक्षा अनारंभी है, आत्मारंभी, परारंभी, तदुभयारंभी पुलाक निर्यथ सयोगी है, अयोगी नहीं है । वे सयोगी - मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी होते हैं । इसी प्रकार वुक्कस, प्रतिसेवना, कषायकुशील व निग्रंथ के विषय में जानना चाहिए। स्नातक-सयोगी - अयोगी दोनों होते हैं । यद्यपि लेश्या, योग, अध्यवसाय के स्थान असंख्यात स्थान होते हैं । पर्याय अनंत होती है । संयम के भी स्थान असंख्यात होते हैं परन्तु पर्याय अनंत होती है । जाति - स्मरण ज्ञान, विभंग ज्ञान, अवधि ज्ञान, मनः पर्यवज्ञान, केवलज्ञान तथा गुणस्थान ऊर्ध्वारोहण के समय प्रशस्त अध्यवसाय, विशुद्धमान लेश्या के साथ शुभयोग होते हैं । इन सबकी प्राप्ति के समय शुभयोग होना ही चाहिये। सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय भी शुभयोग होता ही है । आगमों में असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में तीन अशुभ लेश्याओं का उल्लेख है लेकिन अध्यवसाथ प्रशस्त अप्रशस्त दोनों हैं । लेश्या सेव, योग से अध्यवसाय सूक्ष्मतर है। फिर भी विशुद्धमान लेश्या के साथ प्रशस्त अध्यवसाय का उल्लेख मिलता है । अध्यवसाय हमारी सूक्ष्मतर चेतना है। अग्निकाय, वायुकाय के जीवों में तीन अशुभ लेश्या का विवेचन है परन्तु उनमें अध्यवसाय प्रशस्त भी हो सकते हैं, अप्रशस्त भी हो सकते हैं । 1 मन एक ऐसी स्थिति भी बनती है लेश्या के द्वारा कर्म का बंध नहीं होता परन्तु योग रहते हुए कर्म का बंध अनिवार्य रूप से होगा । द्रव्यलेश्या के पुद्गल अष्टस्पर्शी है परन्तु द्रव्ययोग के पुद्गल चतुःस्पर्शी भी होते हैं । लेश्या भाव चेतना का सूक्ष्म-स्तर है। वचन काय की प्रवृत्ति को योग कहते हैं । फिर भी लेश्या और योग का क्या - क्या होना चाहिए— इस पर अभी तक सम्यग् प्रकार शोध नहीं हुआ है । लेश्या और योग चौदहवें गुणस्थान में नहीं है परन्तु शुद्ध ध्यान है। चौदहवें गुणस्थान में भी कर्मों से छुटकारा नहीं मिलता । यह निश्चित है कि जिसके कर्म नहीं है उसके न ध्यान है, न योग है, न लेश्या है, न अध्यवसाय है । अतः सिद्धावस्था में न ध्यान है, न योग है, न लेश्या है, न अध्यवसाय है । पृथ्वी काय की अपर्याप्त अवस्था में लेश्या तीन अशुभ होती है परन्तु अध्यवसाय प्रशस्त भी होते हैं, अप्रशस्त भी होते हैं । जब तक योग है तब तक लेश्या रहती है। योग के अभाव - चौदहवें गुणस्थान में लेश्या नहीं होती है । लेश्या योगान्तर्गत द्रव्य रूप है। योगान्तर्गत पुद्गल आत्मा में रही हुई कषाय को बढ़ाते हैं । जैसे पित्त के प्रकोप से क्रोध की वृद्धि होती है । व्यसुर कुमारों में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त असंशी पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिक के चौथे, पांचवे तथा गमक में अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 31 ) पर्याप्त असंशी पंचेन्द्रिय तियं च योनिक जीव जो असुरकुमारों में उत्पन्न होता है, उसकी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग की कही है। यह पल्योपम का असंख्यातवां भाग, पूर्वकोटि रूप समझना चाहिए क्योंकि सम्मूच्छिम तिर्यच का उत्कृष्ट आयुष्य पूर्व कोटि प्रमाण होता है और अपने आयुष्य के समान ही उत्कृष्टदेव आयुष्य को बाँधता है, अधिक नहीं बाँधता है, चूर्णिकार ने भी यही कहा है-यथा "उक्कोसेणं सतुल्यपुवकोडी आउयत्तं णिव्वत्तेइ ण य सम्मुच्छिम्मे पव्वकोडी आउयत्ताओ परो अस्थि ।” अर्थाव समुच्छिम तिर्यच की आयुध्य पूर्वकोटि से अधिक नहीं होती है अतः वह देवभव में भी पूर्व कोटि परिमाण की आयुष्य बांधता है परन्तु अधिक नहीं बाँधता है। असंशी तिर्यच पंचेन्द्रिय की जघन्य स्थिति अंतमहूर्त भी होती है और नरक में जाने वाले के अध्यवसाय स्थान अप्रशस्त होते हैं । आयुष्य की दीर्घ स्थिति हो तो-प्रशस्तअप्रशस्त दोनों प्रकार के अध्यवसाय हो सकते हैं। संशी तिर्यच पंचेन्द्रिय-जिसकी स्थिति जघन्य स्थिति हो तो वह यदि नरक में उत्पन्न हो तो अप्रशस्त अध्यवसाय तथा लेश्या तीन अशुभ होती है-योग भी अशुभ होते हैं । जिस मनुष्य ने अपने जीवन में अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान तथा आहारक शरीर को प्राप्त किया है वह उससे पतित होकर नरक में जा सकता है। चूर्णिकार ने कहा है-ओहिणाणमणपज्जव आहारयशरीराणि लद्धणं परिसाडित्ता उववज्जति -भग• श० २४॥चूर्णि अर्थात जो मनुष्य अवधि ज्ञान, मनः पर्यवज्ञान, आहारक शरीर प्राप्त करते है, वहाँ से गिरकर नरक में उत्पन्न हो सकते हैं । ___xxx ऐसे एकेन्द्रिय को जीव प्रथम-प्रथम समय कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेन्द्रिय कहते है । ६ प्रथम समयोत्पन्न होते हुए भी कृतयुग्म-कृतयुग्म राशि का पूर्व भव में अनुभव किया हुआ होनेसे उन्हें एकेन्द्रिय जीव प्रथम-अप्रथम समय कृतयुग्म-कृतयग्म एकेन्द्रिय कहते हैं । ७ प्रथम समयवर्ती और चरम समय अर्थात मरण समयवतीं होने से इन्हें प्रथम-चरम समय कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेन्द्रिय कहते हैं। ८ प्रथम समय में वर्तमान तथा अचरम अर्थात एकेन्द्रियोत्पत्ति के समयवती एकेन्द्रिय जीवों को प्रथम-अचरम समय कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेन्द्रिय कहा है। कृतयुग्म-कृतयुग्म संख्या के अनुभव के चरम और चरम समय अर्थात मरण समयवर्ती एकेन्द्रियों को चरमचरम समय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय कहा है । १. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 32 ) कृतयुग्म - कृतयुग्म संख्या के अनुभव के चरम और अचरम समय अर्थात् एकेन्द्रोत्पत्ति के समयवर्ती एकेन्द्रिय जीव चरम अचरम समय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय है । ११ योगी ( मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी ) जीन एजनादि क्रिया करता है, अयोगी जीव के एजनादि क्रिया नहीं होती । सयोगी जीव एजन ( कंपन ), विशेष कंपन, चलन ( एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना ) स्पन्दन ( थोड़ा चलना ) घट्टन ( सब दिशाओं में चलना ) क्षमित होता हुआ उदीरण आदि क्रियाएँ करता है और उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुञ्जन, प्रसारण आदि पर्यायों को प्राप्त होता है। वाला जीव सकल कर्म क्षय रूप अंतक्रिया नहीं कर सकता है । इसका कारण यह है कि उपर्युक्त क्रियाएँ करने वाला जीव आरम्भ, सरम्भ, समारम्भ करता है, इनमें प्रवृत्त होता है । पूर्वोक्त क्रियाओं को करने शैलेशी व्यवस्था में योग का निरोध हो जाता है । इसीलिए एजनादि क्रिया नहीं होती है । एजनादि क्रिया न होने से वह आरम्भादि में प्रवृत्त नहीं होता और इसीलिए वह प्राणियों के दुःखादि का कारण नहीं बनता है । इसीलिए योग निरोध रूप शुक्ल ध्यान द्वारा अक्रिय आत्मा की सकल क्षयरूप अंतक्रिया होती है । किसी अपेक्षा से चौदहवें गुणस्थान में एजन क्रिया नहीं है किन्तु सिद्ध के प्रथम समय में योग का अभाव होने पर भी एजन क्रिया होती है। सिर्फ एक समय की ऋजुगति होने के समय एजन क्रिया मानी जाती है । I कर्म-परमाणुओं को आकर्षित करने की क्रिया को भी आस्रव कहा जाता है । कर्म पुद्गल परमाणुओं का आकर्षण काययोग ( शरीर प्रवृत्ति ) से होता है । वाहरी पुद्गलों को आकर्षित करने वाले घटक के रूप में काययोग आस्रव बनता है। सभी कर्म परमाणु काययोग के द्वारा ही आकर्षित होते हैं । जैसे तालाब में नाले से जल आता है वैसे ही काययोग के द्वारा कर्म के परमाणु भीतर आकर जीव प्रदेशों के साथ सम्बन्ध स्थापित करते हैं। जैसे गीले कपड़े पर वायु द्वारा। लाये गये रजकण चिपकते हैं, वैसे ही राग द्वेष गीले बने हुए जीव पर काययोग द्वारा लाए गये कर्म परमाणु चिपकते हैं । जैसे तपा हुआ लोहfपंड जलकणों को आत्मसात कर लेता है वैसे ही कषाय से उत्पन्न जीव कर्म परमाणुओं को आत्मसात् कर लेता है । आसव के पाँच प्रकार है - १. मिथ्यात्व, २. अविरति, ३. प्रमाद, ४ कषाय और ५ योग । कषाय के समाप्त होने पर केवल योग से पुण्य कर्म का बंध होता है । मनुष्य के पास प्रवृत्ति के तीन साधन है मन, वचन और काय । ये तीनों योग कहलाते है । योग का अर्थ है-प्रवृत्ति, चंचलता या सक्रियता | Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 33 ) चार आस्रवों से चैतन्य मृच्छित होता है, इसलिए वे दुःख के हेतु बनते है । योग अपने आप में सुख और दुःख का हेतु नहीं है । यह मिथ्यात्व आदि चार आश्रवों में प्रवृत्त होता है तब दुःख का हेतु बन जाता है और जब यह तपस्या में प्रवृत्त होता है तब दुःख का हेतु नहीं होता है । कहा है गुणस्थान में कार्मण काययोग को बाद देकर चौदह योग होते हैं । षट् खंडागम की मान्यातानुसार शुक्ललेशी संयता-संयत में नौ योग होते है, शुक्ललेशी प्रमत संयत में ग्यारह योग होते हैं, शुक्ललेशी अप्रमत्त संयत में नौ योग होते है तथा शुक्ललेशी अपूर्व करण गुणस्थान यावत् सयोगी केवली गुणस्थान में योग का विवेचन औधिक यंत्र की तरह जानना चाहिए । छठे गुण ठाणे जिन कह्या दे, चवदे अशुभ योग आस्रव आज्ञा बाहर है, सावय है तथा शुभयोग आस्त्रव आज्ञा में है, निरवद्य है, आठ आत्मा में योग आत्मा भी है। अव्यवरराशि में तीन योग - औदारिक, औदारि मिश्र काययोग व कार्मण योग होता है । व्यवहार राशि में पन्द्रह योग होते है । योग चेतना की स्थूलतम हलचल है और अध्यवसाय सूक्ष्म आंतरिक । अध्यवसाय ( परिणाम, विचार ) चेतना की भावधारा का नाम है। तेजस् शरीर के साथ काम करने वाली भावधारा को लेश्या कहते हैं । भाव लेश्या योग के पूर्व की भावधारा है । जोग सुजोय जी ॥१३॥ - नियंठा दिग्दर्शन गा १३ पृ. ३१३ अमृत कलश भाग १ शुभयोग की प्रवृत्ति मात्र पुण्य बंध का हेतु है । जिस शुभयोग रूप क्रिया से निर्जरा होती है, उसी क्रिया से पुण्य का बंध होता है। प्रवृत्ति मात्र योग जन्य है । योग की उत्पत्ति द्वन्द्वात्मक है । नामकर्म के उदय और अन्तराय कर्म के क्षय-क्षयोपशम से योग की उत्पत्ति होती है। शुभयोग में मोह का अनुदय ( उपशम, क्षय, क्षयोपशम ) और जुड़ जाता है । जब योग स्वयं द्वान्द्वात्मक है तो उसकी निष्पत्ति भी द्वान्द्वात्मक है । उदयभाव से पुण्य का बंध तथा क्षायिक, क्षयोपशम, उपशम से निर्जरा होती है । प्रवृत्ति दो प्रकार की है शुभ और अशुभ । अशुभयोग से पाप का बंध होता है । शुभयोग से पुण्य का बंध तथा निर्जरा होना माना है । भी है शुभ लेश्या, शुभयोग से आकर्षित कर्म-वर्गणा शुभरूप में परिणत हो जाती है । अशुभ लेश्या, अशुभयोग से आकर्षित कर्म-वर्गणा अशुभ रूप में परिणत हो जाती है । योग आश्रव के शुभ-अशुभ दो भेद है । प्रकारान्तर से योग आखव के पन्द्रह भेद 5 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 34 ) १. प्राणातिपात आभव २. मृषावाद ३. अत्तादान ४. मैथुन ५. परिग्रह "9 ६. श्रोत्रेन्द्रिय प्रवृत्ति आस्रव " 39 "" ७. चक्षुरिन्द्रिय ८. घ्राणेन्द्रिय ६. रसेन्द्रिय १०. स्पर्शेन्द्रिय ११. मनप्रवृत्ति आस्रव "9 " "2 ל १२. वचन १३. काय " १४. भंडोपकरण रखना (अयत्ना से रखना) आश्रव १५. शूचि कुशाग्रमात्र सेवन आस्रव "9 योग आस्रव तेरहवे गुणस्थान तक रहता है । योग आस्रव की जनक प्रवृति एक शरीर नाम कर्म की है । अशुभयोग में चारित्र मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ सहायक बनती है । शुभयोग भाव पाँच है— मोह कर्म का उपशम, क्षायक, क्षयोपशम, नाम कर्म का उदय, अंतराय कर्म का क्षय, क्षयोपशम तथा पारिणामिक भव है । ये पाँचों भाव शुभ योग में है । योग की शुभता में मोह कर्म का अनुदय आवश्यक है । वह अनुदय उपशम, क्षायिक वक्षयोपशम तीनों में से किसी एक रूप में हो सकता है, चंचलता से इसका सम्बन्ध नहीं है । इसका सम्बन्ध है मात्र शुभता से । यद्यपि योग की उत्पत्ति का तात्विक आधार अंतराय कर्म का क्षय, क्षयोपशम और नाम कर्म के उदय से योग उत्पन्न होता है । मन, वचन काय की पौगलिक है किन्तु यही योग नहीं है । मन, वचन तथा काय का योग आत्म-प्रवृत्ति जुड़ने से जुड़ता है। वर्गणा द्रव्य मन, द्रव्य वचन, द्रव्य काय का योग हो सकती है किन्तु भावयोग आत्मा के संयोग से ही होता है, वही योग आस्रव है । अनुयोग द्वार सूत्र में जीवोदय निष्पन्न के भेदों में सयोगिता भी अन्तर्निहित है अतः भावयोग जीव है । भगवती में भाव लेश्या को अरूपी व जीव कहा है । भगवती सूत्र में आठ आत्मा में योग आत्मा का भी उल्लेख है, योग आत्मा योग आस्रव है । आस्रव के पांच भदा न भाग आस्रव भी है। योग के दो प्रकार है- शुभयोग व अशुभयोग | उनमें अशुभयोग सावय और शुभयोग से निर्जरा होती है, इस दृष्टि से निरवद्य है । अरुपी है, जीव परिणाम है । भाव योग Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 35 ) योग अस्रव है तथा इसके विपक्ष में अयोग संवर है। सम्पूर्ण रूप से अयोग संघर चौदहवें गुणस्थान में है। बीस संवर के भेदों में एक अयोग संवर है । अशुभ प्रवृत्ति सातवें गुणस्थान में सर्वथा रुक जाती है जबकि शुभ प्रवृत्ति तेरहवें गुणस्थान तक रहती है । उनका पूर्ण निरोध चौदहवें गुणस्थान में ही होता है। अपेक्षा भेद से आंशिक अयोग संवर छठे गुणस्थान से तेरहवे गुणस्थान तक है। किसी की मान्यता है कि सातवें से तेरहवें गुणस्थान तक आंशिक अयोग संवर होते हुए भी अयोग संवर नहीं होता है । एक चौदहवें गुणस्थान में ही पूर्ण अयोग संवर पूर्ण रूप से सधता है । पहले पुण्य का बंध होता है। योग की चंचलता के साथ शुभ कर्म वर्गणा का बंध हो जासा है। भावक की सामायिक में छः कोटि से प्रत्याख्यान होता है। पालन आठ कोटि से होता है। कोटि का अर्थ-भंग-प्रकार। करना, करवाना और अनुमोदन, मन, वचन और काय --ये तीन योग और तीन करण से नो भंग बनते हैं। जैसे १. करूँ नहीं-मन से, वचन से, काय से । २. करवाऊँ नहीं-मन से, वचन से, काय से ३. अनुमोदन नहीं करूँ-मन से, वचन से, काय से एक मान्यना है कि श्रावक के मन से अनुमोदन करने का त्याग नहीं हो सकता। इसलिए उसकी सामायिक आठ कोटि से होती है। दूसरी मान्यता के अनुसार श्रावक मन, वचन और काय से अनुमोदन का त्याग नहीं कर सकता। अतः उसकी सामायिक छह कोटि की ही होती है । श्रावक की सामायिक को लेकर अद्भुत मान्यता भेद संघ के विभक्तीकरण का हेतु वन गया ।१ चतुर्थ गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान की प्राप्ति के समय शुभयोग, शुभलेश्या तथा प्रशस्त अध्यवसाय होते है। सामायिक चारित्र, छेवोपस्थानीय चारित्र, परिहार विशुद्धि चारित्र, सूक्ष्म संपराय चारित्र और यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति के समय - शुभयोग-शुभलेश्या होते हैं। सूक्ष्म सम्पराय व यथाख्यात चारित्र में नियमतः शुभयोग होते हैं (चौदहवें गुणस्थान को छोड़कर) चूंकि चौदहवें गुणस्थान में यथाख्यात चारित्र है परन्तु अयोगी है। परिहार विशुद्धि चारित्र में प्रवेश और सम्पन्नता के समय शुभयोग-शुभलेश्या है। मध्यवर्ती काल में छओं लेश्या और शुभ-अशुभ दोनों योग होते है। ___ चारित्र-शुभ योग और अशुभ योग दोनों ही नहीं है क्योंकि चारित्र मोह कर्म का १ नोट-आठ कोटि और छह कोटि-ये स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय की उपशाखाएँ है। श्रावक की सामायिक के आधार पर इन उपशाखाओं का उद्भव हुआ। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 36 ) उपशम, क्षय या क्षयोपशम भाव है तथा चारित्र आत्मा है । शुभयोग - वीर्यान्तराय कम का क्षय, क्षयोपशम तथा शरीरनाम कर्म का उदय है । अशुभ योग मोह कर्म का उदय और शरीरनाम कर्म का उदय है । चारित्र भाव चार है - औपशाभिक, क्षायिक, क्षयोशमिक और पारिणामिक | चारित्र आत्मा एक है - चारित्र | चौदहवें गुणस्थान में योग नहीं है परन्तु चारित्र आत्मा है तथा कषाय भी नहीं है । योग के द्वारा होनेवाली क्रिया को करण कहते हैं। उसके तीन प्रकार है-करना, कराना व अनुमोदन करना । आचार्यों ने कहीं-कहीं योग को भी करण कहा है। तीनों करण का स्वरूप सदृश है। यदि किसी प्रवृत्ति के करने से पाप होता है तो कराने में भी पाप होता है और अनुमोदन में भी पाप होता है । इसी भाँति जिस प्रवृत्ति के करने में धर्म होता है तो उसके कराने व अनुमोदन में भी धर्म होगा । ब्रह्मचर्य के विवक्षा से २७ भेद भी किये गये हैं-देवता, मनुष्य व तिर्यच के साथ तीन करण व तीन योग से अब्रह्मचर्य का सेवन न करना । इस प्रकार ३ x ३३= २७ विकल्प हो जाते हैं । सुनि के शील-संयम साधना के उत्कृष्ट १८००० भेद हो जाते हैं । समझाने के लिए एक गाथा उपलब्ध होती है जे जो करंति मणसा, णिज्जिय आहारसन्ना सोइंदिये । पुढवि कायारंभ, खंतिजुत्ते ते मुणी वदे ॥ अर्थात पृथ्वी, अप, तेज, वाउ, वनस्पति, बेइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चउरिदिय, पंचन्द्रिय तथा अजीव – इन दस से क्षमादि दस धर्मों से गुणन करने से १०० भेद होते हैं । १०० × ५ - ५०० ( पाँच इन्द्रिय से गुणन करने से ) होते हैं । ५००x४ ( आहार आदि चार संज्ञा से ) गुणन करने पर २००० हो जाते हैं । इन भेदों के एक-एक का २००० होने से तीनों योगों के ( मन, वचन, काय ) ६००० होगे ! फिर करने, कराने व अनुमोदन - एक-एक ६००० होने से तीनों के ( ६००० × ३ ) १८००० हो जायेंगे । दिगम्वर ग्रंथों में भी शील के १८००० भेद मिलते हैं - वे हैं - स्त्री के चार प्रकार है, यथा- १ - मनुष्यणी, २ - देवांगना, ३ - पशु स्त्री, ४- - स्त्री चित्र । इन चारों के साथ तीन योग से अब्रह्म का सेवन नहीं करना । इस प्रकार ( ४X३ x ३ ) ३६ भेद हो गए। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 37 ) इन छत्तीस प्रकारों का पाँच इन्द्रियों से सेवन न करना । इस प्रकार (३६४५=१८०) भेद हो गये। विषय योग उत्पन्न होने वाले दस संस्कारों ( शरीर संस्कारादि ) से दूर रहना । इस प्रकार (१८०४१०=१००० ) भेद हो गए। दस संभोग प्रक्रिया और परिणाम से बचना । इस प्रकार (१८००x१०=१८०००) भेद हो गये । दस संभोग प्रक्रिया और परिणाम ये है १-कामचिंता, २--अंगावलोकनादि । महावत में देव, मनुष्य, तिर्यच संबंधी मैथून सेवन का तीन करण व तीन योग से प्रत्याख्यान होता है। अणुब्रत में व्यक्ति स्थूल रूप में स्वदार संतोष अर्थात परदार त्याग करता है। चतुर्थ अणुव्रत स्थूल मैथुन से विरमण रूप है । मैं जीवन-पर्यत देवता-देवांगना संबंधी मैंथून का द्विविध-त्रिविध (दो करण व तीन योग) से प्रत्याख्यान करता हूँ। परपुरुष-स्त्रीपुरुष और तिर्य'च-तियची संबंधी मैथून का एक करण, एक योग-शरीर से सेवन नहीं करूँगा। __ केवल ब्रह्मचर्य का पालन भाव दो भाव-क्षायोपशमिक व पारिणामिक । आत्मा-योग व देशचारित्र । संयम युक्त ब्रह्मचर्य का पालन करना भाव चार-उदय भाव को छोड़कर । आत्मा एकचारित्र । चूँकि कर्म बंध का मुख्य हेतु आस्रव है। ये पाँच है-मिथ्यात्व, अवत, प्रमाद, कषाय व योग। कर्म का मन, वचन व काय योग पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जेन मतानुसार शुभ-अशुभ घटनाएँ कर्मजन्य है । ग्रह उनकी अवगति में सहायक बनता है और कर्म फल के विपाकोदय भूमिका निर्मित करते हैं। पुण्य बंध में नाम कर्म का उदय अनिवार्य है। और नामकर्म के उदय में पुण्य बंध की भजना है। चौदहवाँ गुणस्थान अयोगी है। बिना योग के कर्मबंध नहीं होता है अतः उसे अबंधक गुणस्थान कहा है। शुभ प्रवृत्ति के समय अशुभ व अशुभ प्रवृत्ति के समय शुभ कर्म का बंध नहीं होता। एक समय में एक का ही बंध होता है। यह योग से संबंधित है। कषाय, प्रमाद, अवत आदि से समय-समय पर अशुभ कर्म बंधता है। इस दृष्टि से शुभ-अशुभ दोनों कर्म साथ में बंध सकते हैं। कर्म बंध के दो प्रकार है-साम्परायिक बंध और ईपिथिक बंध। कषाय और योग की चंचलता से साम्परायिक कर्म का बंध होता है। दसवें गुणस्थान तक कषाय की विद्यमानता से इस कम का बंध होता है । इयांपथ का अर्थ है-योग। जहाँ मात्र योग की चंचलता है वहाँ यह ईपिथिक बंध होता है। यह ई-पथिक बंध केवल वीतरागी के होता है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 38 ) चौदहवाँ गुणस्थान अयोगी है। बिना योग के कर्मबंध होता नहीं, अतः उसे अबंधक गुणस्थान माना है । अन्तराल गति में स्थूल शरीर नहीं होता है। अन्तराल गति दो प्रकार की होती है १-ऋजुगति और २-वक्रगति । आगम वाली के अनुसार तीर्थंकरों के प्रथम चार कल्याण ( गर्भ-जन्म-दीक्षाकेवलज्ञान ) एक ही नक्षत्र में होते हैं-परिनिर्वाण का नक्षत्र अन्य भी हो सकता है तथा वह भी हो सकता है। इस अवसर्पिणी कालके चौवीस तीर्थ करों के गर्भ आदि के कल्याण के समय इस प्रकार नक्षत्र रहे थे। १-ऋषभदेव के प्रथम चार कल्याण उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में तथा परिनिर्वाण अभिजिव नक्षत्र में हुआ। ( जंबू० ) २-अजितनाथ के प्रथम चार कल्याण रोहिणी नक्षत्र में तथा परिनिर्वाण मृगशिरा नक्षत्र में हुआ। (त्रिषष्टि) ३-चन्द्रप्रभु के प्रथम चार कल्याण अनुराधा नक्षत्र में तथा परिनिर्वाण ज्येष्ठा नक्षत्र में हुआ। (उत्तर पुराण) ४-श्रेयांसनाथ के प्रथम चार कल्याण श्रवण नक्षत्र में तथा परिनिर्वाण धनिष्ठा नक्षत्र में हुआ। (त्रिषष्टि-उत्तर पुराण) ५-मल्लिनाथ के प्रथम चार कल्याण अश्विनी नक्षत्र में तथा परिनिर्वाण भरणी नक्षत्र में हुआ। (शाता १८ व उत्तरपुराण) ६-वर्धमान के प्रथम चार कल्याण उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में व स्वाती नक्षत्र में परिनिर्वाण हुआ । ( आया० २।१५ ठाणांग ५) शेष तीर्थ करों के गर्भ-जन्म-दीक्षा-केवलशान व परिनिर्वाण का नक्षत्र एक ही था। १-संभवनाथ के पांचों कल्याण-मृगशिरा नक्षत्र में हुए । ( उत्तरपुराण) २-अभिनन्दन के पाँचो कल्याण पुनर्वसु नक्षत्र में हुए । ( उत्तरपुराण ) ३-सुमतिनाथ के पाँचों कल्याण मघा नक्षत्र में हुए । (उत्तरपुराण ) ४-पदमप्रभु के पाँच कल्याण चित्रा नक्षत्र में हुए । ( ठाणांग ५) ५-सुपाश्वनाथ के पाँच कल्याण विशाखा नक्षत्र में हुए । ( उत्तरपुराण ) ६---सुविधिनाथ के पाँचों कल्याण मला नक्षत्र में हुए । (ठणांग ५) ७-शीतलनाथ के पाँचों कल्याण पूर्वाषाढा नक्षत्र में हुए ( , ) ८-वासुपूज्य के पाँचों कल्याण विशाखा नक्षत्र में हुए । ( उत्तर पुराण) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 39 ) ६ से १६ विमलनाथ के उत्तराभाद्रपद में, अनंतनाथ के रेवती में, धर्मनाथ के पुष्य नक्षत्र में, शान्तिनाथ के भरणी नक्षत्र में, कुंथुनाथ के कृतिका नक्षत्र में, अरनाथ के रेवती नक्षत्र में, मुनिसुव्रत के श्रवण नक्षत्र में तथा नमिनाथ के अश्विनी नक्षत्र में पाँचों कल्याण हुए । ( ठाणांग ५ ) १७-१८ नेमिनाथ के चित्रा नक्षत्र में तथा पार्श्वनाथ के विशाखा नक्षत्र में पाँचों कल्याण हुए। ( ठाणांग ५, कप्प०, उत्तरपुराण ) | वह है योग और लेश्या में भिन्नता प्रदर्शित करने वाला एक और विषय है । वेदनीय कर्म का बंधन । सयोगी जीव के प्रथम दो भंग से अर्थात् (१) बाँधा है, बाँधता है व बाँधेगा (२) बाँधा है, बाँधता है, बांधेगा नही-से वेदनीय कर्म का बंधन करता है । लेकिन सलेशी जीव इन दो भंगों के अतिरिक्त चतुर्थ भंग (४) बाँधा है न बाँधता है, न बाँधेगा है, से वेदनीय कर्म का बंध करता है । सलेशी ( शुक्ललेशी - सलेशी ) के चतुर्थ भंग से वेदनीय कर्म का बंधन शोध का विषय है। फिर भी मूल पाठ में ( भग० श २६ । १) यह बात है । टीकाकार का कहना है कि "सलेशी जीव पूर्वोक्त हेतु से तीसरे भंग को बाद देकर अन्य भंगों से वेदनीय कर्म का बंधन करता है लेकिन उसमें चतुर्थ भंग घट नहीं सकता है क्योंकि चतुर्थ भंग लेश्यारहित अयोगी को ही घट सकता है । लेश्या तेरहवें गुणस्थान तक होती है तथा वहाँ तक भावलेश्या से बंध होता रहता है । कई आचार्य इसका इस प्रकार समाधान करते हैं कि इस सूत्र के वचन से अयोगीत्व के प्रथम समय में घण्टा लाला न्याय से परम शुक्ल लेश्या संभव है तथा इसी अपेक्षा से सलेशी शुक्ललेशी जीव के चतुर्थ भंग घट सकता है । तत्त्व बहुतगम्य है ।” हमारे विचार से इसका एक यह समाधान भी हो सकता है कि लेश्या परिणामों की अपेक्षा अलग से वेदनीय कर्म का बंधन होता है तथा योग की अपेक्षा अलग वेदनीय कर्म का बंधन होता है तब तेरहवें गुणस्थान में कोई एक जीव ऐसा हो सकता है जिसके लेश्या की अपेक्षा से वेदनीय कर्म की बंधन रुक जाता है लेकिन योग की अपेक्षा से चालू रहता है। ध्यानावस्था में एक सीमा तक अवचेतन मन सक्रिय रहता है । मन अर्थात् मनोयोग । चेतन मन की जागृति में अवचेतन मन प्रायः सोया रहता है। आचार्य हरिभद्र ने योगशतक के बारहवें अध्याय में कहा है - ध्यान में श्वास, सम्बन्ध में अनुभूतियाँ करता है-आदि-आदि । ध्यान से ध्यान भी एक महान कार्य है, जो शारीरिक, मानसिक तथा जमाव पर निर्भर है । इन्द्रिय, मन और चित्त के योग की चंचलता मिटती है आध्यात्मिक शक्तियों के सघन नोट- वासुपूज्य का जन्मनक्षत्र शतभिषा लिखा है ( पउम चरिय ) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 40 ) अस्तु भारतीय संस्कृति, जीवनदर्शन और साधना के विकास में भगवान् बुद्ध व भगवान् महावीर का अनन्य योगदान रहा है । डा० सर सी. वी रमन महान् वैज्ञानिक होने के साथ-साथ स्थिर चेता योगी भी थे । उन्होंने मन-वचन-काययोग को काफी स्थिर किया था। उनकी पत्नी का पूरा सहयोग रहा। सच्चा वैज्ञानिक वास्तव में योगी होता है । शुभ योग या शुभ अध्यवसाय के बिना सयोगी के निर्जरा नहीं हो सकती है और पुण्य का बंध भी नहीं हो सकता ! आत्मा की प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है - बाह्य और आभ्यंतर । जो बाह्य प्रवृत्ति होती है उसे योग कहते हैं और जो आभ्यन्तर प्रवृत्ति होती है। उसे अध्यवसाय कहते हैं। योग तथा अध्यवसाय से दोनों दो-दो प्रकार के होते हैं- शुभ और अशुभ । इनकी अशुभ प्रवृतिसे पापकर्म बंधता है और आत्मा मलिन होती है तथा शुभ प्रवृत्ति से निर्जरा होती है, आत्मा उज्ज्वल होती है और पुण्य बंधता है। शुभयोग मोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशय से तथा शुभ नाम के उदय से निष्पन्न होता है। वीर्यान्तराय कर्म का क्षय क्षयोपशम भी योग में उपादान कारण है। निर्जरा शुभयोग से होती है परन्तु शुभयोग आस्त्रव से नहीं । श्रीमद् जयाचार्य ने साधक-बाधक सोरठा में कहा है : शुभ योगां ने सोय रे, कहिये आश्रव निर्जरा । वास न्याय अवलोय रे, चित्त लगाई सांभलो || शुभ जोगा करी तास रे, कर्म कटे तिण कारणे । कही निर्जरा जास रे, करणी लेखे जाणवी । ते शुभ जोग करीज रे, पुण्य बंधे तिण कारणे । आश्रव जास कही जे रे, बारू न्याय विचारिये ॥ छद्मस्थना शुभयोग रे, कर्म कटे छे तेह थी । क्षयोपशम भाव प्रयोग रे, शिव साधक छे तेहसूँ । छद्मस्थना शुभ योग रे, पुण्य बंधे छे तेहथी । उद्यभाव सूं प्रयोग रे, शिव बाधक इस कारणे ॥ तत्वतः शुभ योग से निर्जरा होती है अतः मुक्ति का साधक है और शुभ योग से पुण्य का बंध होता है अतः वह मुक्ति का बाधक है । समान जाति वाले पुद्गल स्कंध को वर्गणा कहते हैं । उनके अनेक भेद है जैसे—, मनोवर्गणा, भाषावर्गणा व कायवर्गणा आदि। इन तीनों वर्गणा का सम्बन्ध मनोयोग, वचनयोग और काय योग से है । १ - जिन पुद्गल समूहकी सहायता से आत्मा विचार करने में प्रवृत्त होती है उसको मनोवगंणा कहते हैं । २- जिन पुद्गल समूह की सहायता से आत्मा बोलने भाषावर्गणा कहते हैं । प्रवृत्ति होती है उसको Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 41 ) ३-जिन पुद्गल समूह की सहायता से आत्मा हलन-चलन की क्रिया करती है उसको काय वर्गणा कहते है तथा इसकी सहायता से हलन-चलन की क्रिया होती है। योग और आत्मा कहिविहा णं भंते ! आया पण्णत्ता, गोयमा । अहविहा आया पण्णत्ता, तंजहा दवियाया, कसायाया, जोगाया x xx। -भग• श १२ । उ १० आत्मा के आठ भेद है-योग आत्मा का तीसरा भेद है। जीव की मन, वचन और काय की योगमय परिणति । आत्मा जीव का पर्यायवाची शब्द है अतः योग जीव की प्रवृत्ति है। द्रव्य आत्मा व जीव का एक ही अर्थ है। जीव परिणामी नित्य है। उसकी अवस्थाएँ बदलती रहती है और वे अनंत है। आत्मा उन-उन शब्दों का बोधक है। सयोगी और गुणस्थान ___कम्मविसोहि मग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवहाणा पण्णत्ता, तंजहा x x x सयोगी केवली, अजोगी केवली। -समवाओ १४५ कर्म की विशुद्धिर्मार्गणा की दृष्टि से चौदह गुणस्थान है। उसमें तेरहवाँ सयोगी केवली गुणस्थान है तथा चौदहवाँ अयोगी केवली गुणस्थान है। करण और योग पच्चीस बोल का चौबीसवाँ बोल करण और योग के प्रत्याख्यान रूप ४६ भाँगे का है। इसमें एक कोटि से नौ कोटि का प्रत्याख्यान किया जाता है । अंक ११-एककोटि का त्याग। पहले १ का अर्थकरण व दूसरे १ का अर्थयोग है:-इसके नौ भंग बनते है। १-करूँ नहीं, मन से २-करूँ नहीं, वचन से ३-कलं नहीं, काय से ४-कराऊँ नहीं, मन से ५-कराऊँ नहीं, वचन से ६-कराऊँ नहीं, काय से ७-अनुमोदू नहीं, मन से ८-अनुमोदूं नहीं, वचन से ६-अनुमोदूँ नहीं, काय से इसी प्रकार अन्य भंग के विषय में जान लेना चाहिए। चौदहवाँ गुणस्थान केवल पारिणामिक भाववाला होता है। वह अयोग संवर चार भाव वाला नहीं होता। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 42 ) कतिपय आचार्य सयोगी केवली के भाव मन तथा भावलेश्या नहीं मानते है 1 भगवती में मनोयोग से व शुक्ललेश्या से सयोगी केवली के वेदनीय कर्म का बंधन माना है यहाँ यह भी स्पष्ट कह देना उचित है कि कोई-कोई शुक्ललेशी केवल्य अवस्था में वेदनीय कम का बंधन नहीं करते हैं । योग आस्रव के गौण (अवान्तर ) भेद पन्द्रह है। उनका विवरण इस प्रकार है : १ - प्राणातिपात आस्रव - प्राणों का अतिपात-वियोजन करना, जीव-वध करना । २—मृषावाद आस्रव - झूठ बोलना ३- अदत्तादान आस्रव - चोरी करना केवली समुद्घात में काययोग होते हुए आयुष्य का बंधन नहीं होता है । औदारिक तेजस और कार्मण शरीर योग के बिना भी हो सकते हैं तथा बाकी दो शरीर की सत्ता में योग की नियमा है । योग शाश्वत भाव है । जैसे लोक- अलोक-लोकान्त- अलोकान्त, दृष्टि, ज्ञान, कर्म आदि शाश्वत भाव है वैसे ही योग भी शाश्वत भाव है । लोक आगे भी है, पीछे भी है, योग आगे भी है, पीछे भी है— दोनों अनानुपूर्वी है इनमें आगे-पीछे का क्रम नहीं है । इसी प्रकार अन्य सभी शाश्वत भावों के साथ योग भी आगे पीछे का क्रम नहीं है । सब शाश्वत भाव अनादि काल से है, अनंतकाल तक रहेंगे । पुद्गल का संसारी जीवों के साथ घनिष्ठ संबंध है और वह अनेक प्रकार से काम आता है । कहा है " द्रव्य निमित्तं हि संसारिणां वीर्यमुपजायते” अर्थात् संसारी जीवों का जितना भी वीर्य पराक्रम है वह सब पुद्गलों की सहायता से होता है। पुद्गल किस प्रकार संसारी जीवों के साथ व्यवहार में आते हैं इसे समझने के लिए भिन्न-भिन्न पुद्गल वर्गणाओं को जान लेना जरूरी है । वर्गणा के नौ भेद उपलब्ध होते हैं वैसे अनेक भेद है I १ - मनोवगणा, २ – भाषवर्गणा, ३ –: - शरीरवर्गणा, ४- - औदारिकवर्गणा; ५— वैक्रियवर्गणा ६ - आहारकवर्गणा ७ - तैजसवर्गणा, ८- कार्मणवर्गणा और ६- श्वासोकछुवा सवर्गणा । जीव के शुभाशुभ परिणाम को लेश्या कहते हैं । शरीर, वचन एवं मन के द्वारा होने वाले आत्म-प्रयत्न को योग कहते हैं । जैन परिभाषा में आत्मीय विचारों को भाव १. झीणीचर्चा ५।४२ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (43 लेश्या कहते हैं और उनके सहायक पुद्गलों को द्रव्य लेश्या कहते हैं । विचारधारा की शुद्धि - अशुद्धि में अनंत गुण तरतम रहता है । गति - अंतराल गति का एक प्रकार है । इस अवस्था में औदारिक मिश्र काययोग या वैक्रियमिश्र काय योग होता है । इस अवस्था में आदि के दो समुद्घात होते हैंयथा-वेदना- कषाय समुद्घात । वक्रगति में तीन योग मिल सकते हैं – औदारिकमिश्र, वै क्रियमिश्रकाय तथा कार्मण काययोग । समुद्घात उपर्युक्त दो ही होते हैं । षट्षंडागम के टीकाकार आचार्य वीरसेन ने कहा है संपहि मिच्छाइट्ठी ओघालावे भण्णमाणे अस्थि x x x । आहार- दुग्गेण विणा तेरह जोग । - षट् ० ० १ । १ । टीका ा पृ० २ | पृ० ४१५ अर्थात् मिथ्यादृष्टि में आहारक काययोग तथा आहारकमिश्र काययोग को बाद देकर तेरह योग होते हैं । अध्यवसाय आत्मा का सूक्ष्म परिणाम है । लेश्या-योग अशुभ होते हुए भी अध्यवसाय प्रशस्त भी हो सकते हैं। चौबीस ही दंडकों में अध्यवसाय प्रशस्त भी होते हैं, अप्रशस्त भी होते हैं ।' अभिधान राजेन्द्र कोष में कहा है सूक्ष्मेषु आत्मनः परिणामविशेवेषु । ― - अभिधान० भाग १ | पृ० २३२ अर्थात् अध्यवसाय आत्मा का सूक्ष्म परिणाम है । अध्यवसाय से लेश्या व योग स्थूल है । अध्यवसाय चिन्तार्या- प्रज्ञापना पद ३४) अध्यवसाय सूक्ष्म चिन्तनात्मक है। शुभपरिणाम में योग भी आ जाता है। योग की क्रिया पच्चीस प्रकार की है। इनमें से २४ सपरायिकी है और एक पथिकी। पथिकी तो मात्र योग से ही संबंधित रहती है परन्तु सांपरायिकी क्रियाएँ कषाय से अनुप्राणित है। इन सब में योग प्रवृत्ति रहते हुए भी इन्हें सांपरायिक नाम दिया है। वीर्यान्तकाय कर्म के जीव का योग दूसरे आत्म प्रदेशों के परिस्पंदन ( कंपन ) को योग कहते हैं । क्षयोपशमादि की विचित्रता से योग के पन्द्रह भेद होते हैं। किसी जीव की अपेक्षा जघन्य ( अल्प ) होता है और किसी जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट होता है । सबसे जघन्य योग सूक्ष्म अपर्याप्त एकेन्द्रिय के होता है। क्योंकि उनका शरीर सूक्ष्म और अपर्याप्त होने से दूसरे सभी जीवों के योगों की अपेक्षा उसका योग सबसे अल्प होता है और यह कार्मण शरीर द्वारा औदारिक शरीर ग्रहण करने के प्रथम समय में होता है । तत्पश्चात् समय-समय योगों की वृद्धि होती है और उत्कृष्ट योग तक बढ़ता है । १. प्रज्ञापना पद ३४ / सू० २०४७, ४८ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 44 ) आहारक नारक की अपेक्षा अनाहारक नैरयिक हीन योग वाला होता है, क्योंकि जो नारकी ऋजुगति से आकर आहारकपने उत्पन्न होता है वह निरन्तर आहारक होने के कारण पद्गलों से उपचित ( बढा) होता है । अतः वह अधिक योग वाला होता है। जो नारकी विग्रहगति से आकर अनाहारकपने उत्पन्न होता है-वह अनाहारक होने से पदगलों का अनुपचित होता है अतः हीन योग वाला होता है । द्रव्य वचनयोग और भाव वचनयोग। भाषा वर्गणा के पुदगलों को द्रव्य-वचन योग कहा जाता है और जीव का जो भाषा-प्रवर्तक प्रयत्न होता है वह भाव-वचनयोग कहलाता है। ३-काययोग-काय-शरीर की प्रवृत्ति के लिए जो शरीर वर्गणा के पुदगल ग्रहण किये जाते है वे है-द्रव्यकाय योग और उन पुद्गलों की सहायता से जो जीव की प्रवृत्ति होती है वह है-भावकाय योग । कार्मणकाय योगी जीव आयुध्य कर्म का बंधन नही करता है, कदाचित केवल साता वेदनीय कर्म का बंधन करना है। उसके उत्कृष्ट सात कर्म का बंधन हो सकता है। तेजोलेशी असंशी जीव सयोगी होते हुए भी आयुष्य कम का बंधन नहीं करते है। तथा सम्यक्त्वी असंशी जीव भी सयोगी होते हुए भी आयुष्य का बंधन नहीं करते है। योग के पन्द्रह भेद इस प्रकार बनते हैं - १-मनोयोग के चार भेद (१) सत्य मनोयोग, (२) असत्य मनोयोग, (३) मिश्र मनोयोग और (४) व्यवहार मनोयोग। २-वचनयोग के चार भेद (५) सत्यवचन योग, (६) असत्यवचन योग, (७) मिश्रषचन योग और (८) व्यवहार वचनयोग। ३-काययोग के सात भेद (e) औदारिक काययोग, (१०) औदारिक मिश्रकाय योग, (११) वैक्रिय काय योग, (१२) वैक्रिय मिश्रकाय योग, (१३) आहारक काययोग, (१४) आहारक मिभकाय योग और (१५) कामण काययोग। जिस प्रकार योग, ध्यान आदि के साथ लेश्या के विवेचन मिलते हैं उसी प्रकार द्रव्य लेश्या के साथ द्रव्यमन, द्रव्यवचन, द्रव्यकषाय आदि का तुलनात्मक मूल पाठ-आगम पाठ या टीकाकारोंका कथन अनेक स्थल पर है । लेश्या और योग का अविनामाव सम्बन्ध है। प्राचीन आचार्यों ने “योगपरिणामो लेश्या" अर्थात लेश्या-योग परिणाम-कहा Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 48 ) है। तथा यह भी कहा है-“कषायोदयरंजिता योग प्रवृति लेश्या । अर्थात लेश्या कषायोदय से अनुर जित योग प्रवृत्ति है । भावयोग जीवोदय निष्पन्न भाव भी है अतः कर्मों के उदय से जीव के मन-वचनकाययोग होते है । द्रव्ययोग पौद्गलिक है अतः अजीवोदयनिष्पन्न होने चाहिए-"पओगपरिणामए-वण्णे, गंधे, रसे, फासे, सेत्तं अजीवोदय निम्फन्ने।" १-द्रव्य योग क्या है ? (१) द्रव्य योग अजीव पदार्थ है । (२) मनोयोग तथा वचनयोग अनंतप्रदेशी चतुःस्पशी पुदगल है, काययोग-अनंत प्रदेशी अष्टस्पर्शी पुद्गल है । (३) इसकी अनंत वर्गणा होती है । (४) इसके द्रव्यार्थिक स्थान असंख्यात है। (५) इसके प्रदेशार्थिक स्थान अनंत है । (६) तीनों योगों में पाँच वर्ण होते हैं । (७) योग असंख्यात प्रदेश अवगाह करते हैं । (८) वे परस्पर परिणामी है । (६) यह आत्मा के सिवाय अन्यत्र परिणत नहीं होते हैं। (१०) यह अजीवोदय निष्पन्नभाव है। (११) द्रव्ययोग-मनोयोग-वचनयोग अगुरुलघु है, काययोग गुरुलघु है। (१२) यह भावितात्मा अनगार के द्वारा अगोचर है अज्ञेय है। (१३) यह जीवग्राही है। (१४) अशुभ योग-द्रव्य अशुभयोग दुर्गधवाले है, द्रव्य शुभयोग सुगंध वाले है । (१५) अशुभयोग अमनोज्ञ रस वाले है, शुभयोग मनोज्ञ रसवाले हैं। (१६) द्रव्य अशुभयोग शीतरुक्ष स्पर्शवाले है, द्रव्य शुभयोग ऊष्णस्निग्ध स्पर्श वाले है। (१७) द्रव्य अशुभयोग वर्ण की अपेक्षा अविशुद्ध वर्णवाले है तथा द्रव्य शुभयोग विशुद्ध वर्णवाले है। (१८) यह कर्म पुद्गल से स्थूल है । (१६) यह द्रव्य कषाय से स्थूल है। (२०) द्रव्य लेश्या के पुद्गल से द्रव्य मनोयोग-द्रव्य वचन योग के पुद्गल सूक्ष्म है तथा काययोग के पुद्गल स्थूल पड़ते हैं। (२३) यह औदारिक शरीर पुदगलों से सूक्ष्म है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 46 ) (२२) यह शब्द पुद्गलों से सूक्ष्म भी है, स्थूल भी है। (२३) इसे तैजस शरीर पुद्गलों से सूक्ष्म होना चाहिए । (२४) इसे वैक्रिय शरीर पुद्गलों से सूक्ष्म होना चाहिए | (२५) यह इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य है । (२६) यह योगात्मा के साथ समकालीन है । (२७) द्रव्ययोग के साथ द्रव्य लेश्या का भी अविनाभाव सम्बन्ध है । (२८) मनोयोग - वचनयोग के पुद्गल -स्निग्ध- रुक्ष शीत ऊष्ण के होते हैं । (२६) यह नो कर्म पुद्गल है, कर्म पुद्गल नहीं है । (३०) यह पुण्य - पाप-बंध नहीं है । (३१) यह आत्म-प्रयोग से परिणत है, अतः प्रायोगिक पुद्गल है । (३२) यह पारिणामिक भाव है । ( ३३ ) इसका संस्थान अज्ञात है । (३४) देश बंध - सर्व बंधन का योग सम्बन्धी पाठ नहीं हैं । (३५) यह कषाय के अंतर्गत पुद्गल नहीं है । क्योंकि अकषायी के भी योग होता है लेकिन यह सकषायी जीव के कषाय से सम्भवतः अनुरंजित है । लेश्या के साथ अनुरंजित है । २- भाव योग क्या है ? (१) भाव योग जीव परिणाम है। (२) भाव योग अरुपी है । यह अवर्णी, अगंधी- अरसी अस्पर्शी है । (३) भाव योग अगुरुलघु है । (४) विशुद्धता - अविशुद्धता के तारतम्य जी अपेक्षा इसके असंख्यात स्थान है । (५) यह जीवोदय निष्पन्न है। 1 (६) आचार्यों के कथनानुसार भाव योग क्षय, क्षयोपशमन-उपशम भाव भी है। (७) योग शुभ - अशुभ दोनों है । (८) शुभ योग सुगति का हेतु है अशुभ योम दुर्गति का हेतु है । (६) नव पदार्थ में भाव योग जीव, आस्रव व निर्जरा है । (१०) आस्रव में योग आस्रव है। (११) शुभ भाव योग से निर्जरा होती है । ( १२ ) शुभयोग के समय शुभ लेश्या होती है । (१३) अशुभ योग के समय अशुभ लेश्या होती है । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 47 ) (१४) जो जीव सयोगी है वह नियमतः सलेशी है तथा जो जीव सलेशी है वह नियमित सयोगी है। प्रतीत होता है कि परिणाम, (भावयोग ) अध्यवसाय व लेश्या में बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है। जहाँ परिणाम शुभ होते हैं, अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं वहाँ लेश्या विशुद्धमान होती है। कर्मों की निर्जरा के समय ( सयोगी अवस्था में ) में परिणामों का शुभ होना, अध्यवसायों का प्रशस्त होना तथा लेश्या का विशुद्धमान होना आवश्यक है। जब वैराग्य का भाव प्रकट होता है तब इन तीनों में क्रमशः शुभता, प्रशस्तता और विशुद्धता होती है। यहाँ परिणाम शब्द से जीव के मूल दस परिणामों में किसी परिणाम की ओर इंगित किया गया है यह विवेचनीय है । अतः प्रतीत होता है कि मन व चित्त के परिणामों का (योग) का, लेश्या का और अध्यवसाय का सम्मिलित रूप से कर्म बंधन में पूरा योगदान है। इसी प्रकार कम की निर्जरा में भी इन तीनों का पूरा योगदान होना चाहिए। यह ध्यान देने की बात है। चौदहवें गुणस्थान में-अयोगी अवस्था में लेश्या-योग-अध्यवसाय के अभाव में भी शुक्ल ध्यान से परम निर्जरा होती है। अतः योग के बिना भी निर्जरा होती है। योगत्व को कहीं पर संसारस्थत्व-असिद्धत्व की तरह अष्ट कर्मों का उदयजन्य माना है लेकिन इससे द्रव्ययोग के ग्रहण की प्रक्रिया एक विचारणीय विषय है। उत्तराध्ययन ३४/२१ में तीन योगों की अगुप्ति को कृष्ण लेश्या का लक्षण कहा है। मन-वचन-काय के योगों को सलेशी कहा है अतः अशुभ लेश्याओं का समावेश तीनों योगों में होता है । केवली के तेरहवें गुणस्थान में शुक्ल लेश्या होती है। वह भाव शुक्ल लेश्या भी होती है व द्रव्य शुक्ल लेश्या भी होती है। केवली के योग तीनों होते हैं । योग शरीर नाम कर्म की परिणति विशेष है। अन्यत्र ठाणांग के टीकाकार कहते है कि योग वीर्य अंतराय के क्षय-क्षयोपशम से होता है । द्रव्यतः मनोयोग तथा वाक योग के पुदगल चतुःस्पी है (शीत-ऊष्ण-रूक्ष-स्निग्ध) तथा द्रव्य काययोग के पुद्गल अष्टस्पर्शी है। द्रव्यतः भी योग और लेश्या भिन्न-भिन्न है । योग वीर्य से प्रवाहित होता है ( भग० श १ । उ ३ । सू १३० । तेरहवें गुणस्थान के शेष के अन्तमहूर्त में मनोयोग तथा वचनयोग का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है तथा काययोग का अर्धनिरोध हो जाता है तब लेश्या परिणाम तो होता है लेकिन काययोग की अर्धता-क्षीणता के कारण द्रव्य लेश्या के पुद्गलों की रुक जाना चाहिए। १४वें गुणस्थान के प्रारम्भ में जब योग का पूर्ण निरोध हो जाता है तब लेश्या का परिणमन भी सर्वथा रूक जाता है अतः तब जीब अयोगी-अलेशी हो जाता है। जब केवली समुद्घात करते हैं उस समय तीसरे, चौथे व पाँचवे समय में कामण काययोग होता है। कामण काययोग की स्थिति जघन्य एक समय, उत्कृष्ट तीन समय की होती है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 48 ) विभिन्न जीवों में योग इस प्रकार है१ सर्वजीव में-१५ योग २ नारकी में-११ योग ( ४ मन के, ४ वचन के, वैक्रिय, वैक्रियमिभ काय और कार्मण काययोग। ३ तियच में-१३ योग ( आहारिक व आहारिक मिश्रकाय छोड़कर) ४ तियंचणी में-१३ योग ( ५ मनुष्य में-१५ योग ६ मनुष्यणी में-१३ योग (आहारक, आहारक मिभ काययोग छोड़कर ७ देवों में-नारकी की तरह ११ योग ८ देवी में-११ योग असंशी मनुष्य में-३ योग-औदारिक, औदारिकमिश्र व कामण काययोग असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय -४ योग (औदारिक, औदारिकमिश्र, व्यवहार भाषा व कार्मणकाय योग) दीखते हुए धान के दाने में एक औदारिक काययोग चलती हुए मक्षिका में-दो योग-औदारिक काययोग व व्यवहार भाषा तीसरे गुणस्थान की नियमा में-८ योग (४ मन के व ४ वचन के योग) अपर्याप्त देव में-तीन योग (वे क्रिय, वैक्रिय मिश्र व कार्मण काययोग) अपर्याप्त मनुष्य में-तीन योग (औदारिक, औदारिकमिभ व कार्मणकाय योग) तीर्थ कर में-५ योग (सत्य वचन, व्यवहार वचन, सत्य मनोयोग, व्यवहार बनोबोग तथा औदारिक काययोग सामान्य केवली में-७ योग ( अनेन्द्रिय की तरह ) सकायी में-१५ योग पृथ्वीकाय में-३ योग-औदारिक, औदारिकमिश्र व कार्मण काययोग अप्काय मेंसाधारण वनस्पतिकाय मेंवनस्पतिकाय में- , अग्निकाय मेंवायुकाय में-५ योग ( एकेन्द्रिय की तरह) त्रसकाय में-१५ योग सयोगी में-१५ योग मनोयोगी मैं --१४ योग (कामणकाय योग छोड़कर) वचनयोगी मेंकाययोगी में-१५ योग अयोगी में योग नहीं है सवेदी में-१५ योग स्त्री वेदी में-१३ योग ( आहारक व आहारकमिश्र काययोग वाद देकर ) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 49 ) पुरुष वेदी में-१५ योग नपुंसक वेदी में-१५ योग अवेदी में-७ सात ( अनेन्द्रिय की तरह) सकषायी में-१५ योग क्रोध कषायी में-१५ योग मान कषायी में-१५ योग माया कषायी में-१५ योग लोभ कषायी में-१५ योग अकषायी में-सात योग ( अनेन्द्रिय की तरह) सलेशी में-१५ योग | कृष्ण लेशी में-१५ योग नील लेशी में-१५ योग कापोत लेशी में-१५ योग तेजो लेशी में-१५ योग पदम लेशी में-१५ योग शुक्ललेशी में-१५ योग अलेशी में-योग नहीं है सम्यक्त्वी में-१५ योग सास्वादान सम्यक्त्वी में-१३ योग (आहारक व आदारकमिभ काययोग को छोड़कर ) उपशम सम्यक्त्वी में-१५ योग क्षायिक सम्यक्त्वी में-१५ योग वेदक सम्यक्त्वी में-१५ योग क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी में-१५ योग मिथ्यात्वी में-१३ योग-आहारक व आहारकमिश्र काययोग बाद देकर सम्यग-मिथ्यात्वी में-१० योग (४ मन के, ४ वचन, औदारिक-वैक्रिय काययोग) सामायिक संयती में-१४ योग ( कार्मण काययोग छोड़कर) छेदोपस्थापनीय संयती में-१४ योग , परिहार विशुद्धि संयती-६ योग (४ मन के, ४ वचन के योग व १ औदारिक काययोग) सूक्ष्म-संपराय-संयती में-५ योग ( तीर्थकर की तरह) यथाख्यात संयती में-७ योग ( अनेन्द्रिय की तरह ) संयता-संयती में-१२ योग ( आहारक, आहारिकमिश्र व कामण काययोग बाद देकर ) असंयती में-१३ योग ( आहारक-आहारकमिश्र काययोग बाद देकर) सज्ञानी में-१५ योग मतिज्ञानी में-१५ योग Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 50 ) अतिशानी में-१५ योग अवधिज्ञानी में-१५ योग मनःपर्यवशानी में-१४ योग ( कार्मण काययोग को बाद देकर ) केवलज्ञानी में-७ योग ( अनेन्द्रिय की तरह) अशानी में-१३ योग ( आहारक, आहारकमिश्र काययोग बाद देकर ) श्रतिअज्ञानी में-१३ योग । विभंगअज्ञानी में-१३ योग चक्षदर्शनी में-१४ योग ( कार्मण काययोग बाद देकर ) अचक्षदर्शनी में-१५ योग अवधिदर्शनी में-१५ योग केवलदर्शनी में-७ योग ( अनेन्द्रिय की तरह) संयती में-१५ योग । सागारोवउत्ता में-१५ योग अणागारोवउत्ता में-१५ योग आहारिक में-१४ योग (कामण काययोग बाद देकर) अणाहारिक में-१ योग कार्मण काययोग भाषक में-१४ योग ( कामण काययोग बाद देकर ) अभाषक में-५ योग ( औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र व कामण काययोग) परित में-१५ योग अपरित में-१३ योग (आहार, आहारकमिश्र काय योग बाद) पर्याप्त में-१५ योग अपर्याप्त में-५ योग-अभाषक की तरह ) सूक्ष्म में-३ योग ( औदारिक, औदारिकमिश्र व कार्मण काययोग) बादर में-१५ योग संज्ञी में-१५ योग असंज्ञी में-६ योग (औदारिक, औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रिय, वैक्रिययिश्र काय, व्यवहार वचनव कार्मण काययोग ) भवि में-१५ योग चरम में-१५ योग अभवि में-१३ योग ( अहारक व आहारकमिश्र काययोग छोड़कर ) सिद्ध में-योग नहीं है सइन्द्रिय में-१५ योग एकेन्द्रिय में-५ योग ( औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र तथा कार्मण काययोग) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वीन्द्रिय - ४ योग ( औदारिक, औदारिकमिश्र, कार्मण काययोग व व्यवहार भाषा त्रीन्द्रिय में- -४ योग चतुरिन्द्रिय में - ४ योग पंचेन्द्रिय में – १५ योग ५ अचरम-समय ६ प्रथम- प्रथम ७ प्रथम- अप्रथम ८ प्रथम-चरम ६ प्रथम- अचरम १० चरम-चरम ११ चरम- अचरम 33 अनेन्द्री में - ७ योग (सत्यमन, व्यवहारमन, सत्य वचन, व्यवहार वचन, औदारिक, औदारिकfor तथा कार्मण काययोग " कृतयुग्म - कृतयुग्म आदि १६ महायुग्म है । प्रत्येक महायुग्म के ग्यारह ग्यारह उद्देशक है। ग्यारह उद्देशक के नाम इस प्रकार है । १ अधिक कृतकृतयुग्म - कृतयुग्म २ प्रथम-समय ३ अप्रथम-समय ४ चरम-समय " 35 19 23 " " 33 " 33 "" در "2 "" "" इनमें प्रथम, तृतीय व पाँचवें उद्देशक के विवेचन में द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंशी पंचेन्द्रिय में वचन योग व काययोग होते हैं तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय में तीनों योग होते है । अवशेष आठ उद्देशक के विवेचन में सब स्थान पर केवल काययोग कहना चाहिए । जरा ( वृद्धावस्था ) शारीरिक दुःखरूप है और शोक ( खेद हीनता ) मानसिक दुःखरूप है । इसलिए जिन जीवों के मनोयोग नहीं है, उन्हें केवल जरा होती है और मनोयोग वाले जीवों को जरा और शोक दोनों होते हैं । पृथ्वी कायिक से चतुरिन्द्रिय तक के जीवों के मनोयोग नहीं है अतः जरा है परन्तु शोक नहीं है बाकी जीवों के जरा और शोक दोनों है । १ औदारिक काययोग — औदारिक शरीर वाले मनुष्य और तिर्यंचों में शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद जो हलन चलन की क्रिया होती है - वह ओदारिक काययोग । २ औदारिक मिश्र काययोग - यह चार स्थान पर मिलता है । (क) मनुष्य एवं तिर्यंचगति में उत्पन्न होने के समय में जीव आहार ले लेता है, Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 ) परन्तु शरीर पर्याप्ति का बंध पूर्ण नहीं हो पाता, उस अवस्था में औदारिकमिश्र काययोग होता है। (ख) वैक्रिय लब्धि वाले मनुष्य और तिर्यच वैक्रिय रूप बनाते है । परन्तु जब तक वह पूर्ण नहीं होता, तब तक वैक्रिय काययोग के साथ औदारिकमिश्र काययोग होता है। (ग) विशिष्ट शक्ति संपन्न योगी आहारक लब्धि को काम में लाता है, परन्त जब तक आहारक शरीर पूरा नहीं बन जाता तब तक आहारक काय योग के साथ औदारिक मिश्र काययोग होता है। (घ) केवली समुदघात के दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिक-मिश्र-काय योग होता है। ३-वैक्रिय काययोग-देवता और नारकी में शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद वैक्रिय-शरीर की तथा मनुष्य और तिर्यच में लब्धि जन्य वैक्रिय शरीर की जो क्रिया होती है वह वैक्रिय काय योग है। ४-वैक्रिय मिश्रकाय योग-यह दो स्थान पर उपलब्ध हो सकता है। (क) देव और नारकी में उत्पन्न होनेवाला जीव आहार ले लेता है परन्त शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं बाँधता है उस अवस्था में वैक्रिय मिश्रकाय योग होता है । (ख) औदारिक शरीर वाले मनुष्य और तिर्य'च अपनी विशिष्ट शक्ति से वैक्रिय रूप बनाते हैं और उससे फिर समेटते हैं परन्तु जब तक औदारिक पुनः पूर्ण न बन जाए तब औदारिक काययोग के साथ वैक्रिय मिभकाय योग होता है। ५-जब आहारक शरीर पूरा बनकर क्रिया करता है तब उसको कहते हैं आहारक काययोग । आहारक काययोग वाले चौदहपूर्वी होते हैं । ६-आहारकमिश्र काय योग -- जिस समय आहारक शरीर अपना कार्य करके वापस आकर औदारिक शरीर में प्रवेश करता है उस समय औदारिक के साथ आहारक मिश्रकाय योग होता है। ७-कामण काययोग-एक समप वाली अंतराल गति में जीव अनाहारक नहीं होता है अतः इस अवस्था में कार्मण काययोग नहीं होता है। तीन-चार समय वाली अंतराल गति में कामण काययोग होता है। अंतराल गति दो प्रकार की है : (१) ऋजुगति और (२) वक्रगति । योग का एक अर्थ 'ध्यान' भी मिलता है। आचार्य हरिभद्र ने योग बिन्तु में योग का जो क्रम उपस्थित किया है वह इस प्रकार है: Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 53 ) अध्यात्म भावानां ध्यान, समता वृत्तिसंक्षयः। मोक्षेण योजनाद् योग, एव श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।। ३१ ॥ अर्थात अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय-ये योग के भेद है। ये साधक को मोक्ष के साथ योजित करते हैं जोड़ते हैं। अतएव इन्हें योग कहा जाता है। ये क्रमशः उत्तरोत्तर एक-दूसरे से उत्तम है । एक अन्य अपेक्षा से तात्त्विक, अतात्त्विक, सानुबंध, अचर-निरनुबंध, आस्रव और निरास्रव योग के भेद है।' स्राव वह योग है, जो आस्रव-श्रोत या प्रवाह से युक्त है। यहाँ आचार्य द्वारा अभिव्यक्त आश्रव योग में अशुभ योगास्रव का प्रवर्तन नहीं रहता लेकिन शुभ योगास्त्रव का रहता है। शुभ कर्म पुद्गल आत्म-संश्लिष्ट होते रहते हैं। निरास्रव योग में आस्रव का प्रवर्तन नहीं होता है। अस्तु आचार्य ने स्राश्रव योग से 'दीर्घसंसार' व निरास्रव योग को दीर्घ संसार नहीं कहा है। कहा है :- ध्यानं विषये तस्मिन्नेकप्रत्ययसंतति, ध्येय में एकाग्रता का हो जाना ध्यान है । ध्यान से मनोयोग को साधा जा सकता है। Timi हलन-चलन की प्रवृत्ति को काययोग कहते हैं। शरीर को प्रवृत्त करने वाली शक्ति का नाम-कायबल है । यह अंतराय कम के क्षय-क्षयोपशम से प्राप्त होता है । आस्रव का एक भेद योग आस्रव है। मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को योग आस्रव कहते हैं। इसके दो भेद है-शुभयोग आस्रव और अशुभ योग आस्रव । शुभयोग से निजरा होती है। उस अपेक्षा से शुभ योग आस्रव नहीं, किन्तु वह शुभ कर्म के बंध का कारण भी है । अतः वह शुभ योग आस्त्रव भी है । षट् खंडागम में अप्रमत्त गुणस्थान से क्षीण कषाय गुणस्थान में नौ योग का उल्लेख किया है--चार मन के योग, चार वचन के योग तथा एक औदारिक काययोग। ( यह दिगम्वर मान्यता है ) श्वेताम्बर मतानुसार इन गुणस्थान में पाँच योग मिलते है--सत्यमन योग, व्यवहार मनोयोग, सत्यवचन योग, व्यवहार वचन योग तथा औदारिक काय योग । तत्व केवली गम्य है। जीवाश्रित पारिणामिक भाव के दस भेदों में योग का भी उल्लेख है (१) गति, (२) इन्द्रिय (३) कषाय, (४) लेश्या, (५) योग, (६) उपयोग, (७) शान, (८) दर्शन, (६) चारित्र, और (१०) वेद ।। १. योग विन्दु ३२ से ३४ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 54 ) प्रतिसंलीनता के चार प्रकार में एक प्रकार योग प्रतिसंलीनता है । १-इन्द्रिय प्रतिसंलीनता २-कषाय ३-योग - ४-विविक्त शयनासन मन, वचन व काय योग की स्थिरता को ध्यान कहते हैं । इस परिभाषा के आधार पर ध्यान के तीन प्रकार है १-मानसिक, २-वाचिक व ३-कायिक एकाग्र चिंता को ध्यान कहते हैं । इस परिभाषा के आधार पर ध्यान के चार प्रकार होते हैं १-आतं, २-रौद्र, ३-धर्म और ४-शुक्ल मिथ्यात्वी की तपस्या मोह कर्म के क्षयोपशम से होती है। यह काय शुभ योग है। तपस्या-भाव-चार उदय को छोड़कर; आत्मा एक योग। दिगम्बर ग्रंथों में स्त्री के चार प्रकार का उल्लेख मिलता है १ मनुष्यणी २ दिवांगना ३ पशुस्त्री ४ स्त्री-चित्र इन चारों के साथ तीन करण व तीन योग से अब्रह्म का सेवन न करना । इस प्रकार (४४३४३) ३६ भेद शील के होते है। महाव्रत में देव, मनुष्य व तिर्यच सम्बन्धी मैथून का तीन करण व तीन योग से प्रत्याख्यान करना होता है। अणुव्रत में जीवन पर्यंत देवता, देवांगना सम्बन्धी मैथून का दो करण व तीन योग से प्रत्याख्यान होता है परपुरुष-स्त्री-पुरुष और तिर्यच-तिर्यची सम्वन्धी मैथून का एक करण व एक योग से-शरीर से सेवन नहीं करूँगा। __ केवल ब्रह्मचर्यका पालन भाव दो-क्षायोपशमिक व पारिणामिक । आत्मा-योग व देश चारित्र। १ लोकोत्तर दान-भाष चार औदयिक छोड़कर व आत्मा एक योग। २ लौकिक दान-भाव दो-औदायिक व पारिणामिक व आत्मा एक योग। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 55 ) ऋजुगति में स्थूल शरीर का योगजन्य प्रवाह रहता है। वक्रगति में कार्मण योग की चंचलता रहती है। योग तेरहवें गुण स्थान तक है अतः कर्म बंध भी तेरहवें गुणस्थान तक है । शुभ नाम कम बंध के चार कारण में एक कारण है-अविसंवादन योग - कथनीकरनी की समानता । करण वीर्य का सम्बन्ध योग से हैं अतः योग के करण वीर्य नहीं है। लब्धि वीर्य सभी गुणस्थान में है वीर्य हो सकता है । । अभाव होने से चौदहवें गुणस्थान योग के अभाव में भी लब्धि करण की उत्तर प्रकृतियाँ ५५ है उनमें मन-वचन के योग का भी उल्लेख मिलता है ५ द्रव्य, ५ शरीर, ५ इन्द्रिय, ४ मन के योग, ४ वचन के योग, ४ कषाय, ६ लेश्या, ४ संज्ञा, ३ दृष्टि, ७ समुद्घात, ३ वेद व ५ आस्रव = कुल ५५ 1 कर्मों' के संयोग या वियोग से होने वाली आत्मा की अवस्था को भाव कहते है परिणाम विशेष को भी भाव कहा जाता है । यह मनोयोग आदि से सम्बन्धित परिणाम है । अध्यवसाय, लेश्या व योग के समन्वित रूप को ही भाव करते हैं । व्यवहार में मोक्ष के चार मार्गों में भाव का भी उल्लेख है । वह यही परिणाम विशेष भाव है । भाव शुभ-अशुभ दोनों होते हैं। शुभ भावों में संलग्न जीव मोक्ष का उत्कृष्ट सुख पा सकता है। वहाँ अशुभ भावों में लगा जीव सातवीं नरक तक का उत्कृष्ट दुःख भी पा लेता है । श्रेणी आरोहण के समय भावों की ही प्रधानता रहती है, पर वचन और काय योग की क्रिया भी साथ में हो सकती है। माता मरुदेवा प्रथम गुणस्थान से सातवें, फिर श्रेणी चढ़ते हुए तेरहवें गुणस्थान में सर्वज्ञ बनीं, तत्क्षण योग निरुद्ध कर सिद्ध, बुद्ध व मुक्त बनीं । अशुभ योग के प्रति आकर्षण व शुभ योग के प्रति उदासीनता को रति-अरति पापस्थान कहते हैं । छट्ठे गुणस्थान तक अशुभ योग है तथा तेरहवें तक शुभ योग है । अस्तु आस्रव के पाँच प्रकार है-उसमें पाचवा योग आश्रव है। योग अर्थात् मन, वचन व काय की प्रवृत्ति । मिथ्यात्व अवत, प्रमाद व वषाय आस्रव सावद्य है । योग के दो प्रकार है— शुभ योग और अशुभ योग । उनमें अशुभ योग को सावद्य तथा शुभयोग से निर्जरा होती है इस दृष्टि से निरवद्य है । मन, वचन व काय की वर्गणा पौद्गलिक है किन्तु यही योग नहीं है । मन, वचन व काय का योग आत्म-प्रवृत्ति जुड़ने से होता है । वर्गणा द्रव्य मन, द्रव्य वचन व द्रव्य काय Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 56 ) योग का हो सकता है। किन्तु भावयोग आत्मा के संयोग से ही हो सकता है वही योग आस्रव है। आस्रबके पाँच विकल्प है । आठ आत्मा में कुछ विकल्पों से अभिव्यक्त किया गया है। मिथ्यात्व आस्रव-दर्शन आत्मा कषाय आस्रव-कषाय आत्मा योग आस्रव-योग आत्मा शुभ योग पाँच भाव है-मोह कर्म का उपशम, क्षायिक-क्षयोपशम । नाम कर्म का उदय, अंतराय कर्म का क्षय, क्षयोपशम तथा पारिणामिक भाव । ये पाँचो भाव शुभ योग में है। निर्जरा की अपेक्षा से इनकी संगति बैठती है। ___ योग की शुभता में मोहकर्म का अनुदय आवश्यक है। यह अनुदय उपशम, क्षायक, क्षयोपशम तीनों में से किसी भी रूप में हो सकता है। चंचलता से इसका सम्बन्ध नहीं है। इसका सम्बन्ध है मात्र शुभता से । अंतराय कर्म का क्षय, क्षयोपशम और नाम कर्म के उदय से योग उत्पन्न होता है । आस्रव को आचार्यों ने भव-हेतु कहा है। योग आस्रव तेरहवें गुणस्थान तक है। योग आस्रव जनक प्रकृति एक शरीर नाम कर्म की है तथा अशुभ योग में चारित्र मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ सहायक बनती है । __योग का पूर्ण रूप से निरोध होनेपर अयोग संवर हो जाता है। यह स्थिति चौदहवें गुणस्थान में बनती है। संवर के पाँच प्रकार है १ सम्यक्त्व संवर, २ व्रत संवर, ३ अप्रमाद संवर, ४ अकषात संवर तथा ५ अयोग संवर | अयोग संवर चौदहवें गुणस्थान में होता है तथा सम्पूर्ण संवर की यही अवस्था है। आंशिक अयोग संवर नीचे के गुणस्थान में भी है किन्तु आंशिक संवर का यहाँ उल्लेख नहीं है इसलिए तो पाँच गुणस्थान में व्रत संवर ग्रहण नहीं किया। नौवें व दश गुणस्थान में कषाय की अत्यल्पता के बावजूद भी अकषाय संवर नहीं माना। इसी तरह सातवें से तेरहवें गुणस्थान तक आंशिक अयोग संवर होते हुए भी अयोग संवर नहीं माना है। एक चौदहवे गुणस्थान में ही पूर्ण अयोग संवर सघता है । मन, वचन व काय के योग को अन्तमखी वनाना प्रतिसंलीनता तप है। किसी एक आलम्बन पर मन को एकाग्र करना या योग निरोध को ध्यान कहते हैं। केवली के योग निरोधात्मक ध्यान होता है । जहाँ शुभ योग है वहाँ नियम से निर्जरा है। जहाँ निर्जरा है वहाँ शुभयोग की भजना है । योग की चंचलता के साथ ही शुभकर्म वर्गणा का बंध हो जाता है, निर्जरा बाद में होती है। पुण्य का बंध नाम कर्म का उदय और पारिणामिक ये दो भाव है। आत्मा एक योग है। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 57 ) निर्जरा में--आत्मा पाँच-योग, उपयोग, ज्ञान, दर्शन, वीर्य आत्मा। सिद्ध अकर्मा है, अशरीरी है, वहाँ योग-जन्य क्रिया है ही नहीं । टीकाकारों के अनुसार जन्मना नपुंसक सम्यक्त्वी नहीं होता। महर्षि गांगेय की भाँति कृत नपुंसक के मुक्त होने में कोई विसंगति नहीं है। केवली समुद्घात में आठ समय लगता है। उस समय मनोयोग-वचन योग नहीं होते-केवल काययोग होता है। पहले व आठवें समय में औदारिक काय योग, दूसरे, छठेसातवे समय में औदारिक मिश्र काययोग, तीसरे-चौथे-पाँचवें समय में कार्मण काय योग होता है। वैक्रिय शरीर बनाकर २० तीर्थकरों का निर्वाण कल्याणक इन्द्र महाराज करते है ऐसा आचार्यों का अभिमत है। शरीर के बिना योग नहीं होता है लेकिन योग के बिना भी शरीर हो सकता है। तीर्थकर तीर्थ की स्थापना कर-योग का निरोध कर मुक्त होते हैं । मिथ्यात्वी की तपस्या को बाल तपस्या कहते है-इस तपस्या में शुभयोग, शुभ अध्यवसाय व शुभ लेश्या होती हैं । इससे वह देवत्व को प्राप्त करता है । सर्वार्थ सिद्धि नामक पाँचवें अनुत्तर विमान के देवों में शुभ-अशुभ दोनों योग होते है। भाव परावृत्ति के अपेक्षा वहाँ भी प्रशस्त-अप्रशस्त दोनों लेश्या होती है। टीकाकारों का मत है कि लोकांतिक देव सभी सम्यक्त्वी होते हैं। वे पूर्वजन्म की अपेक्षा तेजोलेश्या व शुभ योग से अपना शरीर त्यागते हैं। अकर्मभूमिज मनुष्यों में कर्मभूमिज मनुष्य ही शुभ क्रिया, शुभयोग, शुभलेश्या से कृत कियाओं से उत्पन्न होते हैं । अकर्मभूमिज मनुष्यों को जब कभी सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है उसी समय शुभ योग, प्रशस्त लेश्या व शुभ अध्यवसाय होते हैं । चूंकि अकर्मभूमिज मनुष्यों में उत्पन्न होने के समय मिथ्यात्व ही होता है। अमनष्क मनुष्यों में एक कायक्लेश रूप निर्जरा शुभयोग से होती है। असंशी तियच पंचेन्द्रिय में कायक्लेश रूप निर्जरा होती है। यहाँ काय का शुभयोग होना चाहिए । यद्यपि आगम साहित्य में उनके तीन अप्रशस्तलेश्याओं का उल्लेख है। अन्तीपज मनुष्य-युगलियों में भी तीन अप्रशस्त लेश्याओं का उल्लेख है परन्तु शुभयोग होना चाहिये। शुभ अध्यवसाय भी होता है। संज्ञीतियं च पंचेन्द्रिय में पांचवां गुणस्थान भी होता है। उसकी प्राप्ति में शुभयोगादि होते हैं। उस अवस्था में आयुष्य का बंधन भी शुभयोगादि में होता है। उनके अशुभयोगादि में आयुष्य का बंधन नहीं होता है । 8 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 58 ) करण और योग जैन सिद्धांत के पारिभाषिक शब्द है। करण का अर्थ है-साधन और योग का अर्थ है-प्रवृत्ति । मन, वचन और शरीर प्रवृत्ति के साधन है। अतः ये करण है। प्रवृत्ति के तीन रूप होते है-करना, करवाना और अनुमोदन करना, ये योग है। दूसरी परिभाषा के अनुसार मन, वचन और शरीर--ये तीन योग है तथा प्रवृत्ति के तीनों रूप करण है पच्चीस बोलका चौबीसवां बोल भांगा ४६ का है. उसमें योग-करण की चर्चा है संज्ञीतियं च पंचेन्द्रिय भी युगलिये होते हैं उनमें भी किसी को सम्यक्त्व भी आसकता है। उसकी प्राप्ति में शुभलेश्या के साथ शुभ योग भी होता है । नरक में निर्जरा के सात भेद होते है १. काय क्लेश, २. प्रतिसं लीनता, ३. प्रायश्चित; ४, विनय, ५. स्वाध्याय, ६. ध्यान, ७. व्युत्सग । काय क्लेश के अतिरिक्त छओं भेद अधिकतर सम्यक्त्वी नरक में होते हैं। ये नमस्कार महामन्त्रादि का यथा समय स्वाध्याय भी करते हैं। अनित्य-चिंतन ( ध्यान ) भी करते है । विनय वे ज्ञान, दर्शन आदि के रूप में करते हैं। निर्जरा में शुभयोग वहाँ होता है । नारक जीवों के सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय शुभयोग के साथ साता-वेदनीय भी होता है। तीर्थ करों के पांच कल्याणक के समय सात-वेदनीय कर्म का विपाकोदय हो सकता है। सातवीं नरक के नारकियों को औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय शुभयोगशुभलेश्यादि होते है। नरकगति में औपशमिक, क्षयोपशमिक, सास्वादान, क्षायिक साम्यक्त्व होता है लेकिन वेदक अभ्यक्त्व नहीं होता है । यद्यपि नरकगति में क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती है। वेदक सभ्यक्त्व नहीं होता है। औपश मिक, क्षायोपशमिक व सास्वादान सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय शुभयोग व शुभलेश्या होती है। 'शान के पाँच भेद है-१. मतिज्ञान, २. श्रुतज्ञान, ३. अवधिज्ञान, ४. मनःपर्यवशान और ५. केवलज्ञान । ___ इन पाँचों ज्ञान की प्राप्ति के समय शुभ-योग व प्रशस्त लेश्या होती है। विभंगज्ञान की प्राप्ति के समय भी शुभलेश्या-शुभयोग होते हैं। यद्यपि केवलज्ञान की प्राप्ति के समय सिर्फ शुक्ललेश्या होती है। अन्य ज्ञानों की प्राप्ति के समय तीन प्रशस्त लेश्या में से किसी एक प्रशस्त लेश्या होती है। जाति-स्मरण ज्ञान के समय भी शुभयोग-शुभलेश्या होती है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 59 ) योग आत्मा - आत्मा के आठ भेदों में एक योग आत्मा भी है। योग आत्मा - भाव आत्मा है । आत्मा के गुण और क्रियाओं को भाव आत्मा कहते हैं। योग की प्रवृत्ति पहले से तेरहवें गुणस्थान तक है अतः योग आत्मा पहले से तेरहवें गुणस्थान तक है । अध्यवसाय - चेतना की भावधारा का नाम है। चेतना की प्रारंभिक हलचल की पर्याय ही अध्यवसाय है । वह अव्यक्त रूप से होती है। योग चेतना की स्थूल हलचल है और अध्यवसाय आंतरिक है लेश्या के दो प्रकार है - द्रव्यलेश्या और भावलेश्या । द्रव्यलेश्या पौद्गलिक है, अतः अजीव है । भावलेश्या योग के पूर्व की भावधारा है । तेरहवें गुणस्थान में एक ऐसी अवस्था भी बनती है कि लेश्याजनित कर्मबंध नहीं है परन्तु योग जनित कर्म बंध है । ' लेश्या की तरह योग भी जीव-अजीव दोनों है । द्रव्यलेश्या के पुद्गल द्रव्ययोग के—काययोग के अंतर्गत होते हैं । चूंकि मनोयोग व वचनयोग के पुद्गल चतुःस्पर्शी है, काययोग के पुद्गल अष्टस्पर्शी है । छओं लेश्या के पुद्गल अष्टस्पर्शी होते हैं - ऐसा भगवती सूत्र में कहा गया है। ध्यान योग बिना भी होता है चूंकि चौदहवें गुणस्थान में ध्यान है परन्तु योग नहीं है । जब तेरहवें गुणस्थान में ध्यान होता है वहाँ सिर्फ काययोग है लेकिन मयोयोग व वचन योग नहीं है 1 जहाँ योग है वहाँ लेश्या नियम से है, जहाँ लेश्या है वहाँ योग नियम से है। योग और लेश्या में क्या फर्क है इसका पूरा निर्णय सर्वज्ञ ही दे सकते हैं ।' अशुभयोग छह गुणस्थान से आगे नहीं होता है तथा शुभयोग तेरहवें गुणस्थान में भी है। छठे गुणस्थान को प्रमत्त संयत गुणस्थान कहा है। भगवती में अशुभ योग की अपेक्षा प्रमत्त संपत को आरम्भी कहा है परन्तु अनारंभी नहीं । यद्यपि शुभयोग की अपेक्षा प्रमत्त संयत को अनारम्भी कहा है, आरम्भी नहीं । देशविरत, प्रमत्त संयत तथा अप्रमत्त संयत के अशुभ योग अशुभ लेश्या में आयुष्य का बंधन नहीं होता । मनुष्य तथा तिर्यंच पंचेन्द्रिय के चतुर्थं गुणस्थान में अशुभ योगअशुभ लेश्या में आयुष्य का बंधन नहीं होता परन्तु देव नारकी के चतुर्थं गुणस्थान में अशुभ लेश्या में आयुष्य का बंधन हो सकता है । जातिस्मरणज्ञान, विभंगज्ञान, अवधिज्ञान की उत्पत्ति के समय में शुभलेश्या - शुभयोग होता है । परन्तु अशुभलेश्या अशुभयोग नहीं । सम्यक्त्व के प्राप्ति के समय शुभयोग तथा शुभलेश्या होती है। अशुभयोग अशुभ लेश्या में सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती है । १- भग० श २६ २ फीणी चर्चा Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 60 ) योग निरोधात्मक ध्यान में मनोयोग व वचनयोग नहीं होते है सिर्फ काययोग होता है। परन्तु काययोग के बिना भी योग निरोधात्मक ध्यान हो सकता है। प्रवृत्ति मात्र योग जन्य है। योग की उत्पत्ति द्वन्द्वात्मक है। नाम कर्म के उदय और अंतराय कर्म के क्षय, क्षयोपशम से योग की उत्पत्ति होती है। शुभ योग में मोहनीय कर्म का अनुदन ( उपशम, क्षय, क्षयोपशम ) और जुड़ जाता है । जब योग स्वयं द्वन्द्वात्मक है तो उसकी निष्पत्ति भी द्वन्द्वात्मक है। उदय भाव से पुण्य का बंधन तथा क्षयक्षयोपशम व उपशम से निर्जरा होती है । मन, वचन, काययोग से बंधनेवाले शुभ कम-पुण्य रूप है। संयमी के सावध योग का सर्वथा त्याग होता है। उसका खाना-पीना आदि समस्त क्रियाएँ निरवद्य है शुभयोग रूप है। शुभयोग मात्र पुण्यबंध का हेत है तथा शुभयोग से निर्जरा भी होती है । शुभयोग से पुण्य का बंध तथा निर्जरा होना माना है । शुभ लेश्या, शुभ योग से आकर्षित कर्मवर्गणा शुभ रूप से परिणत हो जाती है। अशुभ लेश्या, अशुभ योग से आकर्षित कर्मवर्गणा अशुभ रूप से परिणत हो जाती है। शुभता-अशुभता ग्रहण की हुई हर कर्मवर्गणा में विद्यमान है। जिस रूप में कर्म बंधते है, उतने समय विशेष के लिए तदनुरूप कर्मवर्गणा शुभ-अशुभ फल देने वाली हो जाती है। अतः कर्मवर्गणा के पुदगल स्कंध अलग-तलग नहीं है। जिस प्रवृत्ति से कम बंधते है, वे उसके अनुरूप बन जाते हैं । शुभयोग से पहले पुण्यबंध तथा निर्जरा बाद में होती है। उपशम भाव मोह की सम्पूर्ण अनुदय अवस्था है। उसमें योग केवल शुभ ही होंगे, अशुभ नहीं! जहाँ शुभयोग है वहाँ निर्जरा है। इस दृष्टि से उपशम भाव को निर्जरा में सहयोगी माना है। २३ अप्रमत्त अवस्था में योग जन्य केवल पुण्य का बंध होता है। ५४ युगलिये में ११ योग होते हैं, ४ मन के, ४ वचन के, औदारिक, औदारिकमिश्र, कार्मणकाय योग। ६७ उपयोग के बिना योग हो सकता है-जैसे चौहदवे युगस्थान में, सिद्ध में उपयोग है परन्तु योग नहीं है। ८३ योग के द्वारा होने वाली क्रिया को करण कहते हैं। उसके तीन प्रकार हैकरना, कराना व अनुमोदन करना । आचार्यों ने कहीं-कहीं योग को भी करण कहा है। ८७ प्रतिसंलीनता तप के चार भेदों में एक भेद योग प्रतिसलीनता है। मन, वचन-काय के योग को अन्तर्मुखी वनाना है-योग प्रतिसंलीनता है। योग निरोध को ध्यान कहा जाता है इस परिभाषा से ध्यान के तीन प्रकार होते है-मानसिक, वाचिक व कायिक । मिथ्यात्वी के तपस्या मोहकम के क्षयोपशम से होती है। यह काय का शुभ योग है । तपस्या एक योग आत्मा है। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (61 ) १.३ परिणाम विशेष को भाव कहते है। यह मनोयोग से संबंधित परिणाम है। अध्यवसाय, लेश्या व योग के समुचित रूप को ही भाव कहते हैं। भाव, शुभ-अशुभ दोनों होते है। व्यवहार में मोक्ष के चार मार्गों में भाव का भी उल्लेख है। यही वह परिणाम विशेष भाव है । भाव शुभ-अशुभ दोनों होते हैं। अमनस्क जीवों की क्रिया भाव शुन्य होती है। उन जीवों में अध्यवसाय तो होता है किन्तु मनोयोग न होने से जो भी क्रिया होती है उसमें भावों का अभाव रहता है। माता मरुदेवा प्रथम गुणस्थान से चौथे, सातवें, फिर श्रेणी चढते हुए तेरहवें गुणस्थान में सर्वश बनी, तत्क्षण योग निरुद्ध कर सिद्ध, बुद्ध व मुक्त बनीं। जीव की अवस्था रूप भाव-औदायिक आदि पाँच भाव है। जीव के उदय निष्पन्न के तेतीस प्रकार है चार गति, छह काय, छह लेश्या, चार कषाय, तीन वेद, मिथ्यात्व, अविरति, अमनस्कता, अशानित्व, आहारता, सयोगिता, संसारता, असिद्धता, अकेवलित्व, छदमस्थता । जीवाभित पारिणामिक के दस भेद है---गति, कषाय, योग, ज्ञान, चारित्र, इन्द्रिय, लेश्या, उपयोग, दर्शन व वेद । ___ कुछ उदय जन्य प्रकार क्षयोपशमिक भाव के साहचर्य से निरवद्य माने गये है। जैसे-तीन शुभ लेश्या ( शुभयोग भी)। देवायु के बंध के चार कारणों में एक कारण अकाम निर्जरा है। यह निर्जरा भी शुभयोग या शुभलेश्या या शुभ अध्यवसाय के बिना नहीं होती है । करण की उत्तर प्रकृतियाँ ५५ है-५ द्रव्य, ५ शरीर, ५, इन्द्रिय, ४ मनोयोग, ४ वचनयोग, ४ कषाय, ६ लेश्या, ४ संज्ञा, ३ रष्टि, ७ समुद्घात, ३ वेद, ५ आस्रव= कुल ५५। शुभ प्रवृत्ति के समय अशुभ व अशुभ प्रवृत्ति के समय शुभ कर्म का बंध नहीं होता । एक समय में एक का ही बंध होता है। यह योग से संबंधित है। कर्म बंध के दो प्रकार है(१) सांपरायिक बंध और (२) ईयापथिक बंध । जो सकषायी है उनके सांपरायिक क्रिया से बंध होता है। कषाय और योग की चंचलता सांपरायिक क्रिया का मुख्य हेतु है। दसवे गुणस्थान तक कषाय की विद्यमानता से इस क्रिया में बंध होता है । ईयोपथिक का अर्थ है-योग। जहाँ मात्र योग की चंच Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 62 ) लता होती है, वहाँ पर ईयपथिक बंध होता है । यह पुण्य का बंधन है। इसकी स्थिति दो समय की है व यह ईर्यापथिक बंध केवल वीतराग के होता है । अंतराल गति में स्थूल शरीर तो नहीं होता, योग जन्य है । वक्रगति में कार्मण काययोग की चंचलता रहती है । अतः कार्मणकाय योग नहीं होता है— ओदारिक- मिश्र काय योग होता है । १ से ३ - प्राणातिपात आश्रव, मृषावाद आस्रव व अदत्तादान आखव ४ – मैथून आस्रव - अब्रह्मचर्य सेवन न करना । ५ - परिग्रह आस्रव - धन, धान्य, मकान आदि पर ममत्व न रखना ६- श्रोत्रेन्द्रिय आस्रव - श्रोत्रेन्द्रिय की द्वारा द्वेष युक्त प्रवृत्ति -चक्षुरिन्द्रिय ८ ७ - चक्षुरिन्द्रिय आस्रव - च - घ्राणेन्द्रिय आस्रव - घ्राणेन्द्रिय ६ - रसेन्द्रिय आस्रव - रसेन्द्रिय - स्पर्शेन्द्रिय आस्रव - स्पर्शेन्द्रिय १० ११ - मन आस्रव - मन की प्रवृत्ति आसव १२ - वचन आखव - वचन १३ - काय आस्रव - काया " १४ – भंडोप करण आखव - भण्ड-पात्र उपकरण - वस्त्र आदि को यत्नपूर्वक न आठवां बोल योग पन्द्रहमनोयोग के चार भेद : १ - सत्य मनोयोग २-असत्य - मिश्र ४ - व्यवहार "9 99 रखना । १५ -- सूचि कुशाग्र मात्र आस्रव - किंचित मात्र भी पापयुक्त प्रवृत्ति । 66 वचनयोग के चार भेद : ५- सस्य वचनयोग इनमें मन आस्रव, वचन आस्रव व काययोग शुभ और अशुभ दोनों है। बाकी अशुभ योग आस्रव के भेद हैं । शुभ कर्म योग की प्रवृत्ति से शुभ कर्म का बंध होता है और शुभयोग आव से अशुभ कर्मों का बंध होता है । ६-असत्य ७- मिश्र ८ व्यवहार 99 " "9 "" "" " "" प्रवाह ( धक्का ) रहता जुगति - एक समय की है " Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 63 ) काययोग के सात भेद : ६-औदारिक काययोग १.-औदारिकमिश्र , ११-वे क्रिय १२-वै क्रियमिश्र १३-आहारक १४-आहारकमिश्र १५-कामण -पचीस बोल-अमृत कलश पृ० २२२ -कालू तत्त्व शतक पहला वर्ग २३६ जैन दर्शन समितिके अध्यक्ष भीअभयसिंह सुराना, परामर्शक श्री नवरतनमल सुराना, श्रीहीरालाल सुराना, श्रीमोहनलाल बैद, डा सत्यरंजन बनर्जी, गणेश ललवानी तथा दिवंगत आत्मा मोहनलाल बांठिया के भी हम कम आभारी नहीं है जो हमें इस कार्य के लिए सतत प्रेरणा तथा उत्साह देते रहे । सुराना प्रिन्टिग वक्स के संचालक श्री भागचन्द सुराना तथा उनके कर्मचारी भी धन्यवाद के पात्र हैं जिन्होंने इस पुस्तक का सुन्दर मुद्रण किया है। श्वेताम्बर परम्परा में यद्यपि स्त्रीमुक्ति प्राप्त कर सकती है। किन्तु उसे दृष्टिवाद पढ़ने का अधिकार नहीं है। पूर्वो की विद्या की ज्ञाता स्त्री नहीं होती है अतः आहारक काययोग व आहार कमिश्र काययोग स्त्री को नहीं होता है। ये योग चतुर्दश पूर्वधारी को होते है । ग्यारह अंगों को पढ़कर पश्चात् दृष्टिवाद को पढ़ा जाता था। ___आचार्य धरसेन महाकम प्रकृति प्राभृत के ज्ञाता थे। उन्होंने भूतबली-पुष्पदन्त को समस्त महाकर्म प्रकृति प्राभृत पढ़ाया और भूत बली-पुष्पदन्त ने महाकर्म प्रकृति प्राभृत का उपसंहार करके षट्खंडागम के सूत्रों की रचना की। इसके टीकाकार वीरसेन स्वामी थे । बीर सेन स्वामी और उनके गुरु एलाचार्य दोनो सिद्धान्त ग्रंथों के ज्ञाता थे। गोम्मटसार आचार्य नेमिचन्द्र की प्रमुख रचना है । त्रिलोकमार की अन्तिम गाथा में नेमिचन्द्र मुनि का नाम अवश्य है और उन्हें अभयनन्दि का शिष्य कहा है । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवती की तीन ही रचनाएँ समुपलब्ध है-गोम्मटसार, लब्धिसार और त्रिलोकसार । गोम्मटसार का ऊपर नाम पंच संग्रह भी है। मुलाचार जैन मुनि के आचार का एक प्राचीन ग्रन्थ है। ___ अस्तु गोम्मटसार में सयोगी केवली के मनोयोग की संभावना सहेतुक बतलायी है । योग ही जीव के प्रति कर्मों के आस्रव का प्रमुख कारण है। मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को योग कहते हैं। जो योग सहित होते हैं उन्हें सयोगी कहते है। इस तरह जो योग सहित केवलशानी होते हैं उन्हें सयोग-केवली कहते हैं । इसमें जो सयोग पद है वह नीचे के बारह गुणस्थानों में योग का अस्तित्व सूचक है। जिनके योग नहीं होता है वे अयोगी होते Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 64 ) ऐसे योगरहित केवलज्ञानी अयोग केवली होते हैं। योग मार्गणा - मार्गणाका अर्थ है खोजना है। योग को खोजना - योग मार्गणा । ग्यारह मार्गणा में योग मार्गणा चतुर्थ है । मन, वचन व कायके निमित्तसे होने वाली क्रिया से युक्त आत्मा के जो शक्ति विशेष उत्पन्न होती है जो कर्मों के ग्रहण में कारण है उसे योग कहते हैं। योग के प्रकारान्तर से पन्द्रह भेद है जिसमें काययोग के सात भेद है । मन और वचन योग के चार-चार भेद है । उदार अर्थात् महत् शरीर को औदारिक कहते हैं। उसके निमित्त से होने वाले योग at औदारिक काययोग कहते हैं । औदारिक जबतक पूर्ण नहीं होता है तबतक मिश्र कहलाता है । उसके द्वारा होनेवाला योग - औदारिकमिश्र काययोग है । अनेक गुणों और ऋद्धियों से युक्त शरीर को वेक्रियक शरीर कहते हैं । उसके द्वारा होने वाले योग को वैक्रियिक काययोग कहते हैं । वैक्रियिक शरीर जबतक पूर्ण नहीं होता है तबतक वे क्रियिक मिश्र काययोग है । जिसके द्वारा मुनि संदेह होने पर सूक्ष्म अर्थों को ग्रहण करता है उसे आहारक शरीर कहते हैं । उससे जो योग होता है उसे आहारक काययोग कहते हैं । जब तक आहारक शरीर पूर्ण नहीं होता है तब तक उसे आहारकमिश्र कहते हैं और उससे होने वाले योग को आहारकमिश्र योग कहते हैं । कर्म ही कार्मण शरीर है। उसके निमित्त से जो योग होता है वह कार्मण काय योग है । तिर्यंच और मनुष्यों के औदारिक काय योग व औदारिक मिश्रकाय योग होते है । देव और नारकियों के तथा वैक्रियलब्धि संपन्न कुछ मनुष्यों तियंचों के भी वैक्रियिक काययोग और वैक्रियिक मिश्रकाय योग होते हैं। ऋद्धि प्राप्त मुनियों के आहारक काय - योग व आहारक मिश्रकाय योग होते हैं । विग्रहगति में स्थित चारों गतियों के जीवों तथा प्रतर और लोकपूर्ण समुद्घात प्राप्त केवलि जिनके कार्मण काययोग होता है । आहारक काय योग व आहारक मिश्रकाय योग एक प्रमत्त संयत गुणस्थान में ही होता है । अस्तु इन्द्रिय अर्थात् मतिज्ञान से रहित सयोगी केवली में मुख्यरूप से मनोयोग का अभाव होने पर भी उपचार से मनोयोग है। उपचार के होने से निमित्त और प्रयोजन दो कारण होते हैं । निमित्त इस प्रकार है - जैसे हमारे जैसे मन से युक्त छद्मस्थ जीवों के तत्पूर्वक अर्थात् मनपूर्वक ही वचन अर्थात् वर्णपद वाक्यात्मक वचन व्यापार देखा जाता है अतः केवली के मनोपूर्वक वचन कहा है। मुख्य मनोयोग का केवली के अभाव होने से मनोयोग की कल्पना का उपचार कहा है । केबली के अंगोपांग नाम कर्म का उदय होने से हृदय के अंतर्मन में खिले हुए आठ दल वाले कमल के आकार द्रव्य मन होता है । उसके परिणमन के कारण मनोवगंणा के स्कन्धों के आने से द्रव्य मन का परिणमन होता हैं । अतः प्राप्ति रूप प्रयोजन से तथा पूर्वोक्त निमित्त से और सुखय मनोयोग का अभाव होने से उपचार से मनोयोग कहा है । अथवा आत्म-प्रदेशों के कर्म और नो कर्म को आकृष्ट करने की शक्ति रूप भाव मनोयोग Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 65 ) है। उससे उत्पन्न हुआ मनोवर्गणा का द्रव्य मन रूप से परिणमन रूप द्रव्य मनोयोग है। पूर्वोक्त उपचार का प्रयोजन तो सब जीवों पर दया, तत्त्वार्थ का उपदेश, शुद्धध्यान आदि का केवली में होता है ।' – कि श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनो मान्यताओं में सयोगी केवली में सत्यमनोयोग, व्यवहार मनोयोग स्वीकृत किया है। अतः सयोगी केवली मैं मन से मतिज्ञान का न होना स्वीकृत है परन्तु उपचारगत भाव मनोयोग मानना पड़ता है। अशुभ योग प्रमाद के दिगम्बर साहित्य में पन्द्रह भेद किये है-~यथा, विकथा चार, कषाय चार, इन्द्रियाँ पाँच, निद्रा एक, स्नेह एक । अस्तु अनुभूत अर्थ को ग्रहण करना तथा उसकी योग्यता मनः प्राण है। यह प्राण सयोगी केवली के भी होता है । गोम्मटसार में चक्रवर्ती के भी वैक्रिय काययोग माना है। वासुदेव के भी वैक्रियकाय होता है। अतः चक्रवर्ती तथा वासुदेव में योग बारह होते हैचार मन के, चार वचन के, औदारिक काययोग, वैक्रिय काययोग, औदारिक मिश्रकाय योग तथा वैक्रिय मिश्रकाय योग । ___ अस्तु प्रमत्तविरत में वैक्रिय काययोग क्रिया और आहारक काययोग क्रिया-ये दोनों एक साथ नहीं होती है क्योंकि उसके आहारक ऋद्धि और वैक्रिय ऋद्धि दोनों के एक साथ होने में निरोध है। तथा योग भी एक काल में अर्थात् अपने योग्य अन्तर्मुहूर्त में नियम से एक ही होता है। दो या तीन योग एक जीव में एक साथ नहीं होते हैं। ऐसा होने पर एक योग के काल में अन्य योग का कार्य रूप गमनादि क्रिया के होने में कोई निरोध नहीं है क्योंकि जो योग चला गया उसके संस्कार से एक योग के काल में अन्य योग की क्रिया होती है । - जैसे कुम्हार दंड के प्रयोग से चाक को घुमाता है । पीछे दंड का प्रयोग नहीं करने पर भी संस्कार के बल से चाक घूमता रहता है। या धनुष से छूटने पर वाण जब तक उस में पूर्व संस्कार रहता है तब तक जाता है। पीछे संस्कार नष्ट होने पर गिर जाता है । इस प्रकार संस्कार के वश एक साथ अनेक योगों की क्रिया के होने का प्रसंग उपस्थित होने पर प्रमत्तविरत में वैक्रिय और आहारक शरीर की क्रियाओं के एक साथ होने का निषेध गोम्मटसार में किया है। अर्थात ये दोनों योग रूप क्रिया संस्कारवश भी एक साथ नहीं होती। तीन योग में सबसे कम कार्मण काययोगी वाले, उससे असंख्यात गुण अधिक औदारिकमिश्र योग वाले, उससे संख्यात गुण अधिक औदारिक काययोग वाले हैं। उपयुक्त तीनों योग वाले जीव प्रत्येक अनंतानंत जानना चाहिए। औदारिकमिश्र काययोग का काल अन्तमहत मात्र है। उससे औदारिक काययोग का काल संख्यात गुण अधिक है। - - - - AVATMaave-- १ गोजी० गा. २२७ से २२६ । टीका २ गोजी. गा० २३३ टीका Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 66 ) गोम्मटसार में आहारक काययोग के धारक एक समय में एक साथ उसका ५४ होते है तथा आहारकमिभ काययोगी सत्ताइस होते है। गोम्मसार की मान्यता के अनुसार गुणस्थान में योग के विषय में ऐसा विवेचन मिलता है। पर्याप्त गुणस्थानों में योग ११, अपर्याप्त गुणस्थानों में योग ४, विभंग शान सहित मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में योग १३ ( आहारक द्वयरहित , पर्याप्त मिथ्याष्टि में योग १. अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि में योग ३, सास्वादान गुणस्थान में योग १३, पर्याप्त सास्वादान में योग १०, अपर्याप्त में योग ३, सम्यग-मिथ्याष्टि गुणस्थान में योग १०, असंयत सम्यगमिथ्यादृष्टि गुणस्थान में योग १३, इसके पर्याप्त में १० योग, अपर्याप्त में तीन योग होते है। देश संयत गुणस्थान में ६ योग, प्रमत्त संयत में ११ योग होते है । अप्रमत्त संपत से क्षीण कषाय गुणस्थान में है योग होते हैं। सयोगि-केवलि गुणस्थान में ७ योग होते है। अयोगी केवली गुणस्थान में योग नहीं होता है।' गुणस्थान में मान्यता भेद दिगम्बर मान्यता देशविरत में 8 योग प्रमत्त संयत में- १२ योग अप्रमत्त से क्षीण कषायीतक-६ योग श्वेताम्बर मान्यता १२ योग १४ योग ५योग प्रथम गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक सभी जीव सयोगी होते है अतः सयोगी होने से वे सक्रिय है व सलेशी है। वे सयोगी प्रतिक्षण कोई न कोई क्रिया करते रहते हैं। किसी भी क्षण में अक्रिय नहीं होते हैं अतः उनके आत्मप्रदेशों का परिस्पंदन होता रहता है। विग्रहगति में भी जीव कार्मण काययोग से क्रिया करता है। जीव क्रिया सभी शरीरों से करता है । ये सभी क्रियाएँ परिस्पंदात्माक है। नरक-तियं च तथा देवगति के जीव नियम से सयोगी होते हैं वे अयोगी कभी भी नहीं हो सकते है। मनुष्य सयोगी भी होते हैं अयोगी भी होते हैं। कहा है नस्थि हु सकिरियाणं अबंधगकिंचि इह अणुहाणं । -आव० मलय टीका उक्त मा• गा । १४६ अर्थात् क्रिया करता हुआ ऐसा कोई जीव नहीं है जो कम का बंध न करता है। अयोगी के कर्म बंध नहीं होता है, सयोगी के कर्म बंध होता है। योग, शरीर तथा इन्द्रिय का निर्माण करते हुए जीव के कायिकी क्रिया पंचक की कदाचित तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रियाएँ होती है। कषाय आदि सातों समुद्घात में सयोगी होता है। आचार्य मलयगिरि ने आवश्यक की टीका में एवंभूत १ गोजी गा ७२८ । टीका • Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 67 ) नयकी अपेक्षा से सावद्य का अर्थ केवल मात्र कर्म-बंध-क्रिया है। (एव खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जा ) इविधिक क्रिया का तेरहवें गुणस्थान में वर्णन किया है। इसके शेष में भी उक्त वाक्य का प्रयोग है। मनःपर्ययज्ञान द्रव्य मन से ही उत्पन्न होता है ऐसा नियम है। शरीर के अन्य प्रदेशों में उत्पन्न नहीं होता है। उस द्रव्यमन में भावमन और मनःपय य शान उत्पन्न - गोम्मटसार में अयोगी केवली की उत्कृष्ट संख्या ५६८ बतलाई है ।२ विग्रहगति में आये हुए चारों गतियों के जीव, प्रतर और लोक पूर्ण समुद्घात करने वाले सयोगी जीव में एक कामण काययोग होता है। मूल शरीर को छोड़कर कामण और तेजस रूप उत्तर शरीर से युक्त जीव के प्रदेश समूह को शरीर से बाहर निकालना समुद्घात है । विभंग ज्ञानी मनुष्य-तिर्यच में कार्मण काययोग नहीं होता है। चक्षदर्शनी में भी कामण काययोग नहीं होता है। तीर्थकर में पाँच योग होते हैं-सत्यमनोयोग, व्यवहार मनोयोग, सत्यवचन योग, व्यवहारवचन योग व औदारिक काययोग । तीर्थ कर के केवल समुद्घात नहीं होता है अतः औदारिक मिश्र काययोग व कार्णण काययोग नहीं होता है । दस अच्छेरों में दसवां अच्छेरा असंयमी की पूजा (असंयते पूजा) का है। प्रवचनसारोबार में कहा है : असंजयाण नवमजिणे ८८८८८६ "सर्वथा तीर्थच्छेदरूप असंयती पूजा सुविधनाथ तीर्थ कर के मोक्ष जाने के बाद तथा शीतलनाथ तीर्थ कर के होने के पूर्व हुई । ठाणांग की टीका में कहा है- "सुविधिनाथ तीर्थ कर से सोलहवें तीर्थ कर के समय तक असंयती पूजा हुई। सुविधनाथ स्वामी के निर्वाण के कुछ काल पश्चात हुण्डा-अवसर्पिणी काल के दोष से भ्रमण निग्रन्थ का विच्छेद हो गया अर्थात् एक भी साधु नहीं रहा। शीतलनाथ के संघ स्थापन के पूर्व संध-विच्छेद हो गया। रात्रि में उल्लू के राजत्व की तरह उसी समय ब्राह्मणों का एकच्छत्र राज्य स्थापित हो गया। इस प्रकार शांतिनाथ के पूर्व अन्य छह वार श्रमणधर्म का विच्छेद हुआ । इससे असंयत अविरतों की पूजा होने लगी। कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने योग शास्त्र के मंगलाचरण में लिखा है : "नमो दुर्वाररागदि वैरिवार निवारणे । बहते योगिनाथाय महावीराय तायिने ॥ १ गोम्मटसार पृ०६६८ CU. २ " Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 68 ) अर्थात् जिनको जितना कठिन है, ऐसे रागद्वेषादि वैरियों के समूह को निवारण करने वाले चार घाति-कर्मों का नाश करने वाले, योगियों के नाथ और प्राणी मात्र के संरक्षक भगवान महावीर को नमस्कार हो । पातञ्चल योग शास्त्र में कहा है "योगश्चित्त वृत्ति निरोधः” चित्त वृत्ति का निरोध ही योग है। चित्त वृत्ति के निरोध के लिए साधन रूप अष्टांग योग बताये है। "यमनियमासन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-समाधयोऽष्टा बङ गानि" यमनियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि ये अष्टांग योग है। .. अहिंसा सर्व श्रेष्ठ धर्म है । - भगवान् शांतिनाथ ने मेघराजा के भव में एक कबूतर को जान बचाने के लिए अपने प्राणों की परवाह नहीं की। भगवान् अरिष्टनेमि ने प्राणियों की रक्षा के लिए अपनी बारात लौटा ली। भगवान् पाश्वनाथ ने नाग-नागिन के जोड़े को जलने से बचाया। मेतार्य मुनि ने एक मुर्गी की जान बचाने के लिए प्राणों की आहुति दे दी। जैन इतिहास दयालुता और अहिंसा के दृष्टान्तों से भरा पड़ा है । अयोग संवर-संवर के बीस भेद होते हैं जिसमें अयोग संवर पाँचवाँ है । सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय और अयोग-इन पाँच संवरों के अतिरिक्त जो पन्द्रह भेद है वे व्रत संवर के ही हैं । अप्रमाद, अकषाय, अयोग-ये तीन संवर परित्याग करने से नहीं होते है, किन्तु तपस्यादि साधनों के द्वारा आत्मिक उज्ज्वलता से ही होते है। आचार्य भिक्ष ने कहा है प्रमाद आस्रव ने कषाय योग आस्रव, ये तो नहीं मिटे, कियां पच्चक्खाण । ये तो सहजे मिटै छ कर्म अलग हुआ, तिण री अंतरंग कीजो पहिचान । -नवपदार्थ संघर, ढाल १ । गा ६ अस्तु प्रवृत्ति करना योग आस्रव है अतएव पन्द्रह आस्रव-योग आस्रव के अन्तर्गत होते हैं। उन पन्द्रह आस्रवों का प्रत्याख्यान करने से अत्याग-भावना रूप अवत आस्रव का निरोध होता है अतः व्रत संवर होता है। शुभ-अशुभ योग का निरोध-सर्वथा होने से अयोग संघर होता है । अपेक्षारष्टि से आंशिक रूप से अयोग संवर हो भी सकता है पर वह अयोग संवर का अंश कहलाता है, अयोग संवर नहीं । आठ आत्मा में एक योग आत्मा है। आत्मा जीव का पर्यायवाची शब्द है। द्रव्य आत्मा और जीव का एक ही अर्थ है। जीव का मन, वचन और काय-इन तीन का योगमय परिणति को योग आत्मा कहते हैं। अभव्य जीव के योग आत्मा अनादि अनंत है अतः शाश्वत भाव है। अपेक्षा रष्टि से द्रव्य आत्मा शाश्वत है योग आदि सात आत्मा अशाश्वत है। योग आत्मा में द्रव्य आत्मा दर्शन आत्मा, उपयोग आरमा तथा वीर्य आत्मा Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 69 ) की नियमा है तथा ज्ञान आत्मा, चारित्र आत्मा, कषाय आत्मा की भजना है। शुभ योग आत्मा उज्ज्वलता की रष्टि से व करणी की दृष्टि से निरषद्ध है। अशुभ योग खात्मासावध है। द्रव्य आत्मा में योग आत्मा की नियमा है, कषाय आत्मा में योग आत्मा की भजना है। उपयोग आत्मा, ज्ञान, दर्शन, वीर्य आत्मा में योग आत्मा की भजना है। चारित्र आत्मा में योग आत्मा की भजना है। वीर्य के दो भेद है-~-लब्धिवीर्य और करणवीर्य। करणवीर्य का संबंध योग आत्मा से है । लब्धिवीय चौदहवें गुणस्थान तक है । कामणकाय योग स्थूल शरीरधारी ( औदारिक, वे क्रिय, आहारिक ) के नहीं होता है। आहारिक काययोग व आहारिक मिभ काययोगी नियमतः भव्य जीवधारी के-प्रमत्त संयत के होते हैं। अवशेष तेरह योग भव्य अभव्य दोनों के होते हैं । चूंकि अंतराल गति में केवल कार्मण काय योग होता है लेकिन कृष्णादि छओं लेश्या में से कोई भी एक लेश्या हो सकती है । व्यक्तिगत रूप से पन्द्रह योगों में से किसी भी योग के साथ लेश्या का अविनाभाव संबंध नहीं है। लेश्या के साथ किसी न किसी प्रकार का काययोग होता है। __ अपूर्ण रूप से कर्मों का क्षय होना निर्जरा है और पूर्ण रूप से कर्मों का क्षय होना मोक्ष है। जैन परिभाषा में आत्मीय विचारों को भावलेश्या और उनके सहायक पुद्गलों को द्रव्यलेश्या कहते है। कहा है "द्रव्य निमित्तं हि संसारिणां वीर्यपजायते" अर्थात संसारि जीवों का जितना भी वीर्य पराक्रम है वह सब पुद्गलों की सहायता से होता है । नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवती ने कहा है ---- एक्कारसजोगाणं पुष्णगहाणं सपुषण आलाओ मिस्सचउक्कस्स पुणो सगएक अपुण्ण आलाओ -गोजी०७२३ अर्थात् पर्याय अवस्था में होने वाले चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक, बैक्रिय और आहारक काययोग-इन ग्यारह योगों में अपना-अपना पर्याप्ठ आलाप होता है। जैसे सत्य मनोयोग के सत्य मन पर्याप्छ आलाप होता है। चार मिश्र योगों में अपना- अपना एक अपर्याप्त आलाप होता है। जैसे ---औदारिक मिश्र के औवारिक अपर्याप्त आलाप होता है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 70 ) भाव से नपुंसक द्रव्य से पुरुष और भाव से स्त्री द्रव्य से पुरुष के प्रमत्त संयत में आहारक आहारक मिश्र काय योग का आलाप नहीं होता है । और योग रहित जीव है । ' पन्द्रह योग वाले जीव है केवलज्ञान सयोगी, अयोगी और सिद्धों में होता है। मनःपर्यव ज्ञानी व चक्षुदर्शनी अनाहारक नहीं होते है अतः कार्मण काय योग भी नहीं होता है । चूँकि देव अर्धमागधी भाषा बोलते हैं - ऐसा भगवई श० ५ ७४ में कहा है। इसी सूत्र में कहा है कि केवली प्रकृष्ट मन और वचन को धारण करते हैं। उस प्रवृष्ट मनमनोवर्गणा के पुद्गलों को कितनेक वैमानिक देव जानते हैं, देखते हैं । प्रवृत्ति में मनोवगणा के पुद्गल सहायक होते हैं 1 चूँकि मनोयोग की अनुत्तरोपातिक देव ( अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए ) अपने स्थान पर रहे हुए ही यहाँ रहे हुए केवली के साथ आलाप-संलाप करने में समर्थ है। उन देवों को अनंत मनोवर्गणान्ध है, प्राप्त है – अभिसमन्वागत है अतः यहाँ रहे हुए केवली महाराज द्वारा कथित अर्थादि को यहाँ रहे हुए ही जानते हैं, देखते हैं । उनके अवधि ज्ञान का विषय संभिन्न लोकनाड़ी है । (लोकनाड़ी से कुछ कम ) जो अवधिज्ञान लोकनाड़ी का ग्राहक होता है, वह मनोवर्गणा को जानने वाला होता ही है। चूँकि वह अवधिज्ञान मनोद्रव्य को जानता है, देखता । वे देव मन से केवली को प्रश्न पूछते हैं केवली मन से उसका उत्तर देते हैं । केवली भगवान के वीर्य प्रधान योग वाला जीव द्रव्य होता है। इससे उनके हाथ आदि अंग चलायमान होते हैं। हाथ आदि अंगों के चलित होने के कारण वर्तमान समय में जिन आकाश प्रदेशों को अवगाहित कर रखा है, उन्हीं आकाश प्रदेशों पर भविष्यत् काल ये केवली भगवान हाथ आदि से अवगाहित नहीं कर सकते हैं । अतः केवली भी अस्थिर योग वाले है । वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न होनेवाली शक्ति को 'वीर्य' कहते हैं । वह वीर्यं जिन मानस आदि व्यापारों में प्रधान हो - ऐसे जीव द्रव्य को वीर्य - सयोग जइद्रव्य कहते हैं । वीर्य का सद्भाव होने पर भी योगों के व्यापार के बिना चलन नहीं हो सकता है । वीर्यप्रधान मानसादि योग युक्त आत्म द्रव्य को वीर्यं सयोग स्वद्रव्य कहते हैं । अथवा वीर्यप्रधान योग वाला और मनादिवर्गणा से युक्त जो हो, उसे वीर्य सयोग सद्रव्य कहते हैं । कहा है- " वीरिय-सजोग - सद्दव्वदाए ।" वीर्य सयोग सद्रव्यता के कारण केवली भगवान के अंग अस्थिर होते हैं । अतः उन्हीं आकाश प्रदेशों पर वे अपने अंगादि को भविष्यत् काल में नहीं रख सकते हैं अतः कतिपय आचार्यों की मान्यता है कि केवली के उपचार से प्रकृष्ट भाव मन तथा द्रव्य मनोयोग दोनों होते हैं । १ गोजी० पृ० ६४६ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 71 ) कहा जाता है कि भगवान महावीर उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययन के बाद सेंतीसवाँ प्रधान नामक मरुदेवी का अध्ययन कहते-कहते पयंकासन में स्थिर हुए, क्रमशः पादर पचनयोग का निरोध क्रिया। वाणी के, मन के सूक्ष्म योग को निरोध किया। शुक्लध्यान के सूक्ष्म उपचार से क्रिया-अप्रतिपाती तीसरे चरण को प्राप्तकर सूक्ष्म काययोग का निरोध किया। अनिवृत्ति के चौथे चरण में पहुँचे । अयोगी अवस्था में रहे। सिद्ध के प्रथम समय में चार अघाति-कर्म का क्षय कर परिनिर्वाण प्राप्त किया । पूर्वधर श्री यशोभद्रसूरि की भविष्य वाणी के अनुरूप जैन धर्म की उदय - उदय पूजा उत्कर्ष के रूप में तेरापंथ का प्रादुर्भाव हुआ। श्वेताम्बर मतानुसार तीर्थंकरों के प्रथम चार कल्याण ( गर्भ-जन्म-दीक्षा-केवल ज्ञान ) एक ही नक्षत्र में होते हैं परन्तु परिनिर्वाण उसी नक्षत्र में हो सकता है, अन्य नक्षत्र में भी हो सकता है । इसके विपरीत दिगम्बर मतानुसार तीर्थंकरों के कल्याण के विषय में अलग मान्यता है। नक्षत्र भिन्न-भिन्न हो सकते है। यथा-भगवान् महावीर के पाँच कल्याण का नक्षत्र इस प्रकार रहा १ गभ-उत्तराषाढ़ा नक्षत्र २ जन्म-उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र ३ दीक्षा४ केवलज्ञान-मघा नक्षत्र ५ परिनिर्वाण-स्वाति नक्षत्र कहा है आहारो पजते इदरे खलु होदितस्स मिस्सोदु । अंतो मुत्तकाले छठ गुणहाणे होदि आहारो॥ -गोजी० ६८३ आहारक काययोग संशीपर्याप्त छठे गुणस्थान में जघन्य और उत्कृष्टतः अंतमहूर्त काल में ही होता है। आहारकमिश्र काययोग संशी अपर्याप्त अवस्था में छठे गुणस्थान में जघन्य-उत्कृष्ट से अन्तर्महूर्त काल में ही होता है। अस्त आहारक काययोग व आहारकमिभ काययोग चतुर्दशपूर्वधर को होता है। कहा है। ओरालियमिस्सं वा चउगुणठाणेसु होदिकम्मइयं । चद्गदिविग्गहकाले जोगिस्स य पदरलोग पुरणगे ॥ -गोजी• गा ८४ अर्थात औदारिकमिभ काययोग की तरह कामण काययोग चार गुणस्थानों में होता Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 72 ) है । अतः वह चार गति सम्बन्धी विग्रहगति के काल में और सयोगी केवली के प्रतर और लोकपूरण समुद्घात के काल में होता है । गोम्मटसार में कहा है-सयोगी केवली के भी उपचार वश मनोयोग कहा गया है । अर्थात उपचार से मनोयोग का अस्तित्व माना गया है। योगमार्गणा में कार्मण काययोगियों का जितना प्रमाण कहा है उतना ही अनाहारकों का प्रमाण है। चूँकि कार्मण काययोग का काल जघन्य एक समय, उत्कृष्ट तीन समय का है । औदारिक मिश्र काययोग का काल अंतर्मुहूर्त है । औदारिककाय योग का काल उससे संख्यात गुणा है ।' नेमीचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती ने गोम्मटसार में कहा है --- अर्थात् मध्यम अर्थात् असत्य और उभय मनोयोग और वचनयोग इन चार में संज्ञी मिथ्यादृष्टि से क्षीणकषाय पर्यन्त बारह गुणस्थान होते हैं । तथा सत्य और अनुभव मनोयोग और सत्यवचन योग में संज्ञी पर्याप्त मिथ्यादृष्टि से सयोगी केवली पर्यन्त तेरह गुणस्थान होते हैं । अनुभव बचन योग में विकलत्रय मिथ्यादृष्टि से तेरह गुणस्थान होते हैं । कम्मइयकायजोगी होदि अणाहारयाण परिमाणं । गोजी • गा ६७१ औदारिक काययोग एकेन्द्रिय स्थावर काय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि से सयोगी केवली पर्यन्त तेरह गुणस्थानों में होता है । औदारिक मिश्रकाय योग अपर्याप्त अवस्था में चार गुण स्थानों में होता है ( पहला, चौथा, दूजा व तेरहवाँ ) १ “ममि चउमणवयणे सष्णिप्पहुडिंतु जाव खीणोत्ति । सीमाणं जोगिन्ति य अणुभयवयणं तु वियलादो ||६७२ || औदारिक और औदारिक मिश्र योग मनुष्य तथा तिर्य च गति में होते हैं। गोम्मटसार में औदारिक काय योग में सात जीव के भेद पर्याप्त माने । तथा औदारिकमिश्र काय योग में सात भेद अपर्याप्त, और सयोगी केवली के एक जीव समास होता है । आठ जीव के भेद होते हैं। ‍ इस तरह कहा है १ २ ayod पते इदरे खलु होदि तस्स मिस्तु | सुरणिरय उडाणे मिस्से णहि मिस्स जोगोय ॥ गोजी० गा० ६७१ गोजी ० या ६७९ गोजी ० या ६६१ - गोजी ० ६८२ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 73 ) वैक्रियिक काययोग पर्याप्त देवनारकियों के मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानों में होता है । वैक्रियिक मिश्र काययोग मिश्र गुणस्थानमें तो नहीं होता। अतः देव व नारकियों के मिथ्याष्टि, सास्वादान और असंयत गुणस्थानों में ही होता है । जीव समास उनमें से वै कियिक में संशी पर्याप्त और वैकियिक मिश्र में संशी अपर्याप्त होता है। श्वेताम्बर मान्यतानुसार उत्तर वैक्रिय मनुष्य और तिर्यचों में भी होता है। अतः उपर्युक्त दोनों योग चारों गति में होते है । अस्त लेश्याकोश, क्रियाकोश आदि की तरह योगकोश को हमने दशमलव वर्गीकरण से विभाजित किया है। हमने योग कोश को दो खण्डों में विभाजित किया है । जिसका प्रथम खण्ड आपके सामने हैं। उन विद्वानों को धन्यवाद देते हैं जिन्होंने लेश्याकोश, क्रियाकोश, मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास, वर्धमान जीवन कोश के तीनों खण्डों पर अपनी-अपनी सम्मतियाँ भेजकर हमारा उत्साह वर्धन किया है । युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी तथा युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ की महान दृष्टि हमारे पर रही है जिसे हम भूल नहीं सकते। आचार्य तुलसी ने प्रस्तुत कोश पर आशीर्वाद लिखा -हम उनके प्रति कृतज्ञ है । हम जैन दर्शन समिति के सभापति - श्री अभयसिंह सुराना, मंत्री-श्री पदमचंद नाहटा, श्री जबरमल भंडारी, स्व• मोहनलाल बांठिया, श्री सुमेरमल सुराना. श्री मांगीलाल लूणिया, श्री इन्द्रमल भंडारी, कमलकुमार जैन आदि-आदि सभी बन्धुओं को धन्यवाद देते है जिन्होंने हमारे विषय कोश निर्माण कल्पना में हमें किसी न किसी रूप से सहयोग दिया है। कलकत्ता युनिवर्सिटी के भाषा विज्ञान के प्राध्यापक डॉ. सत्यरंजन बनी को हम सदैव याद रखेंगे जिन्होंने हमारे अनुरोध पर योग कोश पर भूमिका लिखी। -श्रीचन्द चोरड़िया, न्यायतीर्थ (व्य) जैन दर्शन समिति १६/सी, डोवर लेन, कलकत्ता-७.००२६ १०-१२-१६६३ 10 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन विक्रम संवत् २०१२ में आगम संपादन का कार्य शुरू हुआ। संपादन के लिए जो कल्पना की गई, उसका एक अंग था, आगमों का विषयीकरण। प्रारम्भ में आगमों के अनुवाद, टिप्पण आदि का कार्य शुरू किया। विषयीकरण का कार्य भविष्य के लिए स्थगित कर रखा था। मोहनलालजी बोठिया ने विषयीकरण का कार्य अपने हाथ में लिया । पूरी योजना बनाई। कार्य शुरू किया। उनके कार्य को हमने देखा और आगम सम्पादन के पूरक कार्य के रूप में उसे स्वीकार किया। मोहनलाल जी विद्वान, अध्ययनशील और कमनिष्ठ भावक थे। उन्हें श्रीचंद चोरडिया का योग मिला। इस योग ने उनके कार्य को गतिशील बना दिया। योजना बहुत विशाल है, गति मंथर है। कितने दशक और लगेंगे, कहा नहीं जा सकता फिर भी जैन दर्शन समिति में इस कार्य के लिए उत्साह है, यह प्रसन्नता की बात है। प्रस्तुत पुस्तक योग कोश है । इसके अवलोकन से एक धारणा बनसी है-इसमें संग्रह अधिक है, उसके तात्पर्य का अर्थ बोध स्वल्प है। कुछ विषयों पर पुनर्विचार करना भी आवश्यक लगता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि एक अनुसं धित्सु के लिए कोश का उपयोग है। यह उपयोगिता ही इस कार्य की समृद्धि के लिए पर्याप्त प्रमाण है । -आचार्य तुलसी १ जनवरी, ६४ जैन विश्वभारती लाडन, (राजस्थान) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची विषय - संकलन- सम्पादन में प्रयुक्त ग्रन्थों की सूची - जैन वाङ्मय का दशमलव वर्गीकरण -जीव परिणाम का वर्गीकरण दो शब्द प्रकाशकीय भूमिका Forword ) प्रस्तावना आशीर्वचन .०० शब्द विवेचन .०१ शब्द व्युत्पत्ति .०१ प्राकृत में 'जोग' शब्द की व्युत्पत्ति ..२ पाली में 'योग' शब्द की व्युत्पत्ति .०३ संस्कृत में 'योग' शब्द की व्युत्पत्ति .०२ विभिन्न भाषाओं में 'जोग' शब्द के विभिन्न अर्थ .०१ प्राकृत भाषा में 'जोग' शब्द के अर्थ • ०२ पाली भाषा में 'योग' शब्द के अर्थ .०३ संस्कृत भाषा में 'योग' शब्द के अर्थ .०३ योग शब्द के पर्यायवाची शब्द .०४ सविशेषण स समास - सप्रत्यय 'जोग' शब्द की परिभाषा .०५ परिभाषा के उपयोगी पाठ .०१ वीर्यान्तराय कर्म का क्षय क्षयोपशम .०२ लेश्यासहित वीर्य-पराक्रम योग है। :०३ योग परिणाम-जीव परिणाम का भेद .०४ द्रव्य योग पुद्गल है .०५ योग मूल प्रत्यय हैं .०६ पायाश्रव का कारण .०७ योग कर्म का निमित्त है .०८ योग अजीव द्रव्य परिणाम है .०६ योग क्षीरास्रव आदि लब्धकलाप है .१० योग आस्रव द्वार है पृष्ठ 4 6 9 10 13 15 17 74 १ १ १ १ २ २ २ ३ ३ ३ ६ ६७ ६७ 22 ६७ ६७ ६८ ६८ ६८ ६८ ६६ ६६ ६६ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ११ योग मार्गणा का एक भेद है .१२ योग सत्य पर्याप्ति का एक भेद है ( 76 ) .१३ योग द्वार का एक भेद है . १४ योग बंध का कारण .०२ मनोयोग की परिभाषा .०१ सत्य मनोयोग की परिभाषा .०२ असत्य मनोयोग की परिभाषा .०३ सत्यमृषा मनोयोग की परिभाषा .०४ असत्यामृषा मनोयोग की परिभाषा .०५ वचनयोग की परिभाषा .०६ सत्यवचन योग की परिभाषा .०७ असत्य वचन योग की परिभाषा .०८ सत्यमृषा वचन योग की परिभाषा .०६ असत्यामृषा वचनयोग की परिभाषा • १० सत्यवचन योग की परिभाषा .११ मृषावचन योग की परिभाषा • १२ सत्यमृषा वचन योग की परिभाषा .१३ असत्यामृषावचन योग की परिभाषा • १४ काययोग के लक्षण (परिभाषा) .१५ औदारिक मिश्र काययोग की परिभाषा .१६ ,, .१७ वैक्रिय काययोग की परिभाषा . १८ औदारिक काययोग की परिभाषा .१६ वैक्रियमिश्र काययोग की परिभाषा • २० आहारक काय योग की परिभाषा . २१ आहारकमिश्र काययोग की परिभाषा . २२ कार्मण काययोग की परिभाषा .२३ सत्य मनोयोग का लक्षण .२४ असत्य मनोयोग के लक्षण . २५ सत्यमृषा मनोयोग के लक्षण . २६ असत्यमृषा मनोयोग के लक्षण . २७ सत्य वचनयोग का लक्षण .२८ मृषा वचनयोग का लक्षण .२६ सत्यमृषा वचनयोग के लक्षण .३० असत्यामृषा वचनयोग का लक्षण ,३१ औदारिक काययोग का लक्षण ६६ ६६ ७० ७० 2 @ * 88 ७० ७१ ७२ ७३ ७३ ७४ ७५ ७५ ७५ ७५ ७६ ७६ * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * ७६ ७६ ७७ ७७ ७८ ८० ८१ ८२ ८३ ८४ ८६ ८६ ८७ ८७ ८७ ८७ ८७ ८७ ८८ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 77 ) ८८ .३२ औदारिकमिश्र काययोग का लक्षण .३३ वक्रिय काययोग का लक्षण .३४ वैक्रियमिश्र काययोग का लक्षण .३५ आहारक काययोग का लक्षण आहारकमिश्र काययोग का लक्षण .३६ कामण काययोग का लक्षण ८८ ८६ ८६ wwww.० •०५ परिभाषा के उपयोगी पाठ (आगम सम्मत ) .०५१.१ द्रव्ययोग की परिभाषा के उपयोगी पाठ (वर्ण-गंध-रस-स्पर्श) -०२ पुदगल भी वर्ण-गंध-रस-स्पी है अतः द्रव्ययोग पुद्गल है। .०३ द्रव्ययोग पुद्गल है अतः पुद्गल के गुण भी द्रव्ययोग में है। .०४ योग और गुरु-लघ '.५ द्रव्ययोग गुरु-लघु-अगुरु-लघु है '०६ द्रव्ययोग अजीवोदय निष्पन्न भाव है क्योंकि जीव द्वारा ग्रहण होने के बाद द्रव्य योग प्रायोगिक परिणमन होता है '०७ द्रव्ययोग जीव ग्राह्य है ..८ द्रव्ययोग चतुस्पर्शी भी है, अष्टस्पशी भी है ०६ द्रव्ययोग अनंतस्पी है १० द्रव्ययोग असंख्यात प्रदेशी क्षेत्र अवगाह करता है ११ द्रव्ययोग की अनंत वर्गणा होती है । १२ द्रव्ययोग के असंख्यात स्थान है Www ६१ ६१ '५२ भावयोग की परिभाषा के उपयोगी पाठ १ भावयोग जीव परिणाम है २ भावयोग अवर्णी-अगंधी-अरधी अस्पी है '३ भावयोग अवर्णी-अगंधी-अरधी अस्पर्शी है तथा जीव परिणाम है अतः जीव है •४ भावयोग अगुधलघु है "५ भावयोग उदय निष्पन्न भाव है '६ विभिन्न आचार्यों द्वारा की गई परिभाषा '७ योग के भेद .१ दो भेद द्रव्य और भाव प्रशस्त-अप्रशस्त शुभ-अशुभ ०२ योग परिणाम के भेद •०३ योग के तीन भेद १०४ १०४ १०५ १०५ १.५ १०५ १०५ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव और प्रयोग ०३ प्रयोग के चार भेद ०४ योग के पन्द्रह भेद ०५ प्रयोग के पन्द्रह भेद ०६ एकांतानुवृद्धि योग का स्वामित्व ०७ उपपाद योग का स्वामित्व ०८ परिणाम योग का स्वामित्व ०६ वचन योग के भेद १० मनयोग के भेद ११ सत्य ( वचनयोग ) के भेद '१२ मृषा वचययोग के भेद १३ सत्यमृषा वचनयोग के भेद * १४ काययोग के भेद ०८ योग पर विवेचन ( 78 ) * १० लेश्या और कर्म ११ सलेशी और सयोगी * १२ योग आश्रव और लेश्या १३ योग और प्रमाद आस्रव १४ योग और लेश्या * १६ योग और निर्जरा * १७ अयोग संवर और भाव *१८ योग और आत्मा *१६ योग और धर्म-अधर्म २० योग आत्मा एक नहीं अनेक है *२१ योग आत्मा और सावद्य - निरवद्य * २२ योग और भाव आत्मा २३ योग आत्मा द्रव्य जीव नहीं है— भाव जीव है '२४ योग आत्मा और कर्म बंधन का टूटना * २५ योग और करनी * २६ अशुभ योग और मुनि * २७ योग आत्मा और सर्व उत्तर गुण * २७ योग आत्मा और देश उत्तर गुण *२८ योग आत्मा और निर्जरा * २६ योग आत्मा और कर्म .३० योग और प्रमाद आत्रव . ३१ योग आत्मा और भाव १०६ १०६ १०६ १०७ १०७ १०७ १०७ १०८ १०८ १०८ १०८ १०६ १०६ १०६ १२२ १२२ १२३ १२३ १२३ १२३ १२४ १२४ १२४ १२४ १२४ १२५ १२५ १२५ १२५ १२५. १२५ १२५ १२६ १२६ १२६ १२७ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 79 ) १२७ १२७ १२७ .३२ योग आत्या ( अशुभ योग निन्दनीय भी है।) .३३ योग आत्मा और सप्रदेशी-अप्रदेशी .३४ योग आत्मा और उपयोग .३५ योग आत्मा और कार्य रूप-व्यापार .३६ योग आत्मा और नियमा-भजना .३७ योग आत्मा और आहार .३८ योग और स्नातक निर्ग्रन्थ .३६ योग और गुणस्थान .४० योग और आस्रव .४१ मिथ्यारष्टि में कितने योग १२७ १२७ १२८ १२८ १२८ १२६ १२६ १२६ १२६ १३२ १३४ १३४ १३४ १३५ १४० .०६ योग का नय और निक्षेप की अपेक्षा विवेचन .१ नय की अपेक्षा योग का विवेचन .१ वचन योग और मनोयोग पर नय की अपेक्षा विवेचन .२ योग का निक्षेप की अपेक्षा विवेचन .२ द्रव्य योग और भाव योग .३ मनोयोग का मूल कारण ४ वचनयोग का मूल कारण .५ वे क्रियकाय योग की संभावना .५ सयोगी केवली के मनोयोग की संभावना .६ योग स्थान .७ द्रव्ययोग और स्थान .८ भाव योग और स्थान ..६.६ योग स्थान प्ररूपणा के कारण ०१ द्रव्य योग ( प्रायोगिक ) अजीव है, रूपी है .११ द्रव्ययोग और प्रदेशावगाह-क्षेत्रावगाह .१२ द्रव्ययोग की स्थिति .१३ द्रव्ययोग और भाव | .१४ योगस्थान के दस अनुयोग द्वार .१५ औधिक सयोगी जीवों में अल्पवहुत्व .१६ योग और द्रव्य परिणाम ( एक द्रव्य की अपेक्षा ) .१ मनोयोगी और वचनयोगी तथा एक द्रव्य परिणाम .२ काययोगी और एक द्रव्य परिणाम .३ औदारिक काययोगी और एक द्रव्य परिणाम .४ औदारिकमिश्र काययोगी और एक द्रव्य परिणाम .५ वैक्रिय-काय-योगी और एक द्रव्य परिणाम १४० १४१ १४१ १४२ १४२ १४२ १४३ १४५ १४६ १४८ १४८ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 80 ) १४६ १५० १५० १५१ १५२ १५४ १५६ १५६ १५६ १५६ १५६ १५७ १५७ १५८ १५६ .६ वैक्रियमिश्र काययोगी और एक द्रव्य परिणाम .७ आहारक काययोगी और एक द्रव्य परिणाम .८ आहारकमिश्र काययोगी , .६ कार्मण काययोगी .१० मनोयोगी और पचनयोगी और दो द्रव्य परिणाम .११ सयोगी जीव और तीन द्रव्य परिणाम .१२ सयोगी जीव और चार द्रव्य परिणाम .१३ द्रव्ययोग को जीवग्रहण करता है .१४ सयोगी और द्रव्य-ग्रहण .१५ योगवर्गणा और लेश्या .०२ भाव योग (प्रायोगिक ) अरूपी है जीव है .२१ भाव योग जीव परिणाम है .२२ भाव जोग की स्थिति .२३ भाव योग और भाव .२४ भाव योग और उपयोग .२५ भाव योग की चंचलता-अस्थिर योग .२६ भाव योग और वर्गणा .२७ योग और भाषा •२८ योग और परमपुण्य का उपार्जन '२६ प्रदेशबंध और योगस्थान '३० प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करनेवाला जीव और योग '३१ भाव योग-प्रकृति और प्रदेश बंध का हेतु '३२ भावयोग और निर्जरा २३ भावयोग की परिभाषा '३४ भावयोग के भेद '३५ योग और संवर '३६ भावयोग परिणाम के भेद .३७ विभिन्न जीबों में योग परिणाम .१ नारकियों में '२ भवनपति देव में '३ वाणव्यंतर देव में •४ ज्योतिषी देव में '५ वैमानिक देव में ६ तियच में पृथ्वी काय में अपकाय में तेजकाय में १६१ - १६३ १६३ १६४ १६४ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •०४ वायुकाय में ०५ वनस्पतिकाय में ०६ द्वीन्द्रिय में ०७ त्रीन्द्रिय में ०८ चतुरिन्द्रिय में • ०६ तिर्यंच पंचेन्द्रिय में १० मनुष्य में ५ योग और जीव ५११ योग की अपेक्षा जीव के भेद '१ जीवों के दो भेद '२ जीवों के तीन भेद ३ जीव के चार भेद *५२ योग की अपेक्षा जीव की वर्गणा ५३ विभिन्न जीवों में योग औधिक जीव में ०११ औधिक अपर्याप्त जीवों में ०१२ औधिक पर्याप्त जीवों में ܐܘ. ( 81 ) ०२ औधिक नारकी में • ०२१ औधिक नारकी अपर्याप्त जीवों में ०२२ औधिक नारकी पर्याप्त जीवों में ०३ प्रथम पृथ्वी के नारकी में ०३१ प्रथम पृथ्वी के अपर्याप्त नारकी में ०३२ प्रथम पृथ्वी के पर्याप्त नारकी में ०४ द्वितीय पृथ्वी के नारकी में ०४१ द्वितीय पृथ्वी के अपर्याप्त नारकी में ०४२ द्वितीय पृथ्वी के पर्याप्त नारकी में ०५ तृतीय औधिक नारकी में ०५१ तृतीय पृथ्वी के अपर्याप्त नारकी में ०५२ तृतीय पृथ्वी के पर्याप्त नारकी में ०६ चतुर्थ पृथ्वी औधिक नारकियों में ०६०१ चतुर्थ पृथ्वी अपर्याप्त नारकियों में ०६०२ चतुर्थ पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में • ०७ पंचम पृथ्वी के औधिक नारकियों में १ पंचम पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में २ पंचम पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में Jain Education Internonal १६४ १६४ १६४ १६४ १६४ १६५ १६५ १६५ १६५ १६५ १६६ १६६ १६६ १६६ १६६।१६८ १६८ १६६ १७० १७२ १७२ १७२ १७२ १७२ १७३ १७३ १७४ १७४ १७५ १७५ १७५ १७५ १७६ १७६ १७६ १७६ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 82 ) १७६ १७७ १७७ १७७ १७८ १७८ १७६ १७८ १७६ १८० १८. १८० १८० '०८ षष्ठम पृथ्वी के औधिक नारकियों में .१ षष्ठम पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में '२ षष्ठम पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में '०६ सप्तम पृथ्वी के औधिक नारकियों में १ सप्तम पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में '२ सप्तम पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में ..१० औधिक तिर्यचों में .१ अपर्याप्त तिर्यचों में '२ पर्याप्त तिय चों में ०११ औधिक एकेन्द्रियों में १ अपर्याप्त एकेन्द्रियों में '२ पर्याप्त एकेन्द्रियों में ११.३ सूक्ष्म एकेन्द्रियों में १ अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियों में '२ पर्याप्प ३ लब्धि अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियों में .४ निवृत्ति पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियों में ११.०४ बादर एकेन्द्रियों में .१ बादर अपर्याप्त एकेन्द्रियों में '२ पर्याप्त बादर एकेन्द्रियों में '३ लब्धि अपर्याप्त बादर एकेन्द्रियों में '४ निवृत्ति पर्याप्त बादर एकेन्द्रियों में '१२ पृथ्वीकाय में '१ अपर्याप्त पृथ्वीकाय में '२ पर्याप्त पृथ्वीकाय में ३ सूक्ष्म पृथ्वीकाय में .१२.३.१ अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय में '२ पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी काय में .३ लब्धि अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय में •४ निवृत्ति पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय में १२.३२ पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय में '१२°४ बादर पृथ्वीकाय में १ अपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय में . २ पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय में १८१ १८१ १८१ १८१ १८१ १८२ १८२ १८२ १८२ १८२ १८२ १५२ १८३ १८३ १८३ १८३ १८३ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 83 ) १८३ १८४ १८४ १८४ १८४ १८४ १८५ १८५ १८५ १८५ १८५ १८५ १८६ १८६ १८६ '३ लब्धि अपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय में ४ निवृत्ति पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय में १३ अपकाय में .१ अपर्याप्त अकाय में '२ पर्याप्त अपकाय में '३ सूक्ष्म अप काय में .४ अपर्याप्त सूक्ष्म अप्काय में १३.३.०२ पर्याप्त सूक्ष्म अप्काय में ३ लब्धि अपर्याप्त सूक्ष्म अप्काय में '४ निवृत्ति पर्याप्त सूक्ष्म अपकाय में १३.४ बादर अप्काय में '१ अपर्याप्त बादर अपकाय में '२ पर्याप्त बादर अपकाय में ३ लन्धि-अपर्याप्त बादर वायुकाय में '४ निवृत्ति पर्याप्त बादर अप्काय में १४ तेसकाय में १ अपर्याप्त तेउकाय में '२ पर्याप्त तेउकाय में १४.३ सूक्ष्म तेउकाय में १ अपर्याप्त सूक्ष्म तेउकाय में '२ पर्याप्त सूक्ष्म तेउकाय में ३ लन्धि अपर्याप्त सूक्ष्म तेउकाय में '४ निवृत्ति पर्याप्त सूक्ष्म तेउकाय में १४४ वादर तेउकाय में १ अपर्याप्त बादर तेउकाय में '२ पर्याप्त ३ लन्धि अपर्याप्त '४ निवृत्ति बादर पर्याप्त .१५ वायुकाय में १ अपर्याप्त वायुकाय में '२ पर्याप्त वायकाय में ३ सूक्ष्म वायुकाय में १५.११ अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय में '२ पर्याप्त ३ लन्ध अपर्याप्त , १८६ १८७ १८७ १८७ १८७ १८७ १८८ १८८ १८८ १८८ १८६ १८६ १८४ १८६ १८६ १८६ १८६ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 84 ) १६० १६० १६० १६० १६. १६० १६१ १६१ १६१ १६१ १६२ १६२ १६२ १६२ '४ निवृत्ति पर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय में १५४ बादर वायुकाय में १ अपर्याप्त बादर वायुकाय में '२ पर्याप्त ३ लम्धि अपर्याप्त '४ निवृत्ति पर्याप्त '१६ वनस्पतिकाय में १ अपर्याप्त वनस्पतिकाय में '२ पर्याप्त वनस्पतिकाय में ३ प्रत्येक शरीर-वनस्पतिकाय में १६३१ अपर्याप्त '२ पर्याप्त .३ लब्धि अपर्याप्त प्रत्येक शरीर-वनस्पति काय में .४ निवृत्ति पर्याप्त प्रत्येक शरीर-वनस्पति काय में .१६.४ साधारण वनस्पतिकाय में .१ अपर्याप्त साधारण वनस्पतिकाय में .२ पर्याप्त साधारण वनस्पतिकाय में .३ सूक्ष्म साधारण शरीर-वनस्पतिकाय में .१६.४.३.१ अपर्याप्त .२ पर्याप्त .१६ उत्पल आदि इस प्रत्येक वनस्पतिकाय में शाली बीहि आदि वनस्पतिकाय में .१७ द्वीन्द्रिय में .१८ त्रीन्द्रिय में .१६ चतुरिन्द्रिय में .२० असंशी तिर्यच पंचेन्द्रिय में .२१ तिर्यंच पंचेन्द्रिय में .२२.१ तिर्यच पंचेन्द्रिय स्त्री-जीव में .२३ मनुष्य में पन्द्रह प्रकार के प्रयोग .१ मनुष्य में .२ मनुष्यणी में ३ लब्धि अपर्याप्त मनुष्य में '२४ देव में .१ देवी में .२५ भवनपति देव में १६२ २६२ १६३ १६३ २६३ १६४ १६५ १६५ १६५ १६५ १६६ १६६ १६७ १६८ १६६ १६६ १६६ २.० Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • २६ बाणव्यंतर देव में २७ ज्योतिषी देव में . २५.१ भवनपति देवी में • २६.१ वाणव्यंतर देवी में . २७.१ ज्योतिषी देवी में .२८ वैमानिक देव में .१ वैमानिक देवी में . २ वैमानिक देव के विभिन्न भेदों में . २८.२.१ सौधर्म - ईशानदेव में .२८.१.२ सनत्कुमार- माहेन्द्रदेव में . ३ ब्रह्म ब्रह्मोत्तर देव में .४ लांतव कापिष्ठ देवों में .५ शुक्र - महाशुक्र देवों में . ६ शतार सहस्रार कल्पवासी देवों में .७ आनत-प्राणत- आरण- अच्युत कल्पवासी देवों में ८ नौ प्रेमियक कल्पातीत देवों में ६ नौ अनुदिश विमानवाली देवों में • १० चार अनुत्तर विमानवासी देवों में - ११ सर्वार्थ सिद्धि देवों में • २६ संज्ञी जीव में .३० असंज्ञी जीव में . ३१ सकायिक जीव में • ३२ सकायिक जीव में ( 85 ) • ३३ सइन्द्रिय जीव में . ३४ अनिन्द्रिय जीव में • ३५ सयोगी में .३६ मनोयोगी में • ३७ सत्य मनोयोगी में .३८ मृषा मनोयोगी जीव में • ३६ सत्यमृषा-मनोयोगी जीव में .४० असत्यमृषा मनोयोगी जीव .४१ वचनयोगी जीव में .४२ सत्य वचनयोगी जीवों में .४३ मृषा .४४ सत्यमृषा "" "" २०० २०० २०० २०० २०० २०० २०० २०१ २०१ २०१ २०१ २०१ २०२ २०२ २०२ २०२ २०२ २०३ २०३ २०३ २०४ ૨૦૪ २०४ २०५ २०५ २०५ २०५ २०६ २०६ २०६ २०६ २०६ २०७ २०७ २०७ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 86 ) २०७ २०८ २०६ २१० २११ २११ २११ २१२ २१२ २१२ २१३ २१३ २१४ .४५ असत्यमृषा वचनयोगी जीव में .४६ काययोगी में .४७ औदारिक काय योगी में .४८ औदारिक मिश्र काययोगी में .४६ वैक्रिय काययोगी में .५० वैक्रिय मिश्र काययोगी में .५१ आहारक काययोगी में .५२ आहारक मिभ काययोगी में .५३ कार्मण काययोगी में .५४ अयोगी में .५५ सयोगी में .५६ स्त्री वेदी में .५७ पुरुष वेदी में .५८ नपुंसक वेदी में .५६ अपगत वेदी में .६० सकषायी में .६१ क्रोध कषायी में .६२ मान कषायी में .६३ माया कषायी में .६४ लोभ कषायी में '६५ अकषायी में '६६ मति अशानी में '६७ श्रत अज्ञानी में '६८ विभंग अशानी में '६६ मति ज्ञानी में ७० श्रत ज्ञानी में •७१ अवधि शानी में '७२ मनःपर्यव शानी में •७३ केवल शानी में '७४ चक्षदर्शनी में •७५ अचक्षु दर्शनी में '७६ अवधि दर्शनी में ७७ केवल दर्शनी में •७८ सलेशी में '७६ कृष्ण लेशी में ८. नील लेशी में २१५ २१५ २१६ २१६ २१६ २१६ २१६ २१७ २१७ २१७ २१७ २१८ २१८ २१८ २१८ २१६ २१६ २२० Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 87 ) २२१ २२२ २२३ ૨૨૪ २२४ ૨૨૪ २२४ २२५ २२६ २२८ २२८ २३. २३१ २३१ '८१ कापोत लेशी में '८२ तेजो लेशी में '८३ पद्म लेशी में '८४ शुक्ल लेशी में '८५ अलेशी में '८६ भवसिद्धिक में ८७ अभव्यसिद्धिक में '८८ आहारक में '८६ अनाहारक में .६० सम्यग्दृष्टि में '६१ असंयत में '६२ संयत में '६३ निग्रंथ में ६४ अश्रत्वा केवली में '६५ श्रुत्वा केवली के होने वाले जीव के अवधि ज्ञान प्राप्ति करने की अवस्था में '६६ किसी एक योनि से स्व/पर योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में कितने योग ६७ महायुग्म जीवों में योग ६८ लेशी महायुग्म में योग '६६ भवसिद्धिक महायुग्म में योग '१०० अभवसिद्धिक महायुग्म में योग १०१ महायुग्म द्वीन्द्रिय में योग १०२ महायुग्म तेइन्द्रिय में योग '१०३ महायुग्म में चतरिन्द्रिय में योग । १०४ महायुग्म असंशी तिर्य च पंचेन्द्रिय में योग १०५ महायुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में योग । '१०६ सयोगी और गुणस्थान की अपेक्षा योग '१०७ एकेन्द्रिय में योग '१०८ जीव समूहों में योग १ योग और जीव मनोयोग किसके होता है '२ असत्य मनोयोग-उभय मनोयोग किसके होता है '३ वचनयोग किसके होता है •४ मृषावचनयोग-सत्य मृषा वचनयोग किसके होता है '५ आहारक-आहारकमिश्र काययोग किसके होता है २३२ २५७ २५६ २६० w w २६२ २६२ २६२ २६२ २६७ २६७ २६८ २६८ २६८ २७० २७१ ૨૭૨ २७३ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 88 ) २७४ २७५ २७६ २८. २८६ २८६ २८९ २६१ २६१ २६२ २६२ २६३ २६३ २६४ २६४ २६४ '६ वैक्रिय वैक्रिय मिश्र काययोग किसके होता है '७ औदारिक काययोग किसके होता है '८ कार्मण काययोग किसके होता है "६ से १८ विविध योग जीव में १६ एकयोगी '५४ विविन्न जीव और योग स्थिति '१ से ३ सयोगी जीव की सयोगीत्व की अपेक्षा स्थिति। '४ सयोगी जीव अणाहारिक केवली '५ लेश्या और योग का तादात्म्य '६ सयोगी जीव और संवर की स्थिति .७ प्रथमानुगम की अपेक्षाकृत्ति '८ संजयानुगम में क्षेत्रानुगम की अपेक्षा योगी जीवों की क्षेत्र-स्थिति ६ स्पर्शानुगम में संचित योगी जीवों का स्पृष्ट क्षेत्र .१० अयोगी जीव अनाहारक होते है .११ सिद्ध-योग व लेश्या रहित होते हैं .१२ विशेष जीवों में .१२.१ मकई आदि वनस्पतिकाय में .२ अलसी आदि वनस्पतिकाय में .३ बांस आदि वनस्पतिकाय में .४ इक्षु आदि वनस्पतिकाय में .५ सेडिय आदि तृष्ण विशेष वनस्पतिकाय में .६ अभूरूह आदि वनस्पतिकाय में .७ तुलसी आदि वनस्पतिकाय में .८ ताल-तमाल आदि वनस्पतिकाय में .६ लीमड़ा, आम्र आदि वनस्पतिकाय में ,१० अगस्तिक आदि वनस्पतिकाय में .११ बेंगन आदि वनस्पतिकाय में .१२ सिरियक आदि वनस्पतिकाय में .१३ पुसफलिका आदि वनस्पतिकाय में .१४ आलुक आदि साधारण वनस्पतिकाय में .१५ लोही आदि वनस्पतिकाय में .१६ आय आदि वनस्पतिकाय में .१७ पाठा आदि वनस्पतिकाय में .१८ मासवर्णी आदि वनस्पतिकाय में .१६ पृथ्वीकाय में २६४ २६५ २६५ ૨૫ २६५ २६६ २६६ २६६ २६७ २६७ २६७ २६८ २६८ २६८ २६६ २६६ २६६ २६६ ३०० Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 89 ) ३०१ ३०१ ३०२ ३०२ ३०२ ३०२ ३०२ .२० अपूकाय में .२१ वनस्पतिकाय में .२२ तेउकाय में .२३ वायुकाय में .२४ दीन्द्रिय में .२५ त्रीन्द्रिय में .२६ चतुरिन्द्रिय में .२७ नारकी में .२८ संमुञ्छिम तिर्यच पंचेन्द्रिय में .१ जलचर संमुच्छिम तिर्यच पंचेन्द्रिय में .२ स्थलचर संमुच्छिम तिर्य च पंचेन्द्रिय में .३ खेचर संमुच्छिम तिर्यच पंचेन्द्रिय में .२६ गर्भज तिर्यच पचेन्द्रिय में १ जलचर गर्भज तिर्यच पंचेन्द्रिय में '२ स्थलचर .३ खेचर '३० मनुष्य में १ संमुच्छिम मनुष्य में '२ गर्भज मनुष्य में ३१ औधिक देव में '३२ गुणस्थान के अनुसार जीव में '३३ चौदह जीव-भेद के अनुसार जीव में '५५ जीव और योग समपद १५६ सयोगी जीव और अन्तर काल '५७ जीव समूहों में कितने योग .१ पृथ्वीकायिक जीव समूहों में योग .२ अप्कायिक जीव समूहों में योग '३ अग्निकायिक जीव समूहों में योग ४ वायुकायिक जीव समूहों में योग '५ बनस्पतिकायिक जीव समूहों में योग '६ द्वीन्द्रिय जीव समूहों में योग, •७ त्रीन्द्रिय जीव समूहों में योग ८ चतुरिन्द्रिय जीव समूहों में योग '६ पंचेन्द्रिय जीव समूहों में योग m mr mr mmmmmmmmmmmmmmm Mmmmmmmmmer mmm ३०४ ३०६ ३०७ ३१० Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 90 ) ११० ३१२ .६ से '८ सयोगी जीव ६१ सयोगी जीव और समपद '६२ सयोगी जीव और प्रथम-अप्रथम '६२.२ अयोगी जीव और प्रथम-अप्रथम '६३ सयोगी जीव और चरम-अचरम '६४ सयोगी जीव की सयोगीत्व की अपेक्षा स्थिति '६५ सयोगी जीव का, सयोगी की अपेक्षा अन्तरकाल १ मनोयोगी और वचन योगी का एक जीव की अपेक्षा अन्तरकाल '२ काययोगी का एक जीव की अपेक्षा अन्तरकाल '३/४ औदारिक काययोगी तथा औदारिक मिश्रकाययोगी का एक जीव की अपेक्षा अन्तरकाल •५ वैक्रिय काय योगी की एक जीव की अपेक्षा अन्तरकाल __ ६ वे क्रिय मिश्रकाय योगी का एक जीव की अपेक्षा अन्तरकाल •७/८ आहारक काययोगी तथा आहार-मिश्र-काययोगी का एक जीव भी अपेक्षा अन्तरकाल '६ कामणकाय योगी का एक जीव का अपेक्षा अन्तरकाल '१० अयोगी का अन्तरकाल mmm ३१५ ३१६ ३१८ ३१६ ३२० Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .०४.०५ योग-कोश .०० शब्द विवेचन '०१ व्युत्पत्ति ०१०१ प्राकृत में 'जोग' शब्द की व्युत्पत्ति रूप-~-जोग, जो पद-संज्ञा लिंग-पल्लिङ्ग धातु-जुज्ज ( युज )> जुज्जइ-जोड़ना, युक्त करना जुज ( युज् )>जुजइ-जोड़ना, युक्त करना जोग--संस्कृत के 'योग' शब्द' में 'आदेयों जः' ( हेम०८।१।२४५ । (पदादेयस्य जादेशः जसो जाइ जमो यथा-स्वोपज्ञ वृत्ति) सून्न से आद्य यकार को जकार आदेश होकर प्राकृत का 'जोग' शब्द निष्पन्न होता है। प्राकृत 'जोग शब्द में विकल्प से 'ग' का लोप होकर 'अ' बनता है। क-ग-च-जत-द-प-य-वां प्रायो लुक् ( हेम० ८।१७७ ) ( स्वरात् परोऽसंयुक्ता अनादिभूतास्तु सन्ति ये तेषाम् । क-ग-च-ज-प-य-वानां प्रायो लुक् प्राकृते भवति ।। के-तित्थयरो लोओ गे-नयरे स्यात् नओ मयंको च । ( स्वोपज्ञ वृत्ति )। ठाण० स्था ३।७१। सू १२४ की टीका में अभयदेव सूरि ने 'तिविहे जोए' शब्द का प्रयोग किया है। अन्यत्र प्रायः 'जोग' शब्द मिलता है। 'जोए-जोअ' रूप का प्रयोग भिन्न अर्थ में 'सूरपण्णत्ती' में मिलता है । जोए-तत्थ खलु इमे दसविहे जोए पन्नत्ते, तं जहा वसुभाणजोएxxx चरमसमए। - सूर० प्रा १२ । सू ७८ यहाँ 'जोए' शब्द का अर्थ है-ग्रह-नक्षत्रों का विशिष्ट आकारात्मक संयोग । ०१०२ पाली में 'बोग' शब्द की व्युत्पत्ति रूप-योग पद-संज्ञा लिंग-पुल्लिंग, नपुंसक धातु- युज् > युञ्जति, युनक्ति, युङक्ते । ठ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) पाली के 'योग' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत 'योग' शब्द के अनुसार ही समझनी चाहिए । ०१.०३ संस्कृत में 'योग' शब्द की व्युत्पत्ति रूप – योग पद - संज्ञा लिंग - पुल्लिंग धातु - Vयुज् > युनक्ति, युङ्क्ते योग शब्द युज् धातु से तीन प्रकार से निष्पन्न हो सकता है—मावे, कर्मणि तथा करणे भावे - युज् धातु से 'योजनं योगः' ( युज् + घञ् ) । कर्मणि - युज्यते ( कर्मणि घञ् ) - धावनबल्गनादिक्रियासु षापर्यंत इति योगः । करणे - युज्यते - सम्बध्यते धावनबल्गनादि क्रियासु जीवोऽनेनेति 'पुंनाम्नि घः' (हेम० ५।३।१३० ) ०२ विभिन्न भाषाओं में 'जोग' शब्द के विभिन्न अर्थ -०२.०१ प्राकृत भाषा में 'जोग' शब्द के अर्थ (क) संज्ञा - सामान्य अर्थ सम्बन्ध, संयोग, मेलन; ईप्सित वस्तु का लाभ ( पाइअ ० ) (ख) विशेषाथ -वश करने के लिए या पागल आदि बनाने के लिए फेंका जाता चूर्ण - विशेष ( पाइअ ० ) (ग) व्याकरण - शब्द का अवयवार्थ सम्बन्ध ( पाइअ० ) (घ) पारिभाषिक अर्थ - धर्म दर्शन -- मन, वचन, शरीर का व्यापार ; मनः प्रणिधान, चित्त-निरोध समाधि ; बल, वीर्य, पराक्रम ; ( पाइअ० ) विज्ञान वशीकरण - ते तं धणकणगरयणनिचयं पिंडिता XXX जोगजुंजणाओ xxx पडिबंधो अत्थि सव्वजीवाणं सव्वलोए । टीका - x x x विविधांश्च योग- योजनान् प्रयोगान् परिग्रहवशीकरणार्थ शिक्षन्ति । - पण्हा श्र १| अ५ । सू १६ ७ बहु-प्रकारांश्च वशीकरण सम्बन्ध - मणसाणं पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते तंजहा x x x 1 -- सम० सम १५/सू ७ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका-'पओगे' त्ति प्रयोजनं प्रयोगः सपरिस्पन्द आत्मनः क्रिया परिणामो व्यापार इत्यर्थः, अथवा प्रकर्षेण युज्यते-संयुज्यते सम्बध्यतेऽनेन क्रियापरिणामेण कर्मणा सहात्मेति प्रयोगः। ०२.०२ पाली भाषा में 'योग' शब्द के अर्थ (क) संज्ञा-सामान्यार्थ-बन्धन, संयोग, सम्बन्ध । (ख) विशेषार्थ-शारीरिक सम्बन्ध, पूर्व जन्म के शरीर या पूर्व क्रिया के सम्बन्ध, चेष्टा, प्रयास, साधन, उपचार । (ग) पारिभाषिक अर्थ ज्योतिष-ग्रह और तारों का मिलन । दर्शन-संसार तथा संसार की वासनाओं के साथ सम्बन्ध और जिससे पुनर्जन्म के साथ बन्धन हो, विवेचन । मंत्र-तंत्र-मंत्र का प्रभाव, मंत्र-शक्ति, मंत्र-क्रिया, मंत्र-योजना । धर्म-ध्यान, भक्ति। ०२.०३ संस्कृत भाषा में योग शब्द के अर्थ (१) संज्ञा ( पंल्लिंग) (क) सामान्य अर्थ-जोड़ना, दो पदार्थों का मिलन, स्पर्श, सम्बन्ध । (ख) विशेषार्थ-तरीका, उपाय, यान, वाहन, कवच, कार्य, व्यापार, धन, सार पदार्थ। (ग) विज्ञान चिकित्सा-औषध-अनुपान ज्योतिष-ग्रह-नक्षत्रों का मिलन, तारों का संयोग, काल का विभाजन, चन्द्रमण्डल का प्रमुख तारा । (घ) मंत्र विद्या-कवच (स्तोत्र), ताबीज़ ( यन्त्र)। (ङ) नीति-नियम, विधान, पारस्परिक निर्भरता। (च) व्युत्पत्ति, अभिधार्थ । (छ) दर्शन-मन की एकाग्रता, ध्यान, ब्रह्मलीनता, पतञ्जलि के दर्शन का नाम, ___ भगवद्भक्ति, अकाम कर्म, संन्यास । (ज) गणित-जोड़ना। .०३ योग शब्द के पर्यायवाची शब्द जोगो पीरियं थामो उच्छाह परकमे तहा चेहा । सत्ती सामस्थयंति य जोगस्स हवंति पज्जाया । ___-ठाण० स्था ३ । उ । १ । सू १२४ । टीका Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिबिहे करणेxxx। टीका-xxx योगप्रयोगकरणशब्दानां मनः प्रभृतिकमभिधेयतया योगप्रयोगकरणसूत्रेष्वभिहितमिति नार्थभेदोऽन्वेषणीयः, त्रयाणामप्येषामेकार्थतया आगमे बहुशः प्रवृत्तिदर्शनात्, तथाहि-योगः पञ्जदशविध शतकादिषु व्याख्यातः, प्रज्ञापनायां त्वेवमेवायं प्रयोगशब्देनोक्तः, तथाहि-“कतिविहे गं भंते ! पओगे पन्नत्ते, गोयमा ! पन्नरसविहे” इत्यादि, तथा आवश्यकेऽयमेव करणतयोक्तः, तथाहि-"झुंजणकरणं तिविहं मणवतिकाए य मणसि सञ्चाइ । सट्ठाणे तेसि भेओ चउ चउहा सत्तहा चेव ॥१॥” इति ।। -ठाण० स्था ३ । उ १ । सू १२४ 'जोग' के पर्यायवाची शब्द--- वीरिय ( वीर्य ), थाम (स्थाम ), उच्छाह ( उत्साह ), परक्कम ( पराक्रम ), चेठा ( चेष्टा ) सत्ती ( शक्ति ), सामत्थय ( सामर्थ्य ), पओग (प्रयोग) और करण (करण)। .३.०१ पीरिय (वीर्य) xxx सकरणस्यैव त्रिस्थानकावतारित्वाद् अतस्तत्रैव व्युत्पत्तिस्तमेव चाश्रित्य सूत्रव्याख्या, युज्यते जीवः कर्मभिर्येन 'कम्म जोगनिमित्तं बाई' त्ति वचनात् युङ क्ते प्रयुङक्तेयं पर्यायं स योगो-वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितो जीवपरिणामविशेष इति, आह व-"मणसा वयसा कारणा पावि जुत्तस्स बिरियपरिणामो। जीवस्स अप्पणिज्जो स जोगसन्नो जिणक्खाओ |॥॥ तेओजोगेण जहा रत्तत्ताई घडल्स परिणामो। जीवकरणप्पओगे विरियमपि तहप्पपरिणामो॥" इति xxx ___ठाण--स्था ३ । उ १ । सू १२४ । टीका वीर्य के दो ( अकरण-सकरण ) भेदों में सकरण वीर्य योग का पर्यायवाची है । जिसके द्वारा जीव कर्मों से युक्त होता है-वह योग है तथा वह योग वीर्यान्तराय के क्षय तथा उपशमजनित जीवपरिणाम विशेष है। मन, वचन तथा काय-इन तीनों में से किसी से युक्त जीव के जो स्वकीय आत्म सम्बन्धी वीर्य परिणाम है उनको तीर्थ'करों ने 'योग' कहा है। जिस प्रकार अग्नि के संयोग से घट में रक्त आदि परिणाम होते हैं उसी प्रकार करण प्रयोग करने पर वीयं भी जीव का आत्मपरिणाम होता है। •०३०२ थाम (स्थाम) -पाइअ० ०३.०३ उच्छाह ( उत्साह) xxx शक्तिरुत्साहःx xx -सिद्ध अ६ । सू६ । पृ० १६४ शक्ति और उत्साह एकार्थवाची शब्द हैं । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०३.०४ परकम ( पराक्रम) xx x वीर्य-पराक्रम x x x। -सिद्ध० अ६ । सू ६ । पृ० १६४ वीर्य और पराक्रम एकार्थवाची शब्द हैं । ०३.०५ चेट्ठा ( चेष्टा ) - पाहअ० ०३.०६ सत्ती (शक्ति) xxxशक्तिरुत्साहः x x x। -सिद्ध० अ६ । सू ६ । पृ० १६४ शक्ति और उत्साह समानार्थक है। ०३.०७ सामत्थय ( सामर्थ्य) xxx सामर्थ्य मतिशयवती चेष्टाxxx। -सिद्ध० अ६ । सू ६ । पृ. १६४ मन, वचन और काय की बलवती चेष्टा सामर्थ्य है। .०३ 'योग' के पर्यायवाची शब्द .०३.०८ पओग (प्रयोग) ___xxx प्रयोग इति प्रपूर्वस्य 'युजिरायोगे' इत्यस्य घअन्तस्य प्रयोगः, परिस्पन्दक्रिया आत्मव्यापार इत्यर्थः, अथवा प्रकर्षेण युज्यते-व्यापार्यते क्रियासु सम्बन्ध्यते वा साम्परारिकेर्यापथकर्मणा सहारमा अनेनेति प्रयोगःXXXI -पण्ण० प १६ । सू २०२ । टीका 'पओगे' त्ति प्रयोजनं प्रयोगः सपरिस्पन्द आत्मनः क्रियापरिणामो व्यापार इत्यर्थः, अथवा प्रकर्षेण युज्यते-संयुज्यते सम्बध्वतेऽननेति क्रियापरिणामेण कर्मणा सहात्मेति प्रयोगः। -सम० सम १५ । सू ७ । पृ० ४४ प्रयोग-परिस्पन्द क्रिया अर्थात् आत्मव्यापार । आत्मा का परिस्पन्दन युक्त क्रियापरिणाम या व्यापार प्रयोग है। अथवा जिस क्रियापरिणमन रूप व्यापार से आत्मा प्रकृष्टता से कर्मों से युक्त होता हो-संयुक्त होता हो या सम्बद्ध होता हो- उसको प्रयोग कहा जाता है। ०३.०९ व्यापार कर्तुमिच्छोः श्रुतार्थस्यः ज्ञानिनोऽपि प्रमादतः । विकलो धर्मयोगो यः स इच्छायोग उच्यते ॥ -योगस० गा २ टीका-xxx धर्मयोगो धर्मव्यापारः, यः इति योऽर्थः वन्दनाविषयः स इच्छायोग उच्यते ।-हरिभद्र -करण प्रवसा०-गा. ८४८ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिविहे करणे इत्यादि x x x क्रियते येन तत्करणं मननादिक्रिय प्रवर्तमानस्यात्मन उपकरणभूतस्तथा तथा परिणामवत्पुद्गल स्वभाव इतिभावः xxx1 -ठाण० स्था ३ । उ १ । सू १२५ टीका योग-आत्मपरिणाम। --भग श २० । उ ३ । सू १ धार्मिक क्रिया-कलापों में व्यापृत होना धर्म योग है। धर्म योग अर्थात् धार्मिक क्रिया-कलापों में व्याप्त होना । .०४ सविशेषण-ससमास-सप्रत्यय 'जोग' शब्द की परिभाषा .०१ अकुसलजोगनिरोहो ( अकुशलयोगनिरोध) -ओघ• भाष्य गा १६७ मन आदि की अशुभ प्रवृत्तियों को रोकना।। इंदियविसयनिरोहो पत्तेसुवि रागदोसनिग्गहणं । अकुसलजोगनिरोहो कुसलोदय एगभावो वा॥ टीका-'अकुसलजोगनिरोहो' अकुशलानाम्-अशोभनानां मनोवाकाय. योगानां-व्यापाराणांयो निरोधः सा त्रिविधकरणायुक्तता x x x | __ मन, वचन और काय-इन तीनों के अयुक्त अर्थात् संयम-विरोधी कार्यकलापों को रोकना-अकुशलयोगनिरोध । .०२ अचरिमसमयअजोगिभवत्थकेवलणाणे ( अचरमसमयअयोगिभषस्थकेवलज्ञान) -ठाणा० स्था राउ रासू ६१पृ० ५०७ अन्त समय से पूर्व योगरहित मनुष्य का होनेवाला केवलज्ञान । मूल-अजोगिभवत्थकेवलणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-xxx । अहवा- x x x अचरिमसमयअजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव । -टीका-न सन्ति योगा यस्य स न योगीति वा योऽसावयोगीxxx 'अथवे'-त्यादि, वरमः-अन्त्यः समयो यस्य सयोग्यवस्थायाः स तथा, xxx ‘एवं' मिति सयोगिसूत्रवत्प्रथमाप्रथमचरमाचरमविशेषणयुक्तमयोगिसूत्रमपि वाच्यम् | जिसके मन आदि के व्यापार नहीं है अथवा जो मन आदि का व्यापार नहीं करता उस भवस्थ मनुष्य का अन्तिम समय से पूर्व होनेवाला केवलज्ञान-अचरमसमयअयोगिभवस्थकेवलज्ञान। .०३ अचरिमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे (अचरमसमयसयोगिभवस्थकेषल -ठाणा स्था राउ |सू ६०1० ५०६ अन्त्य समय से पूर्व सयोगि अवस्था में होनेवाला केवलज्ञान । ज्ञान) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल-सजोगिभवत्थकेवलणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पढम-xxx। अहवा-xx x अचरिमसमयसजोगिभवत्थकेषलणाणे चेव । टीका-सह योगैः-कायव्यापारादिभिर्यः स सयोगी x x x । 'अथवे' त्यादि, चरमः-अन्त्यः समयो यस्य सयोग्यवस्थायाः स तथा। कायादि के व्यापार से युक्त सयोगी अवस्था के अन्तिम समय से पूर्व होनेवाला केवलज्ञान-अचरमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञान । सयोगिभवस्थ केवलज्ञान का यह एक वैकल्पिक भेद है । .०४ अजोग ( अयोग) -सम° सम ५।सू पापृ०१३ मन-वचन-काय की अप्रवृत्ति । मूल-पंच संबरदारापण्णत्ता, तंजहा-सम्मत्तं xxx अजोगा। टीका-संवरस्य - कर्मानुपादानस्य द्वाराणि-उपायाः संवरद्वाराणिमिथ्यात्वाद्याधबविपरीतानि सम्यक्त्वादीनि | संवर अर्थात् कर्मों के न ग्रहण करने के एक उपायभूत मन, वचन और काय की अप्रवृत्ति-अयोग। संवर के पाँच कारणों में एक कारण अयोग भी है तथा कर्मादान के पाँच कारणमिथ्यात्वादि के पाँचों विपरोत हैं । .०५ अजोगा ( अयोग) -सम. सम ५॥सू५ योग रहित अवस्था विशेष । पंच संवरदारा पण्णत्ता, तंजहा-सम्मत्तं विरई अप्पमाया अकसाया अजोगा। टीका-संवरस्य कार्मानुपादानस्य द्वाराणि-उपायाः संवरद्वाराणिमिथ्यात्वाद्याश्रवद्वारविपरीतानि सम्यक्त्वादीनि । संवर अर्थात् कर्म पुदगलों के अग्रहण के लिए एक कारण विशेष- अयोग । संवर के सम्यक्त्व आदि पाँच कारणों में अन्तिम कारण अयोग है। .०६ अजोगिजिणे ( अयोगिजिन ) -गोक• गा ६३८८ योग रहित होकर जिन स्वरूप होनेवाले । मिच्छादिगोदभंगा पण चदु तिसु दोणि अट्ठठाणेसु । एक्केकाजोगिजिणे दो भंगा होति णियमेण ॥ गोत्रकर्म का एक-एक भंग अर्थात् उच्चगोत्र या नीचगोत्र होनेवाला स्थान या पात्र-अयोगिजिन । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .०७ अजोगिभवत्थकेवलणाणं ( अयोगिभवस्थकेवलज्ञान) -नंदी० सू ३५ योगरहित अवस्था में होनेवाला केवलज्ञान । - मूल-से कि तं भवत्थकेवलणाणं १ भवत्थकेवलणाणं दुविहं पण्णतं । तं जहा-xxx अजोगिभवत्थकेवलणाणं च । टीका-योगोऽस्य विद्यते इति योगी न योगी अयोगी अयोगी चासौ भवस्थश्च अयोगिभवस्थः शैलेश्यवस्थामुपगत इत्यर्थः तस्य केवलज्ञानमयोगिभषस्थ केवलज्ञानम् । जिस साधक के मन, वचन और काय के व्यापार अतीत हो गये हैं अर्थात शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर गया है, उसके उस स्थिति में रहने वाला केवलज्ञान-अयोगिभवस्थकेवलज्ञान । अयोगिभवस्थकेवलज्ञान भवस्थकेवलज्ञान का दूसरा भेद है । .०८ अजोगिभवस्थकेवलणाणे ( अयोगिभवस्थकेवलज्ञान ) ___-ठाणा० स्था ।उ ।सू ८६पृ० ५०६ योगरहित अवस्था में रहनेवाला केवलज्ञान । मूल-भवत्थकेवलणाणे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-xxx अजोगिभषत्थकेवलणाणे चेय। टीका-न सन्ति योगा यस्य स न योगीति वा योऽसापयोगी-शैलेशीकरणव्यवस्थितः, xxx । जिसके मन, वचन, काय का व्यापार नहीं है अथवा जो योगी-मन, वचन, काय को व्यापृत करनेवाला नहीं है उसका केवलज्ञान-अयोगि-भवस्थज्ञान । .०९ अयोगिम्मि ( अयोगी) -गोक० गा ७०३ मन, वचन और काय की चेष्टाओं से रहित । जोगिम्मि अजोगिम्मि य तीसिगितील णवट्ठयं उदओ। सीदादिचऊछक्कं कमसो सत्तं समुदि। .१० अजोगत्तं ( अयोगत्व) -उत्त० अ २६।सू ३८ ___ मन, वचन और काय की प्रवृत्तिहीनता। जोगपच्चखाणेणं अजोगत्तं जणयइ । अजोगी णं जीबे नवं कम्मं न बन्ध पुव्यबद्ध निज्जरेइ। नये कर्मों के उपादान को रोकने तथा पूर्वबद्ध कर्म को निर्जीर्ण करने में निमित्तभूत- अयोगत्व। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .०११ अजोगि सत्ताण ( अयोगिसत्त्व ) अयोगियों में होनेवाली सत्त्व प्रकृतियाँ | ( ɛ) अयोगिसत्त्व | .०१२ अजोगी ( अयोगी ) ओकणकरणं पुण अजोगिसत्ताण जोगियरिमोन्ति ! खीणं सुहुमंताणं खयदेसं सावलीय समयोन्ति ॥ सयोगी के अन्त समय तक अपकर्षण करण में कर्मभूत अयोगी की सत्त्व प्रकृतियाँ होती है । .०१३ अजोगी केवली ( अयोगी केवली ) - गोक० गा ४४५ जिनके मन, वचन, काय के व्यापार नष्ट हो गये हैं । जोगपच्चक्खाणेणं अजोगत्तं जणयइ । अजोगीणं जीवे नवं कम्मं न बन्धह पुव्वबद्ध निज़रे | योग-प्रत्याख्यान के द्वारा अयोगत्व को प्राप्त - अयोगी । योगी जीव के नये कर्मों का बन्ध नहीं होता है तथा पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा - उत्त० अ २६ । सू ३८ - सम० सम १४/सू ५। पृ० ४१ मन, वचन, काय के व्यापार से रहित केवलज्ञानी । मूल - कम्मविसोहिमग्गणं पडुश्च चउदसजीबडाणा पण्णत्ता- तंजहा - मिच्छदिट्ठी xxx अजोगी केवली । टीका - अयोगी केवली - निरुद्धमनः प्रभृतियोगः शैलेशीगतो ह्रस्वपञ्चाक्षरो द्गिरणमात्रं कालं यावदिति चतुर्दशं जीवस्थानमिति । शैलेशी अवस्था को प्राप्त पाँच ह्रस्त्र अक्षरों के उच्चारण यावत् कालवर्ती जीव कर्म-विशोधन के द्वारा प्राप्त होनेवाला स्थान - गुणस्थान - अयोगी केवली । जीव के चौदह गुणस्थानों में यह चौदहवाँ गुणस्थान है । .०१४ अज्झप्प जोगसुद्धादाणे (अध्यात्म योगशुद्धादान ) - सू० श्रु १ अ १६ गा ३ अध्यात्म योग के द्वारा निर्मल चारित्र वाला । एत्थवि भिक्खू अणुन्नए विणीए नामए दंते दचिए बोसटुकाए संविधुft विरूवरूवे परीस होवसग्गे अज्झप्पजोगसुद्धादाणे उषट्टिए ठिप्पा संखाए परदन्तभोई भिक्खुत्ति बच्चे । टीका - XXX अध्यात्मयोगेन - सुप्रणिहितान्तःकरणतया धर्मध्यानेन शुद्धम् - अवदातमादानं - चारित्रं यस्य स शुद्धादानो भवति । अन्तःकरण की एकाग्रता रूप धर्मध्यान के द्वारा जिस साधक का चारित्र विशुद्ध हो गया है वह - अध्यात्मयोगशुद्धादान | २ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .०१५ अजोगिठाणं ( अयोगिस्थान) -गोक• गा ४६४ योगरहित स्थान अर्थात् अयोगिकेवली गुणस्थान । तिसु तेरं दस मिस्से णव सत्तसु छट्टयम्मि एक्कारा। जोगिम्मि सत्त जोगा अजोगिठाणं हवे सुण्णं ॥ जहाँ पर योग की सत्ता शून्य हो जाय वह-अयोगिस्थान अर्थात् अयोगिकेवली गुणस्थान। .०१६ अणाभियोगिएसु-अणाभिओगिएसु ( अणाभियौगिक) -भग० श ३।उ ५/प्र २२.पृ. १६६ अभियोग-विकुर्वणा से रहित देवों का एक वर्ग विशेष । मूल-अमायी णं भंते ! तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिक्कते कालं करेइ, xxx अण्णयरेसु अणाभियोगिएसु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जइ । टीका-तत्र चाभियोगोऽपि विकुर्वणा इति मन्तव्यम् । मायारहित आलोचना-प्रतिक्रमण कर काल करने वाले साधुओं का परभव के उत्पत्ति स्थान में देवों का वर्ग विशेष अनाभियौगिक । अच्युतकल्प से ऊपर के देव अनाभियौगिक कहलाते हैं । .०१७ अणुवीइसमितिजोगेण ( अनुवीतिसमययोग) -पण्हा. अ ७ाद्वार २ सू १७.पृ०६६१ वचन बोलते समय संयम रूप योग-व्यापार । मूल - पढम-सोऊण संवर? परमट्ट x xx समिक्खितं संजतेण कालम्मि य वत्तव्वं । एवं अणुवीइसमितिजोगेण भाविओ भवति अंतरप्पा xxx सञ्चजवसंपण्णो । टीका-समीक्षितं.पूर्व बुद्ध या पर्यालोचितं. एतादृशं संयमवता-साधुना काले-अवसरे वक्तव्यं नाऽन्यथा । एवममुना प्रकारेण अनुचिन्त्य-पर्यालोच्य भाषणरूपया समित्या सम्यग् योगयुक्तो भवति अन्तरात्मा-जीवः । अन्तरात्मा को भावित करने में एक कारणभूत, सुनी हुई बात के लिए भी संयमपूर्वक पूर्णरूपेण सोचकर साधु का समयानुसार भाषा का प्रयोग करनाअनुवीतिसमितियोग। .०१८ अणेयजोगंधराण ( अनेकयोगधर ) ---सूय० अ अ १।निगा १६ अनेक प्रकार के योग-चेष्टाओं का धारक । पइजोगेण पभासियमणेगजोगंधराण साहणं । तो षयजोगेण कयं जीवस्स सभाषियगुणेण ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका-xxx किन्त्वनेकयोगधराः। तत्र योगः क्षीराश्रवादिलब्धिकलापस्तं धारयन्तीत्यनेक योगधराः x x x । क्षीराशावादि लब्धि-समुदाय को धारण करने वाला-अनेक योगधर । .०१९ अद्धजोगं ( अद्ध योग) -षट • खं ४, २, ४।सू २६ाटीका।पु १०।पृ० १०१ योगकाल का अर्ध भाग। xx x अद्धजोगमुक्कस्ससंखेज्जेण खंडिइण तत्थेगखंडेण अवघहियजोगहाणं णिरूभिइण वढिपरूषणा कायव्वा । वृद्धि प्ररूपण करने के लिए अर्धयोग को उत्कृष्ट संख्यात से खण्डित कर उनमें से एक खण्ड अधिक योगस्थान विवक्षित करना आवश्यक है । .०२० अन्नोन्नकरण जोएसु ( अन्योन्य करणयोग) -पउम० उ श्लो ६३ दसण-नाण-चरित्ते, सुद्धा अन्नोन्नकरणजोएसु । देहेवि निरवयक्खा, सिद्धिं पावेन्ति धुयकम्मा ॥९३॥ जो ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र में तथा परस्पर करण और योग में शुद्ध होते हैं और जो देह में भी अनासक्त होते हैं वे अपने कर्मों का नाश करके मुक्ति प्राप्त करते हैं । .०२१ अपज्जत्तजोगे ( अपर्याप्त योग ) -षट • खं १।१।पु रापृ. ६५४ मन, वचन, काय के व्यापार की अपूर्णता। कवाडगद-केवलिस्स अपजत्तजोगे वट्टमास्स पुचिल्ल-सरीरेण सह सम्बन्धाभावादो। कपाट-समुद्घातगत सयोगिकेवली के पूर्व शरीर के साथ सम्बन्ध न रहने के कारण उनके योग को अपर्याप्त योग कहा जाता है । .०२२ अप्पभायजोगो (अप्रमादयोग) -सम० प्रकी ६६ प्रमाद अर्थात् अनवधानता से रहित योग । मूल-अंतगडदसासु xxx तह अप्पमायजोगो सज्झायजमाणेण य उत्तमाणं दोण्हं पि लक्खणाई पत्ताण य संजमुत्तमं xxx। टीका-अप्रमादयोगः स्वाध्यायध्यानयोश्च उत्तमयो'योरपि लक्षणानि-स्वरूपाणि, तत्र स्वाध्यायस्य लक्षणं 'सज्झाएणपसत्थं माण' मित्यादि, ध्यानलक्षणं यथा-"अंतोमुहुत्तमित्तं चित्तावत्थाणमेग वत्थुमी” त्यादि व्याख्यायन्त इति सर्वत्र योगः x x x । स्वाध्याय तथा अन्तर्महुर्त पर्यन्त चित्त को एक वस्तु में स्थिर रखना-ध्यान रूप योग को अप्रमाद योग कहा गया है । . Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) ज्ञान ) २३ अपढमसमयअजो गिभवत्थ केबलणाणे ( अप्रथमसमयभयोगिभवस्थ के बल - - ठाण० स्था २ ७ १|सू ६१| पृ० ५०६ द्वितीयादि समय में होनेवाला अयोगी योगरहित साधु का होनेवाला केवलज्ञान । मूल - अजोगिभवत्थ केबलणाणे दुचिहे पण्णत्ते, तंजहा - XXX अपढमसमयअजोगि भवत्थ केवलणाणे चेव । टीका- न सन्ति योगा यस्य स न योगीति वा योऽसावयोगी x x x एवमप्रथमो - दूयादिसमयो यस्य स तथा । जिसके योग- कायादि के व्यापार नहीं है अथवा जो योगी - कायादि के व्यापार से युक्त नहीं है उस भवस्थ मनुष्य के अप्रथम - द्वितीयादि समय में होनेवाला केवलज्ञानप्रथमसमयअयोगिभस्थ केवलज्ञान । *२४ अपढमसमय जोगि भवत्व केवलणाणे ( अप्रथमसमयसयोगिभवस्थ केवलज्ञान ) - ठाण० स्था २१ सू० पृ० ५०६ योगयुक्त अवस्था के द्वितीयादि समय में होनेवाला केवलज्ञान । मूल - सयोगिभवत्थ केबलणाणे दुबिहे पण्णत्ते, तं जहा - XXX अपढमसमयसजो गिभवत्थ केवलणाणे वेब | टीका - सह योग :- कायव्यापारादिभिर्यः स सयोगी इन्समासान्तत्वात् स चासौ भवस्थश्च तस्य केवलज्ञानमिति विग्रहः, xxx एवमप्रथमो - इ. यादिसमयो यस्य स तथा xxx २५ अपरितंतजोगी ( अपरितान्तयोगी ) -पण्हा० अ ६ । द्वा १ | सू १४ । पृ० ६८६ मन-वचन-काय की अधान्तता । मूल- अण्णाप अगढिए अट्ठे Xx X अपरितंतजोगी X XX सवदुक्खपाचाण विओसमणं । टीका - अपरितान्ताः - अभ्रान्ताः योगाः - मनःप्रभृतयो यस्ख सः अपरितान्तयोगी सदनुष्ठानेषु । सदनुष्ठानों में अर्थात् संयम पालन में होने वाले कष्टों से मन, वचन और काय में भान्ति का आभास न होना - अपरितान्तयोगी । *२६ अप्पसत्थे हितो जोगेहितो ( अप्रशस्त योग ) मन-वचन-काय की असत्प्रवृत्ति । -उत्त० अ २६ / सू८ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरहणयाए ण अपुरकारं जणयइ | अपुरस्कारगए णं जीवे अप्पसत्थेहितो जोगेहितो नियत्तेइ x xx। आत्मनम्रता में व्याघात उत्पन्न करनेवाला-अप्रशस्त योग । आत्मनम्रता की प्राप्ति में आत्मगहीं-आत्मनिन्दा को कारण माना गया है । आत्मनम्रता प्राप्त हो जाने से अप्रशस्त योगों से सहज निवृत्ति हो जाती है । २७ अप्पिदजोगजीपरासिपमाणं ( विवक्षितयोगजीवराशिप्रमाण) -षट • खं १, ८।सू १११।टीकापु ५/पृ० २६१ सयोगी जीवों की विवक्षित-कल्पित जीवराशि रूप । एत्थ वि जहा ओघम्हि गुणगारो साहिदो तहा साहेदव्यो। णवरि अप्पिदजोगजीवरासिपमाणं णादृण अप्पाबहुअं कायत्वं । योग की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का साधन करने में आवश्यक सयोगी जीवों की विवक्षित अर्थात् अपेक्षित जीवराशि-अप्पिदजोगजीवराशिप्रमाण । .२८ अप्पिदजोगद्धाए ( विवक्षितयोगाद्वा) ----षट • खं० १,८। सू ११६ । टीका । पु । ५ । पृ. २६२ विवक्षित योग का कालमान । जोगद्धाणं समासं कादूण तेण सामण्णरासिमोघट्टिय अप्पिदजोगद्धाए गुणिदे इच्छिद इच्छिदरासीओहोति । अपेक्षित योग का आगमोक्त कालमान-विविक्षत योगाद्धा। २९ अपुण्णजोगगदं ( अपूर्ण योगगत ) मन, वचन और काय की चेष्टाएँ जिनकी अपूर्ण हैं। मिच्छे सासण अयदे पमत्तविरदे अपुण्णजोगगदं । पुण्णगदं च य सेसे पुण्णगदे मेलिदं होदि ।। मिथ्यात्व, सास्वादन, असंयत और प्रमत्तसंयत-इन चार गुणस्थानों में स्थानसंख्या और प्रकृतिसंख्या जानने में पर्याय योग के साथ अपर्याप्त योग अर्थात योग की अपूर्णता की भी गणना होती है। '३० अनियणियडिसादिजोगबहुलं ( अलीकनिकृतिसादिओगबहुल) --- पहा. द्वार २ । अ२। सू १६ मायापूर्वक मिथ्याभाषण रूप सारम्भ योग की प्रचुरता । एयं तं वितियंपि अलियवयणं xxxअलिय-नियडि-सादि-जोगबहुलं xxx पुणब्भवकर चिरपरिचियमणु गयं दुरंतं । -गोक. गा ४६५ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) टीका - अलीकं - मृषाभाषणं निकृतिमीयामयं तद्योगप्रचुरं xxx पुनर्भवकारणं चिरपरिचितं दुरन्तं XXX । बार-बार संसार में जन्म-मरण का कारण - मायायुक्त मिथ्याभाषण रूप वचनयोग का आरम्भ करना - अलीक क- निकृति - सादि-योगवहुल । ३१ अव्वाधार विसजोगजुत्ते ( अव्यापार व्युत्सृष्ट योग युक्तः ) भावि तीर्थंकर -- प्रथम तीर्थंकर महापद्म जो आगामी उत्सर्पिणी काल में होंगे । दीक्षा के पश्चात् वे अभिग्रह भी धारण करेंगे । - ठाण० स्था ६ | सू ६२ । १० ८६६ ( महापमं ) तपणं से भगवंअणगारे भविस्सति इरियासमिते भासा - समिते एवं जहा वद्धमाणसामी तं चेव णिरवसेस जाव अव्वावार विउसजोग जुत्ते । महापद्म भगवान् दीक्षित होने के पश्चात् - ईयसमिति, भाषासमिति [ भगवान् वर्धमान की भाँति सम्पूर्ण विषय वक्तव्य है, यावत् ] के अव्यापार तथा अव्युत्सृष्ट योग से युक्त होगे । ३२ अधिसंवादनाजोगे ( अविसंवादनायोग ) जिस प्रकार कहा जाय उसी रूप में विश्वास कर लेना । ठाण स्था ४ | उ १ । सू २५४ मूल - उग्विहे सच्चे पन्नन्ते तं जहा - काय उज्जुयया X xx अविसंवायणाजोगे । टीका - अनाभोगादिना गवादिकमश्वादिकं यद्वदति कस्मैचित्किञ्चिदभ्युपगम्य वा यन्न करोति सा विसंवादना तद्विपक्षेण योगः - संबन्धोऽ विसंवादनायोग इति । ३३ असश्चवइप्पओगे ( असत्यवचनप्रयोग ) अनाभोगादि के कारण किसी के पास जाकर गो, अश्व आदि कुछ कहना, परन्तु इस कथन को अस्वीकार कर देना विसंवादना है और इसके विपक्ष के साथ अर्थात् जो कुछ कहा जाय उसको सत्य मानकर उसके साथ सम्बन्ध स्थापित करना - अविसंवादनायोग है । अविसंवादनायोग चतुर्विध सत्य का चतुर्थ भेद है । - सत्य के विपरीत अर्थात् मिथ्या वचन का प्रयोग करना । पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते, तं जहा - ( मोसवइपओगे ) एवं बप्पओगे उहा x × ×1 टीका- ' एवं बप्पओगेषि चउहा' इति, यथा मनः प्रयोगश्चतुर्धा तथा पण प १६ । सू १०६८ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) वाक्प्रयोगोऽपि चतुर्द्धा, तद्यथा-मृषावाक्प्रयोगःxxx, एतान सत्यपागादयः सत्यमनः प्रभृतिवद्भावनीया इति । एक दृष्टान्त के आधार पर यथा जीव एकान्त सद्रूप नहीं है इस प्रकार कुविकल्प पूर्ण वचन का प्रयोग करना-असत्यवचन प्रयोग। '३४ असञ्चमणप्पओगे ( असत्यमनप्रयोग) -पण्ण• प १६ । सू १०६८ असत्य रूप मन का व्यापार । पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते, तं जहा-xx x असश्चमणप्पओगेxxx । टीका-'असचमणप्पओगे' इति, सत्यविपरीतमसत्यं, यथा-नास्ति जीबः एकान्तसद् पो वेत्यादिकुधिकल्पनपरं, तञ्च तन्मनश्च तस्य प्रयोगोऽसत्यमनः प्रयोगःxxx। सत्य से विपरीत असत्य, यथा जीव एकान्ततः सद् रूप नहीं है या है-इस प्रकार कुविकल्प पूर्वक चिन्तन करना-असत्यमनः प्रयोग। .३५ असञ्चामोसमणप्पओगे ( असत्यामृषामनः प्रयोग) -पण्ण० प १६॥सू १०६८ ___ सत्य और मिथ्या दोनों से विपरीत मन का व्यापार । पण्णरसबिहे पओगे पण्णत्ते तं जहा-xx x असञ्चामोसमणप्पओगे xxx टीका-'असञ्चामोसमणप्पओगे' इति यन्न सत्यं नापि मृषा तदसत्यमृषा, इह विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठाशया सर्वज्ञमतानुसारेण विकल्प्यते यथा अस्ति जीवः सदसदूप इति तत्किल सत्यं परिभाषितमाराधकत्वात्, यत्पुषिप्रतिपत्तौ सत्यां यद्वस्तुप्रतिष्ठाशयाऽपि सर्वक्षमतोत्तीर्ण विकल्प्यते यथा नास्ति जीवः एकान्तनित्यो वेत्यादि तदसत्यं विराधकत्वात, यत्पुर्वस्तुप्रतिष्ठाशामन्तरेण स्वरूपमात्रपर्यालोचनपरं यथा देवदत्तात् ३ घट आनेतन्यो गौर्याचनीया इत्यादिविन्तनपरं तत् असत्यामृषा, इदं हि स्वरूपमात्रपर्यालोचनपरत्वात् न यथोक्तलक्षणं सत्यं नापि मृषा, एतदपि व्यवहारनयमतापेक्षया द्रष्टव्यं, अन्यथा विप्रतारणबुद्धिपूर्वकमसत्येऽन्तर्भवति अन्यत्तु सत्ये, तथा तन्मनश्च तस्य प्रयोगोऽसत्याऽमृषामनः प्रयोगः । किसी पदार्थ के प्रतिपादन करने के निमित्त यथा जीव का सव-असत् रूप स्वीकार करना, सर्वज्ञ मतानुसार परिभाषित होने से मिथ्या के विपरीत अर्थात सत्य है तथा जीव को एकान्त नित्य स्वीकार नहीं करना विराधकतावश सत्य के विपरीत है। इस प्रकार सत्य और मिथ्या दोनों से विपरीत मन का व्यापार-असत्यामृषामनः प्रयोग । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) '३६ असश्चामोसवइप्पओगे ( असत्यामृषावचन प्रयोग ) - पण्ण० प १६ / सू २०६८ सत्य और मिथ्या दोनों से विपरित वचन का प्रयोग करना । पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते, तं जहा -- ( असच्चामोसवप्पओगे ) एवं aruओगेवि उहा × × × । टीका - ' एवं पओगेविचउहा' इति यथा मनःप्रयोगश्चतुर्द्धा तथा वाक्प्रयोगोsपितुर्द्धा तद्यथा XX X असत्यामृषावाक्प्रयोगः, एताश्च सत्यवागादयः सत्यमनःप्रमृतिवद्भावनीया इति । किसी पदार्थ के प्रतिपादन करने के निमित्त सर्वज्ञ मतानुसार विकल्प उपस्थित करना, यथा जोव सत्-असत् रूप है, यह तो परिभाषित होने के कारण मिथ्या के विपरीत अर्थात् सत्य है, पुनः संशय उपस्थित होनेपर सर्वज्ञ मत से बाह्य जीव को एकान्त नित्य स्वीकार नहीं करना सत्य के विपरीत है— इस प्रकार के वचन का प्रयोग करना -असत्या मृषावचनप्रयोग | .०३७ असंसत्तवासवसही समितियोगेण ( असंसक्तवासवसतिसमितियोग ) - पहा ० अ हाद्वा ४ सू ७ | पृ० ७०१ स्त्रियों से असंसक्त अर्थात् रहित वास वसति रूप संयम का पालन । मूल - पढमं - सयणासण- घरदुवारअंगण x x x तं तं वज्जेज्ज वजभीरू अणायतणं अंतपंतवासी । एवमसंसत्तबासवसही समितिजोगेण भावितो भवति अंतरपा XXX जितेंदिए बंभचेरगुत्ते । टीका - एवं अनन्तरोक्तस्त्रीभिरसंसक्तवासो वसतिः योऽसौ साधुः तद्विषयो यः समितियोगः - सदाचरणप्रवृत्तिसम्बन्धः स तथा तेन भाषितो - वासितो अंतरप्पा- अन्तरात्मा जीवः । अन्तरात्मा को भावित करने के लिए साधु का स्त्रियों के हास्य शृङ्गारि की कथाओं से असंसक्त स्थान में जहाँ सदाचार में बाधा न हो, ऐसे स्थान में वास वसति रूप संयम में आरूढ़ रहना -असंसक्त वासवसतिसमितियोग । --- .०३८ असुहं जोगं ( अशुभयोग ) आरम्भ समारम्भ रूप अशुभ प्रवृत्ति । Xxx । तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया ते Xx X असुहं जोगं पडुश्च आयारंभा वि, परारंभा षि, तदुभयारंभा वि णो अणारंभा । टीका - प्रमत्तसंयतस्य हि शुभोऽशुभश्य योगास्स्यात् संयतत्वात्, पमादपरत्वाश्च । × × × । अशुभयोगस्तु तदेवाऽनुपयुक्ततया । आह व भग० श १ उ १४८ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) "पुढवी-आउक्काय-तेऊ वाऊ-वणस्सइ-तसाणं पडिलेहणापमत्तो छह पि पिगहओ होइ।" तथा "सम्वो पमत्तजोगो समणस्सो होइ आरंभो” 'त्ति । अतः शुभाऽशुभौ योगावात्मारम्भादिकारणमिति । आत्मारम्भ, परम्भ, उभयारम्भ रूप अशुभ कमों में प्रवृत्ति- अशुभ योग । यहाँ पर प्रमत्तसंयत की अपेक्षा से कथन है। प्रमत्तसंयत में अनारम्भ के कारण शुभ तथा आरम्भ रहने के कारण अशुभ दोनों प्रकार के योग होते हैं। .०३९ आओगपओगसंपउत्ते ( आयोगप्रयोगसम्प्रयुक्त )-सूय० श्रु २।अ ७गा ६६ अर्थ-साधन तथा प्रायोगिक साधनों से युक्त । तत्थ णं नालंदाए बाहिरियाए लेवे नाम गाहावई x x x आओगपओगसंपउत्ते xx + बहुजणस्स अपरिभूए याषि होत्था ।+ + + । टीका-+ + + आयोगः अर्थोपायाः यानपात्रोष्ट्रमण्डलिकादयस्तथा प्रयोजनमयोगः प्रायोगिकत्वं तैरायोगप्रयोगैः संप्रयुक्तः समन्वितः + + + । - यान, पात्र, उष्ट्र, माण्डलिकादि आर्थिक साधन तथा जिन वस्तुओं का यात्रादि में प्रयोजन होता है उनसे युक्त आयोग-प्रयोगसम्प्रयुक्त। ... यह लेप गाथापति का विशेषण है। .०३० आदेसुक्कस्सजोगट्ठाणदध्वं ( आदेश उत्कृष्ट योगस्थानद्रव्य) -षट • खं ४, २, ४.सू ४६।टीका पु १०।पृ० २६६ प्रक्षेपाहार का प्रमाण निकालने में उपयोगी उत्कृष्ट योगस्थान द्रव्य । आउअउक्कस्सदव्वे उकल्सबंघगद्धाए ओवट्टिदे आदेसुक्कस्सजोगट्ठाण दव्वं होदि। आयुष्य के उत्कृष्ट द्रव्य को उत्कृष्ट बन्धक काल से अपवर्तित करने पर प्राप्त होने वाला संख्याप्रमाण-आदेश उत्कृष्ट योगस्थानद्रव्य । ०५१ आभियोगिए.सु-आभिओगेसु (आभियौगिक ) -भग० श ३।उ ५।प्र २१६।पृ. १६६ अभियोग में रत रहनेवाला देवों का एक वर्ग विशेष । मूल -- मायी णं भंते! तस्स ठाणस्ल अणालोइयपडिक्कते कालं करेइ, x x x अण्णयरेसु आभियोगिएसु देवलोगेसु देवत्ताए उवधज्जइ । टीका-तत्र चाभियोगिऽपि विकुर्वणा इति मन्तव्यम्-विक्रियारूपत्वात् तस्य। 'अन्नयरेसु' त्ति आभियोगिकदेवा अच्युतान्ता भवन्ति इति कृत्वा अन्यतरेषु इत्युक्तम् । ___ अभियोग--विक्रिया के द्वारा नये-नये रूप धारण करनेवाला एक देवों का वर्ग तथा Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८) अभियोगी भावना के द्वारा ख्याति की इच्छा रखनेवाले साधुओं का परभब में उत्पत्ति स्थान - आभियौगिक । अच्युत कल्प पर्यन्त के देव आभियोगिक कहलाते हैं । ०४२ आयजोगे ( आत्मयोग) स्वस्थ मन की शुभ प्रवृत्ति । xxx एवं से भिक्खू आयडी x x x आयजोगे x x x आयाणमेब पडिसाहरेज्जासि x × × | टीका - XXX आत्मयोगः कुशलमनः प्रवृत्तिरूपः स यस्यास्ति - स आत्मयोगी x x x आत्मानं संयमेन संसारचक्रान्निष्कामयतीति x x x 1 सू० अ २२ सू ४२ संयम के द्वारा संसारचक्र से आत्मा को निष्कासित करने के लिए अध्यवसाय के द्वारा स्वस्थ मन की संयम की दिशा में प्रवृत्ति - आत्मयोग | • ०४३ आयप्पओगेण ( आत्मप्रयोग ) स्वकीय प्रयोग अर्थात् पराक्रम । मूल - गोयमा ! आयप्पओगेण गच्छइ, नो परष्पओगेण गच्छइ । टीका- 'आयप्पओगेणं' ति न परप्रयुक्त इत्यर्थः । यहाँ प्रकरण वायुकाय का है। किसी भी काय की गति करने में निमित्तभूत स्वकीय प्रयोग अर्थात् पराक्रम - आत्मप्रयोग | -भग० श ३ ४ ४ प्र १६८ | पृ० १६३ • ०४४ आयडिया जोगा ( आयतार्थ योग ) --- उत्त० अ २हागा ३४ यथालाभ से सन्तोष तथा पर लाभ के प्रति इच्छा न करानेवाला योग । संभोगपश्चक्खाणेणं आलम्बणाई खवेइ । निरालम्बणस्स य आययट्ठिया जोगा भवन्ति । सपणं लाभेणं संतुस्सइ परलाभं तो आसाएइ XXX । संभोग प्रत्याख्यान से जिनके आलम्बन नष्ट हो गये हैं उनके अर्थात् निरालम्बन साधक के होनेवाला योग - आयतार्थ योग । • ०४५ आराहिय- नाण- दंसण- खरितजोग (आराधित- ज्ञान-दर्शन- चारित्रयोग) - सम० प्रकी ६४ ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना । आराधिता ज्ञानदर्शनचारित्रयोगा यैस्ते × ×/ जिस साधना के द्वारा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना होती है वह ज्ञानदर्शन - चारित्रयोग | Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०४६ आहारगामीससरीरकायप्पओगे (आहारकमिभशरीरकायप्रयोग) आहार कमिश्र शरीर रूप काय का व्यापार । -पपण. १६।सू १०६८ पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते । तं जहा-xxx आहारगमीससरीरकायप्पओगे १४xxx। टीका-आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगः आहारकादौदारिकं प्रविशतः, एतदुक्तं भवति-यदा आहारकशरीर भूत्वाकृतकार्यः पुनरप्यौदारिक गृहाति तदा यद्यपि मिश्रत्वमुभयनिष्ठं तथाप्यौदारिके प्रवेश आहारकबलेनेत्याहारकस्य प्रधानत्वात् तेन व्यपदेशो नौदारिकेणाहारकमिश्र मिति । __ आहारक शरीर धारण कर उस शरीर से कृतकार्य होकर पुनः औदारिक शरीर में प्रवेश करते समय यद्यपि मिश्रता दोनों की समान रहती है तथापि आहारक शरीर के बल से प्रवेश करने के कारण आहारक शरीर-काय-प्रयोग। •०४७ आहारगसरीरकायप्पओगे ( आहारकशरीरकायप्रयोग) -पण्ण० व १६।सू १०६८ आहारक शरीर रूप काय का व्यापार । पण्णरसबिहे पओगे पण्णत्ते । तं जहा-xx x आहारगसरीरकायप्पओगे १३xxx। टीका-आहारकशरीरकायप्रयोगः आहारकशरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य । आहारक शरीर की पर्याप्ति से पर्याप्त आहार शरीर रूप काय का व्यापार-आहारक शरीर काय प्रयोग। .०४८ आहारसन्नजोगा (आहारसंज्ञायोग) --प्रवसा द्वा । गा ८४५ आहारसंशा प्राप्ति निमित्त होनेवाली चेष्टा । सोइं दिएण एवं सेसेहिवि जं इमं तओ पंच। आहारसन्नजोगा इय सेसाहिं सहस्सदुगं॥ टीका-'पृथिवीकाये' पृथिवीकायामाश्रित्य पृथिवीकायारम्भमित्यभिलापेनेत्यर्थः सम्भवन्ति-स्युर्दश भेदाः-दश शीलविकल्पाः, अप्कायादिवपि नषसु स्थानेष, अपिशब्दो दशेत्यस्येह सम्बन्धनार्थः इत्यनेन क्रमेण एते सर्वेऽपि भेदाः 'पिडियं तु' त्ति प्राकृतत्वात् पिण्डिताः पुनः सन्तः अथवा पिण्डितंपिण्डमाश्रित्य शतं शतसंख्याः स्युरिति, श्रोत्रेन्द्रियेणेतत् शतं लब्धं, शेषैरपि चक्षुरादिभिर्यद् - यस्यादिदं शतं प्रत्येकलभ्यते, ततो मिलितानि पञ्च शतानि स्युः, पञ्चत्वादिन्द्रियाणं, एतानि चाहारसंज्ञायोगलब्धानि इति, एवं शेषा Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) भिरपि भयसंचादिभिस्तिसृभिः पञ्च पञ्च शतानि स्युः सर्वमीलने च सहस्र. द्वयं स्यात्, यतश्चतस्त्रः संज्ञा इति, एतत्सहस्रद्वितयं मनोयोगेन लब्धं x x x | पृथ्वीकाय, अप्काय आदि १० के आरम्भ में श्रोत्रे न्द्रिय की अपेक्षा से प्रत्येक में दस भेद होते हैं, जो आहार संज्ञायोग से प्राप्त होते हैं । .०४९ आहारसमितिजोगेणं (आहारसमितियोग) - पहा• अ६।। १ सू २०1पृ० ६८८ साधु का आहार में संयम रूप व्यापार । चउत्थं आहारएसणाए सुद्ध उछ xxx आहार समितिजोगेणं भाविओ भवति अप्पा, xxx अहिंसए संजए सुसाहू। टीका-प्राणधारणार्थतया-जीवितव्यरक्षणायेत्यर्थः, संयतेन-साधुना समितं यतनापूर्वकं एवममुना प्रकारेण आहारसमितियोगेन भाषितो भवति अन्तरात्मा। . आत्मा को भावित करने में एक कारण भूत, साधु का शुद्ध तथा अल्प मात्रा में ग्रहण करने में यत्नवान रहना-आहार-समिति-योग। .०५० इत्थीकहविरतिसमितिजोगेण (स्त्रीकथाविरतिसमितियोग) -पण्हा अहाद्वा ४/सू पृ. ७०१ स्त्री सम्बन्धी कथा के प्रति विरति रूप संयम का होना । मूल-वितियं-नारीजणस्स मज्झे न कहेयब्धा कहा-xxx एवं इत्थीकहविरतिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा, xxx जितें दिए बंभचेरगुत्ते। टीका-xxx स्त्री-सम्बधिनीः कथाः x x x तपःसंयमब्रह्मचर्योपघातिनीः न कथाः कथयितव्याः। xxx एवं स्त्रीकथाविरतिः एषममुना प्रकारेण स्त्रीकथाविरतिसमितियोगेन भावितो-वासितो भवति अन्तरामाजीषः। __आत्मा को भावित करने में बाधक, संयम और ब्रह्म वर्य के उपघातक स्त्री-सम्बन्धी कथा 'द के प्रति विराग धारण कर संयम में दृढ़ रहना--स्त्रो कथा विर तिममितियोग। .८५॥ इत्यीरूवविरतिलमितिजोगेण ( स्त्रारूपवितिसमितियोग) -पण्हा. अहाज सूहापृ० ७.२ स्त्री रूप-सौन्दर्य के प्रति विराग रूप संयम का पालन । मूल-ततियं-नारीण हसिय-भणिय-चेटिय x xx अणुचरमाणेणं बंभचेरं न चपखुसा न मणसा न पयसा णत्थेयवाई पावकम्माई। एवं इत्थी Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) रूषविरतिसमितिजोगेण भाषितो भवति अंतरप्पा, xxx जितेंदिए बंभचेरगुत्तो टीका-नारीणां-- स्त्रीणां हसितं हास्थं विकारं नर्मादि भणितं xxx अनुचरता-ब्रह्मवतमासेवता यतिना न चक्षुषा द्रष्टव्यानि अभिलाषतया दृष्टादृष्टि न बध्नातीत्यर्थः। न मनसा चिन्तयितव्यानि । Xxx एवमुक्तप्रकारेण स्त्रीरूपविरतिसमितियोगेन भावितो भवति अन्तरात्मा--जीवः x x x । आत्मा को भावित करने के लिए ब्रह्मचर्य व्रत का सेवन करने वाले साधु का नारी के सौन्दर्य को देखने, हास्यादि के सुनने या मन में अभिलाषा करने के प्रति विराग धारण कर संयम का पालन करना - स्त्रीरूपविरतिसमितियोग। .०५२ इरियासमितिजोगेण ( ईर्यासमितियोग) - पण्हा० अ६।दा १।सू १७/पृ॰ ६८७ ई-गमन में सावधानता रूप योग-व्यापार । मुल-एवं इरियासमितिजोगेण भावितो x x x अहिंसए संजए सुसाहू। टीका-ईरितव्यं - गन्तव्यं xxx ईर्यासमितिव्यापारेण भाषितोपासितो भवति अन्तरात्मा-जीवः। __अन्तरात्मा को वासित- पवित्र करने में एक कारणभूत गमन करते समय क्षुद्र जन्तुओं की हिंसा से बचने के लिए संयम बरतना-ई-समितियोग । .०५३ उक्कडजोगी (उत्कटयोगी) --कम भा ५ागा ८६पृ० १.५ योग का उत्कृष्ट व्यापार करनेवाला। अप्पयरपडिबंधी, उक्कडजोगी य सन्नि पज्जत्तो। कुणइ पएसुक्कोसं, जहन्नयं तस्स बञ्चासे ।। टीका-'उत्करयोगी' उत्कटवीर्यवान् , सर्वोत्कृष्टयोगव्यापारे वर्तमान इत्यर्थः। उत्कृष्ट प्रदेशों को बाँधने के लिए सर्वतः उत्कृष्ट योग-व्यापार में वर्तमान संशी पर्याप्त जीव-उत्कटयोगी। .०५४ उक्कडजोगी ( उत्कष्टयोग) -गोक• गा २१० उत्कृष्ट योग का धारक । उक्कडजोगो सण्णी पज्जत्तो पयडियंधमप्पदरो। कुणदि पदेसुक्कस्सं जहण्णये जाण विषरीयं ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) जो संशी पर्याप्त जीव अल्प प्रकृति बन्ध तथा उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है उसको उत्कृष्ट मन, वचन, काय योग का कर्ता या 'उत्कृष्ट योग' कहा गया है ।। .०५५ उकस्सजोगट्ठाणजीवे ( उत्कृष्टयोगस्थानजीव) -घट • खं ४, २, ४।सू २८ाटीका।पु १०।पृ. ६८ उत्कृष्ट योगस्थान में बरतने वाले जीव । पुणो जवमझ पडिरासिय तत्थ एगपक्खेवे अवणिदे तदणंतरजोगट्ठाणजीवपमाणं होदि । तं पडिरासिय बिदियपक्खेवे अवणिदे तदणंतरउवरिमजोगट्ठाणजीवपमाणं होदि। एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सजोगट्ठाणजीवे। ( यवमध्य में सबसे अधिक जीवों की सत्ता रहती है ) यवमध्य को प्रति राशि में उसमें से एक प्रक्षेप के कम करने पर उससे आगे के योगस्थान के जीवों का प्रमाण सिद्ध होता है। उसको प्रतिराशि में विभाजित कर उसमें से द्वितीय प्रक्षेप के कम करने पर उससे ऊपर के योगस्थान के जीवों का प्रमाण होता है। इस प्रकार विभाजित करते जाने पर अन्त में प्राप्त होनेवाला जीव प्रमाण --उत्कृष्टयोगस्थानजीव । .०५६ उक्कस्सजोगकाले ( उत्कृष्टयोगकाल ) -षट० ख० ४, २।सू १० टीकापु १०० ३६ योग का उत्कृष्ट काल । उक्कस्सजोगकाले आउए बंधाविदे जहण्णजोगेण आउयं बंधमाणस्स णाणावरणक्खयादो असंखेज्जगुणदव्वक्खयदंसणादो। आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि के अनुसार यद्यपि आयुबन्ध जघन्य योग के द्वारा होता है। __ जघन्य योग के द्वारा आयु बाँधने वाले जीव के जो ज्ञानावरणीय द्रव्य का जो क्षय होता है, उसमें बाधक- उत्कृष्टयोगकाल । .०५७ उक्कस्साई जोगट्ठाणाई ( उत्कृष्ट योगस्थान) -षट • रत्नं ४, १।सू ७१।टीका।पृ ।पृ. ३४३ उत्कृष्ट-उत्तम योगस्थान । कम्मइयस्स उक्कस्सपरिसादणकदी कस्स ? जो जीवो तीससागरोधमकोडाकोडीओ बेहि सागरोवमसहस्सेहि य ऊणियाओ बादरेसु अच्छिदो, तम्हि x y x बहुसो उक्कस्साई जोगट्ठाणाई गदो, xxx तदो उवढिदो बादरतसेसु उवषण्णो। कामण शरीर की उत्कृष्ट परिशातन कृप्ति करनेवाला जीव दो हजार सागरोपम से कम तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम काल तक बादर जीवों में रहता है तथा वहाँ से बादरत्रस में उत्पन्न होने के कतिपय कारणों में एक कारण उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त करना । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) ०५८ उक्कस्सेण जोगेण ( उत्कृष्ट योग) -षट • खं ४, १ ।सू ७१।टीका।पु ६।पृ. ३४३ - योग का उत्कृष्ट-उत्तम रूप । कम्मइयस्सबुकस्सपरिसादणकदी कस्स १ जो जीवो तीससागरोषमकोडाकोडीओ बेहि सागरोचमसहस्सेहि य ऊणियाओ बादरेसु अच्छिदो, तम्हि xxx उक्कस्सेण जोगेण आहारिदो, xxx तदो उवहिदो बादरतसेसु उपवण्णो। कामण शरीर की उत्कृष्ट परिशातनकृति करनेवाला जीव दो हजार सागरोपम से हीन तीस कोड़ाकौड़ी सागरोपम काल तक बादर जीवों में रहता है। पुनः बादरत्रस में उत्पन्न होने के लिए कतिपय कारणों में एक कारण उस स्थिति में आहार लेने की प्रवृत्ति-- उत्कृष्ट योग। '०५९ उत्तसव्वजोगेहि ( उक्तसर्वयोग) -षट • खं १,८। सू १०५ । टीका । पृ ५ । पृ. २६० जिन योगों को एक साथ मिलाकर अल्पबहुत्व का विवेचन किया गया गया है वे सभी। मूल-जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचपचिजोगि-कायजोगि-ओरालियकायजोगीसु तीसु अद्धासु उवसमा पवेसेण तुल्ला थोवा । टीका -- एब्देहि उत्तसव्वजोगेहि सह उवसमसेदि चदंताणं वुक्कस्सेण चउवण्णत्तमत्थि त्ति तुल्लत्तं परविदं । जिन योगों की अपेक्षा से उपशम श्रेणी पर चढ़नेवाले जीवों की संख्या १२ होती है उनको उक्तसर्वयोग कहा गया है । .०६० उववादजोगठाणा ( उपपादजोगस्थान) -गोक• गा २१६ उत्पत्ति के समय जीव के होनेवाले जोग का स्थान । उववादजोगठाणा भवादिसमयट्टियस्स अवरवरा। विग्गहइजुगइगमणे जीवसमासे मुणेयम्वा ।। पर्याय धारण करने के प्रथम समय में वर्तमान जीव के होनेवाला योगस्थानउपपादयोगस्थान । जो जीव वक्रगति ( बीच में मोड़ लेकर ) से नवीन पर्याय धारण करता है उसमें जघन्य उपपादयोगस्थान होता है तथा जो जीव ऋजुगति ( सीधा ) नवीन पर्याय-शरीर धारण करता है उसमें उत्कृष्ट उपपाद योगस्थान होता है । .०६१ एगजोगो ( एकयोग) -षट • खं १, ८ासू ३।टीका ।पु ५। पृ०२४५ एकयोग अर्थात एक समान कर्म धारण करनेवाले जीवों का एक समान या वर्ग । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) उवसंतकसायस्स कसाउषसामगाणं च पञ्चासत्तीए अमावस्स संदसणफलो। जेसि पञ्चासत्ती अस्थि तेसिमेगजोगो,xxx। उपशान्तकषाय तथा कषायों का उपशमन करनेवालों में प्रत्यासत्ति अर्थात् समीपता नहीं रहती है, जिन जीवों के समीपता रहती है, उस वर्ग को कहा जाता है-एकयोग। ०६२ एयजोगसमाउत्तो (एतद्योगसमायुक्त) --उत्त० अ ३४ । गा २४ जिसमें सभी योग वर्तमान रहते हों । आरम्भाओ अधिरओ खुद्दो साहस्सिओ नरो। एयजोगसमाउत्तो नीललेसं तु परिणामे ! नीललेश्या में परिणमन करनेवाले को x x x आरम्भ से अविरति, क्षुद्रता तथा साहस-इन योगों से युक्त रहने के कारण एतदद्योगसमायुक्त कहा गया है। .०६३ जोगसंगहे ( योगसंग्रह) -पण्हा० अ १०।दा ५ ।स १ । पृ० ७०४ योग-मन-वचन-काय के व्यापारों का संग्रह । मूल-एगे असंजमे । दो चेव राग-दोसा।xxx। जोगसंगहे सुरिंदा । xxxअमूढमण-वयण कायगुत्ते । ___टीका-जोगसंगहे ३२ अथ द्वात्रिंशत्योगसंग्रहा:-युज्यन्ते इति योगाः मनोवाक्कायव्यापारास्ते चेह प्रशस्ता विवक्षितास्तेषां शिक्षाचार्यगतानां आलोखनादिभिरपलापादिना प्रकारेण संग्रहणानि संग्रहाः प्रशस्तयोगसंग्रहत्वात् आलोचना अत एव तथोच्यते तेच द्वात्रिंशत् भवन्ति । संवराभिलाषी साधु के लिए करणीय शिक्षाचार्य के द्वारा आलोचनादि मन-वचनकाय के प्रशस्त व्यापारों का संग्रह-योग संग्रह । ___आलोचनादि ३२ बत्तीस प्रकार योग संग्रह के अन्तभूत हैं, जो साधु के लिए करणीय है। .०६४ ओग्गहसमितिजोगेण ( अवग्रहसमितियोग) किसी भी वस्तु के आज्ञा के बिना ग्रहण करने में संयम रखना । मूल-बितियं-आरामुज्जाण - काणण xxx ओग्गहसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा, xxx दत्ताणुण्णाय-ओग्गहरुई । ___टीका - अवग्रहे अनुज्ञातेऽपि उपाश्रये मध्यगततृणाद्यपि अनुहां बिना प्रहीतुं न कल्पते एतावता तदपि न ग्राह्यम्, एतदेवाह यत्किश्चिदपि घिलोक्यते ( यस्मिन् ) तत् ( अहः तस्मिन् ) अहनि अहनि -प्रतिदिनं उपाश्रयाद्यनुशावत सर्व अनुशाप्य ग्रहीतव्यम् , एवं-उक्तसूत्रनीत्या अषप्रहसमितियोगेन, भाषितो-वासितो भवति अन्तरात्मा जीवः। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) आत्मा को वासित करने के लिए आशा प्राप्त कर उपाश्रयादि में रहते हुए साधु का उपाभय में स्थित तृणादि भी बिना आशा के ग्रहण न करने रूप संयम में रदता का पालन करना-अवग्रह समिति योग। .०६५ ओघसजोगिरासि ( ओघसयोगिराशि) -षट • खं १, सासू ५८ाटीका। ५० २७४ औधिक सयोगिकेवलियों की राशि। मणुस-मणुसपजत्तएसु ओघसजोगिरासिं उविय हेडिमरासिणा ओषट्टिय गुणगारो उप्वादेदव्वो। मनुष्य और मनुष्य-पर्याप्त में से निकाली हुई वह राशि, जिसमें अधस्तन राशि से भाग देकर भागफल प्रमाण संचयकाल की अपेक्षा सयोगिकेवलियों के संख्यात गुणन का गुणकार बनता है वह-ओघसयोगिराशि। .०६६ ओरालियमीससरोकायप्पओग (औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोग) -~-पण्ण० प १६।सू १.६८ औदारिकमिश्र शरीर रूप काय का प्रयोग अर्थात व्यापार । पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते, तंजहा-xxx ओरालियमीससरीरकायप्पओगे १० xxx । टीका-'औदारिकमिश्रकायशरीरप्रयोग' इति औदारिकं च तन्मिभं च औदारिकमिश्रं, केन सहमिश्रितमितिचेत् ? उच्यते, कार्मणेन, तथा चोक्तं नियुक्तिकारेण शस्त्र (आहार) परिक्षाध्ययते-'जोएणं कम्मएणं आहारेह अणंतरं जीवो। तेण परं मीसेणं जाव सरीरस्स निष्फत्ती॥ कार्मण-कर्मप्रधान शरीर से मिश्रित प्रधानीभूत औदारिक शरीर रूप काय का प्रयोग-योग अर्थात् चेष्टाएँ -औदारिक-शरीरकायप्रयोग। .०६७ ओरालियसरीरकायप्पओगे ( औदारिकशरीरकायप्रयोग) -पण्ण० प १६।सू १०६८ __औदारिक शरीर रूपकाय की चेष्टा । पण्णरसबिहे पओगे पण्णत्ते, तंजहा-xxx ओरालियसरीरकायप्पओगे ९ xxx। टीका-'ओरालियसरीरकायप्पओगे' इति xxx औदारिकमेवशरीर तदेष पुद्गलस्कन्धसमुदायरूपत्वात् उपवीयमानत्वाच कायः औदारिकशरीरकायः तस्य प्रयोगः औदारिकशरीरकायप्रयोगः, अयं च तिरश्चो मनुष्यस्य च पर्याप्तस्य १ xxx I तिय च और मनुष्यों में पर्याप्त अवस्थामें औदारिक पुदगल स्कन्ध समुदाय रूप शरीर की चेष्टा-औदारिकशरीरकायप्रयोग। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) .०६८ किहिगदजोगो ( कृष्टिगतयोग) - :- - -षट • ख ४, २, ४।सू १०७/टीकापु १०।पृ० १२५ योग की क्रियाओं का मन्द होना। किट्टिकरणे णिहिट से काले पुवफहयाणि च अपुवफहयाणि किहिसरूवेण परिणामेति । ताधे किट्टीणमसंखेज्जे भागे वेदयति । एषमतोमुठुत्तकाल किहिगदजोणो सुहुमकिरियमप्पडियादिशाणं झायदि। सूक्ष्म क्रिया-अप्रतिपाती ध्यान का ध्याता कृष्टिकरण के समाप्त होने पर पूर्व स्पर्धक और अपूर्व स्पर्द्धक का कृष्टिस्वरूप से परिणमन करता है। इस समय में उसके कृष्टियों के असंख्यात बहुभाग का वेदन होता है । इस प्रकार अन्तर्महूर्त काल पर्यन्त वेदन होना कृष्टिगतयोग। •०६९ कमधिसुद्धाओ लेसाओ ( क्रमविशुद्ध लेश्या) -ध्याश• गा ६६ .. होति कमविसुद्धाओ लेसाओ पीय-पम्ह-सुक्काओ। धम्मज्माणोवगयस्ल तिव्व-मंदाइभेयाओ।। टीका- x x x 'क्रमविशुद्धाः' परिपाटिविशुद्धाः, का: १-श्याः, ताश्च पीत-पद्म-शुक्लाः, एतदुक्तं भवति-पीतलेश्यायाः पद्मलेश्या विशुद्धा तस्या अपि शुक्ललेश्येति क्रमः, कल्यता भवन्त्यत आह-'धर्मध्यानोपरातस्य' धर्मध्यानयुक्तस्येत्यर्थःxxxi '०७० कम्मइयक्रायजोगिअसंजदसम्मादिट्ठीणं (कार्मककाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि) -षट • खं १, ७ासू ४०।टीका।पु ५ पृ. २२१ कार्मणकाययोग के धारक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव। टीका-कम्मइयकायजोगिअसंअदसम्मादिट्ठीणं ओवसमियखाय-खोवसमियभावेहि, सजोगिकेवलीणं खइएण भावेण ओघम्मि गदगुणहाणेहि साधम्मुषलंभा। ... कार्मणकाययोग के धारक असंयत सम्यग्दष्टि जीव में औपश मिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भाव होते हैं और सयोगिकेवली में क्षायिक भाव होता है, अतः क्षायिक भाष की अपेक्षा से सयोगिकेवली से साधर्म्य रखनेवाला-कार्मणकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि । '०७१ कम्मासरीरकायप्पओगे (कार्मणशरीरकायप्रयोग) -पण्ण० प १६।सू १०६८ किसी कर्म-कार्यविशेष के सम्पादनार्थ विहित तेजस-कामण शरीर की चेष्टा । पण्णरसविहे पओग पण्णत्ते--तं जहा- x x x कम्मासरीरकायप्पओगे १५xxxi Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) टीका - तैजसकार्मणशरीरप्रयोगे बिग्रहगतौ समुद्घातावस्थायां वा सयोगिकेवलिनस्तृतीयचतुर्थपश्चमसमयेषु, इह तैजसं कार्मणेन सहान्यभिवारीति युगपत्ते जसकार्मणग्रहणम् । किसी जीव के विग्रहगति करते समय तथा सयोगिकेवली के समुदघात के आठ समयों में से तृतीय, चतुर्थ और पंचम समय में होनेवाले तेजस - कार्मण शरीर के चेष्टाकार्मणशरीरकायप्रयोग | तेजस शरीर- कार्मण शरीर के साथ अव्यभिचरित होकर रहता है । ०७२ कय- तिजोय ( कृत तीन योग ) कय- तिजोय - सुणिरोहु अणिट्ठउ । किरिया - छिण्ण झाणि परिट्टिउ | भगवान् ने अपने मन, वचन और काय इन तीनों योगों का भले प्रकार निरोध करके छिन्न क्रिया-निवृत्ति नामक ध्यान धारण किया । ०७३ करण जोग ( करण योग ) ०७४ कलायजोगा ( कषाययोग ) कर्म के आगमन के कारणभूत कषाय और योग । वीरजि० संधि कड १ - प्रवसा गा ८४० - गोक० गा ७८६ मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य आसवा होंति । पण बारस पणुवीलं पण्णरसा होंति तब्भेया ॥ कषाय— क्रोध, मान, माया और लोभ - अनन्तानुबन्धी, प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी तथा संज्वलन के भेद से १६ तथा हास्य, रति आदि नौ नोकषाय मिलाकर २५; और मनोयोगादि १५ जो कर्म आगमन के कारण हैं, वे - कषाययोग | • ०७५ कायजोग चलणा ( काययोग चलना ) -भग श १७ उ ३ ०७६ काबोय-नील- कालालेस्साओ (कापोत- नील- कृष्णलेश्या ) - ध्याश० गा १४ काचोय-नील- कालालेस्साओ णाइसंकिलिट्ठाओ । अज्झाणोवगयस्स कम्मपरिणामजणियाओ ॥ टीका - कापोत- नील- कृष्णलेश्याः, किम्भूताः १ - 'नातिसंक्लिष्ट' रौद्रध्यानलेश्यापेक्षया मातीचाशुभानुभावा भवन्तीति क्रिया, कस्येत्यत्यात आहआर्तध्यानोपगतस्य जन्तोरिति गम्यते, किंनिबन्धना एताः ? इत्यत आहकर्मपरिणामजनिताः XXX । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) •०७७ गतिकसायलिंगमिच्छादसणऽण्णाणऽसंजआसिद्धलेस्साओ (गतिकषाय लिंगमिथ्यादर्शनासानासंयमसिद्ध लेश्या। -सूयच. अ५ । च सू ६६ तत्थोदश्याओ गतिकसायलिंगमिच्छादसणऽण्णाणऽसंजआसिद्धलेसाओ जहासंखेण चतुचतुति पिणएक्केषकेक्केक्कछभेदा, xxx लेस्ला कण्हलेस्सादि। •०७७ गयजोगस्स ( गतियोग) -गोक गा. ५६८ योग-मन, वचन और काय के व्यापार से रहित । गयजोगस्स य बारे तदियाउगगोद इदि विहीणेसु । णामस्स य णव उदवा अट्ठव य तित्थहीणेसु ॥ बारह उदय प्रकृतियों में से वेदनीय, आयु और गोत्र-ये तीन कम कर देने पर नाम कर्म की नौ प्रकृतियों के तथा जिनमें तीर्थ कर प्रकृति नहीं होती उनमें उसको भी कम देने पर आठ प्रकृतियों के उदय योग्य स्थान-गतयोग अर्थात् अयोगिकेवली । •०७९ गुण-जोगंतरगमणेहि ( गुण-योगान्तरगमन ) -षट् खं १,६।सू १५६।१५पृ.८८ गुणान्तर और योगान्तर में गमन । मूल-सासणसम्मादिष्ट्रि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरंxxx एगजीवं पडुन णस्थि अंतरं, णिरंतरं । १५४, १५६ । टीक-कुदो ? गुण-जोगंतरगमणेहि तदसंभवा।। सयोगित्व की अपेक्षा से सासादनसम्यग्दृष्टि तथा सम्यग मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों की निरन्तरता में बाधक-गुण-योगान्तरगमन । .०८० घोडणजोग (घोटमानजोग) - गोक• गा २१६ घटने-बढ़ने वाला योग-मन, वचन और काय का व्यापार । घोडणजोगोऽसण्णी णिरयदुसुरणिरयआउगजहणं । अपमत्तो आहारं अयदो तित्थं च देवचऊ ॥ असंही जीव तथा नरकद्वय, जो देवायु तथा नरकायु का प्रदेश बन्ध करते है, आहारकद्वय के अप्रमत्त संयत गुणस्थानवर्ती तथा असंयत गुणस्थानवी जो तीर्थ कर प्रकृति और देवचतुष्क-इन पाँच प्रकृतियों का जघन्य प्रकृतियों का बन्ध करते है ये सब घोटमान योग के द्वारा होते हैं। ०८१ घोलमाणजहण्णजोगेण (घोलमान जघन्य योग) -षट ० ५ १६।४७ ४३५ जिसका जघन्य योग घुलनशील हो रहा हो अर्थात अधोमुख हो रहा हो। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --प्रवसा गा १२६७ ( २६ ) तिण्णिसंजलण-पुरिसवेदाणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? उघसामयस्स अपच्छिमसमयपबद्ध घोलमाणजहण्णजोगेण बद्ध अपच्छिमसंकामयंतस्स अहण्ण पदेससंकमो। __उपशामक तीन संज्वलन पुरुषवेद के जघन्य प्रदेश संक्रमण में कारण भूत अन्तिम समय प्रबद्ध कर्म का संक्रमण होना है, उसके बन्ध का कारण-घोटमान जघन्य योग है। ०८२ चउजोगजुभं (चतुर्योगयुग) चार भावों की सन्धि । दुगयोगो सिद्धाणं केवलिसंसारियाण तियजोगो। यउजोगजुरं चउसुवि गईसु मणुयाण पणजोगो॥ टीका-- xxx पञ्चसु चतुष्कसंयोगेषु मध्ये चतुर्योगयुगं-चतुःसंयोगभङ्गद्वयं चतसृष्वपि गतिषु संभवति, तथाहि-औपमिकसम्यग्दृष्टेरौदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावचतुष्टयनिष्पन्नस्तृतीयो भङ्गा, क्षायिकसन्यग्दृष्टेस्तु औदयिकः क्षायिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिक इत्येवंरूपश्चतुर्थो भङ्गश्चतसृष्वपि गतिषु प्राप्यत इति ।। चतुष्क संयोग पाँच होते है जिनमें दो भंग तो चारों गतियों में प्राप्त होते है, यथा उपशम सम्यग्दृष्टि में औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक भावो के संयोग को चतुर्योगयुक् कहते है । और क्षायिक समग्दृष्टि में औदयिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक भावों के संयोग को चतुर्योगयुक् कहते हैं । '०८३ चरिमसमयअजोगिभवत्थकेवलणाणे (चरमसमयअयोगिभवस्थकेवलज्ञान) -ठाणा० स्था २ ।उ१। सू६१।पृ ५०८ योगरहित अवस्था के अन्तिम समय में होनेवाला केवलज्ञान । मूल-अजोगिभवत्थकेवलणाणे दुविहे पण्णते, तं जहा- xxxi अहवा-चरिमसमयअजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव,xxx। टीका-न सन्ति योगा यस्य स न योगीति वा योऽसावयोगी-xx x 'अथवे' त्यादि, चरमः- अन्त्यः समयो यस्य सयोग्यवस्थायाः स तथा, xxx 'एव' मिति सयोगिसूत्रवत्प्रथमाप्रथमचरमावरमविशेषणयुक्तमयोगिसूत्रमपि पाव्यमिति । जिसके मन आदि के व्यापार नहीं है अथवा जो मन आदि का व्यापार नहीं करता Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है उस भवस्थ मनुष्य के अन्तिम समय में होनेवाला केवलज्ञान--- चरमसमयअयोगिभवस्थकेवलहान '०८४ चरिमसमयसजोगिभवत्थकेषलणाणे (चरमसमयसयोगीभषस्थकेवलज्ञान -ठाण• स्था २ । उ १ । सू ६१ । पृ० ५०६ सयोगी अवस्था के चरम अर्थात् अन्त समय में होनेवाला केवलशान । मूल-संजोगिभवत्थकेवलणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा --पढम x x x | अहवा-चरिमसमयसजोगिभवत्थकेषलणाणे चेव,xxx। ____टीका-'अथवे' त्यादि, चरमः-अन्त्यः समयो सयोग्यवस्थायाः स तथा। सयोगिभवस्थकेवलज्ञान का एक वैकल्पिक भेद-चरमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञान । ०८५ जयणघडणकरणचरियविणयगुणजोगसंपउत्ते (जयणघटणकरणचरित विनय गुण योग संपयुक्त) -पण्हा०४ १६६ .०८६ जहण्णये जोगे ( जघन्य जोग) -गोक• गा २१५ अल्प रूप से योग का प्रयोग। सुहम निगोदअपज्जत्तयस्स पढमे जहण्णये जोगे। सत्तण्हं तु जहण्णं आउगबंधेवि आउस्स ॥ ___ सूक्ष्मनिगोद लब्ध्यपर्याप्त जीव अपने पर्याय के प्रथम समय में जब आयु के अतिरिक्त सात मल प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध करता है उस समय उसके होनेवाला योग-जघन्य योग। .०८७ जहण्णएण जोगेण ( जघन्य योग ) -षट् खं ४,२ । सू १० । पु १० । पृ. ३८ जघन्य योग अर्थात् योग की निम्न प्रक्रिया । जदा जदा आउयं बंधदि तदा तदा तप्पाओग्गेण जहण्णएण जोगेण पंधदि। जब-जब आयुबन्ध होता है तब-तब उसका कारण होता है-तत्प्रायोग्य जघन्य योग। ०८८ जहण्णुक्कल्सजोगा ( जघन्य-उत्कृष्ट योग) -षट् खं ४,२,४ । सू १० । टीका । पृ १० । पृ० ३६ योग का निम्नतम और उच्चतम रूप । कम्मद्विदिपढमसमयप्पटुडि जाष तिस्से चरमसममओ ति ताप गुणिद Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) कम्मलिपाओग्गाण जोगट्ठाणाणं पंतीए देसादिनियमेणावठ्ठिदाए खग्गधारासरिसीए जहण्णुकस्सजोगा अस्थि । कर्म स्थिति के प्रथथ समय से लेकर उसके अन्तिम समय तक गुणित कम शिक जीव के योग्य योगस्थानों के देशादि के नियम से एक पंक्ति में अवस्थित रहनेवाला - जघन्य उत्कृष्ट योग । ०८९ जहा- जोग (यथा- योगम् ) कालानुरूव किंरियं सुयानुसारेण कुरु जहा - जोगं । जह के सिगणहरेणं गोयम गणहारिणो बिहिया || अर्थात् कालानुरूप से क्रिया को श्रुत के अनुसार यथा योग करनी चाहिए। जैसे केशी स्वामी ने गोतम स्वामी के समीप कालानुरूप क्रिया - पंच महाव्रतादिका अनुसरण किया । - दसवे० च २ । गा १५ • ०९० जोग ( योग ) - धर्मो० पृ० १४० स्कृत तथा दुष्कृत में प्रवृत्ति करानेवाली बुद्धि । जस्सेरिसा जोग जिई दियस्सा धिइमओ सप्पुरिसस्स निच्च । तमाहु लोए पडिबुद्धजीवी सो जीवइ संजमजीषिणं ॥ जितेन्द्रिय, धृतिमान् सत्पुरुष बराबर सावधान रहता है जिससे उसका मन दुष्प्रवृत्त न हो, उसकी इस प्रत्युत्पन्न बुद्धि को योग कहा गया है । ०९१ जोगचलना ( योगचलन ) योगाश्रित पुद्गलों का व्यापार । कइबिहा णं भंते ! चलणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा चलणा पण्णत्ता, तंजहा - सरीरचलणा इंदियचलणा जोगथलणा । भग० श १७ । उ ३ । प्र ११ टीका - अस्यौदारिकादेश्चलना तत्प्रायोग्यपुद्गलानां तद्रूपतया परिणमने व्यापारः शरीरखलना, एवमिन्द्रिययोगचलने अपि । योग प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण कर उस रूप से परिणमन करने के लिए व्यापार होना - योगचलना । ०१२ जोगट्ठाणचरिमगुणहाणीए ( योगस्थान चरम गुणहानि ) - षट् खं ४, २, ४ । सू २६ | टीका | १० | पृ० १०५ योगस्थान की अन्तिम गुणहानि । जारिमगुणहाणीए असंखेज्जदिभागो जीवगुणहाणी होदि सि कुदो णव्वदे ! तंतजुत्ती दो । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) - जीव के गुणहानि का प्रमाण आगम के अनुसार युक्तियुक्त योगस्थान के घरम गुणहानि रूप होता है। .०९३ जोगहाणजीया ( योगस्थानजीष) . -षट • खं ४,२, ४ । सूत्र २८ । टीका । पृ १० । पृ• ६६ विभिन्न योगस्थानों में रहनेवाले जीव । संपहि अणंतरोषणिधाए अवहिदभागहारो रूवाहियभागहारो रूबूणभागहारो छेदभागहारो त्ति एदेहि चदुहि भागहारेहि जोगहाणजीवा उप्पाएदवा। अनन्तरोपतिधा के आधार पर अवस्थित भागहार, रूपाधिक भागहार, रूपोन भागहार तथा छेद भागहार-इन चार भागहारों के द्वारा निष्पन्न संख्या प्रमाणयोगस्थानजीव। •०९४ जोगाणा ( योगस्थान) -गोक० गा २१८ योग-मन, वचन काया-इनका स्थान । जोगट्ठाणा तिविहा उववादेयं तवड्ढिपरिणामा। भेदा एकेक्कंपि चोहसभेदा पुणो तिविढा ।। जीवसमास १४ होते हैं और ये सभी सामान्य, जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से तीनतीन प्रकार के हैं । इस प्रकार इनके ४२ भेद होते है -ये सभी योगस्थान है, क्योंकि सर्वत्र योग वर्तमान रहता है। ०९५ जोगजषमज्मस्स ( योगयवमध्य) -षट• खं ४,२, ४ । सू २८ । पु १० । पृ०५७ योग रूप जौ का मध्य भाग। एवं संलरिदूण त्थोवावसेसे जीविव्वए त्ति जोगजधमज्झस्सुवरिमंतोमुहुत्तमच्छिदो। टीका-xxx जोगे चेव जवो, तस्स मन्मं जयममं अट्ठसमध्यजोगट्ठाणाणि त्ति उत्तं होदि। आठ समयवर्ती योगस्थान-योगयवमध्य । योगयवमध्य एक कालमान है । '०९६ जोगंतरगमणेण ( योगान्तरगमन) -षट• खं १ । ६ । सू १५३ । टीका । पु ५ । पृ० ८७ एक योग से दूसरे योग में गमन करना। टीका-गुणंतरं गवस्स जीपस्स जोगंतरगमणेण विणा पुणो भागमणाभाषादो। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने गुणस्थान को छोड़कर अन्य गुणस्थान में गये हुए जीव का पुनः पूर्व गुणस्थान को प्राप्त करने में आवश्यक ----योगान्तरगमन । ०९७ जोगद्धाणं ( योगाद्धा) -षट • खं १,८ । सू ११६ । टीका । पृ ५ । पृ० २६२ योग का अद्धा अर्थात काल । जोगद्धाणं समासंकादूण तेण सामण्णशसिमोपहिय अप्पिदजोगद्धाए गुणिदे इच्छिद-इच्छिदरासीओ होति । जिस अपेक्षित योगकाल से गुणा करनेपर इच्छित सयोगी जीवों की राशि का शान होना वह सामान्य जीवों की राशि का भागफल रूप है और उसका भागहार है-योगाद्धा अर्थात् सभी योगों का कालमान । '०९८ जोगपञ्चओ ( योगप्रत्यय) -षट • खं ३ । सू ६ । टीका । पु८। पृ. २१ योगप्रत्यय अर्थात् कर्मबन्ध का एक कारण विशेण । जोगपञ्चओ तिविहो मण-वचि-कायभेएण । योग भी कर्गबन्ध का एक कारण है अतः कर्म प्रकृतियों के बन्ध-प्रकरण में कई प्रत्ययों में योगप्रत्यय भी कहा गया है। •०९९ जोईसरं (योगेश्वर, युगीश्वर) -ध्याश• गा १ मन, वचन और काय के उत्कृष्ट व्यापार वाला। वीरं सुक्कझाणग्गिदड्ढकम्भिधणं पणमिऊणं । जोईसरं सरणं झाणजमायणं पवक्खामि ।। टीका-xxx 'योगेश्वरं योगीश्वरं वा' तत्र युज्यन्ते इति योगा:मनोवाकायव्यापारलक्षणाः तैरीश्वरः-प्रधानस्तं, तथाहि-अनुत्तरा एष भगवतो मनोवाक्कायव्यापारा इति x x xi मन, वचन और काय के उत्कृष्ट व्यापार तथा शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि से कर्मरूप ईन्धन को जिन्होंने दग्ध कर दिया है उनको योगेर अथवा योगीश्वर कहा गया है । .०१०० जोगक्खेमं ( योगक्षेम ) -उत्त० अ७गा २४, अप्राप्त की प्राप्ति तथा प्राप्त की रक्षा के उपाय । कुसग्गमेत्ता इमे कामा सन्निरुद्ध मि आउए । कस्स हेउपुराकाउ' जोगक्खेमं न संघिदे॥ .०१०१ जोगक्खेम ( योगक्षेम) -नाया०१५ .०१०२ जोग-गुणंतरसंकंतीए ( योग-गुणान्तरसंक्रान्ति ) '-षट • खं १।६।सू १६० टीकापु पृ० ८६ Jain Education international Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव का योगान्तर और गुणान्तर में संक्रमण । मूल-ओरालिय मिस्सकायजोगीसुमिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणेगजीवं पडुश्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं। टीका-तम्हि जोग-गुणंतर संकंतीए अभावादो। औदारिक मिश्रकाययोग के धारक मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों की निरन्तरता में बाधक योग गुणान्तरसंक्रान्ति । .०१०३ जोगट्ठाणद्धाणं ( योगस्थानाध्यान ) __-षट • खं ४, २, ४।सू १२२ टीकापु १०।पृ० ३६२ प्रक्षेप के आधार पर गुणहानि द्वारा योगस्थान प्राप्त करने का कालमान । रूवणदिवड्ढगुणहाणिमेत्तसयलपक्खेवाणं जदि दिवद्वगुणहाणिमेत्तजोगट्टाणद्धाणं लगभदि तो दिवढगुणहाणीय सगलपक्खेषभागहारे खंडिदे तत्थ एवखंडमेत्ते सु सगलपक्खेवेसु किं लभाभो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओषट्टिदाएलद्ध जोगट्ठाणद्धाणं होदि। एक कम डेढ़ गुणहानि मात्र सकल प्रक्षेपों का यदि डेढ़ गुणहानि मात्र योगस्थानाध्यान प्राप्त होता है तो डेढ़ गुणहानि द्वारा सकल प्रक्षेप के भागहार को खण्डित करने पर उसमें से एक खण्ड मात्र सकल प्रक्षेपों में कितना योगस्थानाध्वान प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाण से फलगुणित इच्छा को अपवर्तित करने पर जो भागफल प्राप्त होता है, वह मान है योगस्थानाध्वान का। .०१०४ जोगधारासंचारो ( योगधारासंचार) -घट • खं ४, २, ४ सू १४४ाटीका।पु १. पृ० ३६६ योग का धारावाहिक संचार ।। एत्थ जोगस्स थोव-बहुत्ते अवगदे खविद-गुणिदकम्मं सियाणं जोगधारासंचारो णादु सकिनदि xxx। योग के अल्प-बहुत्व के द्वारा क्षपित कर्मी शिक और गुणित कर्मा शिक का जानने योग्य योग सम्बन्धी विचार---योगधारा संचार । .०१०५ जोगनिमित्तं ( योगनिमित्त) -भग० श १।उ ३प्र १२७ जिस कार्य का निमित्त योग हो। कहणं भंते ! जीवा कंखामोहणिज्ज कम्मं बंधंति ? गोयमा ! पमादपश्चया, जोगनिमित्तं च। टीका – 'जोगनिमित्तं च योगा मनःप्रभृतिव्यापाराः ते निमित्तं हेतुयंत्र Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत, तथाषघ्नन्ति इति, क्रियाविशेषणं चेदम्, एतेन योगाख्यश्चतुर्थः कर्मबन्धहेतुरुक्तः। जिस कर्म के बन्ध होने में मनोयोगादि निमित्त बनता हो, तथा उसी रूप में उस कर्म का बन्ध होता हो वह योगनिमित्त । योगनिमित्त कांक्षा मोहनीय कर्मबन्ध का दूसरा कारण है। यहाँ पर योगनिमित्त क्रियाविशेषण माना गया है । ..१०६ जोगनिरोहं ( योगनिरोध) -उत्त० अ २६ासू७३ योगों का निरोध-रुकना । अहाउयं पालइत्ता अन्तोमुहुत्तद्धावसेसाउए जोगनिरोहं करेमाणे xxx वेयणिज्ज आउयं नामं गोतंच एए चत्तारि विकम्मसे जुगवं खवेइ : केवली के आयुष्य के अन्तर्महूर्त मात्र काल शेष रहने पर वेदनीय, आयुष्य, नाम तथा गोत्र कर्म के क्षपण के लिए आवश्यक साधना-योगनिरोध । .०१०७ जोगनिरोहो ( योगनिरोध) -----ध्याश• गा ३ समस्त योगों अर्थात् मन, वचन, और काय के ब्यापार का रोध हो जाता। अंतोमुहुत्तमेत्तं वित्तापत्थाणमेगवत्थुमि । छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु ॥ टीका-xx y 'योगनिरोधो जिनानां तु' इति तत्र योगा:-तत्त्वत औदारिकादिशरीरसंयोगसमुत्था आत्मपरिणामविशेषव्यापारा एव xxx अमीषां निरोधो योगनिरोधः, निरोधनं निरोधः, प्रलयकरणमित्यर्थः, केषां ?'जिनानां' केवलिनां तुशब्द एवकारार्थः स वावधारणे, योगनिरोध एव न तु चित्तावस्थानं, चित्तस्यैवाभावात्, अथवा योगनिरोधो जिनानामेव ध्यानं नान्येषाम् xxx औदारिकादि शरीर के संयोग से होनेवाले समस्त आत्मपरिणाम रूप व्यापारों का रुक जाना-योग निरोध । केवलियों के चित्त का अभाव होने के कारण चित्तावस्थान रूप ध्यान नहीं होता है, अपितु योगनिरोध को ही उनका ध्यान माना गया है । .०१०८ जोगपश्चक्खाणेणं ( योगप्रत्याख्यान ) योग का प्रत्याख्यान अर्थात त्याग । जोगपश्चक्खाणेणं अजोगत्तं जणयइ। अजोगी गं जीवे नवं कम्मं न बन्धर पुन्धबद्धं निजरेइ। --उत्त० अ२६ासू३८ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नये कर्मों के बन्ध न होने तथा पूर्व बद्ध कर्मों की निर्जरा करने में कारणभूतयोगप्रत्याख्यान । जोगपञ्चक्खाण ( योगप्रत्याख्यान) - भग° शु १७।उ ३ •०१०९ जोगपडिसलीणया ( योगप्रतिसंलीनता) -भग श २५।उ प्र ११८ कायादि व्यापार के प्रति लीन होना । पडिसलीणया चउबिहा पण्णत्ता, तंजहा--इंदियपडिसंलीणया, कसायपडिसलीणया, जोगपडिसंलीणया xxx। टीका-अथ का सा योगप्रतिसंलीनता ? योगस्तदूपो भावस्तस्य करणं यत्तत्तथा। योग-मन, वचन और काय का व्यापार, इनके प्रति उसी रूप से दत्तचित्त हो जाना-योगप्रतिसं लीनता। •०११० जोगपयय-चरियं ( योगप्रत्यय-चरित )---पण्हा० द्वा ३।अ ३।सू ७० ६६० ___ समयानुकूल उचित व्यापार-प्रतिकार का निर्माण । मूल-रयणागरसागरं उम्मीसहस्समालाकुलाकुल xxx विरचित. बलिहोमधूवउपचार-दिन्नरुधिरचणाकरणपयत-जोगपयय-बरियं, x x x समुहमज्झे हणंति गंतूणजणस्स पोते। टीका-योगेषु-प्रवहणोचितव्यापारेणु प्रयता ये ते तथा, विरचितंनिर्मापितं सांयात्रिकैरित्यध्याहार्य । जिस प्रकार नाविक संकट उपस्थित होने पर उचित दिशा में नाव को ले जाने में यत्नवान हो जाता है, उसी प्रकार समयानुसार समुचित व्यापार-यत्न का निर्माण करनायोगप्रत्यय चरित । ०१११ जोगपययचरियं ( योगप्रयतचरित) - पण्हा० श्रु १।असू ११ समुचित रूप से क्रिया-कलापों के सम्पादन में दत्तचित्त । लुद्धा धणस्स कज्जे xxx जोगपयययरियं xxx गंतूण जणल्स पोते। ___ टीका-योगेषु-प्रवहणोचितव्यापारेषु प्रयता ये ते तथा, विरचितं-निर्मापितं सांयात्रिकरित्यध्याहार्यम् । यहाँ पर नाविक का दृष्टान्त देकर स्पष्टीकरण किया गया है। जिस प्रकार चतुर नाविक दत्तचित्त होकर अपनी नाव को यथास्थान ले जाता है उसी प्रकार अपने क्रियाकलाप को सुचारु रूप से सम्पादन करना-योगप्रयतचरित । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०११२ जोगपवहे ( योगप्रवह ) योगों की असत्प्रवृत्ति । मूल-से णं भंते ! पमाए किपबहे ? गोयमा ! जोगप्पच हे । टीका- 'जोगव्यव है' त्ति योगो मनः प्रभृति व्यापारः, तत्प्रचहत्वं य प्रमादस्य मद्याद्यासेवनस्य । योगप्रवह । ( ३७ ) मनः प्रभृति के व्यापार की प्रमादवश मद्यादि के आसेवन रूप असत्प्रवृत्ति होना .०११३ जोगपरिणामे (योगपरिणाम ) ०११४ जोगवं ( योगवान् ) उत्कृष्ट योगों से युक्त । मन, वचन, काय के व्यापार को योगपरिणाम कहा जाना । दसविधे जीवपरिणामे पण्णत्ते, तंजहा - गतिपरिणामे x x x लेसापरिणा जोगपरिणामे × × × । टीका - स व मनोवाक्कायभेदस्त्रिधेति x x x लेश्या परिणाम x x x अयं व योगपरिणामे सति भवति, यस्मान्निरुद्धयोगस्य लेश्यापरिणामोऽपैति, यतः समुच्छिन्नक्रियं ध्यानमलेश्यस्य भवति । पयणुको हमाणे य मायालोभे य पसन्नचित्ते दन्तप्पा जोगव - ०११५ जोगवं उपहाणवं ( योगवं उपधानं ) - भग० श ११३ ३ १२८ - ०११६ जोगवसादो ( योगवशात् ) यह प्रकरण पद्मलेश्या के परिणमन का है । पद्मलेश्या में परिणमन करनेवाले में क्रोध, मान, माया तथा लोभ की मात्रा प्रतनुक्षीण रहती है । उसको प्रसन्नचित्त, दान्तात्मा और योगवान कहा गया है । योग की वशवर्तिता अर्थात् अल्पाधिकता | - उत्त० वसे गुरुकुले निच्छं, जोगवं उहावं । पियंकरे पियबाई, से सिक्खंलधुमरिहई || जो सदा गुरुकाल में वास करता है, गुरु के अनुशासन में रहता है, जो समाधि में रहता है, श्रत का अध्ययन करते समय तप करता है, जो प्रिय करता है और प्रिय बोलता है, वह शिक्षा प्राप्त कर सकता है । ठाण० स्था ६१८ पयणुए । उपहावं ॥ - उत्त० अ ३४ । गा० २६ - गोक० गा ४ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) सिद्धाणंतिमभाग अभवसिद्धादणंतगुणमेव । समयपबद्ध बंधदि जोगवसादो दु विसरिस्थं ।। यद्यपि यह आत्मा, सिद्ध जीवराशि जो अनन्तानन्त रूप है तथा अभव्य जीवराशि जो जघन्य अनन्त रूप है उनसे अनन्तगुणे समय प्रबद्ध अर्थात् एक समय में बंधनेवाले परमाणु समूह को बाँधती है, परन्तु योगवश-योगी की अल्पता अर्थात् आत्मप्रदेश के कम सकम्प होने से कम परमाणुओं का बन्ध होता है और योग की अधिकता अर्थात आत्मप्रदेश के अधिक सकम्प होने से अधिक परमाणुओं का बन्ध होता है। '०११७ जोगवाहियत्ताते ( योगवाहितया) -ठाण• स्था ६ । सू १३३ शास्त्रज्ञान की आराधना के लिए शास्त्रोक्त तपस्या करने वाला-समाधि में रहने वाला। दसहि उणेहि जीवा आगमेसिभहत्ताए कम्म पगरेंति, तं जहा--अणिदाणताते, दिद्विसंपन्नयाए, जोगचाहियत्ताते । टीका- x x x योगवाहितया श्रुतोपधानकारितया योगेन वा समाधिना सर्वत्रानुत्सुकत्व लक्षणेन वहतीत्वेवं शीलो योगवाही तद्भावस्तत्तातया । •०११८ जोगसच्चे (योगसत्य) -सम. सम २७ । सू १ । पृ० ७७ योग-मन-वचन-काय के व्यापारों की सत्यग्राहकता । मूल-सत्तावीसं अणगारगुणा पण्णत्ता, तंजहा-पाणातिवायवेरमणे xxx जोगसच्चेxxxi टीका-योगसत्यं--योगानां - मनः प्रभृतीनामवितथत्वं । अनगार-साधुओं के द्वारा आचरणीय २७ गुणों में सतरहवाँ गुणविशेषयोगसत्य । •०११९ जोगसच्चे (योगसत्य) -उत्त० अ२६ । सू५२ मन, वचन और काय के व्यापार का समुचित प्रयोग। जोगसच्चेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? जोगसच्चेणं जोगं विसोहे।। मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को शुद्ध करने का साधनभूत-योगसत्य । जोगसञ्च ( योगसत्य) -भग० श १७ । उ३ ०१२० जोगसंगहा ( योगसंग्रह ) -सम• सम ३२ । सू१ योग-मन-वचन काय के व्यापारों का संग्रह अर्थात् आचरण । मूल-बत्तीसं जोगसंगहा पण्णत्ता, तंजहा-xxx। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) टीका-योगाः- मनोवाकायव्यापाराः ते चेह प्रशस्ता एच विवक्षिता. स्तेषां शिष्याचार्यगतानामालोचनानिरपलापादिना प्रकारेण संग्रहणानि संग्रहाः प्रशस्तयोगसंग्रहाः प्रशस्तयोगसंग्रहनिमित्तत्वादालोचनादय एव तथोच्यन्ते, ते च द्वात्रिंशद्भवन्ति । शिष्य को आचार्य के द्वारा शिक्षा के रूप में प्राप्त होनेवाले मन, वचन और काय के प्रशस्त व्यापारों का एक वर्गीकरण-योगसंग्रह । प्रशस्त योगसंग्रह में आलोचना, निरपलाप आदि ३२ प्रकार बताये गये हैं । ०१२१ जोगसमाहाणमुत्तमं ( उत्तम योगसमाधान ) ---ध्याश० गा३८ उत्तम-शुभयोग की प्राप्ति ।। कालोऽवि सोश्चियजहिं जोगलमाहाणमुत्तमं लहइ । न उ दिवस-निसावेलाइनियमणं झाइणो भणियं । टीका-xxx 'योगसमाधान मनोयोगादिस्वास्थ्यम् 'उत्तम प्रधान 'लभते' प्राप्नोति xxx। यहाँ पर काल के आधार पर ध्यान का विवेचन है। ध्यान करते समय शुभ योग होना आवश्यक है। इस कार्य में दिन-रात का कोई नियम नहीं है, मन के स्वस्थ रहने पर ध्यान भी स्वस्थ होता है। यहाँ पर मन, वचन और काय के स्वस्थ व्यापार को योगसमाधान कहा गया है। -आव अ४ ०१२२ जोगहीणं ( योगहीन ) आगमे तिविहे पण्णतेx x x जोगहीणं x x x । आगम तीन प्रकार का कहा है। उसके चौदह अतिचार है-उसका एक अतिचार है योग हीन स्वाध्याय किया हो। नोट- ज्ञान का एक अतिचार योगहीन है । ०१२३ जोगा (योग) -सम० सम ५ । सू ४ । पृ०१३ मन-वचन-काय की प्रवृत्ति । मूल-पंच आसवदारा पण्णत्ता, तंजहा-मिच्छत्तं x x x जोगा। टीका-आश्रवद्वाराणि-कर्मोपादानोपाया मिथ्यात्वादीनि। जीव द्वारा कर्मों को ग्रहण करने के एक उपाय भूत मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ-योग आस्रव-कर्मोपादान के पाँच कारणों में एक कारण योग भी है। ०१२४ जोगाणुभावजणियं ( योगानुभावजनित ) -ध्याश० गा ५१ योग और अनुभव से जनित कर्मविपाक । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० > पयइ - ठिइ-परसा ऽणुभावभिन्नं सुहासुहविहत्तं । जोगाणुभावजणियं कम्मविवागं वितेिज्जा 11 टीका- 'योगानुभावजनितं मनोयोगादिगुणप्रभवं कर्म विपाकं विचिन्तदिति Xx x अणुभावो जीवगुण एव, स च मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमाद कषायाः × × ×। योग – मनोयोगादि तथा अनुभाव - जीवगुण अर्थात् मिथ्या दर्शन, अविरति, प्रमाद और कषाय-ये कर्मबन्ध के कारण हैं । प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध तथा प्रदेशबन्ध - ये योगानुभावजनित हैं । '०१२५ जोगावास ( योगावास ) जीव में योग की स्थिति | सुमणिगोदजीवेसु जहण्णाणि उक्कस्साणि च जोगट्ठाणाणि अत्थि । तत्थ पारण समयाविरोहेण जहण्णजोगट्ठाणेसु चेव परिणामियं बंधदि । x x x किमट्ठ जहण्णजोगेण चेव बंधाविदो ? थोधकम्मपदेसागमणडौं । थोवजोगेण कम्मगमत्थोवत्तं कथं णव्वदे ? दव्वाविहाणे जोगट्ठाणपरूवणण्णहाणुववत्तदो । × × × । एवं जोगावासो सुहमणिगोदेसु परूविदो । -- षट्० नं ४,२,४ । सू ५४ । टीका । पु१० | पृ० २७५ सूक्ष्मनिगोद जीवों में जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार के योगस्थान होते हैं । आगम के अनुसार जघन्य योगस्थानों में ही उनमें ज्ञानावरण कर्म का बन्ध होता है, उनकी संभावना न रहने पर एक बार उत्कृष्ट योग स्थान को भी प्राप्त होता है । इस प्रकार सूक्ष्म निगोद जीवों में योगावास अर्थात् योग की स्थिति कही गई है । *०१२६ जोगावासो ( योगावास ) विशेष | - षट्० ० खं ४,२,४ । सू २६ टीका । पु १० | पृ० ५६ योग का आश्रय लेकर जीव का शरीर में अवस्थान । आउअमणुपालें तो बहुसो बहुसो उक्कस्साणि जोगट्टाणाणि गच्छदि । टीका - एदेण जोगावासो परुविदो | आयु का उपयोग करते हुए जीव का बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त करना - योगावास । • ०१२७ जोगा सुया ( योग सुक् ) उत्त० अ १२ । गा ४४ कर्मों की निर्जरा हेतु शुभ योग रूपी सुक् -- हवन के लिए काष्ठनिर्मित साधन Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) तो जोई जीवो भोइठाणं जोगा सुया शरीरं कारिसंगं । कम्म पहा संजमजोगसम्ती होमं हुणामी इसिणं पसत्थं ! टीका- मनोवाक्काययोगास्ते सुखो दुव्यों ज्ञेयाः मनोवाक्काययोगैः शुभव्यापारा घृतस्यानीयास्तपोऽग्निप्रज्वालनज हेतवो वर्तन्ते । यहाँ पर तप को अग्नि, जीव को अग्निकुण्ड तथा योग को खुक् की उपमा दी गई है । तप रूपी अग्नि में कर्म रूपी हवन सामग्री को डालने के लिए आवश्यक शुभ योगयोग स्रुक् । '०१२८ जोगिचरिमोत्ति ( योगिचरिम ) योगयुक्त जीव का चरम समय । ( समय ) । ओकट्टणकरणं पुण अजोगिसत्ताण जोगिचरिमोत्ति । खीणं सुहुमंताणं खयदेसं सावलीयसमयोन्ति ॥ अयोगी की सत्त्वप्रकृतियों का अपकर्षण करण होता रहनेवाला समययोगिचरम - गोक• गा ४४५ *०१२९ जोगी ( योगी ) बृह० उ १ । निगा ६६० । पृ० ३०३ कोविज्जती कयं किंचि । जोगी वि नायव्वो "" प्रशस्त मन-वचन-काय योग का प्रयोग करनेवाला । अहवण कत्ता सत्था, न तेण कत्ता इव सो कत्ता, एवं टीका X X x यथा 'तेन' तीर्थकरेण कृतं कार्य ं किञ्चिदपि न कोप्यते एवमसावपि गीतार्थो विधिना क्रियां कुर्वन् 'कर्ता इव' तीर्थंकर इवाको पनीयत्वात् कर्ता द्रष्टव्यः । एवं योग्यपि ज्ञातव्यः । किमुक्तं भवति ? यथा तीर्थ करः प्रशस्तमनोवाक्काययोगं प्रयुञ्जानो योगी भण्यते, एवं गीतार्थोऽप्युत्सर्गाऽपवादबलवेत्ता अपवादक्रियां कुर्वाणोऽपि प्रशस्तमनोवाक्काययोगं प्रयुञ्जानो योगीव ज्ञातव्यः । यहाँ पर तीर्थंकर और गीतार्थ को समान रूप से 'योगी' कहा गया है। जिस प्रकार तीर्थ कर प्रशस्त मन, वचन और काय योग का प्रयोग करते हुए 'योगी' कहे जाते है। उसी प्रकार गीतार्थ भी उत्सर्ग और अपवाद बल के ज्ञाता होकर अपवाद क्रिया करते हुए भी प्रशस्त मन वचन और काय योग का प्रयोग करते हुए 'योगी' समझे जाते हैं । ०१३० जोगिम्मि ( योगी ) - गोक० गा ४६४ योगयुक्त अर्थात् सयोगिकेवली । तिसु तेरं दस मिस्से णव सत्तसु छट्ठयकिम एक्कारा | जोगम्मि सत्त जोगा अजोगिठाणं हवे सुण्णं ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगी । ( ४२ ) जिस गुणस्थान में सात योग कार्यरत होते रहते हैं वह गुणस्थान - सयोगिकेवली - - ०१३१ झाणजोग ( ध्यान योग ) ध्यान की एक अवस्था विशेष । ध्यान की एक अबस्था विशेष । - सू० श्र १ अ दागा २६ । पूर्वार्ध झाणजोगं समाह, कार्यं विउसेज्ज सम्वसो । टीका - 'झाणजोगम्' इत्यादि, ध्यानं वित्तनिरोधलक्षणं धर्म-ध्यानादिकं तत्र योगो विशिष्टमनोवाक्कायव्यापारस्तं ध्यानयोगं 'समाहृत्य' सम्यगुपादाय 'कार्य' देहमकुशल योगग्रवृत्तं 'व्युत्सृजेत्' परित्यजेत् । धर्मध्यान आदि में व्यापृत अवस्था में होनेवाले मन, वचन और काय के विशिष्ट व्यापार को ' ध्यानयोग' कहा जाता है । ·०१३२ झाण- सुहजोग-नाण-सज्झाय- गोषियमणे ( ध्यान -शुभयोग- शान-स्वाध्याय - गोपित मन ) כ' - पण्हा० अ ६ द्वा १ | सू २० | पृ• ६८७ ध्यान, शुभयोग, ज्ञान तथा स्वाध्याय के द्वारा मन को विषयान्तर से रोकनेवाला । वउत्थ आहारएसणाए सुद्ध उछं x x x झाण- सुहजोग-नाण-सज्झायगोवियमणे x x x अहिंसए संजए सुसाहू | टीका -- ध्यानेन धर्मादिना शुभयोगेन - संयमव्यापारेण गुरुविनय-करणादिना ज्ञानेन ग्रन्थानुप्रेक्षणरूपेण स्वाध्यायेन अधीतगुणनरूपेण वा गोपितं विषयान्तरगमनेन निरुद्ध मनो येन स तथा । आहार की गवेषणा करते समय धर्म ध्यानादि, गुरुविनयादि संयमरूप व्यापार, ग्रन्थों के अनुप्रेक्षण रूप ज्ञान तथा अधीत शास्त्रों के अनुशीलन रूप स्वाध्याय के द्वारा संयम के विपरीत विषय से मन को रोकने वाला साधु-- ध्यान - शुभयोग - ज्ञान-स्वाध्याय गोपितमान । - ध्याश० गा १०० .०१३३ झाणाणसणाइजोगेहिं (ध्यानानशनादियोग ) ध्यान, अनशन आदि रूप योग व्यापार | जह रोगासयसमणं विसोलण-विरेयणो सहविहीहि । कम्मामयमणं झणाणसणाइजोहि ॥ तह ठीका - कर्मरोग चिकित्सा ध्यानानशनादिभियोगैः, आदिशब्दाद् ध्यानवृद्धिकारकशेषतपोभेदग्रहणमिति XXX । कर्मरूपी रोग की चिकित्सा अर्थात् निर्जरा के लिए ध्यान, अनशन आदि करना अर्थात् जिससे ध्यान की निरन्तर वृद्धि होती रहे वह -- ध्यानानशनादि योग । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) .०१३४ ठाणगमणगुणजोगजुंजणजुगं तरनिवातिए ( स्थानगमनगुणयोगयोजनयुगान्तरनिपातिका ) - पण्डा० अ ६|द्वा १|सू १७ पृ० ६८६ बैठना और चलना रूप योग में युगप्रमाण भूभाग पर दृष्टिपात करना । मूल - पढमं - ठाणगमणगुणजोगजुंजण-जुगंतर निवातिए दिठ्ठीए X x× × परिवज्ञएण सम्मं । टीका - स्थानं - निषीदनं गमनं-चलनं तयोर्गुणयोगं प्रवचनोपघातवर्जन लक्षणो गुणस्तस्य योगः - सम्बन्धस्तं योजयति या सा, युगं धूसरं युगान्तरे - युगप्रमाणभूभागे निपतति या सा युगान्तरनिपातिका ततः कर्मधारयः । बैठना या गमन करना रूप योग का योजन करते हुए प्रवचनादिजन्य उपघात से बचने के लिए युगान्तर अर्थात् युगप्रमाण भूभाग पर दृष्टिपात कर लेना - स्थानगमनयोगयोजन - युगान्तर निपातिका ( दृष्टि ) | *०१३५ णाण - दंसणाणुभाग-जोगादिविसयं ( ज्ञान - दर्शनानुभाग - योगादिविषय) - षट्० खं० १, ८ सू २५|पृ० २४२ ज्ञान, दर्शन और योगादि को विषय बनानेवाला । जाण दंसणाणुभाग- जोगादिविसयं णोभागमभाषप्पाबहुअं । गोआगमभाव - अल्पबहुत्व, जिसका विषय होता है आत्मा के ज्ञान-दर्शन और योगादि । *०१३६ णाण - विणय-त -तव-खरित-जोगे ( ज्ञानविनयतपचारित्रजोगे ) जहा सुई ससुत्ता, पडियाण विणस्स | तहा जीवे ससुते, संसारेण विणस्स ॥ णाण-विणय-तब-चरित्त-जोगे संपाउणइ, ससमव-परसमय-विसारए य असंघाणिज्जे भव ॥ ५६ ॥ जिस प्रकार डोरे सहित सुई कूड़े-कचरे में गिर जाने पर भी गुम नहीं होती - वैसे ही भुत ज्ञानी जीव संसार में नहीं भटकता - किन्तु ज्ञान, विनय, तप और चारित्र के योगों को प्राप्त करता है । - ०१३७ गतिसंजोगं ( ज्ञातिसंयोग ) - उत्त० २६ / सू ५.६ समारभते वणिया भूयगामं, परिग्गहं चेव ममायमाणा । ते णातिसंजोगमविप्पहाय, आयस्स हेउ पगरंति संगं ॥ टीका - x x x शातिसंयोगं स्वजन सम्बन्धं X x × | - सू० श्रु २ अ ६ मा २१ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) .०१३८ तग्गयजोगो (तत्कृतयोग ) । -----ध्याश• गा १६ जिसके योग समाहित हो गये हैं वह । तत्तोऽणुप्पेहाओ लेस्सा लिंगं फलं च नाऊणं । धम्म झाइज मुणी तग्गयजोगो तो सुक्क । टीका-xxx 'धर्म्यम्' इति धर्मध्यानं ध्यायेन्मुनिरिति, 'तत्कृतयोगः' धर्मध्यानकृताभ्यासः, ततः पश्चात् शुक्लध्यानमिति x xx। जिसने योगों को समाहित कर धर्म ध्यान करने की समुचित अवस्था को प्राप्त कर लिया है, वह तत्कृतयोग। तत्कृतयोग होने के बाद शुक्लध्यान का अधिकारी माना जाता है। .०१३९ तदुभयजोगेण ( तदुभययोग) -सूय• श्र १ अ १।नि गा २० दो योगों का सहयोग। अक्खरगुणमतिसंघायणाए, कम्मपडिसाडणाए य। तदुभयजोगेण कयं, सुत्तमिणं तेण सूत्तकडं ॥ टीका-xxx 'तदृभययोगेने' ति अक्षरगुणमतिसंघटनायोगेन कर्मपरिशाटनायोगेन च, यदि वा वाग्योगेन मनोयोगेन च कृतमिदं सूत्रं तेन सूत्रकृतमिति । सूत्र-प्रणयन में सहायभूत अक्षरों के गुण और मति का संघटन रूप वाग्योग तथा कर्म-परिशाटन रूप मनोयोग-तदुभययोग । .०१४० तप्पाओग्गमसंखेजगुणजोग (तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणयोग) -षट • खं ४, २, ४ासू १२२।टीका।पु १० पृ० ३७६ जीव के द्वारा प्रयोग में लाये जाने योग्य असंख्यातगुना योगद्रव्य । xxx परमाणुत्तरादिकमेण दव्वं बड्ढाधियजोगोषड्ढावेवो आषतप्पाओग्गमसंखेजगुणजोगं पत्तोत्ति । ___ परमाणु द्रव्ययोग से आरम्भ कर क्रमशः बढ़ाते जाने पर प्रयोजन योग्य द्रव्ययोग का प्राप्त होना-तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणयोग । .०१४१ तप्पामोग्गुक्कस्सजोगट्ठाणेहि ( तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगस्थान) -षट• खं ४, २, ४/सू ४७/टीकापु १०।पृ० २५७ उसके योग्य उत्कृष्ट योगस्थान । xxx एदेण समऊणुक्कस्सबंधगद्धामेत्तकालं तप्पाओग्गुक्कस्सजोगट्ठा. णेहि बंधिय एगसमयं दुपक्खेऊणजोगट्ठाणेण बंधिय पयदट्ठाणे ठिदो सरिसो। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४भू ) एक समय कम उत्कृष्ट बन्धक काल पर्यन्त उसके योग्य उत्कृष्ट योगस्थानों द्वारा किसी जीव के साथ आयुष्य बाँधनेवाले जीव तथा एक समय तक दो प्रक्षेप कम योगस्थान द्वारा आयुष्य बाँधनेवाले जीव में सादृश्व रहता है। - ०१४२ तप्पा ओग्गउक्कस्सजोगेण ( तत्प्रायोग्य उत्कृष्टयोग ) आयुष्यबन्ध के योग्य उत्कृष्ट योग । तप्पा ओग्गउक्कस जोगेणेति पंचमं विसेलणं किमट्ठ कीरदे ? बहुदव्बगहण । जदि एवं तो उक्कस्सजोगेणेत्ति किण्ण उच्चदे ? ण, दोसमए मोत्तूण उक्क साउअबंधगद्धा मेत्तकाल मुक्कस्स जोगेण परिणमणाभावादो । - षट्० खं ४, २, ४ सू ३६ |टीका १० पृ० २३५ उत्कृष्ट आयुष्यबन्धककाल के दो समय पर्यन्त परिणमण करानेवाला - तत्प्रायोग्य उत्कृष्टयोग । '०१४३ तप्पा ओग्गसंखेजसओगिजीवे ( तत्प्रायोग्य संख्यात सयोगिजीव ) — षट् ० ० खं १, दासू ५८ाटीका | ५ पृ० २७४ उनके ( मनुष्यणी ) योग्य संख्यात सयोगिकेवली जीव । मणुसिणीसु पुण तप्पा ओग्गसंखेजसजोगिजीवे दृविय अट्टुत्तरसदं मुच्चा तप्पा ओग्गसंखेजखीणकसाएहि ओवट्ठिय गुणगारो उप्पादेदव्वो । मनुष्यणियों की औधिक राशि में से अनुमानतः निकाली हुई राशि, जिसमें १०८ घटाकर मनुष्यणी के योग्य क्षीणकषाय की राशि से भाग देकर संचय काल की अपेक्षा सयोगिकेवलियों का संख्यात गुणनफल निकालने के लिए बननेवाला गुणकारतत्प्रायोग्य संख्यातसयोगिजीव । ०१४४ तरतमजोगाभावो ( तरतमयोगाभाव ) आकांक्षा-निवृत्ति में विश्लेषण हो जाना । तरतमजोगाभावेऽचाउच्चिय, भबति तदंतम्मि | सम्वत्थवासणा पुण भणिया कालंतरस्साई य ॥ २८६ टीका - तरतम योगाभावे ज्ञातुरग्रे तनविशेषाकांक्षानिवृत्तावपाय 1 धारणा .०१४५ तव नियम सील- जोगेहिं ( तपोनियमशील योग ) - विशेभा• गा २८६ ज्ञाता अर्थात् जिज्ञासु की वासना में जब आगे किसी विशेष प्रकार की आकांक्षाअर्थात् योग नहीं रहता है वह तरतमयोगाभाव । तरतमयोगाभाव धारणा काल की अवस्था विशेष है । एव - पण्हा० अ हाद्वा ४/४/पृ० ७०० Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) ब्रह्मचर्य के साधक तप, नियम, शील और योग- शुभ प्रवृत्ति । मूल - इमं च रति-राग-दोस- मोह पवड् ढणकरं xxx अणुचरमाणेणं बंभचेरं वज्जेयब्वाइं सव्वकालं । भावेयन्धो भवइ य अंतरख्या इमेहिं तब-नियमसील - जोगेहि निश्चकालं XXX । टीका - Xx X आसेवमानेन ब्रह्मचर्यं वर्जयितव्यानि सर्वकालं अन्यथा ब्रह्मचर्यो व्याघातो भवति इति योगः, तथा भावयितव्यश्य भवति अन्तरात्मा ब्रह्मचर्यषता एवं भावनीयं मया अन्तरात्मा अनया रीत्या पालनीयः सर्वदा एभिः - बक्ष्यमाणैः तपोनियमशील योग : नित्यकालम् । ब्रह्मचर्य को अव्याहत रखने के लिए साधु के द्वारा आचरणीय तप-तपस्या, नियम - व्रत, शील-सदाचार तथा योग- -मन-वचन-काय की शुभ प्रवृत्ति-तप-नियमशील - योग । '०१४६ तब नियम- संजम - सज्झाय - झाणाबस्यमाइएसु जोगेसु ( तप-नियमसंयम-स्वाध्याय-ध्यानावश्यकादि जोग ) भग० श ०१४७ तियजोगो ( त्रिकयोगो ) तीन भावों का एक स्थान में रहना । दुगजोगो सिद्धाणं केवलिसंसारियाण तियजोगो । चउजोगजुअं चउसुबि गईसु मणुयाण पणजोगो ॥ टीका - xxx के बलिनां संसारिणां च त्रिकसंयोगः, तत्र दशसु त्रिकसंयोगेषु मध्ये केवलिनां औदयिकक्षायिकपारिणामिकभावत्रयनिष्पन्नः पञ्चमो भङ्गः संभवति, औपशमिकस्य मोहनीयाश्रितत्वेन तत्क्षयषतां केवलिनामसंभवात्, क्षायोपशमिकस्यापि इन्द्रियाद्य भाषतोऽसंभवात् 'अतीन्द्रियाः केवलिन' इति वचनात्, संसारिणां तु चतुर्गतिकजीवानामौदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावत्रयनिष्पन्नः षष्ठस्त्रिकसंयोगः संभवति x x x | केवलियों में होनेवाले औदयिक, क्षायिक और पारिणामिक भावों से निष्पन्न संयोग को त्रियोग कहते हैं । चतुर्गतिक संसारी जीवों में औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक तीन भावों से निष्पन्न संयोग को त्रिकयोग कहते हैं । ०१४८ थिर कयजोगाणं ( स्थिर - कृतयोग ) जिसके मन, वचन और काय के - प्रवसा० गा० १२६७ गये हों । - ध्याश० गा ३६ व्यापार स्थिर हो गये हों, अर्थात् अभ्यस्त हो Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७) थिर-कयजोगाणं पुण मुणीण झाणे सुनिश्चलमणाणं । गामंमि जणाइणणे सुण्णे रण्णे व ण विसेसो ॥ टीका - तत्र स्थिराः -- संहनन - धृतिभ्यां बलवन्त उच्यन्ते, कृता - निर्वर्तिता अभ्यस्ता इति यावत्, के ? - युज्यन्त इति योगाः - ज्ञानादिभावनाव्यापाराः सत्त्व-सूत्र- तपःप्रभृतयोचा यैस्ते कृतयोगाः, स्थिराश्य ते कृतयोगाश्चेति विग्रहस्तेषाम्, अत्र व स्थिर कृतयोगयोश्चतुर्भङ्गी भवति, तद्यथा - 'थिरे णामेगे णो कयजोगे' इत्यादि, स्थिरा वा - पौनःपुन्यकरणेन परिचिताः कृता योगा यैस्ते तथाविधाः × × × जिसने संहनन और धैर्य के बल से योगों - ज्ञानादि भावनात्मक व्यापारों को अथवा सत्त्व, सूत्र, तपस्या प्रभृति को स्थिर कर लिया है - वह स्थिरकृतयोग | अथवा बार-बार के अभ्यास के द्वारा योगों में अभिज्ञाता प्राप्त कर ली है वह स्थिर कृतयोग । • ०१४९ थोबजोगेण ( स्तोकयोग ) *०१५० दुगयोगो ( द्विकयोग ) - षट् ० खं ४, योग का लघुतम व्यवसाय । किम जहण्णजोगेण चेब ( णाणावरणीयं कम्म ) बंधाविदो थोचकम्मपदेसागमणः । थोषजोगेण कम्मागमत्थोषतं कधं णव्वदे ? दव्वविहाणे जोगट्ठाणपरुवणण्णाहाणुववत्तीदो । स्तोकयोग जघन्ययोग का पर्यायवाची है 1 ज्ञानावरणीय के स्तोक कर्मप्रदेशों को बाँधने का कारणभूत — स्तोकयोग । दो भावों का एक स्थान में रहना । । सू ५४ । टीका । पृ १० | पृ० २७४ दुगजोगो सिद्धाणं केवलिसंसारियाण तियजोगो 1 ऊजोगजुअं वसुचि गईसु मणुयाण पणजोगो || -- प्रवसा० गा १२६७ 'दुगे' त्यादि, दशसु द्विकसंयोगेषु मध्ये क्षायिकपारिणामिकभावद्वयfaourat नवमोद्विक संयोगः सिद्धानां संभवति, शेषास्तु नव प्ररूपणमात्रं । दस प्रकार का द्विकयोग होता है, जिनमें नौ को प्ररूपणा मात्र कहा गया है तथा सिद्धों में होनेवाले क्षायिक और पारिणामिक रूप दो भावों से निष्पन्न द्विकसंयोग को द्विसंयोग कहा गया है । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) ०१५१ पओगगती (प्रयोगगति) -पण्ण• प १६ । सू १०८५ । पृ० २६८ प्रयोग- योग के अनुसार गमन करना। कतिषिहे णं भंते ! गतिपन्याए पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा-पओगगती ?x xx टीका-'प्रयोगगति' रित्यादि, प्रयोगः प्रागुक्तः पञ्चदशविधः स एव गतिः, इयं देशान्तरप्राप्तिलक्षण द्रष्टव्या, सत्यमनाप्रभृतिपुद्गलानां जीवेन व्यापार्यमाणानां यथायोगमल्पबहुदेशान्तरगमनात् ? पन्द्रह प्रकार की प्रयोग गतियों में सत्यमन प्रभृति के पुद्गलों का जीव के साथ व्यापृत होकर यथायोग अल्प या बहुत देशान्तर में गमन करना-प्रयोगगति । '०१५२ पओगगती (प्रयोगगति ) --पण्ण० प १६ । सू १०८६ । पृ• २६८ प्रयोग -मन-वचन-काय के व्यापार रूप गति अर्थात् देशान्तर की प्राप्ति । मूल-से किं तं पओगगती? पओगगती पण्णरसविहा पण्णत्ता। तंजहा-सञ्चमणप्पओगगती एवं जहा पओगो भणिओ तहा एसा वि भाणियव्वा जाप कम्मासरीरकायप्पओगगती । टीका-'प्रयोगगति' रित्यादि, प्रयोगः प्रागुक्तः पञ्चदशषिधः स एष गतिः प्रयोगगतिः, इयं देशान्तर प्राप्तिलक्षणा द्रष्टव्या, सत्यमनःप्रभृतिपुद्गलानां जीवेन व्यापार्यमाणानां यथायोगमल्पबहुदेशान्तरगमनात् । __ जीव के द्वारा ब्यापृत होकर सत्यमनः प्रभृति पुद्गलों का यथायोग अल्प या अधिक देशान्तर को प्राप्त करना-प्रयोगगति । प्रयोगगति भी प्रयोग के अनुसार १५ प्रकार की होती है । ०१५३ पक्खेवुत्तरजोगेण ( प्रक्षेपोत्तरयोग) -षट् खं ४, २, ४।सू १२२।टीकापु १०।पृ० ३६२ एक प्रक्षेप अधिक योग का मान । पढमगोवुच्छ वड्ढिदूण द्विदणारगबिदियसमयदव्वस्सुवरि परमाणुत्तरादिकमेण एगधिगलपक्खेवं पड्ढिदूण हिदणेरइओ च, अण्णेगो पक्खेवुत्तरजोगेण बंधिदूणागदो च, सरिसा। यहाँ प्रकरण सादृश्य का है। प्रथम गोपुच्छ बढ़कर स्थित नारकी के द्वितीय समय सम्बन्धी द्रव्य के ऊपर एक परमाणु अधिक आदि के क्रम से एक विकल प्रक्षेप बढ़कर स्थित नारकी और दूसरा एक प्रक्षेप अधिक योग द्वारा आयु को बाँधकर आया हुआ नारकी-दोनों योग की अपेक्षा से सदृश है । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) '०१५४ पढमसमयअजोगिभवत्थकेवलणाणे (प्रथमसमयअयोगिभवस्थकेवलज्ञान) -ठाण. स्था २।७ १।सू ६१ पृ५०६ अयोगी अर्थात योग रहित अवस्था के प्रथम समय में होनेवाला केवलज्ञान । मूल-अजोगिभवत्थकेवलणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा--पढमसमयअजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव Xx x । टीका-न सन्ति योगा यस्य स न योगीति वा योऽसावयोगी xxx प्रथमः समयः सयोगित्वे यस्य स xx x ‘एवं' मिति सयोगिसूत्रवत्प्रथमाप्रथमचरमाचरमविशेषणयुक्तमयोगिसूत्रमपि पाव्यमिति। जिसके कायादि के व्यापार नहीं हैं अथवा जो योगी नहीं है-ऐसे भवस्थ व्यक्ति के प्रथम समय में होनेवाला केवलज्ञान-प्रथमसमयअयोगिभवस्थ-केवलज्ञान । ०१५५ पढमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे (प्रथमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञान) __-ठाण० स्था ।उ १।सू ६. पृ० ५०६ सयोगी अवस्था के प्रथम समय में होनेवाला केवलज्ञान । मूल-सजोगिभवत्थकेचजणाणे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-पढमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे येव x x x | टीका-सह योगैः-कायव्यापारादिभिर्यः स सयोगी इनसमासान्तत्वात् सचासौ भवस्थश्च तस्य केवलज्ञानमिति विग्रहः, x x x प्रथमः समय: सयोगित्वे यस्य स तथा xxx । योग-कायादि के व्यापार के साथ बरतनेवाले भवस्थ मनुष्य के प्रथम समय में होनेवाला केवलज्ञान-प्रथमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञान । .०१५६ पणजोग (पंचयोग) --प्रवसा० गा० १२६७ पाँच भावो की सन्धि । दुगजोगो सिद्धाणं केवलिसंसारियाण तियजोगो। चउजोगजुरं चउसुवि गईसु मणुयाण पणजोगो॥ टीका -xxx मनुष्याणां पञ्चकयोगः-पूर्वोक्तभावपञ्चकयोगः संभपति, केवलं क्षायिकसम्यग्दृष्टयः सन्तो ये उपशमश्रेणि प्रतिपद्यन्ते तेषामेव न पुनरन्येषां, समुदितभावपञ्चकस्य तेषामेव भावादिति । ___ पाँच भावों का संयोग मात्र मनुष्यगति में ही होता है। जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि रहते हुए उपशम श्रेणी को प्राप्त करते हैं उनमें ही कथित पाँचों भावों के संयोग को पंचयोग कहा जाता है। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .०१५७ पणिहाणजोगजुत्तो (प्रणिधानयोगयुक्त) -प्रवसा• गा.२६६ .०१५८ पणीयाहार विरतिसमितिजोगेण (प्रणीताहार विरतिसमितियोग) -पण्हा० अ६।दा ४ासू ११॥पृ० ७०२ भिक्षाचरी में सावद्य आहार के प्रति साधु का संयम रूप व्यापार । मूल-पंचमंग-आहारपणीय-निद्धभोयण-विषजए x x x न दप्पणं न बहुसो न नितिकं न सायसूपाहिकं न खद्ध, x x x न य भवति विन्भमो भंसणा य धम्मस्स। एवं पणीयाहारविरतिसमितिजोगेण भाषितो भवति अंतरप्पा xxx जिइंदिए बंभचेरगुत्ते । टीका- x x x आहारोऽशनादिः स एवंविधसत्याज्य इतियोगः कीदृशः ? प्रणीतो गलत्स्नेहबिन्दुः स च स्निग्धभोजनं तस्य विवर्जको यः स तथा xxx दर्पणं-दर्पकारकं नैष भुजते, उक्तव्यतिरेकादन्यदपि मदकारि नैव भुजते, पुनः न बहुशो-दिनमध्ये न बहुवारं न नैत्यिकं, न प्रतिदिनं, xxx एवं प्रणीताहारविरति समितियोगेन भावितो-वासितो भवति अन्तरात्मा-जीव: xxx । आत्मा को भावित करने के लिए गोचरी में मिले हुए अधिक तेल-घी युक्त उतेजक स्निग्ध भोजन, अत्यधिक या दिन में अनेक बार, जो चारित्र पालन में बाधक सिद्ध हो, ऐसे भोजन का परिहार कर संयम का पालन रूप व्यापार-प्रणीताहारविरतिसमितियोग । •०१५९ पभावणा-जोग-निग्गहो ( प्रभावना-योग-निग्रह) - णमोकार महामंत्र पृष्ट १६ मूल-पभावणा जोग निग्गहो, उवज्झाय गुणं वन्दे । बारह अंग अत के ज्ञाता, करणसत्तरी, चरणसत्तरी युक्त आठ प्रकार धर्म की प्रभावना करनेवाले, मम, वचन, काय के योगों का निग्रह करनेवाले-इन २५ गुणों से युक्त उपाध्याय होते हैं। ०१६० पमई जोगं (प्रमर्द योग) -सम• सम दासू ६ संघर्षण रूप योग-सम्बन्ध । अट्ठ नक्खत्ता चंदेण सद्धि पमई जोगं जोएंति, तंजहा-कत्तिया रोहिणी पुणवसू महा चित्ता घिसाहा अणुराहा जेट्ठा। टीका-अष्टौ नक्षत्राणि चन्द्रण साधं प्रमई -चन्द्र (:) मध्येन तेषां गच्छन्तीत्येवं लक्षणं योग-सम्बन्धं योजयन्ति -कुर्वन्ति, xxx यानि च दक्षिणोत्तरयोगीनि तानि प्रमई योगीन्यपिकदाचिद् भवन्ति । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) साथ-साथ चलते हुए कई लोगों से कदाचित प्रमर्दन - टकराव हो जानाप्रमर्द योग । कृत्तिका, रोहिणी, पुनर्वसू, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराधा तथा ज्येष्ठा- ये आठ नक्षत्र दक्षिण से उत्तर की ओर क्रमबद्ध होकर चन्द्रमा के साथ चलते हैं, जिनमें से कदाचित् कोई चन्द्रमा से प्रमर्दित अर्थात् घृष्ट होता है । ०१६१ परपभोगेण ( परप्रयोग ) पर अर्थात दूसरे के प्रयोग अर्थात् सहयोग मूल - गोयमा ! आयप्पओगेण गच्छद्द, नो परप्रयोगेण गच्छइ । टीका- 'आयप्पओगेणं' ति न परप्रयुक्त इत्यर्थः । भग० श ३ ३ ४ | १६८ | पृ० १६३ .०१६२ परिणामजोगठाणा ( परिणामयोगस्थान ) परिणमन के द्वारा होनेवाला योगस्थान | परिणाम जोगठाणा सरीरपजत्तगादु चरिमोत्ति । लद्धिअपजत्ताणं चरिमतिमा गम्हि बोधव्वा ॥ .०१६३ परिणामजोगेहि ( परिणामयोग ) शरीर पर्याप्ति के पूर्ण होने के समय से लेकर अन्त समय तक होनेवाला परिणमन तथा लब्ध्यपर्याप्त जीव के अन्त के त्रिभाग समय के प्रथम समय से लेकर अन्त समय तक होनेवाला परिणमन परिणामयोगस्थान कहलाता है । - गोक० गा २२० - षट् ० परिणमन के द्वारा होनेवाला योग का एक भेद । तेजइयस्स जहण्णिया संघादण परिसादणकदी कस्ल ( जो ) जीवो छावहि- सागरोमाणि सुहुमेसु अच्छिदो । एवं xxx एयंतबड्ढमाणस्स अभिक्खचड्ढीए अपजत्तयस्स जम्हि समए बहुसो बंधो णिजराचणतम्हि समयहि ट्ठिदो, तस्स तेजइयस्स XXX । एयंताणुवड्ढीए सामित्तं किमट्ठ दिण्णं ? परिणामजोगेहि संखिदपोग्गलक्खं धग्गलणहौं । तेजस शरीर की जघन्य संघातन-परिशातन कृति का प्रकरण है । ० खं ४, १ सू ७१| टीका | ६| पृ० ६४३ तेजस शरीर की संघातन परिशातन कृति उस जीव के होती है, जो जीव छयासठ सागरोपम तक सूक्ष्म जीवों में रहता है वहाँ ऊपर उठते हुए एकान्त वृद्धि के द्वारा पर्याप्तिअपर्याप्तयों से अभीक्ष्ण- प्रचुर रूप में बढ़ते हुए अपर्याप्तक जीव के जिस समय बन्ध अधिक होता है, किन्तु निर्जरा नहीं होती है । यहाँ पर एकान्तानुवृद्धि को स्वामित्व होने में कारण रहता है परिणामयोग के द्वारा संचित पुद्गल - स्कन्धों को नष्ट करना । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) .०१६४ परिणाम जोगेण ( परिणामयोग) -पउम० उ श्लो १२ अणुवय-महव एहिय, बालतवेण य हवन्ति संजुत्ता। ते होन्ति देवलोए, देवा परिणाम जोगे। जो अणुव्रत और महाव्रत का पालन करते हैं और बालक की भाँति समझे-बूझे बिना बालतप करते हैं, अपने-अपने परिणाम योग से देवलोकों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं । .०१६५ पुषरयपुषकीलियविरतिसमितिजोगेण (पूर्वरतपूर्वक्रीडितविरतिसमितियोग) -पण्हा अहादा ४।सू १०।पृ० ७०२ संयम ग्रहण कर पूर्वकाल की अनुभूत रति-क्रीडादि के प्रति विरति रूप संयम का पालन । मूल-चउत्थं-पुत्वरय-पुन्वकीलिय-xxx अणुचरमाणेणं बंभचेरं न ताई समणेण लब्भा दट्टुं न कहेउ नवि सुमिरेउ जे । एवं पुन्वरय-पुव्वकीलिय विरति समितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा. x x x जिई दिए बंभचेरगुत्ते। टीका- xxx एवमुक्तप्रकारेण पूर्वरतं पूर्वपरिचितरत-सम्भोगादिक पूर्वक्रीडितं द्यूतादिकं तेन विरतिनिवृत्तिसमितियोगेन भावितो वासितो भवति अन्तरात्मा-जीवः। आत्मा को भावित करने के लिए साध के साधत्व ग्रहण लेने पर पूर्व परिचित सम्भोगादि तथा घृतादि क्रीडा के प्रति विराग धारण कर संयम में जागरूक रहनापूर्वरतपूर्वक्रीडितविरतिसमितियोग । .०१६६ पसत्थजोगपडिवन्ने (प्रशस्तयोगप्रतिपन्न) शुभ योगों से युक्त। गरहणयाए णं अपुरकार जणयइ। अपुरकारगए णं जीवे xxx पसत्थजोगपडिवन्ने य णं अणगारे अणन्तघाइपजवे खवेइ । अनन्त घाती कर्मों के पर्यायों को निजीर्ण करने में कारणभूत-प्रशस्तयोग प्रतिपन्न । आत्मगहों से अपुरस्कार अर्थात् आत्मनम्रता आती है और आत्मनम्र साधक स्वतः प्रशस्तयोगों से प्रतिपन्न हो जाता है । '०१६७ पुषणिरुद्धजोगेहि ( पूर्वनिरुद्धयोग) -षट० खं ४, २, ४।सू ४७।टीका।पु १०।पृ० २६० पूर्व काल में निरोध किये गये योग । xxxअण्णेगोतप्पाओग्गउक्कस्सजोगेण उक्कस्सबंधगद्धाए च आउयं बंधिय जलचरेसुप्पजिय कदलीघादं कादूण रूबूणुकत्सबंधगद्धाए पुश्वणिरुद्ध -उत्त० अ २हासु८ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोगेहि बंधिय एगसमयं पुव्वणिरुद्धजोगादो रूकविगलपक्खेवभागहारमेत्तजोगहाणाणि ओसरिदूण बंधिय हिदो च सरिसो। कोई जीव उसके योग्य उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट बंधक काल के द्वारा आयुष्य बांधकर जलचरों में उत्पन्न हो कदलीघात कर एक समय कम उत्कृष्ट बन्धक काल पर्यन्त पूर्व निरुद्ध योगों से बाँधनेवाला तथा एक समय पूर्व निरुद्ध योग से एक कम विकल प्रक्षेपक भागहार प्रमाण योगस्थान उतरकर आयुष्य बाँधकर स्थित रहनेवाला जीव योगस्थान की अपेक्षा से तुल्य हैं। •०१६८ पुवुद्दिट्ठजोगेण ( पूर्वोद्दिष्टयोग) -षट ० खं ४, २, ४। सू ४७।टीका।पु १०/पृ० २५६ पूर्व में प्रयोग किये गये योग। समऊणुकस्सबंधगद्धाए तप्पाओग्गुक्कस्सजोगेण बंधिय एगसमयं पक्खेऊणजोगेण बंधिय जलचरेसुप्पजिय कदलीघादं कादूण परभषिआउयं पुवुहिट्ठजोगेण बंधिय जो बंधगद्धाचरिमे समए ठिदो सो सरिसो। एक समय न्यून उत्कृष्ट बंधक काल के भीतर उसके योग्य उत्कृष्ट योग से आयुष्य बाँधनेवाला तथा एक समय तक एक प्रक्षेप कम योग द्वारा बाँधकर जलचरों में उत्पन्न होकर व कदलीघात करके परभव के आयुष्य को पूर्वोद्दिष्ट योग के द्वारा बाँधकर बंधक काल के अन्तिम समय में स्थित रहने वाला जीव योगस्थान की अपेक्षा से सदृश है । '०१६९ भावणाजोगसुद्धप्पा (भावनायोगशुद्धात्मा)-सूय श्र १अ १५।गा ५ सम्यक् प्राणधान रूप भावना योग के द्वारा पवित्र आत्मा । भावणाजोगसुद्धप्पा, जले पावा व आहिया। नावा व तीरसंपन्ना, सव्वदुक्खा तिउट्टा ॥ टीका-सम्यक्प्रणिधानलक्षणो भावनायोगस्तेन शुद्ध आत्मा-अन्तरात्मा यस्य स तथा, स च भावनायोगशुद्धात्मा सन् परित्यक्तसंसारस्वभावो नौरिष जलोपर्यवतिष्ठते संसारोदन्वत इति,xxx। जिस प्रकार नाव जल में रहकर भी जल के ऊपर ही रहती है, उसी प्रकार संसार में रहते हुए भी भावना की पवित्रता से आत्मलीन भाव में रहकर संसार-सागर को पार करने के जिस साधक ने सांसारिक स्वभाव को छोड़ दिया है वह-भावनायोगशुद्धात्मा। ०१७० भिण्णजोगो ( भिन्नयोग) -षट• खं १, सासू ३।टीका।पु ५। पृ० २४५ भिन्नयोग अर्थात असमान कर्म-कषाय धारण करने वाले जीव । उवसंतकसायस्ल कसाउवसामगाणं च पञ्चासत्तीए अभावस्स संदंसणफलो। जेसिं पञ्चासत्ती अस्थि तेसिमेगजोगो, इदरेसिभिण्णजोगो होदि x x x। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) उपशान्तकषाय तथा कषायों का उपशमन करनेवाले जीवों में प्रत्यासत्ति अर्थात समीपता नहीं रहती है, जिनमें प्रत्यासत्ति नहीं रहती है उनको कहा जाता है-भिन्नयोग । ०१७१ मणजोगं ( मनोयोग) -उत्त० अ २६।सू ७३ मन के द्वारा होनेवाला योग-व्यापार । अहाउयं पालइत्ता अन्तोमुहुत्तद्धावसेसाउएजोगनिरोहं करेमाणेxxx तप्पढमाए मनजोगं निरुम्भइxxx। -भग• श १७/७३ ०१७२ मणजोगचलणा (मनयोगचलना) ०१७३ मणवयसकाइए जोगे ( मन-वचन-सकायिक योग) -ठाण. हाउसू ६६३ ०१७४ मणसमितिजोगेण (मनः समितियोग)- पण्हा अ ६।दा १।सू १८/पृ० ६८७ मन की सत्प्रवृत्ति रूप व्यापार । मूल-बितियं च-मणेण पावएणंxxx मणसमितिजोगेण भाषितो x x x अहिंसए संजए साहू। टीका-पापकेन-मनसा पापं-प्राणातिपातात्मकं किञ्चिदपि अल्पमपि न ध्यातव्यं एकाग्रतया न चिन्तनीयं । एवमनेन प्रकारेण मनःसमितियोगेन -चित्तसत्प्रवृत्तिलक्षणव्यापारेण भावितो भवति अन्तरात्मा जीवः। अन्तरात्मा को भावित करने में कारणभूत थोड़ी-सी भी मानसिक हिंसा से बचने के लिए मन को सत्प्रवृत्ति-संयम में लगाये रखना-मनःसमितियोग । ०१७५ मणोजोगनिग्गहाईओ (मनोयोगनिग्रहादि) -ध्याश० गा० ४४ मनोयोग आदि का सर्वथा रुक जाना । झाणप्पडियत्तिकमो होइ मणोजोगनिग्गहाईओ। भवकाले केवलिणो सेसाण जहासमाहीए । टीका-xxx स च भवति मनोयोगनिग्रहादिः, तत्र प्रथमं मनोयोगनिग्रहः ततो पाग्योगनिग्रहः ततः काययोगनिग्रह इति, किमयं समान्येन सर्वथैवेत्थम्भूतः क्रमो ?, न, किन्तु भवकाले केवलिनः, अत्र भवकालशब्देन मोक्षगमनप्रत्यासन्नः अन्तर्मुहूर्तप्रमाण एव शैलेश्यवस्थान्तर्गतः परिगृह्यते, केवलमस्यास्तीति केवली तस्य, शुक्लध्यान एवायं क्रमःXxxi शैलेशी अवस्था को प्रतिपन्न साधक के मोक्षगमन से अन्तर्महूर्त काल पूर्व योगनिरोध होता है । इस प्रकरण में सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध होता है, अतः मनोयोग निग्रहादि शब्द प्रयुक्त किया गया है । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ मणो-षयण-कायजोगाणं (मन-वचन-काययोग) -ध्याश गा०३७ मन-वचन-काय का व्यापार । जो (तो) जत्थ समाहाणं होज मणो-वयण-कायजोगाणं । भूओवरोहरहिओ सो देसो झायमाणस्स ।। टीका- x x x 'यत्र' ग्रामादौ स्थाने 'समाधान' स्वास्थ्यं 'भवति' जायते, केषामित्यत आह-'मनो-वाकाययोगानां' प्राग्निरूपितस्वरूपाणामिति, आह-मनोयोगसमाधानमस्तु, वाकाययोगसमाधानं तत्र क्वोपयुज्यते ? नहि तन्मयं ध्यानं भवति, अत्रोच्याते, तत्समाधानं तावन्मनोयोगोपकारक xxx। यहाँ पर प्रकरण ध्यान का है । ध्यान के समय मनोयोग का समाधान होना अपेक्षित माना गया है। यहाँ पर वचनयोग और काययोग के समाधान को मनोयोग के समाधान में उपकारक कहा जया है। ०१७७ महवाइजोगा (मार्दवादियोग) -प्रवसा० गा८४४ मार्दव, आर्जव आदि गुणों का संयोग । इय महवाइजोगा पुढ़वीकाये हवंति दस भेया । आउकायाईसुधि इअ एए पिंडिअं तु सयं । टीका-'इये' त्यादि, 'इति' अनेनैष पूर्वोक्ताभिलापेन मार्दवादियोगातमार्दवाजवादिपदसंयोगेन 'पृथिवीकाये' पृथिवीकायमाश्रित्य पृथिवीकायारम्भमित्यभिलापेनेत्यर्थः सम्भवन्ति-स्युर्दश भेदाः-दशशीलविकल्पाः, अप्कायादिष्वपि नवसु स्थानेषु, अपिशब्दो दशेत्यस्येह सम्बन्धनार्थ इत्यनेन क्रमेण एते सर्वेऽपि भेदाः 'पिडियं तु' त्ति प्राकृतत्वात् पिण्डिताः पुनः सन्तः अथवा पिण्डितं-पिण्डमाश्रित्य शतं-शतसंख्याः स्युरिति । पृथ्वीकाय की अपेक्षा मार्दव-आर्जव आदि दस प्रकार के शीलविकल्प होते हैं जिनको मार्दवादियोग कहा गया है । इसी प्रकार अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अजीवकाय ~~इन नवों में भी दस-दस प्रकार के शीलविकल्प माने गये हैं। सभी मिलकर १०० प्रकार के शोलविकल्प तथा इसी आधार पर १०० प्रकार के मार्दवादियोग भी माने गये हैं। .०१७८ महवाइजोगा ( मार्दवादियोग) -प्रवसा गा ८४४ इय महवाइजोगा पुढषीकाए हवंति दस भेया। आउक्कायाईसुवि इस एए पिडिअं तु सयं॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) टीका – 'इये त्यादि 'इति' अनेनैव पूर्वोक्ताभिलापेन मार्दवादियोगात्माद वार्जवादिपद संयोगेन 'पृथिवीकाये' पृथिवीकायमाश्रित्य पृथिवीकायारम्भमित्यभिलापेनेत्यर्थः सम्भवन्ति स्युर्दश भेदाः- दश शीलविकल्पाः, अष्कायादिष्वपि नवसु स्थानेषु, अपिशब्दो दशेत्यस्येह सम्बन्धनार्थः, इत्यनेनक्रमेण एते सर्वेऽपि भेदाः × × × । .०१७९ मिच्छत्त-जोगपश्च्चय ( मिथ्यात्व - योग- प्रत्यय ) मिच्छत्त-जोगपश्च्चय, तहय कसाएसु लेस एएस चेवजीवो, बंध असुहं सहिपसु । साकम्मं ॥ ६७ ॥ मिथ्यात्व, मन-वचन-काय की प्रवृत्ति रूप योग तथा लेश्या सहित कषाय- इन कारणों से जीव सर्वदा अशुभ कर्म का बंध करता है । .०१८० मुक्कजोगी ( मुक्तयोगी ) ज्ञान, दर्शन और चारित्र के प्रति निष्ठा न रखनेवाला । - पउम० उ २ श्लो ६७ - बृह० उ ६ भाष्य गा ६४८६ भिण्णरहस्से व परे, णिस्साकरए व मुक्कजोगीय । छविहगतिविम्मि, सो संसारे भमति दीहे ॥ टीका - xxx मुक्ताः - परित्यक्ता योगाः - ज्ञान-दर्शन- चारित्र- तपो ईदृशेऽपात्रे ( कल्पाध्ययनं ) न दातव्यम् | विषया व्यापारा येन स मुक्तद्योगी । X X X I ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप तप का परित्याग करनेवाला कल्पाध्ययन का अपात्र - मुक्ती । .०९८१ मोस - मणपओगे ( मृषा-मनः प्रयोग ) - सम० सम १५/ सू ७ पृ० ४४ मूल - मणूसाणं पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते, तंजहा - XXX गोलमणपओगे X X×। टीका - सत्यविपरीतमसत्यं, यथा--नास्ति जीवः एकान्तसद्र पोवेत्यादिकुविकल्पनपरं तच्च तन्मनश्च तस्य प्रयोगोऽसत्यमनः प्रयोगः । $ .०१८२ वखनजोगचलणा ( वचनयोग चलना ) .०९८३ वतिसमितिजोगेण ( वचनसमितियोग ) ܘ - भग० श १७ उ ३ - पण्हा० अ ६ाद्वा १ सू १६ | पृ• ६८७ वचन में सत्प्रवृत्ति रूप व्यापार । मूल-ततियं च वतीते पावियाते x x x वतिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरपा Xx X अहिंसए संजय सुसाहू | Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) ... टीका-xxx चाचा पापं न भणितव्यमिति xxx बाचा पाणास्मक-प्राणिघातात्मकं, न कदापि भाषितव्यं, एवममुना प्रकारेण पचनसमिति योग-युतो भावितो भवति अन्तरात्मा-जीवः। ___अन्तरात्मा को भावित करने में एक कारणभूत प्राणिघात रूप हिंसामूलक वचन से सर्वथा वर्जित रहना --वचनसमितियोग। .०१८४ वासणाजोगो (वासनायोग) ___-विशेभा० गा २६१ वासना और जीव का पारस्परिक सम्बन्ध । तयणतरं तयथाविञ्चवणं जो य वासणाजोगो। कालंतरे य ज पुणरणुसरणं धारणा सा उ॥ टीका-xxx यश्च पासनाया जीवेन सह योगः सम्बन्धः xxx। जो वासना अर्थात् प्राप्ति की अभिलाषा कालान्तर में जाकर धारणा का रूप ग्रहण कर लेती है, उसका जीव के साथ योग सम्बन्ध होना-वासनायोग । •०१८५ वीरिय-सजोग-सहब्धयाए (वीर्य-सयोग-सद्रव्य) -भग० श ाउ प्र ३७ ०१८६ विसंवादणाजोगे ( घिसंपादनायोग) -ठाण° स्था ४।उ १।सू २५४ जिस रूप में कहा जाय उस रूप में विश्वास न करना । मूल-बउबिहे मोसे पन्नत्ते तं जहा-कायअणुज्जुयया xxx विसंवादणाजोगे। टीका-अनाभोगादिना गवादिकमश्वादिकं यद्वदति कस्मैचित् किञ्चिदभ्युपगम्य वा यन्न करोति सा विसंवादणा (तया) योगः-सम्बन्धो (विसंघादनायोगः) ___अनाभोगादि के कारण किसी के पास जाकर गो, अश्व आदि कुछ कहा जाय, उसको अस्वीकार कर दिया जाय वह विसंवादना है उसके साथ योग-सम्बन्ध स्थापित करना-विसंवादना योग। विसंवादनायोग चतुर्विध मिथ्यात्व का चौथा भेद है । ०१८७ विवित्तपासषसहिसमितिजोगेण (विषिक्तपासवसतिसमितियोग) -पण्हा• अमादा ३।सू ।पृ. ६६६ एकान्तवास रूप संयम का पालन । मूल-पढम-देवकुल-सभ-प्पवा xxx विवित्तवासवसहिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा xxx दत्तागुण्णाय-ओग्गहरुई। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) .... टीका-विविक्त-एकान्ते वासः-स्थानं वसतिर्यस्य स ससमितियोगयुक्तो भावितो-वासितः अन्तरात्मा जीपः। ___ अन्तरात्मा को वासित करने के लिए लोकाकुल स्थान को त्याग कर अलग एकान्त स्थान में रहकर साधु का संयम में व्यापृत रहना-विविक्तवासवसतिसमितियोग । '०१८८ विविहाओ य जोगजुंजणाओ (विविध योगयोजन ) -पण्हा० द्वा अप्रासू पृ.६८० अनेक प्रकार के उपायों का संयोजन । मूल-परिग्गहस्सेष य अट्ठाए xxx विविहाओ य जोगजंजणाओ xxx संचिणंति मंदबुद्धी। टीका-विधिधाश्च योग-योजनान् बहु-प्रकारांश्च वशीकरणप्रयोगान् परिग्रहवशीकरणार्थ शिक्षन्ति । यहाँ प्रकरण परिग्रह का है। पर-धन को अपने अधीन करने के लिए मंदबुद्धि व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले अनेक प्रकार के उपायों का संयोजन-विविध योगयोजन । २०१८९ वेउब्वियमीससरीरकायप्पओगे (वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग) -पण्ण० प १६।सू १०६८ वैक्रियमित्र शरीर रूप काय का प्रयोग-योग । पण्णरसषिहे पओगे पण्णते। तं जहा-xxx वेउब्वियमीससरीर. कायप्पओगे १२ xxx। टीका-वैक्रियमिधशरीरकायप्रयोगो देवनारकाणामपर्याप्तावस्थायां, मिश्रता च तदानीं कार्मणेन सह वेदितव्या xxx। .. देव और नारकियों में अपर्याप्त अवस्था में कार्मण से मिभित वैक्रिय प्रधान शरीर के होनेवाले व्यापार-वैक्रियमिश्रकायप्रयोग। .०१९० वेउब्वियसरीरकायप्पओगे (वैक्रियशरीरकायप्रयोग) -पण्ण० प १६ास १०६८ वैक्रिय शरीर रूप काय का प्रयोग-योग। पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते। तंजहा-xxx वेउब्धियसरीरकायप्पओगे ११ xxx I टीका-वैक्रियशरीरकायप्रयोगो वैक्रियशरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य। वैक्रिय लब्धि के द्वारा वैक्रिय शरीर योग्य पर्याप्ति पर्याप्त शरीर रूप काय का व्यापार-वे क्रियशरीरकायप्रयोग। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) .०१९१ सगसगउवजोगजोगआदीहिं ( स्वक- स्वक- उपयोग योग आदि ) — गोक० गा ४६ • स्व-स्व गुणस्थान के आधार पर होनेवाले उपयोग, योग आदि । उदयद्वाणं पर्याडि सगसगउबजोगजोगआदीहिं । गुणवत्ता मेलविदे पदसंखा पयडिलंखा य ॥ मोहनीय की स्थानसंख्या और प्रकृतियों की संख्या जानने के साधन स्वरूपस्वकस्वक उपयोगयोग आदि । यहाँ प्रकरण मोहनीय की स्थानसंख्या तथा प्रकृतियों की संख्या जानने का है । अपने-अपने गुणस्थान में होनेवाली उदयस्थानों की संख्या तथा उन स्थानों की प्रकृतियों की संख्या को उपयोग, योग तथा आदि पद से संयम, देशसंयम, लेश्या और सम्यक्त्व की संख्या से गुणा करके फिर सबको जोड़ देने पर जो संख्या बनती है उतनी ही वहाँ पर मोहनीय की स्थानसंख्या और प्रकृतियों की संख्या होती है । .०१९२ सच मणपओगे ( सत्य- मनःप्रयोग ) मन का सत्यपरक व्यापार । मूल - मणूसाणं पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते, तंजहा - सचमणपभोगे - सम० सम १५ / सू ७ पृ० ४४ × × ×। टीका - सत्यार्थालोचननिबन्धनं मनः सत्यमनस्तस्य प्रयोगो - व्यापारः सत्यमनः प्रयोगः । सत्यार्थ के प्रतिपादन में निबद्ध मन का प्रयोग - व्यापार — सत्यमनः प्रयोग | .०१९३ सचमणप्पओगे ( सत्यमनः प्रयोग ) सत्य रूप मन का व्यापार । पण्णरसबिहे पओगे पन्नत्ते, तंजहा - सच्च मणप्पओगे १ × × × टीका- 'सश्चमणप्पओगे' इत्यादि, सन्तो मुनयः पदार्था वा तेषु यथासंयं मुक्तिप्रापकत्वेन यथावस्थितस्वरूपचिन्तनेन च साधु सत्यं - अस्ति जीवः सदसद्रूपो देहमात्रव्यापीत्यादिरूपतया यथावस्थित वस्तुचिन्तन परं सत्यं च तत् मनश्च सत्यमनःतस्य प्रयोगो- - व्यापारः सत्यमनः प्रयोगः x x x " तथा पदार्थ को 'सत्' कहा जाता है। मुनियों में मुक्ति प्राप्ति की इच्छा से यथावस्थित स्वरूप का चिन्तन तथा पदार्थों में सत्-असत् रूप जीव को देहमात्र व्यापी यथावस्थित वस्तु का चिन्तन करना - सत्यमनःप्रयोग | - पण्ण० प १६ / सू २०६८ ·०१९४ सच्चमोसवइत्पओगे ( सत्यमृषावचनप्रयोग ) - पण्ण० प १६ । सू २०६८ आंशिक सत्य और आंशिक मिथ्या वचन का प्रयोग करना । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते तं जहा-(सचमोसवइप्पओगे) एवं पप्पओगेपि चहाxxx। टीका-'एवं वइप्पओगेवि चउहा' इति, यथा मनः प्रयोगश्चतुर्द्धा तथा बाक्प्रयोगऽपि चतुर्द्धा, तद्यथा- xxx सत्यमृषाचाक् प्रयोगः xxx, एताश्च सत्यवागादयः सत्यमनःप्रभृतिवद्भावनीया इति। एक दृष्टान्त के अनुसार यथा-किसी वन को धव, खदिर, पालस आदि वृक्षों से मिश्रित अशोक वृक्षों की बहुलता के कारण 'अशोकवन' ही है-इस कथन में अशोकवृक्षो के सद्भाव के कारण सत्यता तथा धवखदिरादि के भी सदभाव के कारण असत्यता रहती है-इस प्रकार के वचन का प्रयोग करना-सत्यमृषावचनप्रयोग। ०१९५ सञ्चवइप्पओगे ( सत्यवचनप्रयोग) -पण्ण० प १६ । सू.१०६८ सत्य स्वरूप वचन का व्यवहार । पण्णरसविहे पओगे पन्नत्ते, तं जहा-xxx(सश्चवइप्पओगे)xxxi टीका---'एवं वइप्पओगोवि चउहा' इति, यद्यथा मनःप्रयोगश्चतुर्धा तथा पाक्प्रयोगोऽपि चतुर्द्धा, तथा-सत्यवाक्प्रयोगोxxx। मुक्ति प्राप्ति की अभिलाषा से जीव को सव-असत् रूप तथा देह मात्र में व्याप्त स्वीकार कर वचन का प्रयोग करना-सत्यवचनप्रयोग। ..१९६ सञ्चामोसमणप्पओगे (सत्यमृषामनःप्रयोग) -पण्ण० १६ । सू० १.६८ आंशिक सत्य और आंशिक मिथ्या रूप मन का व्यापार । पण्णरसविहे पओगे पपणते तं जहा-xxx असञ्चामोसमणप्पओगे ३xxx| टीका-'सश्चमोसमणप्पओग' इति सत्यमृषा-सत्यासत्ये यथा धवखदिरपलाशादिमिश्रेषु बहुवशोकवृक्षेषु अशोकवनमेवेदमिति विकल्पनपरं, तत्र हि कतिपयाशोकवृक्षाणां सद्भावात् सत्यता अन्येषामपि धवखदिरादीनां सद्भाबादसत्यताxxx। एक दृष्टान्त के अनुसार, यथा धव, खदिर, पलास आदि वृक्षों के रहते हुए भी अशोक वृक्ष की बहुलता के कारण किसी वन को अशोकवन कहना ; इस कथन में जिस प्रकार अशोक वृक्षों की बहुलता के कारण आंशिक सत्य तथा अन्य वृक्षों की भी सत्ता के कारण आंशिक असत्य का आभास होता है। इस प्रकार के मन के व्यापार को 'सत्यमृषामनोयोग' कहते हैं । ०१९७ संजमजोगविसन्ना (संयमयोगविषण्णा) ठाण० स्था २ । उ ४ । सू ४११ । टीका Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) टीका - संजमजोगविसन्ना मरंति जे तं वलायमरणंतु । इंदियविसयवसगया मरंति जे तं वसतु ॥ संयम योग से निवृत होकर, परिषहादि के बाधित होने से वलायमरण है । ०१९८ सजोगिभवत्थ केवलणाणे ( सयोगिभवस्थ केवलज्ञान ) - ठाण० स्था २ । १ । सू ८६ । पृ० ५०६ योगयुक्त अवस्था में होनेवाला केवलज्ञान । मूल - भवत्य केवलणाणे दुबिहे पण्णत्ते, तं जहा - सयोगिभवत्थकेवलणाणे x x × । टीका- 'भवत्थे' त्यादि सह योगेः - कायव्यापारादिभिर्यः स सयोगी इन्समासान्तत्वात् स वासौ भवस्थश्च तस्य केवलज्ञानमिति विग्रहः । मन, वचन, काय के व्यापार के साथ बरतनेवाले भवस्थ मनुष्य में होनेवाला एक ज्ञान-सयोगिभवस्थकेवलज्ञान । ०१९९ सजोगी केवली ( सयोगी केवली ) मन, वचन, और काय के व्यापार से युक्त केवलज्ञानी । मूल - कम्मविसोहिमग्गणं पडुश्च वउद्दस जीवद्वाणा पण्णत्ता, तंजहामिच्छदिट्ठी x x x सयोगी केवली X × × ! सम० सम १४ । सू ५ | पृ० ४१ टीका - सयोगी केवली - मनः प्रभृतिव्यापारवान् केवलज्ञानीति । कर्म - विशोधन के द्वारा होनेवाले जीव के चौदह स्थान — गुणस्थान होते हैं, उनमें तेरहवाँ गुणस्थान — सयोगी केवली । • ०२०० संजमजोगयं ( संयमयोगज ) संयम रूप योग - आचरण । तवं चिमं संजमजोगयं च सज्झायजोगं च सया अहिट्ठए । सूरे व सेणाए समत्तमाउहे अलमप्पणो होइ अलं परेसिं ॥ टीका - 'समयोगं व' पृथिव्यादिविषयं संयमव्यापारं च । • ०२०१ सजोगाजोगा ( सयोगायोग ) योगयुक्त तथा योगरहित साधक । जीवकाय, इन्द्रिय तथा मन के संयम के प्रति समाचरण करना - जागरूक रहनासंयमयोग कहा जाता है । - दसवे० अ८ । गा ६१ एएश्चिय पुग्वाणं पुग्बधरा सुप्पसत्यसंघयणा । दोण्ह सजोगाजोगा सुकाण पराण केवलिणो ॥ - ध्याश० गा ६४ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) टीका - x x x 'द्वयोः' शुक्लयोः परयोः- उत्तरकालभावितोः प्रधानयोर्वा सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति-व्युपरत क्रियाऽप्रतिपातिलक्षणयोर्यथासंख्यं सयोगायोगकेवलिनो ध्यातार इति x x x | यहाँ पर विवेचन है सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति अर्थात् जिस अवस्था में काययोग की क्रिया सूक्ष्म हो जाती है - ऐसा ध्यान करनेवाला सयोगी । व्युपरतक्रियाऽप्रतिपाती अर्थात् जिस अवस्था में योग की क्रिया नहीं होती है—ऐसा ध्यान करने वाला अयोगी । सयोग - अयोग- इन दो शब्दों का द्वन्द्व समास मूलक शब्द सयोगायोग । - ०२०२ सजोगिभवत्थ केवलणाणं ( सयोगिभवस्थ केवलज्ञान ) योगयुक्त अवस्था का केवलज्ञान । मूल-से किं तं भवत्थ केवलणाणं ? भवत्थकेबलणाणं दुविहं पण्णत्तं । तं जहा - सयोगिभवत्थ केवलणाणं × × ×। टीका - सह योगेन वर्त्तन्ते ये ते सयोगा मनोवाक्कायास्ते यथासम्भवस्य विद्यन्ते इति सयोगी सयोगी चासो भवस्थश्व सयोगिभ बस्थस्तस्य केवलज्ञानं सयोगिभवस्थ केवलज्ञानम् । जिस साधक में मन, वचन और काय के व्यापार विद्यमान रहते हैं, उसके उस स्थिति में होनेवाला केवलज्ञान-सयोगिभवस्थ केवलज्ञान । भवस्थ केवलज्ञान का प्रथम भेद-सयोगिभवस्थ केवलज्ञान | • ०२०३ सहिमेत्तसजोगिकेवलीणं ( षष्ठिमितसयोगिकेवली ) - नंदी० सू० ३५ - षट् ० ० खं १, ८ । सू १३७ | टीका । पृ ५ । पृ २६८ सयोगिकेवलियों की संख्या ६० । टीका - पदर- लोगपूरणेसु उकस्सेण सहिमेत्तसजोगिकेवलीणमुषलंभा । प्रतर और लोकपूरण समुद्घात में सयोगिकेवलियों की उत्कृष्ट संख्या का प्रमाण ६० है । ०२०४ समाहिजोगे ( समाधियोग ) - दसवे० अ ६ । उ १ | गा १६ मोक्ष की साधना में सहायभूतध्यानविशेष | महागरा आयरिया महेली समाहिजोगे सुयसीलबुद्धिए । संपाविकामे अणुत्तराई आराहए तोलए धम्मकामी ॥ टीक - समाधियोगः- ध्यानविशेषैः । अनुत्तर ज्ञान आदि गुणों की सम्प्राप्ति में साधक को कर्मों की निर्जरा करने के लिए सहायभूत ध्यान विशेष-समाधियोग | Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्त० अ२१ । गा १३ •०२०५ सम्बजोगट्ठाणजीवा (सर्वयोगस्थानजीष ) -षट्० खं ४, २, ४ । सू २६ । टीका । पु १० । पृ०६८ सब योगस्थानवी जीवों की संख्या। उक्कस्सजोगजीवमेत्तेण। सव्वजोगट्ठाणजीवा विसेसाहिया। केत्तियमेत्तेण १ जवमझादो हेहिमजीवमेत्तेण । उत्कृष्ट योगस्थानवती जीवों की अपेक्षा से यवमध्य से नीचे के स्थानों में रहने वाले जीवों की संख्या रूप विशेषाधिक होनेवाले-सर्वयोगस्थानजीव । •०२०६ सातिजोगे ( सातियोग) - सम० सम ५२। सू १ । पृ० १२३ मोहनीय कर्म का एक भेद । मूल-मोहणिज्जस्स णं कम्मस्स बापन्नं नामधेजा पण्णत्ता, तं जहाकोहे कोवेxxx सातिजोगे x x x। __ मोहनीय कर्म के ५२ नामों में एक नाम-सातियोग। शब्द के आधार पर मनवचन-काय की अति अशुभ प्रवृत्ति-सातियोग। ... टीकाकार भी अभयदेव सूरि ने 'सातिजोग' शब्द की कोई व्याख्या नहीं की है। .. •०२०७ साषजजोगं ( सापद्ययोग) पापयुक्त मन, वचन और काय की प्रवृत्ति । सव्वेहि भूएहिं दयाणुकंपी खन्तिक्खमे संजयबंभयारी। सावजजोगं परिषजयन्तो चरिज भिक्खू सुसमाहिइन्दिए॥ टीका-सापद्ययोगं वर्जयन् , सपापयोगं परित्यजन् । चारित्र पालन में वर्जनीय मन, वचन और काय की सपाप प्रवृत्ति- सावद्य योग । •०२०८ सन्धिदियजोगजंजणता (सर्वेन्द्रियजोगयुंजनता) -ठाणा. स्था ७ । सू५८५ जिसमें सभी इन्द्रियों के योग की योजना हो।। मूल-पसत्थकायषिणए सत्तषिहे पण्णत्ते तं जहा-आउत्तं xxx सन्धिदियजोगजंजणता। टीका-सर्वेषामिन्द्रियाणां योगा-व्यापाराः योगा-व्यापाराः सर्वे पा ये इन्द्रिययोगास्तेषां योजनता-करणं सर्वेन्द्रिययोगयोजनता। जिस विनय में सभी इन्द्रियों के व्यापार संयोजित होते है वह सर्वेन्द्रिययोगयोजनता। सर्वेन्द्रिययोगयोजनता सात प्रकार के प्रशस्त कायविनय का सातवाँ भेद है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) ०२०९ सावज्जं जोगं ( सावद्य योग ) - दसवे० अ जागा ४० पापयुक्त अथवा निन्दनीय मन, वचन, तथा काय का व्यापार | तदेव सावज्जं जोगं परस्सठाए निट्ठियं । कीरमाणं तिचा नश्चा सावज्जं न लवे मुणी ॥ अनिश्चितार्थं कथन अथवा स्वयं को अप्रिय लगनेवाली बात दूसरों के लिए प्रयोग करना - सावद्य ( वचन ) योग । .०२१० सावज्जं जोगं ( सावद्य योग ) - आव० अ ४ सामाइयं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि (सामायिक सावद्य योग- प्रत्याख्यान ) - आव० अ ४ करेमि भंते ! लामाइयं सावज्जं ओगं पश्चक्खामि जाव नियम मुद्दत्तं - - आव० अ ४ XXXI हे भगवान् : मैं एक मुहूर्त के लिए सामायिक करता हूँ - सावद्य योग का प्रत्याख्यान करता हूँ । दो करण, तीन योग से । .०२११ सत्यमूसलाइ सावजजोग पश्च्चक्खाण प्रत्याख्यान ) एक्कारसमं पोसहोचवा सव्ययं ( शस्त्र - मूसलं X X X सावद्ययोग - आव० अ ४ सत्थमूसलाइ - सावज्जजोग पश्चक्खाणं । -आव० अ ४ ग्यारहवें पौषध व्रत में x x x शस्त्र - मूसल आदि सावद्य योग-व्यापार का प्रत्याख्यान | दो करण, तीन योग ये सावद्य योग-व्यापार न करूँगा न कराऊँगा, मन से, वचन से, काया से । .०२१२ सुहं जोगं ( शुभ योग ) अनारम्भ शुभ कर्म में प्रवृत्ति । xxx तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया ते सुहं जोगं पडुच्च णो आयारंभा णो परारंभा णो तदुभयारंभा अणारंभा । टीका - प्रमत्तसंयतस्य हि शुभोऽशुभश्च योगस्स्यात् संयतत्वात्, प्रमादपरत्वाच । इत्यत आह- 'सुहं जोगं पडुश्च' त्ति शुभयोग-उपयुक्ततया प्रत्युपेक्षणादिकरणम् । आत्मारम्भ, परारम्भ, उभयारम्भ रूपकर्मों में उपयोगितावश उपेक्षादि करना — -भग० श १३ १४८ शुभ योग । यह कथन प्रमत्तसंयत की अपेक्षा से है । प्रमत्तसंयत में संयम और प्रमाद रहने के कारण शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के योग होते हैं । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) .०२१२ सुहुमणिगोदजोगादो ( सूक्ष्मनिगोदयोग ) • खं ४, २४ सू ५७ टीका । १० पृ० २७७ - षट् • सूक्ष्मनिगोद जीव का योग । पजत्तिसमाणकालो जहण्णओ वि एगसमयादिओ णत्थि, अंतोमुहुत्तो चेवेत्ति जाणावणमंतोमुहुत्तग्गहणं । किमहं सव्वलहुं पजत्ति णीदो ! सुहुमणिगोदजोगादो असंखेज़गुणेण बादरपुढविकाइयापजत्तजोगेण संचियमाणदव्वपडिसेहट्ठ । बादर पृथ्वी कायिक जीव के अपर्याप्त योग से असंख्यात गुणहीन - सूक्ष्मनिगोदयोग | सूक्ष्मनिगोद का योग सर्वतः लघुकाल स्थायी होता है । - ०२१३ सुहुमेइं दियजोगादो (सूक्ष्मए केन्द्रिययोग ) - षट् ० ० खं ४, २ सू ७ टीका | १० | पृ० ३२ सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव का योग - प्रवृत्ति । बादरपुढचीजीवेसु अंतोमुहुत्तूणतसठिदीप ऊणियं कम्मठिदिमच्छिदो जीवो सो उक्कस्सदव्वसामी होदि । कुदो ? सुहुमेई दियजोगादोबादरेइ दियजोगस्स असंखेजगुणत्तु वलंभादो । बादर पृथिवीकायिक जीव में अन्तर्महूर्त कम त्रसस्थिति से हीन कर्मस्थिति रूप काल तक रहनेवाले जीव के उत्कृष्ट द्रव्य के स्वामित्व होने में कारण बताया गया है सूक्ष्म एकेन्द्रिययोग से बादर एकेन्द्रिययोग का असंख्यात गुणा होना । .०२१४ सेज्जासमितियोग ( शय्यासमितियोग ) - पण्हा० अ दाद्वा ३ । सू ११ पृ० ६६६ पीठ - फलक - शय्यादि के निमित्त प्रयत्न - विशेष न करने रूप संयम का पालन | मूल - पीठ - फलग - सेजा - संधारगट्ठाए रुक्खान छिंदियव्वा, x x x एवं सेजासमितिजोगेण भावितो भवति अंतरख्पा x x x दत्ताणुण्णाय ओग्गहरुई । ε टीका - तृतीया भावना वस्तुशय्यापरिकर्म वर्जना नाम, तच्चैवंप्रकारेणाह पीठफलक शय्यासंस्तारकार्थनाय वृक्षस्तरुर्न छेदितव्यः, x x x समितः समितिभिः एको (S) सहायोऽपि रागाद्यभावात् खरेत् - अनुतिष्ठेत् धर्मचारित्रधर्म एवं शय्यासमितियोगेन भावितो वासितो भषति अन्तरात्मा जीवः । आत्मा को भावित करने के लिए साधु का पीठ फलक- शय्यादि के निमित्त वृक्ष के छेदन से वर्जित रहने रूप संयम को धारण करना - शय्यासमितियोग | यह अहिंसा की वस्तुशय्यापरिकर्म वर्जना नाम की तीसरी भावना है । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .०२१५ सेसदुजोगेसु ( शेषद्वियोग ) - गोक• गा ५४६ शेष अन्त के दो योग-औदारिक मिश्र और कार्मण । अडवीसदु हारदुगे सेसदुजोगेसु छक्कमादिल्लं । वेदकसाये सवं पढमिल्लं छक्कमण्णाणे ॥ योग के आधार पर आदि के छः बन्धस्थानों की सत्ता रहने वाले योग औदारिकमिश्र और कार्मण-शेषद्वियोग। .०२१६ एयजोगसमाउत्तो ( एतत्योगसमायुक्त) --उत्त० अ ३४ गा २२ अर्थात इन योगों से सहित । पंचासवप्पवत्तो, तीहि अगुत्तो छसुं अविरओ य । तिव्वारंभपरिणओ, खुड्डो साहस्सिओ णरो॥२१॥ गिद्ध सपरिणामो, णिस्संसो अजिइदिओ । एयजोगसमाउत्तो, किण्हलेसं तु परिणमे ॥ २२॥ -उत्त० अ ३४ागा २१, २२ पाँच आस्रवों द्वारों में प्रवृत्ति करने वाला, तीन गुप्तियों से, अगुप्त ( आत्मा का गोपन न करने वाला ) छह काया में अविरत (छह काया की विराधना करने वाला), तीव्र भावों से आरंभादि करने वाला, क्षुद्र, साहसिक, (बिना विचारे काम करने वाला) निर्दयता के परिणाम वाला, नृशंस ( क्रूर )-अजितेन्द्रिय ( इन्द्रियों को वश में न करने वाला) इन योगों से युक्त मनुष्य कृष्णलेश्या के परिणाम वाला होता है। णीयावित्ती अचवले, अमाई अकुऊहले। विणीयविणए दंते, जोगवं उपहाणवं ।। २७॥ पियधम्मे दढधम्मे, अवज-भीरूहिएसए । एयजोग-समाउत्तो. तेउलेसं तु परिणमे ॥ २८॥ -उत्त० अ ३४।गा २७, २८ नम्रवृत्ति वाला ( अहंकार रहित ), चपलता रहित, माया रहित, कुतुहल आदि न करनेवाला, परम विनय भक्ति वाला, इन्द्रियों का दमन करनेवाला, स्वाध्यायादि में रत रहनेवाला, उपधानादि तप करनेवाला, धर्म में प्रेम रखने वाला, धर्म में दृढ रहने वाला, पाप से डरने वाला, सभी प्राणियों का हित चाहनेवाला, इन उपरोक्त परिणामों से युक्त प्राणी तेजलेश्या के परिणामवाला होता है । .०२१७ केवलिणोद्धनिरुद्धजोगस्स ( केवलिनोऽर्धनिरोधजोगस्स) -ठाण स्था ४ाउ १।सू.टीका में उद्धत निर्वाण के समय तेरहवें गुणस्थान में काय योग का अर्ध निरोध । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निव्वाणगमणकाले केवलिणोद्धनिरुद्धजोगस्स। सुहमकिरियाऽनियहि तइयं तणुकायकिरियस्स ॥ तस्सेवय सेलेसीगयस्स सेलोव्व निप्पकंपस्स। वोच्छिन्नकिरिय मप्पडिवाई झाणं परमसुक्कं ॥ -ठाण० स्था ४।उ २।सूाटीका में उद्धत निर्वाण के समय केवली के मन और वचन योगों का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है तथा काययोग का अर्ध निरोध होता है। उस समय उनके शुद्धध्यान का तीसरा भेद 'सुहुमकिरिए अनियट्टी' होता है और सूक्ष्मकायिकी क्रिया-उच्छ वासादि के रूप में होती है । उस निर्वाणगामी जीव के शैलेत्व प्राप्त होने पर, सम्पूर्ण योग निरोध होमे पर भी शुद्धध्यान का चौथा भेद 'समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाती' होता है, यद्यपि शेलेत्व की स्थिति मात्र पाँच ह्रस्व स्वराक्षर उच्चारण करने समय जितनी होती है। .०२१८ जोगर्व ( योगवत् ) -उत्त० अ ३४।गा २७, सूय० श्रु १।अ २राउ १।गा ११ शुभ प्रवृत्ति वाला। जययं विहराहिजोगवं अणु पाणा पंथा दुरुत्तरा। अणुसासणमेव पक्कमे, वीरेहिं सम्मंपवेइयं ॥ -सूय० श्र १शअ ।उ १|गा १ .०५ परिभाषा(के उपयोगी पाठ .०१ बीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमसमुत्थलब्धि विशेषप्रत्ययमभिसन्ध्यनभि-सन्धि पूर्वमात्मनो वीर्य योगः xxy । -ठाण० स्था ३।उ शसू १२४ टीका वीर्यान्तराय कर्म के क्षय, क्षयोपशम से निष्पन्न लब्धि विशेष को योग कहते हैं । .०२ लेश्या-सहित वीर्य-पराक्रम योग है xxx स्पन्दनारूपं यथासंभवं सूक्ष्मबादरपरिस्पन्दरूपक्रियात्मक, एतदेव च सलेश्यं वीर्यमुक्तस्वरूपं योगसंचमुच्यते ! -पंचश्वे. भा ३ गा ४ाटीका।पृ० ७२१ सूक्ष्म-बादर परिस्पन्दनात्मक रूप क्रिया व सलेशी वीर्ययुक्त स्वरूपको योग कहते हैं । .०३ योग-परिणाम जीव-परिणाम का भेद जीवपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! दसविहेपण्णत्ते । तंजहा-गतिपरिणामे १ इदियपरिणामे २ कसायपरिणामे ३ लेसापरिणामे ४ जोगपरिणामे ५ उवजोगपरिणामे ६ णाणपरिणामे ७ दंसणपरिणामे ८ चरित्तपरिणामे ९ वेदपरिणामे १०।, -पण्ण० प १३ सू ६२६।पृ० २२६ -ठाण• स्था १०।सू १० Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८) पण० टीका - योग एव परिणामो योगपरिणामः । जीव परिणाम के दस भेदों में जोग परिणाम भी है । .०४ द्रव्ययोग पुद्गल पोग्गल त्थिकाएणं जीवाणं पोग्गलस्थिकापणं पुच्छा । गोयमा ! ओरालिय- वेडव्विय- आहारग तेया- कम्मए सोइ दिय- चक्खिदिय- घाणिदियजिभिदिय- फासिंदिय-मणजोग-वयजोग-कायजोग आणापाणणं य गहणं पवत्तइ गहणलक्खणे णं पोग्गत्थिकाए । - भग० श १३ | ४| १८ पुद्गलास्तिकाय के द्वारा मनोयोग, वचनयोग, तथा काययोग का द्रव्य रूप से ग्रहण होता है, अतः द्रव्य की अपेक्षा मनोयोग, वचनयोग और काययोग पुद्गल है । योगेन ये समायान्ति शस्ताशस्तेन पुद्गलाः । तेऽष्टकर्मत्वमिच्छन्ति कषायपरिणाममतः ॥ - योसा • अ २राश्लो २३ .०५ योग मूल प्रत्यय है इदि पदे चत्तारि मूलपच्चया । x x x | एत्थ ताव पच्चयपरूवणा कीरदे। तंजहा - मिच्छत्तासंजम - कसाय - जोगा -षट् खं ३ सू६ टीका | ८|पृ० १६ चार मूल प्रत्यय है - मिथ्यात्व असंजम, कषाय और योग । .०६ पापास्स्रव का कारण है शुभाशुभोपयोगेन वासिता योगवृत्तयः । सामान्येन प्रजायन्ते दुरितास्रवहेतवः || मिथ्यादृक्त्वमचारित्रं कषायो योग इत्यमी । चत्वारः प्रत्ययाः सन्ति विशेषेणाघसंप्रहे ॥ .०७ योग कर्म का निमित्त है - योसा० अ ३ । श्लो १, २ कम्मं जोगनिमित्तं सुभोऽसुभो वा स एगसमयम्मि | होज्ज न उ उभयरूवो कम्मं पि तओ तयणुरुवं ॥ - विशेभा० ० गा १६३५ टीका - मिथ्यात्वाऽविरति प्रमाद कषाययोग बन्धहेतव इति पर्यन्ते योगाभिधानात् सर्वत्र कर्मबन्धहेतुत्वस्य योगाविनाभावाद् योगानामेव बन्धहेतुत्वमिति कर्म योगनिमित्तमुच्यते । स व मनो-वाकू कायात्मको योग एकस्मिन् समये शुभोऽशुभो वा भवेत्, न त्भयरूपः, अतः कारणानुरूपत्वात् Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) कार्यस्य कर्मापि तदुनुरूपं शुभं पुण्यरूपं वध्यते, अशुभं वा पापरूपं बध्यते, न तु संकीणस्वभावमुभयरूपमेकदैव बध्यत इति । योग अजीवद्रव्य-परिणाम है .०८ योग अजीव द्रव्य परिणाम है ___ जीवदव्वा णं भंते ! अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, अजीवदव्वाणं जीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ? xxx । गोयमा। जीदव्वा णं अजीपव्वे परियाइयंति, अजीवदव्वे परियाइइत्ता ओरालियं वेउब्वियं आहारगं तेयगं कम्मगं, सोई दियं जाव फासिदियं, मणजोगं, पइजोगं, कायजोग, आणापाणुत्तं च णिवत्तयंति, से तेण?णं जाव 'हव्वमागच्छंति'। -भग• श २५ । उ सपृ ४ जीवद्रव्य अजीवद्रव्य को ग्रहण कर औदारिक यावत् कामण-पाँच शरीर, श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय-इन पाँच इन्द्रिय, मनोयोग, वचनयोग, काययोग तथा श्वासोच्छ्वास रूप में परिणमन कराता है, अतः योग अजीवद्रव्य का परिणाम है । .०९ योग क्षीरानवादि लब्धकलाप है xx x योगः क्षीरास्रवादिलब्धिकलापसम्बन्धःx xxi आया० शीलांकाटीका .१० योग आस्रवद्वार है पंच आसवदारा पन्नत्ता तं जहा-मिच्छत्तं अविरई पमाया कसाया जोगा। -सम० सम ५ । सू ५। पृ० १३ पाँच आश्रव द्वार है-मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग । .११ योग मार्गणा का एक भेद है गइ इंदिए काए जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दंसणे लेस्सा भविय सम्मत्त सण्णि आहारए चेदि। -षट • खं १ । १ । सू ४ । पु १ । पृ० १३२ ___टीका-गताविन्द्रिये काये योगे वेदे कषाये ज्ञाने संयमे दर्शने लेश्यायां भव्ये सम्यक्त्वे संशिनि आहारे च जीवसमासा: मृग्यन्ते । .१२ योग सत्यपर्याप्ति का एक भेद है पजत्तिया णं भंते ! भासा कतिविहा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पपणत्ता। तं जहा-सच्चा य मोसा य| सच्चा भंते। भासा पजत्तिया कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता। तं जहा-जणवयसच्चा १ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० > सम्मतसञ्च्चा २ उवणासश्चा ३ णामसच्चा ४ रुवसच्चा ५ पडुश्चसच्चा ६ ववहारसच्चा ७ भावसच्चा ८ जोगसच्चा ९ ओवम्मसच्चा १० | - पण ० प ११ । सू ८६१-६२ | पृ० २१३ टीका - योगः सम्बन्धः तस्मात् सत्या योगसत्या, तत्र छत्रयोगात् विविक्षितशब्दप्रयोगकाले छत्राभावेऽपि छत्रयोगस्य सम्भवात् छत्री दण्डयोगात् दण्डी x x x | दसविहे सच्चे पण्णत्ते तं जहा संगहणी-गाहा - जणवय सम्मय-ठवणा, णामे रूवे पडुच्च सच्चेय | ववहार भाव जोगे, दसमे भवम्मसच्चेय | - * १४ योगबन्ध का कारण - १३ योग द्वार का एक भेद है दिसि १ गति २ इन्द्रिय ३ काए ४ जोगे ५ वेदे ६ कसाय ७ लेस्सा य ८ । सम्मत्त ९ णाणा १० दंसण ११ संजय १२ उवओग १३ आहारे १४ ॥ भासग १५ परित १६ पज्जन्त १७ सुहुम १८ सणी १९ भवत्थिए २०-२१ चरिमे २२ । जीवे य २३ खेत्त २४ बंधे २५ पोग्गल २६ महदंडए २७ चेव ॥ - पण्ण० प ३ । सू २१२ । गा १८०-८१ । पृ० ८१ -- ठाण० स्था १० । सू ८६ सकषायतः । पुद्गलानां यदादानं योग्यानां योगतः स मतो बन्धो जीवस्वातन्त्र्यकारणम् ॥ - योसा० अ ४ । श्लो १ .०२ मनोयोग की परिभाषा मननं मनः - औदारिकादिशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसमूह - साखिव्याज्जीवव्यापारो मनोयोग इति इति भावः, मन्यते वाऽनेनेति मनो-मनोद्रव्यमात्रमेवेति । -- ठाणा • स्था १ । सू १६ । टीका तनुयोगेन मनःप्रायोग्यवर्गणाभ्यो गृहीत्वा मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमितानि वस्तुखिन्ताप्रवर्तकानि द्रव्याणि मन इत्युच्यन्ते, तेन मनसा सहकारिकारणभूतेन योगो मनोयोगः ; मनोविषयो वा योगो मनोयोगः । - कर्म • • भा ४ । गा १० | टीका । पृ० १२८ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxx बज्झत्थचिंतावावदमणादो समुप्पण्णजीवपदेसपरिप्कंदो मणजोगो णाम। -षट् • खं ४, २, ४ । सू १७५ । टीका । पु १० । पृ० ४३७ मनसा योगो मनोयोगः। अथ स्यान्न द्रव्यमनसा सम्बन्धो मनोयोगः मनोयोगस्य देशोनत्रयस्त्रिंशत्सागरकालस्थितिप्रसङ्गात् । न सक्रियावस्था योगः योगस्याहोरात्रकालप्रसङ्गात् । न भावमनसा सम्बन्धो मनोयोगः तस्य ज्ञानरूपत्वतः उपयोगान्तर्भावात् इति न त्रितयविकल्योक्तदोषः, तेषामनभ्युपगमात् । कः पुनः मनोयोग इति चेद्भावमनसः समुत्पत्त्यर्थः प्रयत्नो मनोयोगः। षट० ख० १, १ । सू ४७ । टीका । पु० १ पृ. २७८-७६ मनन करना मन है। औदारिकादि शरीर के व्यापार के द्वारा गृहीत मनोद्रव्य समूह के सहयोग से होनेवाला व्यापार-चेष्टा मनोयोग कहलाता है। अथवा जिससे मनन किया जाता है वह मन अर्थात् मनोद्रव्य मात्र है। काययोग के द्वारा मनः प्रायोग्य वर्गणाओं से ग्रहण करके मनोयोग के द्वारा मन रूप से परिणमित जो पदार्थ की चिन्ता के प्रवर्तक द्रव्यों को मन कहते हैं। इस प्रकार के मन के सहकार से होनेवाला योग अर्थात् प्रवृत्ति को मनोयोग कहा जाता है। अथवा मन को विषय बनाने वाले योग को मनोयोग कहा जाता है । बाह्य पदार्थों के चिन्तन में व्यापृत मन से जो जीव-प्रदेशों का परिस्पन्दन होता है वह मनोयोग है। ___ मन के साथ योग-सम्बन्ध होना मनोयोग है। द्रव्य मन के साथ सम्बन्ध होना मनोयोग नहीं है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर देशोन तैंतीस सागर काल पर्यन्त मनोयोग की स्थिति का प्रसंग आ जायगा। सक्रियावस्था भी योग नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अहोरात्र योग की स्थिति का प्रसंग आ जायेगा । भाव मन के साथ सम्बन्ध होने को भी मनोयोग नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसके ज्ञान रूप होने के कारण उपयोग में अन्तर्भाव हो जायगा। इस प्रकार तीन विकल्पों में दिखाये गये दोष स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि वे दोष प्राप्त नहीं होते। फिर तो मनोयोग का लक्षण होना चाहिए । भावमन की उत्पत्ति के लिए किया जानेवाला प्रयत्न मनोयोग है । .०२.०१ सत्यमनोयोग की परिभाषा सन्तो मुनयः पदार्था वा तेषु यथासंख्यं मुक्तिप्रापकत्वेन यथावस्थितवस्तुस्वरूपचिन्तनेन च साधु सत्यं-अस्ति जीवः सदसदूपो देहमात्रव्यापीत्यादिरूपतया यथावस्थितवस्तुचिन्तनपरं, सत्यं च तत् मनश्च सत्यमनः तस्य प्रयोगो-व्यापारः सत्यमनःप्रयोगः xxx। -पण्ण० प १६ । सू १०६८ । टीका तत्र सन्तो मुनयः पदार्था वा, तेषु यथासंख्यं मुक्तिप्रापकत्वेन यथा Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) वस्थिततत्त्वचिन्तनेन च हितः सत्यः यथास्ति जीवः सदसद्रूपः कायप्रमाण इत्यादिरूपतया यथावस्थितवस्तुविकल्पनपर इत्यर्घः, सत्यश्वासौ मनोयोगश्च सत्यमनोयोगः १ । - कर्म ० सन्त मुनियों का तथा पदार्थों' को 'सत्' कहा जाता है। मुनियों में मुक्ति प्राप्त की अपेक्षा से तया पदार्थों में यथावस्थित पदार्थ के स्वरूप - चिन्तन की अपेक्षा से सत्य कहा जाता है, यथा जीव सदसत् रूप देहमात्र व्यापी है इत्यादि रूप से यथावस्थित पदार्थ का चिन्तन सत्य है । सत्य रूप मन - सत्यमन, उसके व्यापार को सत्यमनोयोग कहा जाता है । सत्ये मनः सत्यमनः तेन योगः सत्यमनोयोगः । - षट्० खं १, १ । सू ४६ । टीका । पु २ | पृ० २८० सत्य में व्यवस्थित मन के द्वारा योग - व्यापार को सत्यमनोयोग कहते हैं । .०२.०२ असत्यमनोयोग की परिभाषा × × × ‘असच्च मणप्पओगे' इति, सत्यविपरीतमसत्यं, यथा-: - नास्ति जीवः एकान्तसद्रूपो वेत्यादिकुविकल्पनपरं, तश्च तन्मनश्च तस्य प्रयोगोऽसत्यमनःप्रयोग x x ×। ० भा ४ । गा २४ । टीका - पण्ण० प १६ । सू १०६८ । टीका तथा सत्यविपरीतोऽसत्यः, यथा नास्ति जीव एकान्तसद्भूतो विश्वव्यापीत्यादिकुविकल्पचिन्तन परः, असत्यश्चासौ मनोयोगश्च असत्यमनोयोगः २ । • भा ४ । गा २४ । टीका । पृ० १५१ — कर्म • तद्विपरीतो मोषमनोयोगः । - षट् ० खं १, १ । सू ४६ । टीका । पु १ । पृ० २८० सत्य के विपरीत को असत्य कहा जाता है, यथा-जीव एकान्त सद्रूप नहीं है, इत्यादि प्रकार का कुविकल्प पूर्ण मन के प्रयोग-व्यापार को असत्यमनःप्रयोग या असत्यमनोयोग कहा जाता है । ०२.०३ सत्यमृषामनोयोग की परिभाषा × × × 'सच्चमो समणप्पओग' इति सत्यमृषा - सत्यासत्ये यथा - धवखदिरपलाशादिमिश्रेषु बहुष्वशोकवृक्षेषु अशोकवनमेवेदमिति विकल्पनपरं, तत्र हि कतिपय शोकवृक्षाणां सद्भावात् सत्यता अन्येषामपि धवखदिरादीनां सद्भावादसत्यता, व्यवहारनयमतापेक्षया चैवमुच्यते, परमार्थतः पुनरिदमसत्यमेव, यथाविकल्पितार्थायोगात्, तश्च तन्मनश्येत्यादि प्राग्वत् x x x 1 - पण० प १६ । सू १०६८ । टीका Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) तथा मिश्रः - सत्यासत्यमनोयोगः, यथा इह धषखदिर पलाशादिमिश्रेषु शोकवृक्षेषु अशोक बनमेवेदमिति यदा विकल्पयति तदा तत्राऽशोकवृक्षाणां सद्भावात् सत्यः, अन्येषामपि धवखदिरपलाशादीनां तत्र सद्भावात् असत्य इति सत्यासत्यमनोयोग इति व्यवहारनयमतापेक्षया चैवमुच्यते, परमार्थतः पुनरयम- सत्य एव यथाविकल्पार्थायोगात् ३ | - कर्म ० ० भा ४ । गा २४ । टीका तदुभय योगात्सत्यमोषमनोयोगः । - षट् ० • खं १, १ । सू ४६ । टीका । १ । पु० २८० जिसमें सत्य और असत्य मिश्रित हो, यथा-धव, खदिर, पलाश आदि वृक्षों से मिश्रित वन को अशोक वृक्षों की बहुलता के कारण 'अशोक वन ही है' ऐसा विकल्प मानना । यद्यपि यहाँ पर कतिपय अशोक वृक्षों के सद्भाव के कारण सत्यता है, किन्तु अन्य धव, खदिर आदि के सद्भाव के कारण असत्यता भी है । व्यवहार नय की अपेक्षा से ऐसा कहा जाता है, परमार्थतः यह असत्य ही है, क्योंकि विकल्पार्थ का योग नहीं रहता है । इस प्रकार के मन के व्यापार को सत्यमृषामनोयोग कहते हैं । .०२.०४ असत्यामृषामनोयोग की परिभाषा xxx 'असच्या मोसमणपओगे' इति यन्न सत्यं नापि मृषा तदसत्यामृषा, इह विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठासया सर्वज्ञमतानुसारेण विकल्प्यते यथा अस्ति जीवः सदसद्र ूप इति तत्किल सत्यं परिभाषितमाराधकत्वात्, यत्पुनर्विप्रतिपत्तौ सत्यां यद्वस्तुप्रतिष्ठाशयापि सर्वज्ञमतोत्तीर्ण' विकल्प्यते यथा नास्ति जीवः एकान्तनित्यो वेत्यादि तदसत्यं विराधकत्वात्, यत्पुनर्वस्तुप्रतिष्ठाशामन्तरेण स्वरूपमात्रपर्यालोचनपरं यथा - देवदत्तात् ३ घट आनेतव्यो गौर्याचनीया इत्यादिचिन्तनपरं तत् असत्यामृषा, इदं हि स्वरूपमात्रपर्यालोचनपरत्वात् न यथोत्तलक्षणं सत्यं नापि मृषा, एतदपि व्यवहारनयमतापेक्षया द्रष्टव्यं अन्यया विप्रतारणबुद्धिपूर्व कमसत्येऽन्तर्भवति अन्यत्तु सत्ये, तच्च तन्मनश्च तस्य प्रयोगोऽसत्याऽमृषामनः प्रयोगः । XXX । - पण्ण० प १६ । सू १०६८ | टीका न विद्यते सत्यं यत्र सोऽसत्यः, न विद्यते मृषा यत्र सोऽमृषः, असत्यश्वासावमृषश्व 'क' नञादिभिन्नैः (सि० ३|१|१०५) इति कर्मधारयः, असत्यामृष - श्वासौ मनोयोगश्च असत्यामृषमनोयोगः ४ । इह विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठासया XXX सर्वशमतोत्तीर्ण किञ्चिद् विकल्प्यते, यथा नास्ति जीवएका नित्यो वेत्यादि, तद् असत्यमिति परिभाषितं विराधकत्वात् । यत् पुनर्वस्तु प्रतिष्ठासामन्तरेण स्वरूपमात्रप्रतिपादनपरं व्यवहारपतितं किञ्चद् विकल्प्यते, Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) यथा हे देवदत्त ! घटमानय गां देहि मह्यमित्यादि, तद् एतत् स्वरूपमात्रप्रतिपादनं व्यावहारिक विकल्पज्ञानम् । न यथोक्तलक्षणं सत्यं नापि मृत्यसत्यामृषमनोयोग इति व्याख्यातश्चतुर्धा मनोयोगः । -कर्म० मा ४ । गा २४ । टीका ताभ्यां सत्यमोषाभ्यां व्यतिरिक्तोऽसायमोषमनोयोगः । - षट् • खं १, १ । सू ४६ । टीका । पु १ । पृ० २८१ जो न सत्य हो और न मिथ्या हो वह असत्यामृषा । विशेष जिज्ञासा रहने पर पदार्थ को प्रतिष्ठित करने की इच्छा से सर्वज्ञ मतानुसार विकल्प किया जाता है, यथा-- जीव सदसत् रूप है, यह आराधक होने के कारण सत्य कहा गया। और, फिर जिज्ञासा होनेपर पदार्थ को प्रतिष्ठित करने के लिए सर्वज्ञ मत से बाहर विकल्प किया जाता है, यथा-जीव एकान्त नित्य नहीं है, यह विराधक होने के कारण मिथ्या है। फिर, पदार्थ को प्रतिष्ठित करने की इच्छा के बिना स्वरूप मात्र का पर्यालोचन करते हुए कोई किसी को आज्ञा देता है - देवदत्त से घट ले आओ तथा गाय माँग लेना, इत्यादि चिन्तन असत्यामृषा है, क्योंकि इससे स्वरूप मात्र का पालोचन होता है, अतः यह न तो उपर्युक्त रूप से सत्य है और न मृषा। इसको भी व्यवहार नय की अपेक्षा से देखना चाहिए, अन्यथा जो कुछ देवदत्त को ठगने की बुद्धि से कहा गया उसका असत्य में जन्तर्भाव हो जायगा और जो वास्तविक है उसका अन्तर्भाव सत्य में हो जायगा। ऐसे मन के प्रयोग-व्यापार को असत्या-मृषामनोयोग कहा जाता है। ०२.०५ वचनयोग की परिभाषा चतुर्विधमनोभ्यः समुत्पन्नपचनानि चतुर्विधान्यपि तद्व्यपदेशं प्रतिलभन्ते तथा प्रतीयते च। -षट • खं १ । १ । सू ५२ । टीका । पु १ । पृ० २८६ भासावग्गणवखंधे भासारूवेण परिणामेंतस्स जीवपदेसाणं परिप्पंदो पचिजोगोणाम। -षट् • खं ४ । २ । ४ । सू १७५ । टीका । पु १० । पृ. ४३७ तथा षचसः समुत्पत्त्यर्थः प्रयत्नो वाग्योगः। ----षट • खं १ । १ । सू ४७ । टीका । पु १ । पृ१ २७६ वचनं वाक्-औदारिकवै क्रियाहारकशरीरव्यापाराहतबागद्रव्य समूहसाचिव्याजीपव्यापारो, वाग्योग इति भावः । -ठाणा० स्था १ । सू २० । टीका ____ उच्यत इति वचनं भाषापरिणामापन्नः पुद्गलद्रव्यसमूह इत्यर्थः, तेन वचनेन सहकारिकारणभूतेन योगो वचनयोगः, वचनविषयो वा योगो पचनयोगः। -कर्म० मा ४ । गा १० । टीका । पृ० १२८ भासावग्गणक्खंधे भासारूपेण परिणामेंतस्स जीवपदेसाणं परिप्फंदो वचिजोगो णाम | -षट० खं ४, २, ४ । सू १७५ । टीका । पृ १० । पृ० ४३७ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) बोलना वाक् है । औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर के व्यापार द्वारा गृहीत वाक्द्रव्य समूह के सहकार से होनेवाला जीवका व्यापार वाग्योग है । जो कहा जाता है वह वाक् है, अर्थात् भाषा परिणाम को प्राप्त पुद्गल द्रव्यसमूह है। ऐसे सहकारी कारणभूत वचन के साथ होनेवाला योग-सम्बन्ध वचनयोग है, अथवा वचन को विषय करने वाला योग-वचनयोग है । भाषावर्गणा के स्कन्धों को भाषा रूप से परिणमन करानेवाले व्यक्ति के जो जीव प्रदेशों का स्पन्दन होता है वह वचनयोग है । ०२.०६ सत्य पचनयोग की परिभाषा ___ सतांहिता सत्या, सत्या चासौ वाक् च सत्यवाक्, तथा सहकारिकारणभूतया योगो [ सत्य ] वाग्योगः, अथवा पचनगतं सत्यत्वं तत्कार्यत्वात् योगेऽप्युपश्चर्यते, ततश्च सत्यश्चासौ वाग्योगश्च सत्यवाग्योगः, भावार्थः सत्यमनोयोगवद् वाच्यः। - कर्म० भा ४ । गा २४ । टीका । पृ. १५१ चतुर्विधमनोभ्यः समुत्पन्नवचनानि चतुर्विधान्यपि तद्व्यपदेश प्रतिजभन्ते तथा प्रतीयते च। -षट् • खं १, १ । सू १७५ । टीका । पु १ । पृ०२८६ सत्-मुनि या पदार्थ के सम्बन्ध में जो हित हो वह सत्य, सत्य रूप वचन सत्यवचन, उसके सहकार से होनेवाला योग सत्यवचनयोग। अथवा, वचनगत सत्यता को कार्यरूप में परिणत करना उपचारवश योग कहा जाता है। सत्य रूप वचनयोग सत्यवचनयोग। इसका भावार्थ सत्यमनोयोग के समान समझना चाहिए । चार प्रकार के मनों से उत्पन्न वचन उसी प्रकार के नाम से व्यवहृत होते हैं तथा प्रतीत होते हैं। ०२.०७ असत्यवचनयोग की परिभाषा असत्या-सत्याद् विपरीता साचासौ पाक् चाऽसत्यवाक् तया योगोऽसत्यवाग्योगः। - कम० भा ४ । गा २४ टीका । पृ० १५१ सत्य से विपरीत वचन के साथ योग--प्रवृत्ति को असत्यवचनयोग कहते है। ०२.०८ सत्यमृषावचनयोग की परिभाषा सत्या चासावसत्या चेत्यादि पूर्ववत कर्मधारयो बहुव्रीहिर्वा, सा चासौ पाक् च सत्यासत्यवाक्, तत्प्रत्ययो योगः सत्यासत्यवाग्योगः। -कम० भा ४ । गा २४ । टीका पृ. १५१ सत्य और असत्य दोनों से मिश्रित वचन के साथ योगप्रवृत्ति को सत्यमृषावचनयोग कहते है। ०२.०९ असत्यामृषाषचनयोग की परिभाषा न विद्यते सत्यं यत्र सोऽसत्यः, न विद्यते मृषा यत्र सोऽमृषः, असत्य Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) श्वासावमृषश्चासत्यामृषः, स चासौ पाग्योगश्च असत्याभूषधाग्योगः, शेष मनोयोगवत् सर्व वाच्यम् । -कम भा ४ । गा २४ । टीका । पृ. १५१ जिसमें न सत्य हो और न मिथ्या हो, ऐसे वचन के साथ योग-आत्मप्रवृत्ति को असत्यामृषावचनयोग कहते हैं । ०२.०१० सत्यवचनयोग की परिभाषा एवं वइप्पओगोघि चउहा' इति, यथा मनःप्रयोगश्चतुर्धा तथा वाक् प्रयोगोऽपि चतुओं, यद्यथा-सत्यवाक्प्रयोगो मृषावाक्प्रयोगः सत्यामृषापाक्प्रयोगः असत्यामृषाषाक्प्रयोगः एताश्च सत्यवागादयः सत्यमनः प्रभृतिवद्भावनीया इतिः xxxi __ -पण्ण० प १६ । सू १०६८ । टीका तत्र सतां हिता सत्या, सत्या चासो वाक च सत्यवाक्, तया सहकारिकारणभूतया योयो [ सत्य ] वाग्योगः, भावार्थः सत्यमनोयोगवद् वाच्य ।। कर्म भा० ४ । गा २४ । टीका ०२.०११ मृषावचनयोग की परिभाषा xxx एताश्च सत्यवागादयः सत्यमनःप्रभृतिवद्भावनीया इति x xx। ___ --पण्ण° ५ १६ । सू १०६८ । टीका असत्या सत्याद् विपरीता चासौ वाक् चाऽसत्यवाक् तया योगोऽसत्यवाग्योगः २। -कर्म० भा ४ । गा २४ । टीका ०२.०१२ सत्यमृषावचनयोग की परिभाषा ____xxx एताश्च सत्यवागादयः सत्यमनः प्रभृतिवद्भाबनीया इति -पण्ण • प १६ । सू १०६८ । टीका सत्या वासावसत्या चेत्यादि पूर्ववत् कर्मधारयो बहुव्रीहिर्वा, सा चासो वाक् च सत्यासत्यवाक्, तत्प्रत्ययो योगः सत्यासत्यपाग्योग ३। -कम० मा ४ । गा २४ टीका .०२.०१३ असत्यामृषावचनयोग की परिभाषा xxx एताश्च सत्यवागादयः सत्यमनः प्रभृतिवद्भावनीया इति।xxx। -पण्ण० प १६ । सू १०६८। टीका न विद्यते सत्यं यत्र सोऽसत्यः, न विद्यते मृषा यत्र सोऽमृषः, असत्यश्चासाघमृषश्चासत्यामृषः, सचासौ वाग्योगश्च असत्यामृषवाग्योगः, शेषं मनोयोगवत् सर्व वाच्यम् ४ । -कम० मा ४। गा २४ । टीका xxx Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) .०२.०१४ काययोग के लक्षण चीयत इति कायः-शरीरं तस्य व्यायामो व्यापारः कायव्यायामः औदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणति विशेष इति भावः । -ठाण• स्था १ । सू २१ । टीका तनोति-विस्तारयत्यात्मप्रदेशानस्यामिति तनुरौदारिकशरीरं तया सहकारिकारणभूतया योगस्तनुयोगः, तनुविषयो वा योगस्तनुयोगः।। -कम० मा ४ । गा १० । टीका । पृ० १२८ पात-पित्त-सेभादीहि जणिदपरिस्समेण जादजीवपरिप्फंदो कायजोगो णाम। -षट • खं ४, २, ४ । सू १७५ । टीका । पु १० । पृ० ४३८ जो एकत्र किया जाता है वह काय अर्थात शरीर, उसका व्यायाम अर्थात व्यापार काय व्यायाम है अर्थात औदारिक आदि शरीर से युक्त जीव का वीर्य परिणाम विशेष काययोग कहलाता है। जिसमें आत्मप्रदेशों को विस्तृत किया जाता है वह औदारिक आदि शरीर, उसके सहकारी कारण रूप से होनेवाला योग काययोग है । अयवा काय को विषय बनानेवाला योग काययोग है। ___ वात, पित्त, जंभाई आदि के द्वारा उत्पन्न श्रम से जो जीवप्रदेशों का परिस्पन्दन होता है वह काययोग है। .०२.०१५ औदारिकमिभ काययोग की परिभाषा xxx 'औदारिकमिश्रकायशरीरप्रयोग' इति औदारिकं च तन्मिश्रं च औदारिकमिश्र, केन सह मिश्रितमितिचेत् ? उच्यते, कार्मणेन, तथा चोक्त नियुक्तिकारेण शस्त्र ( आहार ) परिक्षाध्ययने-'जोएणं कम्मएणं आहारेइ अणंतरं जीवो। तेण परं मीसेणं जाव सरीरस्स निप्फत्ती ॥१॥ xxx । ननु मिश्रत्वमुभयनिष्ठं, तथाहि-यथा औरारिक कार्मणेन मिनं तथा कार्मणमपि औदारिकेण मिश्रं ततः कस्मादौदारिकमेव तदुच्यते न कार्मणमिश्रमिति ? उच्यते, इह व्यपदेशः स प्रवर्तनीयो येन विवक्षितार्थप्रतिपत्तिनिष्पतिपक्षा श्रोतृणामुपजायते, अन्यथा सन्देहापत्तितो विवक्षितार्थाप्रतिपत्त्या न तेषामुपकारः कृतः स्यात्, कार्मणं च शरीरमासंसारमविच्छेदेनावस्थितत्वात् सकलेवपि शरीरेषु सम्मवति, ततः कार्मणमिश्रमिन्युक्तेन ज्ञायते कि तिर्यग्मनुष्याणामपर्यातावस्थायां तद्विवक्षितमुत देवनारकाणामिति ? तत उत्पत्तिमाश्रित्यौदारिकस्य प्रधानत्वात् कादाचित्कत्वाञ्च निष्प्रतिपक्षविवक्षितार्थप्रतिपत्त्यर्थमौदारिकेण Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) व्यपदिश्यते-औदारिक मिश्रमिति, तथा यदौदारिकशरीरो वैक्रियलब्धि सम्पन्नो मनुष्यस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियः पर्याप्तकबादरवायुकाथिको वा वैक्रियं करोति तदा किलौदारिकशरीरप्रयोग एव वर्तमानः प्रदेशान् विक्षिप्य बैंक्रियशरीरयोग्यान् पुद्गलानुपादाय वै क्रियशरीरपर्याप्त्या यावन्न पर्याप्तिमुपगच्छति तावत् यद्यपि वैक्रियेण मिश्रतौदारिकश्चोभयनिष्ठा तथाप्यौदारिकस्य प्रारम्भकतया प्रधानत्वात् तेन व्यपदेश औदारिकमिश्रमिति, न वैक्रियेणेति, तथा आहारकमपि शरीरं यदा कश्चिदाहारकलब्धिमान् पूर्वधरः करोति तदा यद्यप्याहारकेण मिश्रत्वमौदारिकस्योभयनिष्ठं तथाप्यौदारिकमारंभकतया प्रधानमिति तेन व्यपदेशप्रवृत्तिरौदारिकमिश्रमिति, न त्वाहारकेणेति, औदारिकमिधं च तत् शरीरं चेत्यादि पूर्वपत् २। -पण्ण० प १६ । सू १०६८ । टीका औदारिक मिश्रं यत्र कार्मणेनेति गम्यते स औदारिकमिश्रं, उत्पत्तिदेशेहि पूर्व भवादनन्तरमागतो जीवः प्रथमसमये कार्मणेनैव केवलेनाऽऽहारयति, ततः परमौदारिकस्याऽप्यारब्धत्वात् औदारिकेण कार्मणमिश्रेण याबत् शरीरनिष्पत्तिः। x x xकेवलिसमुद्घातावस्थायां तु द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेषु कार्मणेन मिश्रमौदारिकम् प्रतीतमेव, “मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तमषष्ठद्वितीयेषु ।' (प्रश०का० २७६) इति वचनात्, औदारिकमिश्रश्वालोकायश्च तेनयोग औदारिकमिश्नकाययोगः६। -कर्म० भा ४ । गा २४ । टीका .०२.०१६ औदारिकमिश्रकाययोग की परिभाषा कार्मणौदारिकस्कन्धाभ्यां जनितवीर्यात्तत्परिस्पन्दनार्थः प्रयत्नः औदारिकमिश्नकाययोगः। उदारः पुरुः महानित्यर्थः, तत्र भवं शरीरमौदारिकम् । अथ स्यान्न महत्त्वमौदारिकस्य १ कथमेतदवगम्यते ? वर्गणासूत्रात् । कि तद्वर्गणासूत्रमिति चेदुच्यते 'सव्वत्थोया ओरालियसरीर-दव्य-वग्गणा-पदेसा, वेउच्चिय-सरीर-दब्व-वग्गणा-पदेसा असंखेजगुणा, आहार-सरीर-दव्य घग्गणापदेसा असंखेजगुणा, तेया-सरीर-दव्व-पग्गणा-पदेसा अणंतगुणा, भासा-दव्यवग्गणा-पदेसा अणंतगुणा, मण-श्व-वग्गणा-पदेसा अणंतगुणा, कम्मइय-सरीरदव्व-वग्गणा-पदेसा अर्णतगुणा त्ति ।' न, अवगाहनापेक्षया औदारिकशरीरस्य महत्त्वोपपत्तेः। यथा 'सम्वत्थोवा कम्मइय-सरीर-दव-वग्गणाए ओगाहणा, मण-दव्य-वग्गणाए ओगाहणा असंखेजगुणा, भासा-दव्य-वग्गणाए ओगाहणा ' असंखेजगुणा, तेया-सरीर दव-वग्गणाप ओगाहणा असंखेजगुणा, आहार Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) सरीर-दव-वग्गणाए ओगाहणा असंखेजगुणा, वेउब्धिय-सरीर-दव्व-वग्गणाए ओगाहणा असंखेजगुणा, ओरालिय-सरीर-दव्व-वग्गणाप ओगाहणा असंखेजगुणा ति । ----षट ० खं १, १ । सू ५६ । टीका । पृ १ । पृ० २६० औदारिकमिश्र में मिश्रता किसके साथ है ? इसके उत्तर में कहा गया है-कार्मण के साथ । जैसा कि शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में नियुक्तिकार ने कहा है --- जन्म के अनन्तर जीव कामण योग के द्वारा आहार ग्रहण करता है, उसके बाद जब तक शरीर की निष्पत्ति होती है तब तक मिश्र योग के द्वारा आहार ग्रहण करता है। यहाँ पर मिश्रता तो उभयनिष्ठ है, यथा- औदारिक कार्मण से मिश्रित है उसी प्रकार कार्णण भी औदारिक से मिश्रित है। इस स्थिति में क्या कारण है इसको औदारिक ही कहा जाता है, कामण नहीं कहा जाता है। कहा जाता है-कथन ऐसा होना चाहिए जिससे श्रोताओं को विवक्षित अर्थ की प्रतिपत्ति निष्प्रतिपक्ष मालूम हो। अन्यथा सन्देहापन्न होने से विवक्षितार्थ की प्रतिपत्ति नहीं होगी, फिर श्रोताओं का उपकार नहीं हो सका। कार्मण शरीर तो संसारी जीवों के सभी शरीरों में जीवन पर्यन्त संभव है, फिर तो कामणमिश्र कहने से यह नहीं जाना जाता है कि तिर्यच और मनुष्यों के अपर्याप्त अवस्था में होने वाला योग है अथवा देवों और नारकियों में होने वाला योग है। फिर तो उत्पत्ति की अपेक्षा से औदारिक की प्रधानता रहती है तथा यह योग कदाचित होनेवाला है। अतएव तटस्थ रूप से विवक्षितार्थ को समझाने के लिए औदारिक के साथ कहा जाता है-औदारिक मिश्र । जब औदारिक शरीरी वे क्रिय लब्धियुक्त मनुष्य और तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय अथवा पर्याप्त बादर बायुकायिक वैक्रिय करता है तब तो औदारिक काययोग में वर्तमान रहकर ही प्रदेशों को विक्षिप्त कर वैक्रिय शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर वैक्रिय शरीर की पर्याप्ति से जब तक पर्याप्त नहीं हो जाता है तब तक यद्यपि वैक्रिय के साथ मिश्रता औदारिक शरीर की उभयनिष्ठ रहती है अर्थात वैक्रिय और कामण दोनों के साथ मिश्रता रहती है तथापि औदारिक शरीर से प्रारम्भ होने के कारण प्रधानता रहती है, अतः कहा जाता है-औदारिकमिश्र किन्तु वे क्रियमिश्र नहीं कहा जाता है। जब कोई आहारक लब्धि सम्पन्न पूर्वधर आहारक शरीर धारण करता है तब यद्यपि आहारक के साथ मिश्रता औदारिक शरीर की उभयनिष्ठ रहती है तथापि औदारिक शरीर के आरम्भक होने के कारण प्रधानता रहती है इसलिए कहा जाता है औदारिकमिश्र। आहारक के साथ भी मिश्रता स्वीकार नहीं की गई। जहाँ कार्मण के साथ औदारिक की मिश्रता होती है उसको औदारिक मिश्र कहा जाता है। उत्पत्ति स्थान में पूर्व भव से आने के तुरन्त बाद प्रथम समय में जीव केवल कार्मण योग से ही आहार ग्रहण करता है, उसके बाद औदारिक का आरम्भ हो जाता है तथा जब तक शरीर की निष्पत्ति होती है तब तक कार्मण मिश्रित औदारिक योग से आहार ग्रहण करता है। केवली की समुद्घातावस्था के द्वितीय, षष्ठ और सप्तम समय में कार्मण से मिश्रित औदारिक योग का कथन आगम में स्पष्ट रूप से किया गया है। औदारिकमिश्र रूप काय के साथ योग-प्रवृत्ति को औदारिकमिश्र काययोग कहा जाता है । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८० ) कामण और औदारिक के स्कन्धजनित वीर्य से उसके परिस्पन्दन के निमित्त किया गया प्रयत्न औदारिकमिश्न काययोग कहलाता है। उदार शब्द का अर्थ होता है पुरु अर्थात् महान्, उसमें होनेवाला शरीर औदारिक । वर्गणासूत्र के आधार पर जाना जाता है कि औदारिक का महत्त्व यहाँ पर नहीं है। वह वर्गणासूत्र है-औदारिक शरीर द्रव्य वर्गणा प्रदेश सबसे स्तोक हैं। उससे वैक्रिय शरीर द्रव्य वर्गणा प्रदेश असंख्यातगुणा हैं। उससे आहारक शरीर द्रव्य बर्गणा प्रदेश असंख्यातगुणा हैं। उससे तेजस शरीर द्रव्य वर्गणा प्रदेश अनन्तगुणा हैं। उससे भाषा द्रव्य वर्गणा प्रदेश अनन्तगुणा हैं। उससे मन द्रव्य वर्गणा प्रदेश अनन्तगुणा है । उससे कामण शरीर द्रव्य वर्गणा प्रदेश अनन्तगुणा है। किन्तु ऐसा कहा नहीं जा सकता है। औदारिक शरीर का महत्त्व अवगाहना की अपेक्षा से माना जाता है। यथा-- कामण शरीर द्रव्य वर्गणा की अवगाहना सबसे स्तोक है। उसते मन द्रव्य वर्मणा की अवगाहना असंख्यातगुनी है । उससे भाषा द्रव्य वर्गणा की अवगाहना असंख्यातगुनी है। उससे तेजस शरीर द्रव्य वर्गणा की अवगाहना असंख्यातगुनी है। उससे आहारक शरीर द्रव्य वर्गणा की अवगाहना असंख्यातगुनी है। उससे वैक्रिय शरीर द्रव्य वर्गणा की अवगाहना असंख्यातगुनी है। उससे औदारिक शरीर द्रव्य वर्गणा की अवगाहना असंख्यातगुनी है। ०२.१७ वैक्रिय काययोग की परिभाषा वैक्रियशरीरकायप्रयोगो वै क्रियशरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य ३। -पण्ण० प १६ । सू १.६८ । टीका विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियम् । तथाहितदेकं भूत्वाऽनेकं भवति, अनेक भूत्वेकम्, अणु भूत्वा महद् भवति, महद् भूत्वाऽणु, तथा खचरं भूत्वा भूमिवरं भवति, भूमिचरं भूत्वा खचरम् , अदृश्यं भूत्वा दृश्यं भवति, दृश्यं भूत्वाऽदृश्यमित्यादि। यद्वा विशिष्टं कुर्वन्ति तदिति वैकुर्विकम्, पृषोदरादित्वाद् अभीष्टरूपसिद्धिः। तच द्विधा-औपपातिक लब्धिप्रत्ययं च। तत्रोपपातिकमुपपातजन्मनिमित्तम्, तश्च देवनारकाणाम् लब्धिप्रत्ययं तियङ्मनुष्याणाम् ।xxx। तदेव काययोगस्तन्मयो व योगो वैक्रियकाययोगो वैकुर्षिककाययोगो वा १ -कर्म० मा ४ । गा २४ । टीका अणिमादिविक्रिया, तद्योगात्पुद्गलाश्च विक्रियेति भण्यन्ते । तत्र भवं शरीरं वैक्रियम् । तदवष्टम्भतः समुत्पन्नपरिस्पन्देन योगः वैक्रियकाययोगः । -षट • खं० १, १ । सू ५६ । टीका । पृ १ । पृ. २६१ वैक्रियशरीर की पर्याप्ति से पर्याप्त शरीर की चेष्टा को वैक्रियशरीर-कायप्रयोग कहते है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१ ) अथवा विविध या विशिष्ट क्रिया को विक्रिया कहते हैं, उसमें होनेवाले को वैक्रिय कहा जाता है। यथा - एक होकर अनेक हो जाता है, अनेक होकर एक हो जाता है, अणु - सूक्ष्मतम होकर विशाल बन जाता है, विशाल होकर अणु बन जाता है, खचरआकाशचारी होकर भूमिचर हो जाता है, भूमिचर होकर खचर हो जाता है, अवश्य होकर दृश्य हो जाता है तथा दृश्य होकर अदृश्य हो जाता है इत्यादि । जिससे विशिष्ट कार्य करते हैं वह वैकुर्विक है, पृषोदरादि गण के आधार पर अभीष्ट रूप सिद्ध होता है | वह वैकुर्विक दो प्रकार का होता है - औपपातिक और लब्धिप्रत्यय । उपपात या जन्म के निमित्त से होनेवाला औपपातिक है जो देव और नारकियों में होता है । लब्धप्रत्यय तिर्यंच और मनुष्यों में होता है । उसी रूप का काययोग या तन्मय होनेवाला योग वैक्रिय काययोग या वैकुर्विककाययोग कहा जाता है । अणिमादि को विक्रिया कहा जाता है उसके योग से पुद्गलों को भी विक्रिया कहा जाता है, उनमें होनेवाले शरीर को वैक्रिय कहा जाता है । उसको आश्रव मानकर उत्पन्न होनेवाले परिस्पन्दन के साथ होनेवाले योग - प्रवृत्ति को वैक्रियकाययोग कहते हैं । ०२१८ औदारिक काययोग की परिभाषा (क) 'ओराजियसरीरकायप्पओगे' इति x x x औदारिकमेव शरीरं तदेव पुद्गलस्कन्धसमुदायरूपत्वात् उपचीयमानत्वाश्च कायः औदारिककायः तस्य प्रयोगः औदारिकशरीरकायप्रयोगः अयं व तिरश्चो मनुष्यस्य च पर्याप्तस्य १ । - पण्ण० प १६ । सू १०६८ टीका (ख) इह प्रसिद्ध XXX श्री हरिभद्रसूरिदर्शिता व्युत्पत्तिलिख्यतेतत्थ ताव उदारं उरालं उरलं ओरालं वा । तित्थगरगणधर सरीराई पडुश्च उदार gas, न तभउदारतरमन्नमस्थि काउं, उदारं नाम प्रधानम् । उदारं नाम विस्तरालं विशालमिति वा, जं भणियं होइ कह ? साइरेगजोयणसहस्समपट्टि - यमाणमोरालियं अन्नमिद्दहमित्तं नत्थि, वेउब्वियं हुजइ लक्खमहिये अवहियं पंधणुयाई अहे सत्तमाए, इत्थं पुण अवट्टियपमाणं अइरेगं जोयणसहसं वनस्पत्यादीनामिति । उरालं नाम स्वल्पप्रदेशोपचितत्वात् वृहत्वाश्च भिण्डवात् । ओरालं नाम मांसास्थिस्नाय्वाद्यवयवबद्धत्वात् । (अनु० हा०टी०पत्र ८७ ) XXX। सर्वत्र स्वार्थिक इकप्रत्ययः, उदारमेव उरालमेब उरलमेव ओरालमेव औदारिकम् पृषोदरादित्वात् इष्टरूपनिष्पत्तिः [ औदारिकमेव चीयमानत्वात् कायः, तेन सहकारिकारणभूतेन तद्विषयो वा योग औदारिककाययोगः ५ । ] • कर्म • ० भा ४ । गा २४ । टीका पृ० १५२-५३ औदा- षट् ० खं १, १ । सू ५६ टीका । १ । २६८ (ग) औदारिकशरीरजनितवीर्याजीवपरिस्पन्दननिबन्धनप्रयत्नः fraकाययोगः 1 Jain Educationernational Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) (क) उदार शब्द से स्वार्थ में इस प्रत्यय करके औदारिक शब्द बनता है तथा पुद्गलस्कन्धों के समुदाय रूप तथा बढ़ते रहने के कारण काय कहा जाता है। औदारिक रूप काय के प्रयोग अर्थात् आत्मप्रवृत्ति को औदारिक कायप्रयोग या औदारिक काययोग कहते हैं। (ख) उदार, उराल, उरल तथा ओराल-सभी पर्यायवाची शब्द हैं। तीर्थ कर और गणघर के शरीरों की अपेक्षा से इसे उदार कहा जाता है। इससे उदारतर दूसरा नहीं है। उदार का अर्थ होता है प्रधान, विस्तराल तथा विशाल। इस विशालता का कारण है-औदारिक शरीर की अवस्थिति प्रमाण है साधिक सहस्र योजन दूसरे की अवस्थिति ऐसी नहीं होती है। वैक्रिय शरीर की साधिक लक्ष योजन होती है। अधः सप्तम पृथ्वी की अवस्थिति पाँच सौ धनुष तथा वनस्पतियों की अवस्थिति साधिक सहस्र योजन होती है। उराल का अभिप्राय होता है स्वल्प प्रदेश में बढ़ने से तथा बृहत होने से, यथा मिट्टी का टीला या भिंड। ओराल का अभिप्राय होता है मांस, अस्थि, स्नायु आदि अवयवों से बद्ध होना । औदारिक को ही उपचय-वृद्धि होने के कारण काय कहा जाता है, उसके सहयोग से या तद्विषयक योग-प्रवृत्ति को औदारिक काययोग कहा जाता है । . (ग) औदारिक शरीरजतित वीर्य से जीव का परिस्पन्दन रूप योग-प्रवृत्ति को औदारिक काययोग कहते हैं । .०२.०१९ वैक्रियमिश्रकाययोग की परिभाषा वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगो देवनारकाणामपप्तिावस्थायां, मिश्रता च तदानी कार्मणेन सह वेदितव्या, अत्राक्षेपपरिहारौ प्राग्वत्, तथा यदा मनुष्यस्तियंपञ्च न्द्रियो वायुकायिको वा वै क्रियशरीरी भूत्वा कृत कार्यों वैक्रियं परिजिहीर्घरौदारिके प्रवेष्टुं यतते तदा किल वैक्रियशरीरबलेनौदारिकोपादानाय प्रवर्तते इति वैक्रियस्य प्रधान्यात्तेन व्यपदेशो नौदारिकेणेति वैक्रियमिश्रमिति ४। -पण्ण० प १६ । सू १०६८ । टीका वैक्रियं मित्रं यत्र कार्मणेन औदारिकेण पा स वैक्रियमिश्रः, तत्र कार्मणेन मिश्रं देवनारकाणामपर्याप्तावस्थायां प्रथमसमयादनन्तरम्, बादरपर्याप्तकयोः पञ्चेन्द्रियतिथंङ्मनुष्याणां च वैक्रियलब्धिमतांवै क्रियारम्भकाले वैक्रिय परित्यागकाले षा औदारिकेण मिश्रम्, ततोवै क्रियमि श्चासौ कायश्च वैक्रियमिश्रकायस्तेन, योगो वैक्रियमिश्रकाययोगः२। कम० भा ४ । गा २४ । टीका कार्मण-वैक्रियकस्कन्धतः समुत्पन्नवीर्येण योगः वैक्रियमिश्र काययोगः । -षट्० खं १, १ । सू ५६ । टीका । पृ १ । पृ० २६१ वैक्रियमिश्रशरीर कायप्रयोग देव और नारकियों में अपर्याप्त अवस्था में होता है । उस समय मिश्रता कामण के साथ समझनी चाहिए। जब मनुष्य और तियच पंचेन्द्रिय अथवा Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) वायुकायिक जीव वैक्रिय शरीर धारण कर अपना कार्य समाप्त कर लेता है तथा वैक्रिय शरीर को छोड़ना चाहता है और औदारिक शरीर में प्रवेश करने की चेष्टा करता है उस समय वैक्रिय शरीर के बल से औदारिक शरीर को पाने के लिए प्रवृत्त होता है । इस प्रकार वैक्रिय की प्रधानता के कारण उसी नाम से व्यवहार होता है, औदारिक नाम से नहीं होता है। यह वे क्रियमिश्र शरीर काययोग है।। ____ जहाँ पर कामण या औदारिक के साथ वैक्रिय मिश्रित रहता है उसको वैक्रियमिश्र कहा जाता है। कार्मण के साथ मिश्रता देव और नारकियों की अपर्याप्तावस्था में प्रथम समय के अनन्तर रहती है। दोनों बादर पर्याप्त और वैक्रिय लब्धि सम्पन्न पंचेन्द्रिय तिर्यच व मनुष्यों के वैक्रिय के आरम्भकाल में तथा वैक्रिय के परित्यागकाल में औदारिक के साथ मिश्रता है। वे क्रियमिश्र रूप काय के साथ योग-प्रवृत्ति को वे क्रियमिश्रकाययोग कहते है। ___ कार्मण और वैक्रिय के स्कन्धों से उत्पन्न वीर्य के साथ योग-प्रवृत्ति को वैक्रियमिश्र काययोग कहते हैं। ०२.०२० आहारक काययोग की परिभाषा आहारकशरीरकायप्रयोगः आहारकशरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य ५। पण्ण० प १६ । सू १०६८ । टीका चतुर्दशपूर्व विदा तथाविधकार्योत्पत्तौ विशिष्टलब्धिषशाद् आह्रियते निर्वय॑ते इत्याहारकम्, अथवाऽऽह्रियन्ते गृह्यन्ते तीर्थकरादिसमीपे सूक्ष्मा जीवादवः पदार्था अनेनेत्याहारकम् xxx । तदेष कायस्तेन योग आहारककाययोगः । -कम० भा ४ । गा २४ । टीका आहारकशरीरकायप्रयोग आहारकशरीर की पर्याप्ति से पर्याप्त जीव के होता है । चतुर्दश पूर्वधर के द्वारा उस प्रकार के कार्य सामने आ जाने पर विशिष्ट लब्धि के बल से जिस ( लघुशरीर) का आहरण अर्थात निष्पादन किया जाता है वह आहारक है। अथवा तीर्थ कर आदि के समीप में जिसके द्वारा सूक्ष्म जीवादि पदार्थ आहरण अर्थात् ग्रहण किये जाते हैं वह आहारक है, इस रूप काय के साथ योग-प्रवृत्ति को आहारककाययोग कहते हैं। -०२.०२१ आहारकमिश्न काययोग की परिभाषा आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगः आहारकादौदारिकं प्रविशतः, एतदुक्तं भवति-यदा आहारकशरीरीभूत्वा कृतकार्यः पुनरप्यौदारिक गृह णाति तदा यद्यपि मिश्रत्वमुभयनिष्ठं तथाप्यौदारिके प्रवेश आहारकबलेनेत्याहारकस्य प्रधानत्वात् तेन व्यपदेशो नौदारिकेणाहारकमिश्रमिति ६। एतच्च सिद्धान्ताभिप्रायेणोक्तं, कार्मग्रंथिकाः पुनर्वै क्रियस्य प्रारम्भकाले परित्यागकाले च क्रिय Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) मित्रमाहारकशरीरस्य प्रारम्भकाले परित्यागकाले च आहारकमिश्रं, न त्वेकस्यामप्यवस्थायामौदारिकमिश्रमिति प्रतिपन्नाः। - पण्ण० प १६ । सू १.६८ । टीका आहारक मिश्रं यत्र औदारिकेणेति गम्यते स आहारकमिश्रः, सिद्धप्रयोजनस्य चतुर्दशपूर्व विद आहारकं परित्यजत औदारिकमुपाददानस्य आहारक प्रारभमाणस्य वा प्राप्यते, स एव कायस्तेन योग आहारकमिश्रकाययोगः ४। -कर्म० भा ४ । गा २४ । टीका आहारकमिश्रस्तु साधिताहारककायप्रयोजनः पुनरौदारिकप्रवेशे औदारिकेणेति। -ठाणा० स्था ३ । उ १ । सू १३ । टीका । पृ• ५४१ आहार-कार्मणस्कन्धतः समुत्पन्नवीर्येण योगः आहारमिश्रकायथोगः। -षट् ० खं १, १ । सू ५६ । टीका । पु १ । पृ० २६३ आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोग आहारक शरीर से औदारिक शरीर में प्रवेश करते समय होता है। ऐसा कहा जाता है-- जब आहारक शरीर धारण करनेवाला जीव कृतकार्य होकर अर्थात् अपना उद्देश्य पूर्ण कर पुनः औदारिक शरीर को ग्रहण करता है तब यद्यपि मिश्रता उभयनिष्ठ होती है तथापि औदारिक शरीर में प्रवेश आहारक शरीर के बल से होता है, अतः आहारक की प्रधानता रहती है और उसी नाम से प्रसिद्धि पाता है, औदारिक नाम से कथन नहीं होता है। यह सिद्धान्त के अभिप्राय से कहा गया है, कर्मग्रन्थकारों के अनुसार वैक्रियशरीर के प्रारम्भकाल और परित्यागकाल में वैक्रिय मिश्र रहता है तथा आहारक शरीर के प्रारम्भकाल और परित्यागकाल में आहार कमिश्र रहता है, किन्तु किसी भी अवस्था में औदारिकमिश्र नहीं रहता है । जहाँ पर आहारक शरीर औरारिक से मिश्रित रहता है वह आहारकमिश्र है। यह चतुर्दश पूर्वधारी के जिस निमित्त से आहारक शरीर धारण करता है वह प्रयोजन सिद्ध कर आहारक शरीर का परित्याग करते समय और औदारिक को ग्रहण करते समय तथा आहारक शरीर का प्रारम्भ करते समय प्राप्त होता है, तद रूप काय के द्वारा होनेवाले योग-प्रवृत्ति को आहारकमिश्र काययोग कहते है । आहारक शरीर के द्वारा होनेवाला कार्य सिद्ध हो जाने पर फिर औदारिक शरीर में प्रवेश करते समय आहारकमिश्र काययोग होता है। आहारक और कार्मण शरीर के स्कन्धों से उत्पन्न वीर्य-पराक्रम के द्वारा होनेवाले योग--सम्बन्ध को आहारक मिश्रा काययोग कहते हैं । ०२.०२२ कार्मण काययोग की परिभाषा तैजसकार्मणशरीरप्रयोगो विग्रहगतौ समुद्घातावस्थायां वा सयोगिकेवलिनस्तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु, इह तैजसं कार्मणेन सहाव्यभिचारीति युगपत्तैजसकार्मणग्रहणम् । -पण्ण० प १६ । स १०६८ । टीका Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मणो विकारः कार्मणम्, “विकारे" ( सि०६२।३०) अण प्रत्ययः, यद्वा कर्मैव कार्मणम्, “प्रशादिभ्योऽण" (सि० ७।२।१६५) [ इत्यण ] प्रत्ययः, कमपरमाणव एवात्मप्रदेशैः सह क्षीरनीरवद् अन्योन्यानुगताः सन्तः कार्मणं शरीरम् । उक्तं च कम्मविगारो कम्मणमट्टविहविचित्तकम्मनिष्फलं । सम्वेसि सरीराणं, कारणभूयं मुणेयव्वं ॥ ( अनु० हा० टी० पत्र ८७) अत्र 'सन्वेसिं' इति सर्वेषामौदारिकादीनां शरीराणां कारणभूतं-बीजभूतं कार्मणशरीरम्, न खल्वामूलमुच्छिन्ने भवप्रपन्चप्ररोह-बीजभूते कार्मणे वपुषि शेषशरीरप्रादुर्भावसम्भवः । इदं व कार्मणशरीरं जन्तोर्गत्यन्तरसंक्रान्तौ साधकतमं करणम् । तथाहि कार्मणेनैव वपुषा परिकरितो जन्तुर्मरणदेशमपहायोत्पत्तिदेशमुपसर्पति । ननु यदि कामणवपुःपरिकरितो गत्यन्तरं संक्रामति तर्हि गच्छन् कस्मात नोपलक्ष्यते ? [ उच्यते ] कर्मपुद्गलानामति सूक्ष्मतया चक्षुरादीन्द्रियागोचरत्वात् । आह च प्रज्ञाकरगुप्तोऽपि अन्तरा भवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वान्नोपलक्ष्यते । निष्क्रामन् प्रविशत् वाऽपि नाभावोऽनीक्षणादपि ॥ कार्मणमेव कायस्तेन योगः कार्मणकाययोगः ७. -कम भा ४ । गा २४ । टीका कार्मणस्तु विग्रहे केवलिसमुद्घाते वेति । -ठाण• स्था ३ । उ १ । सू १३ । टीका । पृ० कर्मैव कार्मणम् शरीरम्, अष्टकमस्कन्ध इति यावत् । अथवा कर्मणि भवं कार्मणं शरीरं नामकर्मावयवस्य कर्मणो ग्रहणम् । तेन योगः कार्मण काययोगः। केवलेन कर्मणा जनितवीर्येण सहयोग इति यावत्। -षट् खं १, १ । सू ५६ । टीका । पृ १ । पृ० २६५ तेजस-कामणशरीरकायप्रयोग जीव की विग्रहगति में या सयोगिकेवली की समुदघातावस्था के तृतीय, चतुर्थ और पंचम समय में होता है । यहाँ पर तेजस शब्द कार्मण के साथ अव्यभिचारी रूप से प्रयुक्त होता है, अतः एक साथ तेजस और कार्मण का ग्रहण हुआ है। कर्म का विकार कामण या कर्म ही कामण । कर्म परमाणु ही आत्मप्रदेशों के साथ क्षीर-नीर की तरह परस्पर सम्मिलित हो जानेपर कार्मण शरीर बनता है। कहा गया है Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) कर्मों का विकार कार्मण है, जो आठ प्रकार के विचित्र कर्मों के द्वारा निष्पन्न होता है तथा यह सभी औदारिका दि शरीरों का बीजभूत कार्मण शरीर है, क्योंकि भवप्रपञ्च रूप वृक्ष के वीजभूत कार्मण शरीर के आमूल नष्ट हो जानेपर शेष शरीरों का प्रादुर्भाव होना संभव नहीं है। __ यह कार्मणशरीर जीव के गत्यन्तर संक्रमण करने में प्रमुख कारण है। कामण शरीर से ही परिकरित-सुरक्षित होकर जीव मरणदेश को छोड़कर उत्पत्तिदेश में उपसर्पण करता है। __ यद्यपि कामणशरीर से घिरकर जीव गत्यन्तर में संक्रमण करता है तथापि जाता हुआ देखा नहीं जाता है, क्योंकि कर्म पुद्गलों के अति सूक्ष्म होने के कारण चक्षुरादि इन्द्रियों के अगोचर रहता है। प्रज्ञाकरगुप्त ने कहा है भवशरीर पास से निष्क्रमण या प्रवेश करते हुए सूक्ष्मता के कारण दिखाई नहीं देता है, किन्तु दिखाई नहीं देने के कारण उसका अभाव नहीं है। कार्मण रूप काय से वोगप्रवृत्ति को कामण काययोग कहते हैं। कार्मण काययोग जीव की विग्रहगति में तथा केवली के ससुद्घातावस्था में होता है। कर्म ही कामण शरीर है अर्थात आठ प्रकार के कर्मस्कन्ध है। अथवा कर्म में होने वाला कार्मण शरीर है, इससे नामकर्म के अवयव रूप कर्म का ग्रहण होता है। इस प्रकार के काय के द्वारा होनेवाला योग-प्रवृत्ति को कामणकाययोग कहते है। अर्थात् यह केवल कर्मजनित वीर्य के द्वारा होनेवाला योग है । ०२०२३ सत्यमनोयोग का लक्षण सत्यार्थालोचननिबन्धनं मनः सत्यमनस्तस्य प्रयोगो-व्यापारः सत्यमनः प्रयोगः। -सम० सम १५ । सू १५ । टीका । पृ०८४६ सम्भावमणो सञ्चो जो जोगो तेण सञ्चमणजोगो। -गोजी० गा २१७ सत्यार्थ के आलोचन में व्यापृत मन के प्रयोग-व्यापार को सत्यमनःप्रयोग या सत्यमनोयोग कहते है। सत्ये मनः सत्यमनः तेन योगः सत्यमनोयोगः । -षट खं १, १ । सू ४६ । टीका । पु १ । पृ० २८० सत्यनिष्ठ मन के योग-व्यापार को सत्यमनोयोग कहते हैं । •०२०२४ असत्यमनोयोग के लक्षण सत्यविपरीतमसत्यं x x x| - पण्ण० प १६ । सू१०६८ । टीका Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७ ) तविपरीभो मोसोxxxi -गोजी० गा २१७ तद्विपरीतो मोषमनोयोगः। -षट • नं १, १ । सू ४६ । टीका । पु १ । पृ. २८० उपर्यक्त सत्य के विपरीत मनः के व्यापार को असत्यमनोयोग या मृषामनोयोग कहते हैं। .०२ २५ सत्यमृषामनोयोग का लक्षण जाणुभयं सचमोसोत्ति ।। -गोजी० गा २१७ जिसमें उपर्युक्त सत्य और असत्य दोनों का मिश्रण हो उसको सत्यमृषामनोयोग कहते हैं। ०२.०२६ असत्यमृषामनोयोग का लक्षण ण य सञ्चमोसजुत्तो जो दु मणो सो असञ्चमोसमणो। जो जोगो तेण हवे असचमोसो दु मणजोगो॥ -गोजी• गा २१८ जो न सत्य हो और न मिथ्या हो, ऐसे असत्यमृषा मन के द्वारा होनेवाले योग को असत्यमृषामनोयोग कहते हैं । •०२.०२७ सत्यवचनयोग का लक्षण दसविहसच्चे षयणे जो जोगो सो दु सञ्चवचियोगो। ____ x x x ॥ - गोजी० गा २१९ दस प्रकार के सत्य अर्थ के वाचक वचन को सत्यवचन कहते है तथा उससे होनेवाले योग को सत्यवचन योग कहते है। ०२.०२८ मृषावचनयोग का लक्षण __x x x x । तविवरीओ मोसो॥ -गोजी• गा २१९ सत्यवचनयोग के विपरीत जो वचन को विषय करनेवाला योग होता है उसको मृषावचनयोग या असत्यवचनयोग कहते हैं । -०२.०२९ सत्यमृषावचनयोग के लक्षण x x x x x । x x x जाणुभयं सचमोसो ति॥ -गोजी• गा २१६ जो कुछ सत्य और कुछ मिथ्या का वाचक हो उसको सत्यमृषा वचनयोग कहते हैं। ०२:०३० असत्यामृषावचनयोग का लक्षण जो णेष सश्चमोसो सो जाण असश्चमोसषधिजोगो। अमणाणं जा भासा सण्णीणामंतणी आदी॥ -गोजी• गा २२. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (क) जो न सत्य रूप हो और न मृषा रूप हो उसको अनुभयवचनयोग या असत्यामृषावचनयोग कहते हैं । असंज्ञियों की समस्त भाषाएँ तथा संज्ञियों की आमन्त्रणी आदि भाषाएँ अनुभय भाषा कही जाती है । - ०२०३१ औदारिककाययोग का लक्षण पुरुमहदुदारुराजं एयठ्ठो संविजान तम्हि भवं । ओरालियं तमुच्चर ओरालियकाययोगो सो ॥ उदार (शरीर ) होनेवाला जो काययोग होता है उसको कहते हैं । • ०२०३२ औदारिकमिश्र काययोग का लक्षण ओरालिय उत्तत्यं विजाण मिस्तं तु अपरिपुण्णं तं । जो तेण संपजोगो ओरालिय मिस्सजोगो सो ॥ -गोजी० गा २३० औदारिक शरीर की अपरिपूर्णावस्था को औदारिक मिश्र कहा जाता है, उसके द्वारा होनेवाले योग को औदारिकमिश्र काययोग कहते हैं । '०२०३३ वैक्रिय काययोग का लक्षण विचिगुणइढिजुत्तं विक्किरियं वा हु होदि वेगुव्वं । तिस्से भवं य णेयं वेगुब्बियकायजोगो सो ॥ - गोजी • गा २३१ अनेक प्रकार के गुण और ऋद्धिओं से युक्त शरीर को वैक्रिया या विकूर्व कहते हैं तथा इस शरीर के द्वारा होनेवाले योग को वैक्रियकाययोग कहते हैं । ०२०३४ वैक्रियमिश्र काययोग का लक्षण वेगुन्वियत्तत्थं विजाण मिस्लं तु अपरिपुण्णं तं । जो तेण संपजोगो वेगुन्धियमिस्सज़ोगो - गोजी० गा २२६ औदारिक काययोग सो ॥ - गोजी • गा० २३३ वैक्रिय शरीर जब तक पूर्ण नहीं होता है तब तक उसको वैक्रियमिश्र कहते हैं । ऐसे शरीर के द्वारा होनेवाले योग को वैक्रियमिश्र काययोग कहते हैं । '०२:३५ आहारक काययोग का लक्षण आहारस्सुदयेण या पमत्तविरदस्त होदि आहारं । असंजम परिहरण' च ॥ संदेहविणासण X X X X आहरदि अणेण मुणी सुहमे अत्थे सयस संदेहे । गत्ता केवलिपासं तम्हा आहारगो जोगो ॥ - गोजी गा २३४, २३८ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 5 ) आहारकशरीर नामकर्म के उदय से असंयम के परिहार तथा सन्देह की निवृत्ति के लिए प्रमत्तविरत (छठे गुणस्थानवर्ती ) मुनि के आहारक शरीर होता है । स्वयं में सन्देह होनेपर जिस शरीर के द्वारा केवली के पास जाकर सूक्ष्म अर्थों का आहरण ( ग्रहण ) करता है, उस शरीर के द्वारा होनेवाले योग को आहारक काययोग कहते है I आहारयमुत्तत्थं विजाण मिस्लंतु अपरिपुण्णं तं । जो तेण संपजोगो आहारयमिस्साजोगो सो ॥ - गोजी० गा २३६ आहारक शारीर जब तक अपरिपूर्ण अर्थात् अपर्याप्त रहता है तब तक उसको आहारक मिश्र कहा जाता है उसके द्वारा होनेवाले योग को आहारकमिश्र काययोग कहते हैं। I २०३६ कार्मण काययोग का लक्षण कम्मेव य कम्मभवं कम्मइथं जो दु तेण संजोगो । कम्मयका जोगो इगिषिगतिगसमयकालेसु ॥ - गोजी० गा २४० कर्मों को ही या कार्मणशरीर नामकर्म के उदय से होनेवाले काय को काम काय कहते हैं । इस काय के द्वारा होनेवाले योग को कार्मणकाययोग कहते हैं । यह योग एक, दो या तीन समय तक होता है । .०५ परिभाषा के उपयोगी पाठ .१ वर्ण - गन्ध-रस - स्पर्श .०५१ द्रव्ययोग की परिभाषा के उपयोगी पाठ .०१ कण्हलेसाणं भंते ! कतिवण्णा, कति गन्धा, कइरसा, कइफासा पन्नत्ता ? गोयमा ! दव्वलेसं पडुश्च पंचपण्णा, जाव अट्ठभासा पन्नता x x x । मणजोगे, बइजोगे, उफासे, कायजोगे अट्ठफासे । - भग० श १२ । उ ५ । सू ११७ द्रव्य योग- द्रव्यमन, द्रव्य वचन और द्रव्य काययोग पाँच वर्ण, दो गंध, पाँच रस वाले है । परन्तु द्रव्य मनोयोग और द्रव्य वचन योग चतुःस्पर्शी है तथा द्रव्य काययोग अष्टस्पर्शी है। .०२ पुद्गल भी वर्ण-गंध-रस-स्पर्शी है अतः द्रव्ययोग पुद्गल है । पोग्गत्थिकाए णंभंते ! कतिपण्णे ? १ कतिगंधे, कतिरसे, कतिफासे गोयमा ! पंचवण्णे, पंचरसे, दुगंधे, अट्ठफासे । भग० श २ । उ १० । सू १२६ पुद्गल भी वर्ण-गंध-रस, स्पर्शी है अतः द्रव्ययोग पुद्गल है । .०३ द्रव्य योग पुद्गल है अतः पुद्गल के गुण भी द्रव्ययोग में है ( पोग्गलस्थिकाए ) रूपी, अजीवे, सासए, अवट्ठिए, लोगदन्वे । Jain Education of Rternational Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) से समासओ पंचषिहे पण्णत्ते, तंजहा-दव्यओ, खेत्तमओ, कालमो, भाषमो, गुणो। दवओ णं पोग्गलत्थिकाए अणंताई दवाई। खेत्तओ लोयप्पमाणमेत्ते । कालओन कयाइ न आसि, न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइभविंसुय, भवतिय, भविस्सइय-धुवे, णियए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवहिए, णिच्चे। भावओ वण्णमंते, गंधभंते, रसमते, फासमंते । गुणओ गहणगुणे। -भग० श २ । उ १० । सू १२६ .४ योग और गुरुलघु ..... कण्हलेस्सा णं भंते ! किं गरुया ? नहुया ? गरुयलहुया ? अगरुयलहुया १ xxx। मणजोगो पइजोगो चउत्थएणं पदेणं, कायजोगोततिएणं पदेणं। -भग० श १ । उ ६ । प्र ४०८, ४१३ । पृ०६८ मनोयोग और वचनयोग अगुरुलघु होते हैं तथा काययोग गुरुलघु होता है । नोट -- यह विवेचन द्रव्ययोग की अपेक्षा है। मनोयोग-यावत् काययोग-भावयोग की अपेक्षा अगुरुलघु है। .०५ द्रव्ययोग गुरुलघु-अगुरुलघु है पोग्गलस्थि काएणं भंते ! कि गरुए ? लहुए १, गरुयलहुए ? अगरुयल हुए ? गोयमा! णो गरुए, णो जहुए ? गरुयलहुए वि ? अगुरुयलहुएषि । xxx । मणजोगो, पइजोगो चउत्थपदेणं, कायजोगो ततिएणं पदेणं ॥ -भग० श १ । उ ६ । सू ४०४, ४१३ द्रव्यमनोयोग तथा द्रव्य वचन योग अगुरुलघु है तथा द्रव्य काययोग गुरुलघु है। .०६ द्रव्ययोग अजीवोदयनिष्पन्न भाव है क्योंकि जीवद्वारा ग्रहण होने के बाद द्रव्य योग का प्रायोगिक परिणमन होता है। सेकिंतं अजीयोदयनिष्पन्ने ? अजीवोदयनिष्पन्ने अणेगविहे पन्नत्ते, तंजहा-उरालिय वा सरीरं, उरालियसरीरपओगपरिणामियं वा दवं, वेडषियं वा सरीरं, वेउब्वियसरीरपओगपरिणामियं वा दव्वं, पवं आहारगं सरीरं, तेयगं सरीरं, कम्मगसरीरं च भाणियव्वं । पओगपरिणामिए वण्णे, गंधे, रसे, फासे, सेत्तं अजीवोदयनिष्पन्ने । -अणुओ० सू १२६ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.०७ द्रव्य लेश्या जीव ग्राह्य है ( ६१ ) द्रव्यलेश्या की तरह द्रव्ययोग भी जीव ग्राह्य है देखें - लेश्याकोश पृ० ७ .०८ द्रव्ययोग - चतुस्पर्शी भी है, अष्टस्पर्शी भी है। मणजोगे, बइजोगेय खउफासे, कायनोगे अट्ठफासे -भग० श १२ । उ ५ । सू ११७ द्रव्ये मन वचन जोग वोफरसी छै, द्रव्येकाय जोग अठफास । भगवती बार में शतक पंखमुदेशे धीर वयण सुविलासरे || -झीणीचर्चा ढाल १५ । गा २ द्रव्य मनोयोग तथा द्रव्य वचनयोग चतुःस्पर्शी है तथा काययोग अष्टस्पर्शी है । .०९ द्रव्ययोग अनन्तप्रदेशी है क्योंकि जीव द्वारा ग्राह्य है, संख्यात, असंख्यात प्रदेशी स्कन्धों को जीव ग्रहण नहीं करता है । .०१० द्रव्ययोग असंख्यात् प्रदेशी क्षेत्र अवगाह करता है I लेश्या की तरह द्रव्ययोग भी असंख्यात प्रदेशी क्षेत्र अवगाह करता है देखें- लेश्या - कोश पृ० ६ .०११ द्रव्ययोग की अनन्त वर्गणा होती है । द्रव्य लेश्या की तरह द्रव्ययोग की अनन्त वर्गणा होती है - लेश्याकोश पृ० ६ .०१२ द्रव्ययोग के असंख्यात स्थान है । द्रव्यश्या की तरह द्रव्ययोग के असंख्यात स्थान है— देखें लेश्याकोश पृ० ८ '५२ भाषयोग के परिभाषा के उपयोगी पाठ '१ भाषयोग जीवपरिणाम है । जीवे परिणामे णं भंते asfer ? गोयमा ! दसविहे पम्नत्ते, तंजहागद्दपरिणामे, इन्दियपरिणामे, कसाय परिणामे, लेस्सापरिणामे, जोगपरिणामे, चरित परिणामे, वेयपरिणामे । २ भावयोग अवर्णी - अगंधी- अरसी - अस्पर्शी है । भावलेश्या की तरह भावयोग अवर्णी, अगंधी, अरसी अस्पर्शी है । - ( देखें लेश्या - कोश पृ० ८ ) '३ भावयोग अवर्णी, अगंधी, अरसी, अस्पर्शी तथा जीव परिणाम है अतः जीव है । - पण्ण० प० १३ । सू० - ठाण० स्था १० | सू १० Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) जीवत्थकाप णं भंते ! कइवण्णे, कइगंधे, कइरसे, कहफासे ? गोयमा ! अवणे, अगंधे, अरसे, अफासे, अरूबी, जीवे, सासए, अषट्टिए, लोगदन्वे । - भग० श २ । उ० १० । सू १२८ भाबजोगांने कह्या अरूपी, दश जीव परिणांमी मांह्योरे । - झीणीचर्या ढाल १५ । गा १ गति इन्द्रिय कषायने लेस जोग छै दे, भाष पांइ जीव परिणामरे । उपयोग ज्ञानं दर्शण चारित्र कह्या रे, भावतं वेद परिणामी नांमरे ॥ २७ ॥ -झीणीचर्चा ढाल १६ । गा २८ •४ भाषयोग अगुरुलघु है । भावलेश्या की तरह भावयोग भी अगुसलघु है - ( देखें पृष्ठ ८ लेश्याकोश ) भाषयोग उदयनिष्पन्न भाव है । लेश्या की तरह भावयोग उदयनिष्पन्नभाव है । - ( देखें लेश्याकोश पृ० ६ ) भावयोग सुगति और दुर्गति के हेतु है । अतः कर्म बंधन में भी किसी प्रकार का तु है । लेश्या की तरह अशुभ योग दुर्गंति के हेतु है तथा शुभयोग सुगति के हेतु है । .०६ विभिन्न आचार्यों द्वारा की गयी परिभाषा ·१ उमास्वाति - उमास्वामी - (क) कायवाङ्मनः कर्म योगः । तत्त्व० अ ६ । सू १ भाष्य- कायिकं कर्म वाचिकं कर्म मानसं कर्म इत्येष त्रिविधो योगो भवति । '०६ विभिन्न आचार्यों द्वारा की गई परिभाषा ०१ उमास्वाति (स्वामी) वाचक काययाङ्मनः कर्म योग : -तत्त्व अ ६ / स् १ भाग्य- कायिकं कर्म वाचिकं कर्म मानसं कर्म इत्येष त्रिविधो योगो भवति । स एको द्विविधः शुभश्वाशुभश्च । तत्राशुभो हिंसास्तेयाब्रह्मादीनि कायिकः, सावद्यानृतपरुष पिशुनादीनिवाचिकः, अभिध्याव्यापादेयस्यादीनि मानसः । अतो विपरीतो शुभ इति । स आस्रवः । भाष्य - स एष त्रिविधोऽपि योग आस्त्रवसंशो भवति । शुभाशुभयोः कर्मणोरास्रवणादास्रवः, सरसः सलिलाचाहिनिर्वाहिस्रोतोषत् । शुभः पुण्यस्य । भाव्य- शुभो योगः पुण्यस्यास्त्रवो भवति । अशुभ पापस्य । तत्र सद्वेद्यादि पुण्यं वक्ष्यते । शेषं पापमिति । तत्त्व अ ६ । सू. १, २, ३ - Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) काय, वचन और मन के द्वारा होनेवाले कर्म को तीन योग की संज्ञा दी जाती है - काययोग, वचनयोग और मनोयोग । इनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं - शुभ और अशुभ । हिंसा में प्रवृत्ति, चोरी करना तथा अब्रह्म - मैथुन का सेवन करना - कायिक अशुभ योग है । पापयुक्त वचन बोलना, मिथ्या-भाषण, कठोर मर्मवेधी वचन बोलना तथा चुगलखोरी आदि करना - वाचिक अशुभ योग है । दुर्ध्यान अथवा बुरा चिन्तन करना, किसी के मरने-मारने का चिन्तन, दूसरे की भलाई से जलन, किसी के गुण में दोष प्रकट करना इत्यादि - मानस अशुभ योग है। इसके विपरीत जो काय, वचन और मन के द्वारा क्रिया होती है वह शुभ योग है । ये तीनों प्रकार योग आस्रव अर्थात् कर्मवृद्धि में सहायक माने जाते हैं । शुभ योगपुण्य का आस्रव करता है और अशुभ योग पाप का आस्रव करता है । .०२ सिद्धसेन " रूपेणोत्पादः xxx योजनं योगः - पुद्गलसम्बन्धादात्मनो वीर्यविशेषः, युज्यते वा स इति योगः केन ? आत्मना, शक्तिविशेषः प्राप्यत इति यावत् कायावाङ्मनो- सिद्ध ० अ ५ । सू ४४ । पृ० ४४० XXX | किस्वरूपो योगः ? कतिप्रकारो वेत्याह- कायवाङ्मनः कर्म योग इति । कृतद्वन्द्वानां कायादौनामात्मनः करणानामभेदवृत्तीनां कर्मपदेन सह षष्ठीसमासः 1 कर्म व्यापारः क्रिया चेष्टेत्यनर्थान्तरम् । एतत् कर्म कायादिसम्बन्धि यथा सम्भवं योग उच्यते, वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितेन पर्यायेणात्मनः सम्बन्धो योगः । स च वीर्यप्राणोत्साहपराक्रमचेष्टाशक्तिसामर्थ्यादिशब्दवाच्यः अथवा युनस्येनं जीवो वीर्यान्तरायक्षयोपशनजनितं पर्यार्यमिति योगः । स च कायादिभेदात् न्निषिधः । साधकगमनादिभाषणचिन्तास्वात्मनः | X × × । - सिद्ध० अ ६ । सू १ । पृ० २ युक्त होना योग है, यह पुद्गल से सम्बन्धित रहने के कारण आत्मा का वीर्य विशेष योग है । अथवा, जो युक्त किया जाता है वह योग है । वह आत्मा के साथ युक्त होकर, काय, वचन और मन रूप से उत्पन्न होकर शक्ति विशेष को प्राप्त होता है । इस योग का क्या स्वरूप है या यह कितने प्रकार का है ? काय, वचन और मन कर्मयोग है । काय, वचन और मन - इन तीनों का मूल सूत्र में द्वन्द्व समास हुआ है, ये तीनों आत्मा के करण अर्थात् सहायक हैं, अतः इनकी वृत्तियों में अभेद है और इन तीनों का कर्म पद के साथ षष्ठीतत्पुरुष समास हुआ है । कर्म, व्यापार, चेष्टा, क्रिया- ये सभी एकार्थवाची शब्द हैं । इस कायादि से सम्बन्धित कर्म को योग कहा जाता है । को वीर्य, प्राण, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति, सामर्थ्य आदि भी कहा जाता है । अथवा, इस कर्म को जीव जो वीर्यान्तराय के क्षय, उपशम और क्षयोपशम जनित इस योग Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) पर्याय रूप में युक्त करता है वह योग है। यह कायादि भेद से तीन प्रकार का है, जैसे आत्मा का साधक रूप में गमनादि ( काय रूप में ), भाषण ( वचन रूप में ) तथा चिन्ता ( मन रूप में ) परिणमन होता है । ०२ सिद्धसेनगणि. कायिकं कर्मेत्यादि भाष्यम् । एकैकस्य कायादेः कर्म भवति, पावश्यं समुदितानामेवेत्यस्यार्थस्य प्रतिपादनार्थमभिसम्बधनन् भाष्यकारः प्रत्येकमपि कर्मशब्दं कायिक कर्म वाचिकं कर्म मानसं कर्मेत्याह | भवतु नाम कायकर्म केवलं भूदकतेजोमारुतवनस्पत्यादिषु, वाकर्म मनाकर्म वा कस्मिन्नेकस्मिन् दृष्टमिति, न ब्र मो यथा कायकर्मेतरद्वन्द्वनिरपेक्ष तथा वाकर्मापीतरद्वन्द्वानपेक्षं मनःकर्म था, कि तहि ? कायव्यापाराभावेऽपि कायवतो चाग्यापारो दृष्टोऽप्रणिहतचेतसः, तथा कायवाग्व्यापाराभावेऽपि कदाचिन्मनोव्यापार एवकेषलो हृष्टः क्वचित, अतः समुदिताः कायादय-आत्माधिष्ठिता एककाश्च क्रियाहेतवः। तत्र कायप्रयोजनं कायिक, कायेन बा निवृत्तं, तत्र वा भवं, एवं वाचिकमानसे अपि वाच्ये। इतिशब्दः कर्मेयत्ताप्रतिपादनार्थः। एतावत् कर्मात्मनः कर्तुः शरीरै. कत्वपरिणामादभिन्नं करणं भवति, वीर्ये निर्वत्यै अन्योन्यानुगतिपरिणामाद् द्रव्यरूपाः कायादियोगा भावयोगं बीर्य निवर्तयन्ति । यथा कर्तुः शरीरस्य आगमने निर्वत्येऽप्यादौ कारणमभिन्नमेकत्वादेवमेते अपीति। अत एष एव शरीरात्मप्रदेशपिण्डः प्रतिषिशिष्ट क्रियाकारित्वव्यवच्छिन्नस्त्रिविधो योगो भवति । तिम्रो विधा यस्यासौ त्रिविध। -सिद्ध० अ ६ । सू १ । पृ० २-३ एक-एक कायादि का कम होता है। यह कोई आवश्यक नहीं है कि सब के ( कायादि के ) सम्मिलित रूप से कर्म हो-इसी अर्थ का प्रतिपादन करने के लिए भाष्यकार ने कर्म शब्द को प्रत्येक के साथ सम्बद्ध किया है, अर्थात् कायिक कर्म, वाचिक कर्म और मानसिक कर्म। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति आदि में तो केवल कायकर्म हो । सकता है। किन्तु केवल वाकम अथवा केवल मनःकर्म किसी में होता है ऐसा नहीं कह सकते। जिस प्रकार कायकम इतर द्वन्द्व ( वाक्, मन) की अपेक्षा नहीं रखता, उसी प्रकार वाकर्म और मनः कर्म भी इतर द्वन्द्व की अपेक्षा नहीं रखता है। किसी कायवान जीव के असावधान अवस्था में कायिक व्यापार के अभाव में भी वारव्यापार होता है तथा काय और वाग व्यापार के अभाव में भी कदाचित मन का व्यापार होते कहीं देखा जाता है। इसलिए कायादि तीनों आत्माधिष्ठित होकर एक साथ या एक-एक पृथक रूप से कर्म के हेतु है। काय को प्रयोजन बनाकर, काय के द्वारा निष्पन्न या काय में होनेवाला कमकायिक कर्म (काययोग) है। इसी प्रकार वचन को प्रयोजन बनाकर होनेवाला, वचन के Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) द्वारा निष्पन्न होनेवाला तथा वचन में होनेवाला कर्म वाचिक कर्म (वाग्योग ) है और मन को प्रयोजन बनाकर होनेवाला, मनके द्वारा निष्पन्न होनेवाला तथा मन में होनेवाला कर्म मानस कर्म (मनोयोग ) है । यह कर्म कर्ता रूप आत्मा और उसका शरीर दोनों के एक परिणाम होने के कारण अभिन्न करण ( विशेष कारण ) बनता है । वीर्य-पराक्रम बन जानेपर परस्पर अनुगमन के परिणाम वश द्रव्य रूप ये कायादि योग भावयोग रूप वीर्य का सम्पादन करते हैं । जिस प्रकार कर्ता के शरीर का आगमन हो जानेपर कर्ता का भी आगमन माना जाता है, क्योंकि दोनों अभिन्न हैं उसी प्रकार आत्मा के साथ समान रूप से सम्बन्धित रहने के कारण arjita और मनोयोग को भी समझना चाहिए । इसलिए यही शरीर और आत्मप्रदेशों का पिण्ड ही परस्पर सहयोगी रूप में क्रियाकारिता से युक्त होकर तीन प्रकार का योग बनता है । .०३ अभयदेव सूरी इह वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमसमुत्थलब्धि विशेषप्रत्ययमभिसन्ध्यनभिसन्धिपूर्वमात्मनो वीर्य योगः । आह व - "जोगो वीरियं थामो उच्छाह परक्रमो तहा चेट्ठा | सती सामत्थन्ति य जोगस्स हबंति पज्जाया ||१||" इति, स च द्विधा - सकरणोऽकरणश्च तत्रालेश्यस्य केवलिनः कृत्स्नयोर्ज्ञे यदृश्ययोरर्थयोः केवलं ज्ञानं दर्शनं योपयुञ्जानस्य योऽसावपरिस्पन्दोऽप्रतिघो बीर्य विशेषः सोऽकरणः, स च नेहाधिक्रियते, सकरणस्यैच त्रिस्थानकावतारित्वात्, अतस्तत्रैव व्युत्पत्तिस्तमेव चाश्रित्य सूत्रव्याख्या, युज्यते जीवः कर्मभिर्येन 'कम्म जोगनिमित्तं बज्झइ' ति वचनात् प्रयुङ्क्त े यं पर्यायं स योगो - बीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितो जीवपरिणामविशेष इति । -- ठाण० स्था ३ । उ १ । सू १२४ । टीका वन्तराय के क्षय तथा क्षयोपशम जनित लब्धि विशेष की प्रतीति, जो इच्छा या अनिच्छापूर्वक आत्मा के बीर्य - पराक्रम को योग कहते हैं । कहा भी है- योग, वीर्य, स्थाम, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति और सामर्थ्य - ये सभी योग के पर्यायवाची शब्द हैं । यह वीर्यं दो प्रकार का होता है— सकरण और अकरण। इनमें अलेशी केवली, जो केवल ज्ञान और केवल दर्शन का उपयोग करते हैं, उनका जितने भी ज्ञेय और दृश्य पदार्थ हैं उनमें अपरिस्पन्दात्मक अप्रतिघाती वीर्यविशेष होता है वह अकरणवीर्य है। यहाँ पर तो सकरण - वीर्य को ही तीन स्थानों में अवतरण कर अर्थात् मन, वचन और काय के रूप में विभक्त कर कहा गया है। 'योग को निमित्त बनाकर कर्म का बन्ध होता है' - इस वचन के अनुसार जिसके द्वारा जीव कर्मों से युक्त होता है, अथवा जिस करता है वह योग है, अर्थात् वीर्यान्तराय के क्षय तथा विशेष को योग कहते हैं I पर्याय को युक्त करता है या प्रयुक्त क्षयोपशम जनित जीव का परिणाम Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) •३ अभयदेवसूरि : (क) आत्मनि कर्म पुद्गलानाम् लेश्नात्-संश्लेषणात् लेश्या, योग परिणामश्चैताः, योगनिरोधे लेश्यानामभावात् , योगश्च शरीरनामकर्मपरिणति विशेषः। -भग० श २ । उ २ । प्र६८ की टीका (ख) इयं ( लेश्या ) च शरीरनाम कर्मपरिणतिरूपा योगपरिणतिरूपत्वात, योगस्य च शरीरनामकर्मपरिणति विशेषत्वात्, यत उक्तं प्रज्ञापना वृत्तिकृता __ "योगपरिणामोलेश्या, कथं पुनर्योग परिणामोलेश्या, यस्मात् सयोगिकेवली शुक्ल लेश्यापरिणामेन विहृत्यान्तमुंहूत शेषे योगनिरोधं करोति ततोप्रयोगित्वमलेश्यत्वं च प्राप्नोति अतोऽवगम्यते "योगपरिणामोलेश्यति, सपुनयोगः शरीरनामकर्मपरिणति विशेषः, यस्मादुक्तम् – 'कर्म हि कार्मणस्य कारणमन्येषांच शरीराणामिति” तस्मादौदारिकादि शरीरयुक्तास्यात्मनो धीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः १, तथौदारिकवैक्रियाहारकशरीर व्यापाराहतधागद्रव्यसमूहसाचिव्यात् जीव व्यापारो यः स वागयोगः २, तथौदारिकादि शरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसमूह साचिव्यात् जीव व्यापारो यः स मनोयोग इति ३, ततो यथैव कायादिकरणयुक्तस्यात्मनो वीर्य परिणतियोंग उच्यते तथैव लेश्यापोति, अन्येतु व्याचक्षते-'कर्मनिस्यन्दो लेश्ये ति साचद्रव्यभाषभेदात् द्विधा, तत्र द्रव्यलेश्या कृष्णाविद्रव्याण्येव, भावलेश्या तु तजन्यो जीवपरिणाम इति ।" -ठाण स्था १ । सू ५१ । पर टीका '०४ पूज्यपाद कायवाङ्मनसां कर्म कायवोङ्मनः कर्म योग इत्याख्यायते। भात्मप्रदेशपरिस्पन्दो योगः। -सर्व • अ६ । सू १ । पृ० ३१८ कर्म क्रिया इत्यनान्तरम् । कायषाङ्मनसां कर्मकायवाङ्मनः-कर्म योग इत्याख्यायते । आत्मप्रदेश परिस्पन्दो योगः। स निमित्तभेदायिधा भिद्यते । काययोगो पाग्योगो मनोयोग इति । -सर्व अ६ । सू १ । पृ० ३१८ __ कर्म और क्रिया एकार्थवाची शब्द हैं। काय, वचन और मन के कम को योग कहा जाता है। आत्मा के प्रदेशों के परिस्पन्दन को योग कहते हैं। निमित्त भेद से यह योग तीन प्रकार का होता है-काययोग, वचनयोग और मनोयोग । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) • ०५ वीरसेनाचार्य युज्यत इति योगः न युज्यमानपटादिना व्यभिचारस्तस्यानात्मधर्मत्वात् । न कषायेण व्यभिचारस्तस्य कर्मादानहेतुत्वाभावात् । अथवात्मप्रवृत्तेः कर्मादाननिबन्ध बीर्योत्पादो योगः । अथवात्मप्रदेशानां सङ्कोचविकोचो योगः । - षट्० खं १, १ । सू ४ । टीका । पु० २ | पृ० १३६-४० युक्त किया जाने वाला योग है । युक्त किये जाने वाले घटपटादि में इस लक्षण का व्यभिचार नहीं होगा, क्योंकि घटपटादि आत्मधर्म नहीं है । कषाय भी योग नहीं है, क्योंकि उसमें कर्म को ग्रहण करने की हेतुता नहीं है । अथवा, आत्मप्रवृत्ति से कर्मों को ग्रहण करने के लिए वीर्य की उत्पत्ति को योग कहते हैं । अथवा आत्मप्रदेशों के संकोचविकोच को योग कहते हैं । वाङ्मनः कायवर्गणानिमित्तः आत्मप्रदेशपरिस्पन्दो योगो भवति । - पट् • खं १, १ । सू ६० । टीका । पु १ । पृ० २६६ वचन, मन तथा काय की वर्गणा के निमित्तवश आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन योग है । कि जोगोणाम ? जीवपदेसाणं परिष्कन्दो संकोच -विकोच भ्रमण सरूचओ । ण जीवगमणं जोगो, अजोगिस्स अद्यादिकम्मक्खएणवुढं गच्छंतस्स वि जोगतसंगादो । सो च जोगो मण वचि कायजोगभेदेण तिविहो । षट् खं ४ । भा ४ । २ । ४ । सू १७५ । पु १० पृ० ४३७ योग क्या है ? जीव प्रदेशों के संकोच, विकोच तथा भ्रमण स्वरूप परिस्पन्दन को योग कहते हैं । यदि जीव की गति को योग माना जाय तो अयोगी, जिनके अघाती कर्मों के क्षय रहने के कारण ऊर्ध्वगमन करने को भी योगत्व का प्रसंग उपस्थित हो जायगा । यह योग मन, वचन और काय के भेद से तीन प्रकार का है । .०६ मलयगिरि इहास्मिन् जगति वीर्य द्विविधं द्विप्रकारं, तद्यथा - आवरणस्य वीर्यातरायरूपस्य देशक्षयेण सर्वक्षयेण च ; तत्र देशक्षयेण छद्मस्थानां, सर्वक्षयेण केवजिनां ; पुनरप्येकैकं द्विविधं, अभिसन्धिज-मनभिसन्धिजं च । तत्र यबुद्धिपूर्वकं धाबनवल्गनादि क्रियासु नियुज्यते तदभिसन्धिजं, इतरदनभिसन्धिजं, यद्भुक्तस्याहारस्य धातु-मलत्वादिरूपपरिणामापादनकारणं, एकेन्द्रियादीनां वा मनोलव्धिरहितानां तत्तत्क्रियानिबन्धनं ; तथा उभयमपि छान स्थिकं केव जिकं व प्रत्येकमकषायि सलेश्यं च भवति । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८ ) तत्र छानस्थिकमकषायि सलेश्य उपशान्तमोहक्षीणमोहानां, कैवनिकमकषायि सलेश्यं सयोगिकेवलिना 'होइकसाइपीत्यादि' प्रथमं छाद्मस्थिकं वीर्य कषाय्यपि कषायिकमपि, अपिशब्दादकषाय्यपि भवति । तत्र कषायिकं सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकपर्यन्तानां सर्वेषां संसारिणां, अकषायिकं च प्रागेवोक्त। इतरत्कैचलिकमलेश्यमपि भवति । तचाऽयोगिकेवलिनां सिद्धानां च वेदितव्यं । तदेवमनेकधा वीर्य प्ररूप्य संप्रति येन वीर्येणाधिकारस्तद्विशेषतः प्ररूपयति'जलेसं तु इत्यादि' यत्सलेश्यं वीर्य, तद्ग्रहणपरिणामस्पन्दनरूपं, तत्र ग्रहणं औदारिकादिशरीर-प्रायोग्याणां पुद्गलानामुपादानं, परिणामस्तेषामेव पुद्गलानामौदारिकादिरूपतया परिणामापादनं, तद्रूपं तत्स्वभावं तत्कारणमित्यर्थः । इह ग्रहणपरिणामकारणं सत् ग्रहणपरिणामरूपमित्युक्तं, कार्येण सह कारणस्याऽ. भेदविवक्षणात् । तथा स्पन्दनारूपं यथासंभवं सूक्ष्मबादरपरिस्पन्दरूपक्रियात्मकं । एतदेव व सलेश्यं वीर्यमुक्तस्वरूपं योगसंज्ञमुच्यते। एकाथिकाति चास्यैव वक्ष्यति, अस्य च सहकारिकारणभूता मनोवाक्कायाः, ततस्तेऽपि कारणे कार्योपचारात योगशब्देन शास्त्रेषु व्यवक्रियन्ते। तथा चाह-'जोगओ तिविह' योगतो मनोवाकायरूपतः सहाकारिकारण-चदुपजायमानं सलेश्य षीययोगसंज्ञत्रिविधं त्रिप्रकारं भवति, तद्यथा-मनोयोगो वाग्योगः काययोगः। तत्र मनसा कारणभूतेन योगो मनोयोगः, वाया योगो वाग्योगः, कायेन योगः काययोगः। -पंच श्वे० भा ३ । गा ४ । टीका । पृ० ३१६-२१ __ धावन-बल्गनादि क्रियाओं में जो बुद्धिपूर्वक नियोजन होता है वह अभिसन्धिजात है । भुक्त आहार का धातु मल आदि रूप परिणमन तथा उसके अपादान-त्याग और एकेन्द्रिय आदि या मनोलब्धि रहित जीवों के द्वारा जो उन-उन क्रियाओं में निबन्धन होता है वह अनभिसब्धि जात है। ये दोनों वीर्य अकषायी सलेश्यी छद्मस्थ और केवली के भी होता है। इस संसार में वीर्य-पराक्रम दो प्रकार का है, यथा-वीर्यान्तराय रूप आवरण के देशक्षय से अथवा सर्व क्षय से । देशक्षयजनित वीर्य छद्मस्थों के होता है और सर्वक्षयजनित वीर्य केवलियों के होता है। इनमें से प्रत्येक दो-दो प्रकार का है। अभिसन्धिजात और अनभिसन्धिजात । छद्मस्थों में जो कषायरहित सलेश्य वीर्य होता है वह उपशान्तमोह तथा क्षीणमोह की अपेक्षा कहा गया है तथा केवलियों में जो कषायरहित सलेश्य वीर्य होता है वह सयोगिकेवलि की अपेक्षा से कहा गया है । छद्मस्थों का वीर्य कषायसहित तथा कषायरहित दोनों प्रकार का होता है। कषाय Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) सहित वीर्य सूक्ष्मसंपराय - दसवें गुणस्थान पर्यन्त सभी संसारियों के होता है । चुका है इतर केवजी मलेशी होते हैं । इस प्रकार अनेक प्रकार से वीर्य का प्ररूपण कर जिस वीर्य का अधिकार है उसका प्ररूपण किया जाता है -- सलेश्य वीर्य के तीन रूप होते हैं— ग्रहणरूप, परिणामरूप तथा स्पन्दनरूप | औदारिकादि शरीर के प्रयोजन योग्य पुद्गलों का उपादान - ग्रहण है। उन्हीं दुगलों को औदारिकादि शरीर रूप से परिणमन-त्याग करना - परिणाम है, उसके स्वभाव रूप से अर्थात कारणरूप से परिणत हो जाना । यहाँ पर ग्रहण और परिणाम को कारण होते हुए जो ग्रहण और परिणाम का स्वरूप कहा गया है वह कार्य के साथ कारण की अभेद विवक्षा से । स्पन्दन रूप वीर्य वह है जो यथासंभव सूक्ष्म तथा बादर शरीर की परिस्पन्दन रूप क्रिया है । कहा जा यही जो सलेश्य वीर्य का स्वरूप कहा गया है उसको योग कहा जाता है। इसके सहकारी कारणभूत मन, वचन और काय हैं, अतः वे ( मन, वचन और काय ) भी कारण में कार्य के उपचार से शास्त्रों में योग शब्द के द्वारा व्यवहृत होते हैं । मन, वचन, काय रूप योग से सहकारी कारण के समान उत्पन्न होनेवाला सलेश्य वीर्य रूप योग है वह तीन प्रकार का है, यथा - मनोयोग, वाग्योग और काययोग | मन रूप कारण से होनेवाला योग मनोयोग है । वचन रूप कारण से होनेवाला योग बाग्योग है । काय रूप कारण से होनेवाला योग काययोग है । .०६ मलयगिरि बिरियमिति - बीर्यान्तरायस्य देशक्षयेण सर्वक्षयेण षा लब्धिवर्यलब्धिरसुमतामुपजायते । तत्र देशक्षयेण छद्मस्थानां सर्वक्षयेण (च) केवलिनां । तस्याश्च वीर्यलब्धेः सकाशादुपजायमानं बीर्यं सलेश्यस्यापि च भवति, अलेश्यस्यापि च । केवलमिह सलेश्यवीर्येणाधिकार इति तदेवोपदर्शयति'अभिसंधिजमियरं वा तत्तो पिरियं सलेसस्स' ततस्तस्याः क्षायिकक्षायोपशमिकरूपाया वीर्यलब्धेः सकाशात् सलेश्यस्य वीर्यमभिसन्धिजमितरद्वा भवति । तत्र यबुद्धिपूर्वकं धावनवल्गनादिक्रियासु नियुज्यते तदभिसन्धिजं, इतरदनभिसन्धिजं यद्भुक्तस्याहारस्य धातुमलत्वरूपपरिणामापादानकारणं एकेन्द्रियाणां वा तत्तत्क्रियानिबन्धनं । एतश्चाभिसन्धिजमनभिसन्धिजं वा वीर्यमवश्यं यथासंभवं सूक्ष्मबादरपरिस्पन्द रूपक्रियासहितं योगसंज्ञमप्येतदेव । एकार्थिक्रानि वास्यानि – “जोगो विरियं थामो, उच्छाहपरिकमो तहा चि (चे) ट्ठा । सती सामत्थं विय, जोगस्स हवंति पजाया ॥" - कम्म० गा ३ | टीका जीव के वीर्यान्तराय के देशक्षय अथवा सर्वक्षय के द्वारा जो लब्धि प्राप्त होती है। उसको वीर्यब्ध कहते हैं । छद्मस्थों के देशक्षय के द्वारा वीर्यलब्धि होती है तथा केवलियों Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) के सर्वक्षय के द्वारा वीर्यलब्धि होती है। इस वीर्यलब्धि की संप्राप्ति से उत्पन्न होनेवाला वीर्य सलेशी और अलेशी दोनों के होता है। किन्तु यहाँ पर सलेशी के ही वीर्य का कथन है, जिसको 'अभिसंधिमियरं' इस गाथा से स्पष्ट किया गया है। अब यहाँ क्षायिक और क्षायोपशमिक रूप वीर्यलब्धि से उत्पन्न सलेशी का वीर्य अभिसन्धिज है या अनभिसन्धिज ? जो वीर्य बुद्धिपूर्वक धावन-वल्गनादि क्रियाओं में नियोजित किया जाता है वह अभिसन्धिज है, इससे भिन्न अनभिसन्धिज है यथा--जीव द्वारा भुक्त आहार का धातु-मल आदि रूप से परिणमन का कारण होता है तथा एकेन्द्रियों के अपनी क्रियाओं में निबन्धन होता है। यह अभिसन्धिज और अनभिसन्धिज वीर्य यथासंभव अवश्य ही सूक्ष्म और बादर जीवों के परिस्पन्दन रूप क्रिया से युक्त होता है - इसी को योग भी कहते हैं। ये एकार्थक शब्द कहे गये हैं-योग, वीर्य, स्थाम, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति और सामर्थ्य । .६ मलयगिरि : (क) इहयोगे सति लेश्या भवति, योगाभावे व न भवति ततो योगेन सहान्धय व्यतिरेक दर्शनात् योगनिमित्ता लेश्येति निश्चीयते, सर्वत्रापि तन्निमित्तत्वनिश्चयल्यान्वयव्यतिरेक दर्शनामूलत्वात, योगनिमित्ततायामपि विकल्प द्वयमवतरति किं योगान्तरगत द्रव्यरूपा योगनिमित्त-कर्मद्रव्यरूपा वा तत्र न ताचद्योग निमित्त कर्मद्रव्यरूपा, विकल्प द्वयामतिक्रमात्, तथाहि-योग-निमित्त कर्मद्रव्यरूपा सतीघाति कमद्रव्यरूपा अघातिकर्मद्रव्यरूपा वा ? न तावद् घातिकर्मद्रव्यरूपा, तेषामभावेऽपि सयोगिकेवलिनि लेश्यायाः सद्भावात्, नापि अघातिकर्मरूपा तत्सद्भावेऽपि अयोगिकेवलिनि लेश्याया अभावात्, ततः पारिशेष्यात् योगान्तर्गत द्रव्यरूपा प्रत्येया। तानि च योगान्तर्गतानि द्रव्याणि यावत्कषायास्तावत्तेषामदप्युयोपवृहकाणि भवन्ति, दृष्टं च योगान्तरगतानां द्रव्याणां कषायोदयोपबृहणसामयम् । यथापित्त द्रव्यस्य तथाहि xxx केबलं योगान्तर्गत द्रव्य सहकारिकारण भेदवैचित्र्याभ्यां तेकृष्णादिभेदैभिन्नाः xxx तेन यदुच्यते कैश्चिदयोगपरिणामत्वे लेश्यानाम् "जोगा पयडिपएसंठिइअणुभागं कसायओ कुणइ” इति वचनात् प्रकृतिप्रदेश बंधहेतुत्वमेवस्यान्न कर्मास्थिति हेतुत्वमिति, तदपि न समीचीनम्, यथोक्तभावार्थापरिज्ञानात् १ अपि च न लेश्या स्थितिहेतषः॥ -पण्ण० प १७ । प्रारम्भ में टीका .०७ देवेन्द्रसूरि योजनं योगः-जीवस्य वीर्य परिस्पन्द इति यावत्, यदि षा युज्यते Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) घानवल्गनादिक्रियासु व्यापार्यत इति योगः कर्मणिघञ्, यद्वा युज्यते -सम्बध्यते धावनवल्गनादिक्रियासु जीवोऽनेनेति “पुंनाम्नि” ( सि० ५ | ३|१३० ) इति करणे घप्रत्ययः, स च मनोवाक्काय लक्षणसहकारिकारणभेदात् त्रिविधः xxx - कर्म ० ० भाग ४ | गा १ । टीका । पृ० ११३ योजन करना, अर्थात् जीव का वीर्य या परिस्पन्दन योग है ( भावे घञ् ) । अथवा घावन- वल्गनादि क्रियाओं में युक्त किया जाता है या व्यापृत किया जाता है वह योग है ( कर्मणि घञ् ) । अथवा जिसके द्वारा धावन - वल्गनादि क्रियाओं में जीव युक्त किया जाता है अर्थात् संबद्ध किया जाता है वह योग है ( करणे घञ् ) । यह योग मन, वचन और काय रूप सहकारी कारण के भेद से तीन प्रकार का है । .०८ अकलंकदेव त्रैविध्यानुपपत्तिरात्मपरिणामाविशेषादिति चेत्; न पर्यायविवक्षाव्यापाराहूपादिवत् । ९ । स्यान्मतम् - योगस्य त्रैविध्यं नोपपद्यते । कुतः ? आत्मपरिणामाविशेषात् । आत्मा हि निरवयचद्रव्यम्, तत्परिणामो योगः, सोऽविशिष्ट इति; तन्न; किं कारणम् १ पर्यायविवक्षाव्यापारादूपादिवत् । यथा घटस्यैकत्वमजहतश्चक्षुरादिकरणसम्बन्धवशाद्रूपादिपरिणामभेद:, तथा आत्मनः एकत्वेऽपि पर्यायभेदात् योगस्य भेदो ज्ञेयः । ; चक्षुरादिग्रहणनिमित्तत्वाद् रूपाध्यवसायस्येति चेत्; न आत्मभेदेऽपि कायादीनां पूर्व कृतकर्मापादितसामर्थ्योपलम्भात् ||१०|| स्यादेतत् युज्यते घटस्य रूपादिभेदाध्यवसायः । कुतः १ चक्षुरादिग्रहणनिमित्तत्वात् । ग्रहणभेदाद्धि लोके प्राद्यभेदो दृष्टः, न तथा आत्मन इति ; तत्र ; किं कारणम् ? आत्माऽभेदेऽपि कायादीनां पूर्वकृतकर्मापादितसामर्थ्योपलम्भात् । तद्यथा पुद्गलविपाकिनः शरीरनामकर्मण उदयापादिते कायवाङ्मनोवर्गणान्यतमालम्बने सति वीर्यान्तरायमत्यक्षराद्यावरणक्षयोपशमापादिताभ्यन्तरबाग्लब्धिसान्निध्ये वाक्परिणामाभिमुख्यस्यात्मनः प्रदेशपरिस्पन्दो वाग्योगः । अभ्यन्तरवीर्यान्तरायनोइन्द्रियाधरणक्षयोपशमात्मकमनोलब्धि सन्निधाने पूर्वोक्तबाह्यनिमित्तालम्वने च सति मनः परिणामाभिमुख्यस्यात्मनः प्रदेशपरिस्पन्दो मनोयोगः । वीर्यान्तरायक्षयोपशमसद्भावे औदारिका दिसप्तविधकायवर्गणान्यतमालम्बनापेक्षात्मप्रदेशपरिस्पन्दः काययोगः । यदि क्षयोपशमलब्धिरभ्यन्तरहेतुः क्षये कथम् ? क्षयेऽपि हि सयोगकेवलिनः त्रिविधो योग इष्यते । अथ क्षयनिमित्तोऽपि योगः कल्प्यते, अयोगकेवलिनां सिद्धानां च योगः प्राप्नोति नैष दोषः ; क्रियापरिणामिन ; Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) आत्मनस्त्रिविधषर्गणालम्बनापेक्षः प्रदेशपरिस्पन्दः सयोगकेबलिनो योगविधिविधीयते, तदालम्बनाभावात् उत्तरेषां योगविधिर्नास्ति । अनेकान्ताश्च लावकादिवत् ॥ ११॥ यथा देवदत्तस्य जातिकुलरूपसंज्ञालक्षणसम्बन्धाद्यविशेषादेकत्वमजहतः बाह्योपकरणसम्बन्धोपनीतभेदलावकपाकादिपर्यायाना स्कन्दतः स्यादेकत्वं स्यादनेकत्वमित्यनेकान्तः तथा प्रतिनियतक्षायोपशमिकशरीरादिपर्यायार्थादेशात् स्यात्त्रैविध्यं योगस्य, अनादिपारिणामिकात्मद्रव्यार्थादेशात् स्यादेकविध्यमित्यनेकान्तः । ततो नायमुपालम्भः । - राज• अ ६ । सू १ । पृ० ५०४ आत्मपरिणाम की अविशेषता के कारण योग की त्रिविधता नहीं सिद्ध होती है ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार घटादि द्रव्य में रूपादि पर्याय के विवक्षा - व्यापार से अनेकविधता मानी जाती है उसी प्रकार विवक्षा व्यापार से योग की भी त्रिविधता होगी । अथवा, मानना चाहिए कि योग की त्रिविधता नहीं बनती है, क्योंकि आत्मपरिणाम अविशेष अर्थात् एक है। आत्मा निरवयव द्रव्य है और आत्मपरिणाम योग है जो अविशिष्ट है. -यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि रूपादि पर्याय के विवक्षा व्यापार से घट में अनेकविधता देखी जाती है । जिस प्रकार घट एक रहते हुए भी चक्षुरादि करण के सम्बन्धवश रूपरसादि परिणामों का भेद प्राप्त होता है उसी प्रकार आत्मपरिणाम एक होते हुए भी पर्याय भेद से योग का भेद जानना चाहिए । चक्षुरादि के द्वारा ग्रहण होने के कारण रूपादि का दृष्टान्त देना ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मपरिणाम के अभेद रहते हुए कायादि के पूर्व-कृत कर्मों के द्वारा संप्राप्त सामर्थ्य पाया जाता है । अथवा, घट में रूपादि का अध्यवसाय ठीक है, क्योंकि चक्षुरादि के द्वारा ग्रहण होता है। लोक में ग्रहण के भेद से ग्राह्य में भेद देखा जाता है ऐसा आत्मा का नहीं होता है—यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मा के अभेद रहते हुए भी कायादि में पूर्वकृत कर्मों से निष्पन्न सामर्थ्यं प्राप्त होता है । जैसे - पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय होने पर काय, वचन और मन की वर्गणाओं में से किसी एक का आलम्बन लेने पर वीर्यान्तराय कर्म रूप मति, अक्षरादि के आवरण के क्षयोपशम से संप्राप्त आभ्यन्तर वागुलब्धि के सान्निध्य में वचन परिणाम के अभिमुख आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्दन- हलन चलन होता है वह वायोग है । आभ्यन्तर वीर्यान्तराय रूप नौइन्द्रिय ( मन ) के आवरण के क्षयोपशम रूप मनोलब्धि के सान्निध्य में पूर्वोक्त रूप से बाह्य निमित्त - पुद्गल का आलम्बन लेने पर मनः परिणाम के अभिमुख आत्म-प्रदेशों का परिस्पन्दन मनोयोग है । वीर्यान्तराय के क्षयोपशम का सद्भाव रहते हुए औदारिकादि सात प्रकार की कायवर्गणाओं में से किसी एक का आलम्बन लेने पर जो आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन होता है वह काययोग है । यदि क्षयोपशम लब्धि को आभ्यन्तर हेतु माना जाता है तो क्षय में क्यों कहा गया ! क्योंकि योगिकेवली के वयन्तराय के क्षय होने पर भी तीनों प्रकार का योग होता है । यदि Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) क्षयनिमित्त भी योग स्वीकार किया जाय तो अयोगिकेवली में भी योग होने का प्रसंग उपस्थित हो जाएगा । यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि क्रिया-परिणामी आत्मा का जो त्रिविध वर्गणाओं के आलम्बन सापेक्ष प्रदेश परिस्पन्दन होता है उसको सयोगिकेवली का योग माना जाता है; अयोगिकेवली में इन वर्गणाओं के आलम्बन का अभाव रहने के कारण योग नहीं होता है । अनेकान्त के द्वारा भी योग की त्रिविधता सिद्ध होती है। जैसे देवदत्त नामक कोई व्यक्ति जाति, कुल, रूप, संज्ञा रूप लक्षण आदि के द्वारा एक होते हुए भी बाह्य उपकरणों के सम्बन्ध से भेदक ( भेदन करनेवाला ), लावक ( छेदन करनेवाला ), पावक ( पवित्रकरनेवाला) आदि पर्यायों को प्राप्त करते हुए कदाचित् एकत्व तथा कदाचित अनेकत्व को प्राप्त कर अनेकान्त बन जाता है उसी प्रकार प्रतिनियत क्षायोपशमिक पर्यायों के द्वारा कदाचित योग की भी त्रिविधता सिद्ध होती है। अनादि पारिणामिक आत्मद्रव्य रूप पदार्थ के आधार पर कदाचित् योग एक ही प्रकार का रह सकता है । इस प्रकार अनेकान्त के आधार पर कोई उपालम्भ नहीं रहता है । .०९ नेमिचन्द्र - गोजी० गा० २१५ । पृ० ८७ पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन और काय से युक्त जीब की कर्मों को ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति का नाम 'योग' है । नेमिचन्द्र पुग्गल विवाहदेहोदयेण मणचयणकायजुत्तस्स । जीवस्स जा हु सत्ती कम्मागमकारणं जोगो ॥ पुग्नलविवाहदेहोदयेण मणचयणकायजुत्तस्स । जीवस्स जा हु सत्ती कम्मागमकारणं जोग ॥ पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन और काय से जो कर्मों को ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है उसको योग कहते हैं । ·१० पूज्यपादान्वर्य ११ अकलंकदेव (क) भाबलेश्या कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्तिरिति कृत्वा औदयिकीत्युच्यते । - सर्व ० • अ २ । सू ६ इसको अकलंक देव ने उद्धत किया । - राज० अ २। सू ६ । पृ१०६ । ला २४ (क) कषायोदय र जिता योगप्रवृतिर्लेश्या । - गोजी ० ० गा२१५ युक्त जीव की - राज० अ २ | सू ६ । पृ १०६ ! ला २१ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) (ख) कषायश्लेपप्रकर्षापकर्षयुक्ता योगवृतिर्लेश्या । १२ विद्यानन्द कषायोदयतो योगप्रवृत्तिरूपर्शिता । '१४ नेमिचन्द्राचार्यचक्रवर्ती * १३ सिद्धसेनगणिः लिश्यन्ते इति लेश्याः मनोयोगावष्टम्भजनितपरिणामः । - सिद्ध० अ २ । सू ६ | पृ० १४७ - राज० अ ६ | सू७ । पृ० ६४ । ला १३ जोगपत्ती लेस्सा कसायउदयाणु रंजियाहोइ । ०७ योग के भेद १ दो भेद - श्लो० अ २ । सू ६ | श्लो ११ । पृ ३१६ कायवाङ मनः कर्म योग । *१५ हेमचन्द्रसूरि द्वारा उद्धृतः XXX सत्यं किन्तु योगपरिणामो लेश्याः, योगस्तु त्रिविधोऽपि कर्मोदयजन्य एवततो लेश्यानामपि तदुभयजन्यत्वं नविहन्यते | - अनुओ ० सू १२६ पर हेमचन्द्रसूरि वृत्ति - गोजी ० • गा ४८६ - तत्त्व अ ६ । सू. १ भाष्य- - कायिकं कर्म वाचिकं कर्म मानसंकर्म इत्येष त्रिविधो योगो भवति । एकशो द्विविधः । - शुभश्चाशुभश्च । तत्राशुभो हिंसास्तेयाब्रह्मादीनि कायिकः सावद्यानृतपरुषपिशुनादीनि वाचिकः, अभिध्यान्यापदेर्ष्यासूयादीनि मानसः । अतो विपरीतः शुभ इति I प्राणातिपातानृतभाषणवध चिन्तनादिरशुभः । प्राणातिपातादप्तादानमैथुनप्रयोगादिशुभः काययोगः । अनृतभाषणपरुषासत्यवचनादिर शुभोषाग्योगः । बध चिन्तनेयस्यादिरशुभो मनोयोगः । Xxx अहिंसाऽस्तेयब्रह्मचर्यादिः शुभः काययोगः । सत्यहितमितभाषणादिः शुभो वाग्योगः । अर्हदादिभक्तितपोरु विश्रुतविनयादिः शुभो मनोयोगः । x x x । कथं योगस्य शुभाशुभत्वम् ? शुभाशुभ परिणामनिवृत्तत्वाच्छुभाशुभव्यपदेशः । शुभ परिणामनिर्वृत्तो योगः शुभः, अशुभपरिणामनिवृ त्तश्वाशुभ इति कथ्यते, न शुभाशुभकर्म कारण Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) त्वेन । यद्य वमुच्यते; शुभयोग एव न स्यात्, शुभयोगस्यापि ज्ञानावरणादिबन्धहेतुत्वाभ्युपगमात् । -राज० अ६ । सू३ । पृ० ५०६-७ योग के शुभ तथा अशुभ दो भेद होते हैं। मूल सूत्र के अनुसार योग के काय, वचन तथा मन तीन मूल भेद होते हैं। इन तीनों के शुभ तथा अशुभ दो-दो भेद होते हैं । अतः कहा जाता है योग के शुभ तथा अशुभ दो भेद होते हैं। राजवार्तिककार का कथन है कि शुभ योग तथा अशुभ योग का कथन योग के शुभाशुभ का कारण होने के निमित्त से नहीं किया गया है, किन्तु जीव के शुभाशुभ परिणामों की निष्पन्नता के आधार पर किया गया है । द्रव्य और भाव नणु मण-पर-काओगा शुभासुमा वि समयम्मि दीसंति । दव्धम्मि मीसभाषो भवेज्ज न उ भाषकरणम्मि ॥ --विशेभा० गा १६३६ टीका-xxx इह द्विषिधो योगः-द्रव्यतः, भाषतश्च । तत्र मनोपाक्-काययोगप्रवर्तकानि द्रव्याणि, मनो-पाक्-कायपरिस्पन्दात्मको योगश्च द्रव्ययोगः, यस्त्वेतदुभयरूपयोगहेतुरध्यवसायः स भावयोगः। xxx । प्रशस्त और अप्रशस्त योगेन ये समायान्ति शस्ताशस्तेन पुद्गलाः। तेऽष्टकमत्वमिच्छन्ति कषायपरिणामतः॥ -योसा• अ२ । श्लो २३ शुभ और अशुभ शुभाशुभोपयोगेन पासिता योगवृत्तयः । सामान्येन प्रजायन्ते दुरितास्रवहेतवः ॥ -योसा० अ३ । श्लो १ .०२ योगपरिणाम के तीन भेद जोगपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते १ गोयमा ! तिविहे षण्णत्ते । तं जहा-मणजोगपरिणामे १ पइजोगपरिणामे २ कायजोगपरिणामे ३ । - पण्ण० प १३ । सू ६३१ । पृ• २२६ योग-परिणाम तीन प्रकार का होता है-मनोयोगपरिणाम, वचनयोगपरिणाम और काययोगपरिणाम । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) योग के तीन भेद तिविहे जोगे पण्णन्ते, तंजहा-मणोजगे, बइजोगे कायजोगे । एवं रइयाणं विगलिंदियवजाणं जाव वेमाणियाण । - ठाण० स्था ३ । उ १ । सू १३ जोगाणुवादेण अत्थि मणजोगो वविजोगो कायजोग चेदि । - षट्० खं १ । १ सू ४७ । पृ १ । पृ० २७८ तिविहे जोगे पण्णत्ते, तं जहा - मणजोगे, वइजोगे, कायजोगे 1 - ठाण० स्था ३ । उ १ । सू १३ | पृ० ५४१ प्रयोग के तीन भेद तिविहे पओगे पण्णत्ते तंजहा - मणपओगे, वइपओगे, कायपओगे । जहाजोगो विगलिंदयवज्जाण जावतहा पओगोषि । - ठाण० स्था ३ । १ । सू १४ जीव और प्रयोग जीवाणं तिविहे पओगे पण्णत्ते, तंजहा- मणप्पयोगे, वइप्पयोगे, कायपयोगे । इच्चेप णं तिविहेणं पयोगेणं जीवाणं कम्मोषचए पयोगसा, नो वीससा । - भग० श ६ | उ ३ / सू २६ एवं सव्वेसि पंचिदियाणं तिविहेपयोगे भाणियव्वे । पुढवीकाइयाणं एगबिहेणं पयोगेणं, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं । विगलिंदियाणं दुविहे पयोगे पण्णत्ते, तंजहा - वइपयोगे, कायपयोगेय इच्चेपणं दुविहेणं पयोगेणं कम्मोचचए पयोगसा, नो वीससा । से ते गोयमा ! एवं वुच्चर जीवाणं कम्मोवचए पयोगसा, नो वीससा । एवं जस्स जो पयोगे जाब वेमाणियाणं । .०३ चार भेद चहा सव्वजीचा पण्णत्ता ते एवमाहंसु तं जहा - मणजोगी वइजोगी कायजोगी अजोगी । - जीवा० प्रति ६ । सू २५७ उ । पृ० ४४६ सब जीव चार प्रकार के हैं- मनोयोगी - वचनयोगी-काययोगी व अयोगी । .०४ योग के पन्द्रह भेद कवि णं भंते! जोए पण्णत्ते ? गोयमा ! पण्णरसविहे जोए पण्णत्ते, तं जहा - १ सश्चमणजोए २ मोसमणजोए ३ सच्चामोसमणजोए ४ असच्चामोसमणजोए ५ सच्चवरजोए ६ मोसवइजोए ७ सच्चामोसवइजए ८ असश्चामोस Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) वइजोए ९ ओरालियसरीरकायजोए १० ओरालियमीसाशरीरकायजोए ११ वेउब्वियसरीरकायजोए १२ वेउब्बियमीसासरीरकायजोए १३ आहारगलरीरकायजोए १४ आहारगमीसासरीरकायजोए १५ कम्मासरीकायजोप । -भग० श २५ । उ १ । प्र५ '०५ पन्द्रह भेद योगोपयोगी जीवेषु॥ भाष्य-जीवेष्वरूपिष्वपि सत्सु योगोपयोगौ परिणामावादिमन्तौ भवतः। सच पंचदशभेदः। -तत्त्व० अ५ । सू ४४ काविहे णं भंते ! पओगे पन्नत्ते १ गोयमा! पण्णरसविहे पण्णत्ते। तं जहा-सच्चमणप्पओगे १ मोसमणप्पओगे २ सच्चामोसमणप्पओगे ३ असञ्चामोसमणप्पओगे ४ एवं वइप्पभोगेवि चउहा ८ ओरालियसरीरकायप्पओगे ९ ओरालियमीससरीरकायप्पओगे १० वेउब्वियसरीरकायप्पओगे ११ वेउब्धियमीससरीरकायप्पओगे १२ आहारसरीरकायप्पओगे १३आहारगमीससरीकायप्पओगे १४ कम्मासरीरकायप्पओगे १५ -पण्ण० प १६ । सू १०६८ पृ० २६१ -सम. सम १५ स७ .०६ एकान्तानुवृद्धियोग का स्वामित्व ___टीका-उप्पण्णबिदियसमयप्पहुडि जाव सरीरपज्जत्तीए अपजत्तयद्चरिमसमओ ताव एगताणुवड्ढि जोगो होदि। णवरि लद्धिअपजत्ताणमाउअबंधपाओग्गकाले सगजीविदतिभागे परिणामजोगो होदि । हेठ्ठा एगंताणुषड्ढिजोगो चेब। -षट ० खण्ड ४ । २ । ४ सू १७३ । पु १० । पृष्ठ० ४२० उत्पन्न होने के द्वितीय समय से लेकर शरीर पर्याप्ति से अपर्याप्त अवस्था के अन्तिम तक एकान्तानुवृद्धि योग होता है। विशेषता यह रहती है लब्धि-अपर्याप्त के आयुबन्ध के योग्य काल में अपने जीवन के तृतीय भाग में परिणाम योग होता है, उससे नीचे एकान्तानुवृद्धि योग ही होता है। .०७ उपपादयोग का स्वामित्व टीका-उववादजोगो णाम कत्थ होदि १ उप्पण्णपढमसमए चेष । केवडिओ तस्स कालो १ जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। -षट् ० खण्ड ४ । २।४ सू १७३ । पु १० । पृष्ठ० ४२० उपपाद योग उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही होता है। उसका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) .०८ परिणामयोग का स्वामित्व टीका-लद्धिअपजत्ताणमाउअबंधकाले चेव परिणामजोगो होदि त्ति के वि भणंति । तण्णघडदे, परिणामजोगेटिदस्स अपत्तववादजोगस्स एयंताणुपढिजोगेण परिणामविरोहादो। एयंताणुवड्ढिजोगकालो जहण्णुकस्सेण एगसमओ। पजत्तपढमसमयप्पहुडि उवरि सम्वत्थ परिणामलोगो चेष । णिव्यत्तिअपजत्ताणं णस्थि परिणामजोगो। -षट ० खण्ड ४ । २ । ४ सू १७३ । पु १० । पृष्ठ ४२० । १ कितने ही आचार्यों का मत है कि लब्धि-अपर्याप्त के आयु बन्धकाल में ही परिणाम योग होता है. परन्तु यह घटित नहीं होता है, क्योंकि जो जीव परिणाम योग में स्थित है वह उपवाद योग को प्राप्त नहीं हुआ है उसके एकान्तानुवृद्धि योगके साथ परिणमन करने में विरोध आता है । एकान्तानुवृद्धि योग का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय मात्र है, अतः पर्याप्ति के प्रथम समय से लेकर आगे सर्वत्र परिणाम योग ही रहता है। निवृत्तिअपर्याप्त में परिणाम योग नहीं रहता है। ..९ पचनयोग के भेद पचिजोगो चउन्धिहो सञ्चवचिजोगो मोसवचिजोगो सञ्चमोसवचिजोगो असश्चमोसवचिजोगो चेदि। -षट् • खं १।१ । सू ५२ । पु १ । पृ० २८६ .०१० मनयोग के भेद ___ मणजोगो चउविहो, सञ्चमणजोगो मोसमणजोगो सच्चमोसमणजोगो असचमोसमणजोगो चेदि । -षट • खं० १।१ .०११ सत्य (वचनयोग) के भेद दसविहे सच्चे पण्णत्ते तंजहासंगहणी गाहा जणषय समय ठवणा, णामे रूवे पडुश्चसच्चेय । ववहार भाव जोगे, दसमे ओवम्मसच्चेय ॥ -ठाण० स्था १० । सू८९ .०१२ मृषा ( पचनयोग) के भेद दस बिधे मोसे पण्णत्ते, तं जहा क्रोधे माणे माया, लोभे पेज्जे तहेव दोसेय । हास भए अक्खाइय, उवधात णिस्सिते दसमे। -ठाण• स्था १० । सू६. . Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) .०१३ सत्यमृषा (पचनयोग ) के भेद दसविधे सञ्चा-मोसे पण्णत्ते, तं जहा-उप्पण्णमीसए, विगतमीसए, उप्पणविगतमीसए, जीवमीसए, अजीवमीसए, जीवाजीवमीसए, अणंतमीसए, परितमीसए अद्धामीसए, अद्धद्धामीसए । -ठाण स्था १० । सू६१ .०१४ काययोग के भेद कायजोगो सत्तविहो ओरालियकायजोगो ओरालियमिस्सकायजोगो वेउब्धियकायजोगो वेउब्वियमिस्सकायजोगो आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो कामणकायजोगो चेदि। -पट • खं १ । १ । सू ५६ । पु १ । पृ० २८६ '०८ योग पर विवेचन .०१ गिण्हइ य काइएणं निसिरइ तह वाइएण जोएणं । एगंतरं च गिण्हइ निसिरह एगंतरं चेव ॥ -विशेभा• गा ३५५ टीका-कायेन निवृत्तः कायिकः योजनं योगो व्यापारः, कर्म, क्रिया, इत्यनान्तरम् । तत्र सर्व एव वक्ता कायिकेन योगेन शब्दद्रव्याणि गृह्णाति । चशब्दस्त्वेवकारार्थः, तस्य च व्यवहितसम्बन्धात् कायिकेनैवेति द्रष्टव्यम् । निसृजति, उत्सृजति, मुञ्चति, इति पर्यायाः। तथेति ग्रहणानन्तरमित्यर्थः । उक्तिर्वाक् तथा निर्वृत्तो वाचिकस्तेन योगेन निसृजति। किमनुसमयमेष गृह्णाति, निसृजति वा; उताऽन्यथा ? इत्याशंक्याह-एकान्तरमेव गृह णाति, निसृजत्येकान्तरं चैव। अयमत्र भावार्थ:-प्रतिसमयगृहाणाति मुञ्चति च। कथम् ? यथा ग्रामादन्यो प्रामान्तरं पुरुषाद् वाऽन्यः पुरुषो निरन्तरोऽपि सन् पुरुषान्तरम्, एवमेकै कस्मात् समयादेकैक एवैकान्तरोऽनन्तरसमय एवेत्यर्थः ! काय अर्थात शरीर से निवृत्त-निष्पन्न कायिक कहलाता है। जोड़ना योग है। योग, व्यापार, कर्म तथा क्रिया-सभी एकार्थवाची है। सभी वक्ता कायिक योग से शब्दद्रव्यों (शब्दपुद्गल ) को ग्रहण करते हैं। यहाँ पर गाथा में च शब्द एवकारार्थक है, अतः उसके व्यवधान युक्त सम्बन्ध रहने के कारण ऐसा अर्थ करना चाहिए–'कायिक योग से ही शब्दद्रव्य ग्रहण किये जाते हैं। निसर्ग, उत्सर्ग तथा मोचन--पर्यायवाची हैं। अब ग्रहण के बाद उसका निसर्ग--त्याग होगा। वाच् से निवृत्त होनेवाला वाचिक कहलाता है । वाचिक योग के द्वारा शब्दद्रव्यों का मोचन अर्थात् त्याग होता है। क्या प्रति समय शब्द Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) द्रव्यों का ग्रहण और त्याग होता रहता है अथवा भिन्न प्रकार से होता है ? एकान्तर ही ग्रहण होता है और एकान्तर ही त्याग होता है। भावार्थ यह है कि प्रतिसमय ग्रहण और मोचन होता रहता है । यह कैसे ? जिस प्रकार एक ग्राम से दूसरा ग्राम अनन्तर रहने पर भी ग्रामान्तर कहा जाता है, एक पुरुष से दूसरा पुरुष, अन्तर न रहने पर भी अर्थात् समान रूप आदि के होने पर भी पुरुषान्तर कहा जाता है, इसी प्रकार एक-एक समय से भिन्न एक-एक समय ही एकान्तर अर्थात अनन्तर है । .०२ गिहिज काइएणं किह निसिरइ वाइएण जोएणं । को वाऽयं वा जोगो कि वाया कायसंरंभो ॥ वाया न जीवजोगो पोग्गलपरिणामओ रसाइ व्व । न य ताए निसिरिजइ स चिय निसिरिजए जम्हा ॥ अह सो तनुसंरंभो निसिरइ तो काइएण वत्तव्वं । तणुजोगविसेस श्चिय मण-वइजोग त्ति जमदोसो । __ -विशेभा० गा ३५६-५८ टीका-अत्र परः प्राह-ननु 'गिण्हइ य काइएणं' इति यदुक्तं तद् मन्यामहे, यत गृहणीयात कायिकेन योगेन वागद्रव्याणि भाषकः, नेदमयुक्तम् कायव्यापारमन्तरेण तद्ग्रहणाऽयोगात्। यत्पुनरुक्तम्-'निसिरइ तह वाइएण जोएणं (गा ३५५) इति, तदेतद् नावगच्छामः, यतः कथं नाम निसृजति पाचिकेन योगेन' गृह्यमाणाया वाचो जीवव्यापाररूपयोगाभावाद् नैतघरत इत्यर्थः। इति संक्षेपेणोक्त्वा विस्तराभिधित्सया प्राह-को वाऽयमित्यादि' वेत्यथवा किमनेन संक्षेपेण १, विस्तरेणाऽपि पृच्छामः-कोऽयं नाम पाग्योगः, येन निसृजतीत्युक्तम् ? "किंवाय त्ति' वागेव निसृज्यमानभाषापुद्गलसमूहरूपो वाग्योगः, किंवा कायसंरंभः कायव्यापारस्तन्निसर्गहेतुर्वाग्योगः १ इति विकल्पदयम्। तत्र प्रथमविकल्पपक्षं निराकुर्वन्नाह-'बाया न जीवयोगो' इत्यादि, योगोऽत्र स शरीरजीवव्यापारः प्रस्तुतः, स च वाग् न भवति, पुद्गलपरिणामत्वात् तस्याः, रस-गन्धादिषत्, यस्तुजीवव्यापाररूपो योगः स पुद्गलपरिणामोऽपि न भवति, यथा जीवाधिष्ठितकायव्यापारः। अपि च, 'न य ताए त्ति' न च तया वाचा किश्चिद् निसृज्यते, तस्या एव निसृज्यमानत्वात् ; न च कर्मैव करणं भवति । अतो वागेव वाग्योग इति प्रथमविकल्पो न घटते। अथ द्वितीयमधिकृत्याह–'अहेत्यादि' अथाऽसौवाग्योगस्तनुसंरंभः कायव्यापारः, ततः 'कायिकेन निसृजति' इत्येवमेव वक्तव्यं स्यात, अतः किमुक्तम्--निसिरह Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) तह वाइएणजोएणं' ( गा ३५५) इति ? अत्रोत्तरमाह-'तणु' इत्यादि ननु द्वितीयविकल्प एवाऽत्राऽङ्गीक्रियते, केवलमवशिष्टः काययोगो वाग्योगतया नाऽस्माभिरिष्यते, किन्तु तनुयोगविशेषावेव कायव्यापारविशेषावेव मनोवाग्योगाविष्येते यद् यस्मात् ; ततोऽयमदोषः। न हि कायिको योगः कस्यांचिदप्यवस्थायां शरीरिणां जन्तूनां निवर्तते, अशरीरिणां सिद्धानामेष तन्निवृत्तेरिति अतो वागनिसर्गादिकाले सोऽस्त्येवेति भावः पर पक्ष का कथन है -'कायिक योग से ग्रहण होता है'- यह जो कहा है उसे हम स्वीकार करते हैं, क्योंकि वक्ता कायिक योग से वागद्रव्यों को ग्रहण करता है, यह युक्तियुक्त भी है, क्योंकि काय-व्यापार के बिना वागद्रव्यों का ग्रहण नहीं हो सकता है। फिर यह जो कहा-'वाचिक योग से उसका निस्सरण होता है'-इसे हम समझ नहीं पाते हैं, क्यों कि वाचिक योग से निसर्ग कैसे होता है ? ग्रहण की जाती हुई वाणी में जीव के व्यापार रूप योग का अभाव है-यह घटित नहीं होता है। राह संक्षेप से कहकर अब विस्तार से पूछते हैं-यह वाग्योग क्या है ! जिससे भाषापुद्गल छोड़े जाते हैं वह ? वाणी ही छोड़े जाते हुए भाषापुद्गल के समूह रूप में वाग्योग है, अथवा निसर्ग का कारणभूत कायव्यापार वाग्योग है ! ये दो बिकल्प हैं । प्रथम विकल्प का निराकरण करते हुए कहते हैं कि यह जो शरीर से युक्त जीव का व्यापार कहा गया है वह वाक् नहीं है, क्योंकि वह रस-गन्धादि की तरह पुदगलपरिणामी है। जीव के व्यापार रूप जो योग है वह पुद्गलपरिणामी भी नहीं है, जिस प्रकार जीवाधिष्ठित कायव्यापार पुद्गलपरिणामी नहीं है। और क्या, वाग से कुछ भिन्न वस्तु निकलता नहीं है, अपि तु वही निकलती है। कर्म ही करण नहीं होता है। अतः वाग ही वाग्योग है यह प्रथम विकल्प नहीं घटता है । ___ अब दूसरे विकल्प पर विचार किया जाता है-क्या कायशरीर का व्यापार वागयोग है-ऐसा ही कहेंगे ? इसके उत्तर में कहा गया है-द्वितीय विकल्प को ही यहाँ पर स्वीकार किया गया है। केवल अवशिष्ट काययोग को वागयोग के रूप में हम स्वीकार नहीं करते हैं, किन्तु काय के व्यापार विशेष के रूप में मनोयोग और वाग्योग को स्वीकार करते हैं, अतः यह दोषरहित है। कायिक योग किसी भी अवस्था में शरीरधारियों के निवृत्त नहीं होता है, अपि तु अशरीरी सिद्धों के ही कायिक योग की निवृत्ति होती है, अतः वाग के निसर्गकाल में भी कायिक योग रहता ही है। .०३ किं पुण तणुसंरंभेण जेण मंचइ स वाइओ जोगो। मण्णइ य स माणसिओ तणुजोगो चेष य विभत्तो॥ -विशेभा० गा ३५६ टीका-'किं पुण' इति तथापि इत्यस्यार्थे । ततश्चेदमुक्तं भवति-यद्यपि Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) काययोगः सर्वत्राऽनुगतोऽस्ति, तथापि येन मनो वाग्द्रव्याणामुपादानं करोति कायको योगः येन तु संरंभेण तान्येव मुञ्चति स वाचिकः, येन तु मनोद्रव्याणि चिन्तायां व्यापारयति स मानसिकः, इत्येवं तनुयोग एवैक उपाधिभेदात् त्रिधा विभक्त इति एतावन्मात्रभेदेन त्रयोऽप्यमी योगा व्यवह्रियन्ते । परमार्थतस्तु एक एव कायिको योग इति । तथा च प्रमाणयन्ति 5 इस गाथा से यह सूचित होता है - यद्यपि काययोग सब स्थान में अनुगमन करता है। तथापि जिससे मन वाग्द्रव्यों को ग्रहण करता है वह कायिक योग है, जिस संरंभ से मन उन्हीं ( वाग्द्रव्य ) को छोड़ता है वह वाचिक योग है तथा जिस संरंभ से मनोद्रव्यों को चिन्ता में व्यापृत करता है वह मानसिक योग है । इस प्रकार एक ही काययोग उपाधि भेद ( मन, वचन, काय ) से तीन भागों में विभक्त होता है । परमार्थ रूप में एक ही काययोग सर्वत्र रहता है। अग्रिम गाथा से इसको प्रमाणित करते हैं । तणुजोगो च्चिय मण-वइजोगा कारण दव्वगहणाओ । आणापाण व्व, न थे, तओ वि जोगंतरं होजा ॥ टीका - तनुयोग एव मनो- बाग्योगौ - तदन्तर्गतावेवैतावित्यर्थः, इयं प्रतिज्ञा; कायेनैव तद्रव्यग्रहणादिति हेतुः प्राणाऽपानचदिति दृष्टान्तः यथा कायेन द्रव्यग्रहणात् प्राणाऽपानव्यापारः कायिकयोगाद् न भिद्यते एवं मनोवाग्योगावपीति भावः । न चेदेवं न चेत् त्वया प्राणाऽपानव्यापारस्तनुयोगतयाऽभ्युपगम्यते, तर्हि तकोऽपि सोऽपि प्राणाऽपामव्यापारो योगान्तरं स्यात्, ततो योगचतुष्टयप्रसङ्गः, अनिष्टं चैतत् तस्मात् कायिकयोग एवायमिति । अत्र परः प्राह " क्योंकि काय दृष्टान्त देते काययोग से भिन्न मनोयोग और वचनयोग, काययोग में अन्तर्भूत है - ऐसा मानते हैं, से ही उनके ( मन और वचन ) द्रव्यों का ग्रहण होता है इसमें प्राण अपान का हैं, जिस प्रकार काय द्वारा द्रव्य ग्रहण होने के कारण प्राण अपान को नहीं मानते हैं उसी प्रकार मनोयोग और वाग्योग को भी काययोग के क I अन्यथा जब आप प्राण अपान रूप व्यापार को काययोग के रूप में तब उस प्राण अपान रूप व्यापार को भी योगान्तर स्वीकार करें। ऐसा अन्तर्गत स्वीकार स्वीकार करते हैं करने पर तो चार योग का प्रसंग उपस्थित हो जायगा जो अभीष्ट नहीं है, अतः यह काययोग ही है । यहाँ पर परपक्ष का कथन है - - विशेभा० गा ३६० तुल्ले तणुजोगत्ते कीस व जोगंतरं तओ न कओ ? | ग- वइजोगा व कया, भण्णइ ववहारसिद्धत्थं ॥ मण - विशेभा० गा ३६१ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) टीका-ननु त्वदुक्तयुक्त्यैव सर्वेषां तुल्ये तनुयोगत्वे मनो-वाग्योगवत् किमिति तकोऽसौ प्राणाऽपानव्यापारः कायिकयोगात् योगान्तरं न कृतः, किमिति चतुर्थों योगो न कृतः १ इत्यर्थः। अथ नैवं क्रियते, तहि तुल्येऽपि तनुयोगत्वे मनो वाग्योगौ काययोगात किमिति पृथक् कृतौ । तस्मात तनुयोगत्वस्य सर्वत्र तुल्यत्वादेक एव काययोगः क्रियताम् ; उपाधिभेदेन तु चत्वारो वा योगाः क्रियन्ताम् ; अन्यथा पक्षपातमेव स्यात् , न युक्तिः, इति भावः। अत्रोत्तरमाह-'भण्णइ' इत्यादि भण्यतेऽत्रोत्तरम् । किं तत् १ इत्याहव्यवहारस्य लोक-लोकोत्तररूढस्य सिद्ध यर्थं प्रसिद्धिनिमित्तं मनो वाग्योगावेव पृथक् कृतौ, न प्राणाऽपानयोग इति । व्यवहारोऽपि किमितीत्थं प्रवृत्तः ? इत्याह तुम्हारे कथनानुसार मनोयोग और वाग्योग की तरह जव सर्वत्र काययोग समान रूप से रहता है तब क्या कारण रहा जो इस प्राणापान रूप व्यापार को काययोग से पृथक योगान्तर नहीं स्वीकार किया गया ; क्यों न चतुर्थ योग स्वीकार किया गया? यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो तुल्य रूप में ही काययोग से सम्बन्ध रहने के कारण मनोयोग और वचनयोग को काययोग से पृथक् क्यों किया गया ? इसलिए जब काययोग सर्वत्र तुल्य ही रहता है तो एक ही काययोग माना जाय, अथवा उपाधि भेद से चार योग माने जायें ! अन्यथा पक्षपात ही कहा जायगा, इसमें कोई युक्ति नहीं है। इसके उत्तर में कहा जाता है-लोक और लोकोत्तर में रूढ़ व्यवहार की सिद्धि के लिए अर्थात प्रसिद्धि के रक्षार्थ मनयोग और वाग्योग को तो पृथक् माना गया, किन्तु प्राणापान रूप योग नहीं माना गया। व्यवहार ही ऐसा क्यों प्रवृत्त हुआ ? इसके सम्बन्ध में कहा जाता है कायकिरियाइरित्तं नाणा-पाणफलं जह वईए। दीसह मणसो य फुडं तणुजोगभंतरं तो सो॥ -विशेभा० गा ३६२ टीका-कायक्रिया कायव्यापारः, तदतिरिक्तं तदभ्यधिकं प्राणाऽपानफलं न किमपि दृश्यते, यथा वाचो मनसश्च स्फुटं तद् दृश्यते। इदमुक्तं भवतियथा वाचः स्वाध्यायविधान-परप्रत्यायनादिकं, मनसश्च धर्मध्यानादिकं विशिष्टं स्फुटं कायक्रियातिरिक्तं फलमुपलभ्यते, नैवं प्राणापानयोः, इति तनुयोगाभ्यन्तरव]वाऽसौ प्राणाऽपानव्यापारो व्यवह्रियते, न पृथक् । न च वक्तव्यम्-'जीवत्यसौ' इति प्रतीतिजननादिकं प्राणाऽपानफलमप्युपलभ्यत एवेति ; एवंभूतस्य प्रयोजनमात्रस्य सर्वत्र विद्यमानत्वात् धापन-वल्गनादि Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) व्यापारस्याऽपि पृथग्योगत्वप्रसङ्गात् । तस्मात् विशिष्टव्यवहाराङ्गभूतपरप्रत्यायनादिफलत्वात् वाग्मनोयोगादेव पृथक् कृतौ, न प्राणाऽपानयोग इति । मनने तु तदेवं तनुयोगो वाग्निसर्गविषये व्याप्रियमाणो वाग्योगः, व्याप्रियमाणो मनोयोगः ; वाग्विषयो योगो वाग्योगः, मनोविषयो योगो मनोयोग इति कृत्वा । इत्येवं 'तनुयोगविशेषावेव वाग् मनोयोगो' इत्येतद् दर्शितम् । अथवा 'स्वतन्त्रावेतौ' इति दर्शयन्नाह - काय - व्यापार के अतिरिक्त प्राणापान का कुछ भी फल देखा नहीं जाता है, जिस प्रकार वाग और मन का स्फुट फल दिखाई देता है। इससे यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार स्वाध्यायविधान तथा पर प्रत्यय ( दूसरे को समझाना ) आदि वाणीका और धर्म - ध्यानादि रूप मन का कायक्रिया से भिन्न स्फुट फल उपलब्ध होता हैं वैसा स्फुट फल प्राणापान का नहीं मिलता है, अतः प्राणापान के व्यापार को काययोग के अभ्यन्तर ही माना गया, पृथक नहीं। यदि ऐसा कहें कि किसी मरणोन्मुख प्राणी के प्राणापान व्यापार को लक्ष्य कर 'यह जीवित है ' १ - इस प्रकार प्राणापान का भी स्फुट फल प्राप्त होता है। इस प्रकार यदि देखा जाय तो सर्वत्र कुछ न कुछ प्रयोजन की विद्यमानता रहती है और उसके आधार पर धावन वल्गनादि को भी पृथक् योग स्वीकार करना होगा । इसलिए विशिष्ट व्यवहार के अंगभूत पर प्रत्यय आदि फल प्राप्त होने के कारण वाग्योग और मनोयोग को पृथक् स्वीकार किया गया, किन्तु प्राणापान को नहीं स्वीकार किया गया । जिस योग का विषय वाक् हो वह वाग्योग है तथा जिस योग का विषय मन हो वह मनोयोग है, इस आधार पर काययोग जब वाक् के निसर्ग में व्यापृत रहता है तब वाग्योग है और जब मनन में व्याप्त रहता है तब मनोयोग है । इस प्रकार काययोग विशेष ही वाग्योग और मनोयोग है - यह दिखा दिया गया । अथवा ये दोनों योग स्वतन्त्र हैयह दिखाते हुए आगे कहा जाता है. ---- .०४ अहवा तणुजोगाहिअवइदव्वसमूह जीववावारो सो वइजोगो भण्णइ वाया निसिरिजए तेणं ॥ तह तणुधावाराहिअमणदव्वसमूह जीववावाशे I सो मणजोगो भण्णइ मण्णइ नेयं जओ तेणं ॥ - विशेभा० टीका - अथवा तनुयोगेन कायव्यापारेणाऽऽहतो ( प्र०SSहृतो ) गृहीतो योऽसौ वाग्द्रव्यसमूहस्तेन सहकारिकारणभूतेन तन्निसर्गार्थ' योऽसौ जीवस्य व्यापारः स बाग्योगो भण्यते, वाचा सहकारिकारणभूतया जीवस्य योगो बाग्योग इति कृत्वा । किं पुनस्तेन क्रियते ? इत्याह- सैव वाग् तेन १० गा ३६३-६४ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) जीवव्यापारेण निसृज्यते परप्रत्यायनार्थमुच्यते इति । तथा, तनुव्यापारेणाऽऽस्तो (प्र०......ऽऽहृतो) योऽसौ मनोद्रव्यसमूहस्तेन सहकारिकारणभूतेन वस्तुचिन्तनाय योऽसौ जीवस्य व्यापारः स मनोयोगो भण्यते, मनसा सहकारिकारणभूतेन जीवस्य योगो मनोयोग इति व्युत्पत्तेः। कुतः पुनरयं मनोयोगः? इत्याह-यतस्तेन यं जिनमूर्त्यादिकं मन्यते चिन्त्यते, अतस्तस्य मनोयोगत्वमिति । तदेवमत्र पक्षे वाग्द्रव्यनिसर्गादिकाले तनोापारः सन्नपि न विवक्षितः, किन्तु वाग्-मनोद्रव्यसचिवस्यजीवस्य, इति स्वतन्त्रावेव वाग्-मनोयोगौ, न तु तनुयोगविशेषभूताविति भावः । आनाऽपानद्रव्यसाचिव्यात् तन्मोचने जन्तोस्तद्योगोऽपि स्वतन्त्रः पृथक् प्राप्नोति, इतिचेत् । न, 'भण्णइ ववहारसिद्धत्थं' (गा ३६१) इत्यादिना प्रतिविहितत्वात् । ____ अथवा तनुयोग अर्थात काय -व्यापार के द्वारा जो वाग्द्रव्यसमूह ग्रहण किया जाता है वह उसके निसर्ग में सहकारि कारणभूत है, अतः उसके निसर्ग के लिए जीव जो व्यापार करता है वह वाग्योग कहलाता है, क्योंकि सहकारि कारणभूत वाग के द्वारा जो जीव का व्यापार होता है वह वाग्योग है-इस प्रकार वाग्योग की व्युत्पत्ति मानी जाती है । फिर इससे क्या किया जाता है, इसके उत्तर में कहा जाता है-वही वाग जीब-व्यापार के द्वारा निसर्ग की जाती है और दूसरे को समझने के लिए कही जाती है। और; कायव्यापार के द्वारा आहृत जो मनो द्रव्य समूह है उसके सहयोग से वस्तु चिन्तन के लिए जो जीव का व्यापार होता है वह मनोयोग है, क्योंकि सहकारि कारणभूत मन के द्वारा जो जीव का व्यापार है वह मनोयोग है-ऐसी मनोयोग की व्युत्पत्ति की जाती है। फिर यह मनोयोग क्या करता है ? इसके उत्तर में कहा गया- उसके ( मनोयोग) द्वारा शेय अर्थात् जानने योग्य जिनमूर्ति आदि का मनन-चिन्तन होता है। इस प्रकार यहाँ पर वाक् के निसर्गादि काल में काय-व्यापार रहते हुए भी विवक्षित नहीं किया गया, किन्तु वाग्-मनोद्रव्य सहयुक्त जीव-व्यापार को विवक्षित किया, गया, अतः वाग्योग और मनयोग स्वतन्त्र ही हैं, अपितु काययोग विशेष नहीं हैं। प्राणापानद्रव्य के सहयोग से उसके (प्राणापान ) मोचन में भी जीव का व्यापार स्वतन्त्र है, अतः उसको भी 'योग' माना जाय - ऐसा नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसके ऊपर गा ३६१ में विवेचन किया जा चुका है । जह गामाओ गामो गामंतरमेवमेग एगाओ । एगंतरं ति भण्णइ समयाओऽणंतरो समओ ॥ विशेभा० गा ३६५ टीका-यथैकस्मात प्रामादन्यो ग्रामोऽनन्तरितोऽपि लोकरूढ्या प्रामा .०५ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) न्तरमुच्यते, पुरुषाद् वाऽन्यः पुरुषोऽनन्तरोऽपि पुरुषान्तरमभिधीयते ; एवमिहापि एकस्मात् समयाद् योऽयमन्यः समयः सोऽयमनन्तरोऽपि सन्नेकान्तरमित्यभिधीयते । ततः किमुक्त' भवति १, इत्याह- एकस्मात् समयादनन्तरः समय एकान्तरमिति, एवं चानुसमय एव गृह ्मणाति, मुञ्चति चेति पर्यवसितं भवति । जिस प्रकार एक ग्राम से दूसरा ग्राम अनन्तर अर्थात् अभिन्न रहते हुए भी ग्रामान्तर कहा जाता है और एक पुरुष से दूसरा पुरुष अनन्तर रहते हुए भी पुरुषान्तर कहा जाता है उसी प्रकार एक समय से अन्य समय अनन्तर - एक समान आभासित होते हुए भी 'एकान्तर' कहा जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि एक समय से अनन्तर समय 'एकान्तर' है; अतः अनुसमय अर्थात् निरन्तर योगद्रव्यों का ग्रहण और निसर्ग होता रहता है 1 अन्ये तु 'एकान्तरम्' इत्येकैकेन समयेनाऽन्तरितं ग्रहणं, निसर्ग चेच्छन्ति इति दर्शयति .०५ केई एगंतरियं मण्णते गंतरंति, तेसि च । विच्छिन्नावलिरूपो होइ धणी, सुयविरोहो य ॥ टीका - इह केचिद् व्याख्यातारो मन्यन्ते – ग्रहणं, विसर्जनयैकेन समयेनाऽन्तरितमेकान्तरमुच्यते । एतच्चाऽयुक्तम्, यतस्तेषामेवं व्याच्यातॄणामन्तरान्तरविच्छिन्नरत्नावलीरूपो ध्वनिः प्राप्नोति, अन्तरान्तरग्रहणसमयेषु सर्वेष्वयश्रवणात् । तथा श्रुतविरोधश्च यत उक्त श्रुते - " अणुसमयमविरहिअं निरंतरंगिण्इहू" इति ; तथाहि - इदं सूत्रं प्रतिसमयग्रहणप्रतिपादकत्वात् प्रतिसमयनिसर्गप्रतिपादकमपि द्रष्टव्यम्, गृहीतस्य द्वितीयसमयेऽवश्यं निसर्गादिति । — विशेभा० गा ३६६ कुछ आचार्यों का कथन है— ग्रहण और निसर्ग एक समय का अन्तर लेकर होता है तथा इस एक समय के अन्तर को 'एकान्तर' कहा जाता है । यह अयुक्त है, क्योंकि उन्हीं व्याख्याकारों के अनुसार जिस प्रकार मणिमाला में प्रत्येक मणि अन्तरित रूप में दिखाई देती है उसी प्रकार ध्वनि भी अन्तरित सुनाई देगी, क्योंकि इस प्रकार एक समय का अन्तर लेकर गृहीत ( वागद्रव्य ) सभी समयों में श्रवण नहीं होगा । श्रुतविरोध भी होता है, जैसा कि कहा गया है – “अनुसमय अर्थात् प्रत्येक समय अविरहित रूप से ग्रहण होता है ।" यद्यपि यह सूत्र प्रतिसमय ग्रहण मात्र का प्रतिपादन करता है तथापि इसको प्रतिसमय निसर्ग का भी प्रतिपादक मानना चाहिए, क्योंकि गृहीत द्रव्य का द्वितीय समय मैं निसर्ग अवश्य होता है । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) आह, सुएञ्चिय निसिरइ संतरियं न उ निरंतरं भणियं । एगेण जओ गिण्हइ समयेणेगेण सो मुयइ ॥ -विशेभा• गा ३६७ टीका-परः प्राह-यथा स्वपक्षसमर्थकं सूत्रं त्वया दर्शितं, तथा श्रुत एवाऽस्मत्पक्षसमर्थकमपि तद् भणितमेव । किं तत् ? इत्याह-'निसिरह' इत्यादि इत्थं (प्र०..... इदं ) प्रज्ञापनोक्तसूत्रं गायाथामुपनिबद्ध, तच्चेदम्"संतरं निसिरइ, नो निरंतर निसिरइ ; एगेणं समयेणं गिण्हइ, एगेणं समयेणं निसिरइ” इत्यादि । तदनेन सूत्रेण निसर्गस्य सान्तरस्योक्तत्वात् मव्याख्यानमुपपन्नमेव । इति परस्याभिप्रायः। अत्रोत्तरमाह अणुसमयमणंतरियं गहणं भणियं जओ घिमुक्खो वि। जुत्तो निरंतरो श्चिय भणइ, कह संतरो भणिओ १॥ -विशेभा० गा ३६८ टीका-आचार्यः प्राह-हन्त ! तावद् ग्रहणमनुसमयमनन्तरितमव्यवहितं प्राक्तनसूत्रेण भणितं प्रतिपादितमिति भवतोऽपि प्रतीतम् । यत एवम्, अतो विमोक्षोऽपि निसर्गोऽपि निरन्तर एव युक्तः, गृहीतस्याऽवश्यमेषाऽनन्तरसमये निसर्गादिति । प्रेरकः पुनरपि भणति । किम् १ इत्याह-'कह संतरो भणिउ त्ति' इदमुक्त भवति-अहमपि जानामि यतः सूत्रे ग्रहणं निरन्तरमुक्तं, परं यस्तत्रैव निसर्गः सान्तर उक्तः स कथं नीयते ? इति भवानपि निवेदयतु । सत्यम्, किन्तु विषयविभागोऽत्र द्रष्टव्यः । वादी का कथन है-जिस प्रकार अपने पक्ष के समर्थन में तुमने सूत्र दिखाया उसी प्रकार मेरे पक्ष के समर्थन में भी श्रत में कहा गया है। जैसा कि प्रशापना में कहा गया है-'सान्तर निसर्ग होता है, निरन्तर निसर्ग नहीं होता है। एक समय से ग्रहण होता है तथा एक समय से निसर्ग होता है। इस सूत्र में निसर्ग को सान्तर कहा गया है, अतः मेरा (परपक्ष ) कथन भी उपयुक्त ही है। वादी पक्ष का ऐसा अभिप्राय है। इसके उत्तर में आचार्य का कथन है पूर्व सूत्र में जो योगग्रहण का समय अनुसमय अर्थात् अव्यवहित -निरन्तर कहा गया है-यह वादी पक्ष को भी अभीष्ट है। जबकि ग्रहण निरन्तर होता है तो निसर्ग भी निरन्तर ही होना चाहिए, क्योंकि गृहीत द्रव्य का अनन्तर समय में अवश्य ही निसर्ग होता है। वादी पक्ष का पुनः कथन है-सूत्र में जो ग्रहण का समय निरन्तर कहा गया है-यह तो मैं भी समझता हूँ, परन्तु वहीं पर निसर्ग को जो सान्तर कहा गया है उसको कैसे Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) स्वीकार करते हैं यह आप भी बतायें । आचार्य को कथन है - यह तो ठीक है, किन्तु इसमें विषय - विभाग देखना चाहिए । .०७ गहणावेrखाइ तओ निरंतरं जम्मि जाई गहियाइ । न वितम्मि चेव निसिरह जह पढमे निसिरणं नत्थि ॥ - विशेभा • aaisal निसर्गों ग्रहणापेक्षया भाषाद्रव्योपादानापेक्षया पूर्व ग्रहणमपेक्षयेत्यर्थः, 'सान्तर उक्तः' इति शेषः, न तु समयापेक्षया ग्रहणवत्समयापेक्षया तस्य नैरन्तर्येणैव प्रवृत्तेः । कथं पुनर्ग्रहणापेक्षया सान्तरत्वम् ? इत्याह'निरन्तरमित्यादि' यतो यस्मिन् प्रथमादिसमये यानि भाषाद्रव्याणि गृहीतानि, न तानि तस्मिन्नेव ग्रहणसमये नैरन्तर्येण निसृजति, किन्तु ग्रहणसमयादनन्तरसमये निसृजति, यथा प्रथमसमयगृहीतानां न तस्मिन्नेव समये निसर्जनं निसर्गः किन्तु द्वितीयसमये, एवं द्वितीयसमयगृहीतानां तृतीयसमये, तृतीयसमयगृहीतानां चतुर्थ समये निसर्ग इत्यादि सर्वसमयेष्वपि भावनीयम् । तदेवं ग्रहणापेक्षया निसर्गः सान्तर एव, अगृहीतानां निसर्गायोगात् । समयापेक्षया त्वसौ निरन्तर एव द्वितीयादिषु सर्वेष्वपि समयेषु निरन्तर तद्द्भावादिति ॥ आहयद्येवम्, ग्रहणमपि निसर्गापेक्षया सान्तरमेवाऽस्तु । नैवम्, ग्रहणस्य स्वतन्त्रत्वात्, निसर्गस्य तु ग्रहणपरतन्त्रत्वात् । कुतः ? इत्याह • गा ३६६ यह निसर्ग भाषाद्रव्यों के पूर्व - पूर्व में ग्रहण की अपेक्षा से सान्तर कहा गया है, न कि ग्रहण की तरह उसकी ( निसर्ग ) निरन्तर प्रवृत्ति होती 1 ग्रहण की अपेक्षा से सान्तरत्व कैसे होता है ? इसके उत्तर में कहा जाता है - जिस प्रकार, जिस प्रथमादि समय में, जिन भाषाद्रव्यों का ग्रहण होता है उनका उसी ( ग्रहण के ) समय निरन्तर निसर्ग नहीं होता है, किन्तु ग्रहण समय से अनन्तर समय में निसर्ग होता है, यथा प्रथम समय में जिनका ग्रहण होता है उनका उसी समय में निसर्ग कहीं है किन्तु दूसरे समय में होता है, इसी प्रकार द्वितीय समय में गृहीत द्रव्यों का तीसरे समय में तथा तृतीय समय में गृहीत द्रव्यों का चतुर्थ समय में निसर्ग होता है - ऐसा ही सर्वत्र भावना करनी चाहिए। इसी प्रकार ग्रहण की अपेक्षा से निसर्ग को सान्तर कहा गया है, क्योंकि अगृहीत द्रव्यों का निसर्ग संभव नहीं है । समय की अपेक्षा से तो यह निरन्तर ही है जो द्वितीयादि सभी समयों में निरन्तर हो सकता है। कहा है-यदि ऐसा है तो ग्रहण भी निसर्ग की अपेक्षा से सान्तर ही हो। ऐसा नहीं हो सकता है, क्योंकि ग्रहण स्वतन्त्र है और निसर्ग ग्रहण परतन्त्र है । कैसे ? इसके उत्तर में कहा गया है Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .०८ ( ११६ ) निसिरिजइ नागहियं गहणंतरियं ति संतरं तेणं । न निरंतरंति न समयं न जुगवमिह होंति पजाया ॥ --विशेभा० गा ३७० टीका-नागृहीतं कदापि निसृज्यत इति नियम एषाऽयम्। 'संतरं तेणंति' तेन कारणेन निसर्जनं प्रज्ञापनायां सान्तरमुक्तम् । कुतः १ इत्याह'गहणंतरियं' ति ग्रहणान्तरितमिति कृत्वा। 'नाऽनिसृष्टं गृह्यते' इत्ययं तु नियमो नास्ति, प्रथमसमये निसर्गमन्तरेणाऽपि ग्रहणसद्भावात् ; अतः स्वतन्त्रं ग्रहणं, परतन्त्रस्तु निसर्गः, इत्ययमेव सान्तर उक्त इति भावः। तदेवं 'संतरं निसिरई' इति प्रज्ञापनायाः सूत्रावयवो विषयविभागे व्यवस्थापितः। अथ 'नो निरंतरं निसिरइ' इति तदवयवस्यैव भावार्थमाह-'न निरंतरं ती' त्यादि किमुक्तं भवति ?-न निरन्तर निसृजति, न समक, न युगपदिति पर्यायाः । ततश्च किमिह तात्पर्य मिति १ उच्यते-न ग्रहण समकालं निसृजति । किं तर्हि ? पूर्व-पूर्व गृहीतमुत्तरोत्तरसमयेषु निसृजतीति । ननु 'एगेणं समयेणं गिण्हइ, एगेणं समयेणं निसिरह' इत्येतस्य भावार्थो नाद्याप्युक्तः। सत्यम् , किन्तूक्तानुसारेण स्वयमस्वगन्तव्यः-तत्राद्य नै केन समयेन गृह णात्येष, न निसृजति, द्वितीयादिसमयादारभ्यैव निसर्गस्य प्रवृत्तः, पर्यन्तवर्तिना त्वेकेन समयेन निसृजत्येव, न तु गृह्णाति, एकेनोत्तरोत्तरसमयेन निसृजति, इत्यादि स्वधिया भावनीयम् । तदेवं समस्तमपि सूत्रव्यवस्थापितं विषये। ___'अगृहीत ( वाग्द्रव्य ) का कभी निसर्ग नहीं होता है' यह नियम ही है, इसी कारण से प्रज्ञापना में निसर्ग को सान्तर कहा गया है, क्योंकि ग्रहणान्तरित होकर अर्थात् ग्रहण के पश्चात निसर्ग होता है। 'अनिसृष्ट अर्थात बिना छोड़े हुए ( वाग्द्रव्य ) का ग्रहण नहीं होता है। ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि प्रथम समय में निसर्ग के बिना भी ग्रहण होता है। इसलिए ग्रहण स्वतन्त्र है और निसर्ग परतन्त्र है-सान्तर कहने का यही अभिप्राय है । इस प्रकार प्रज्ञापना सूत्र के अंश 'संतरं निसिरई' को व्यवस्थापित किया गया है। अब उसी सूत्र का अंश 'नो निरंतर निसिरइ'-निरन्तर निसर्ग नहीं होता है-इसका भावार्थ कहते हैं। न निरन्तर निसर्ग होता है, न एक काल में होता है, न एक साथ होता हैये सभी एकार्थवाची हैं। तो फिर इसका तात्पर्य क्या है ? कहा जाता है-ग्रहण के समकाल में निसर्ग नहीं होता है। तो क्या होता है ? पूर्व-पूर्व में गृहीत वाग्द्रव्य का उत्तरोत्तर समय में निसर्ग होता है । "एक समय में ग्रहण होता है तथा एक समय में निसर्ग होता है' इसका भावार्थ तो अभी तक नहीं कहा गया। यह तो ठोक है किन्तु जो कहा गया है उसके अनुसार स्वयं भी Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) जान लेना चाहिए, यथा- प्रथम एक समय से ग्रहण ही होता है, निसर्ग नहीं होता; क्योंकि ( प्रथम समय से ग्रहण के बाद ) द्वितीयादि समय से निसर्ग की प्रवृत्ति होती है तथा अन्तिम एक समय से निसर्ग ही होता है, ग्रहण नहीं होता । ग्रहण के बाद उत्तरोत्तर एक समय से निसर्ग होता है - ऐसा अपनी बुद्धि से विचार कर लेना चाहिए । परिणामालंबणगहणसाहणं तेण लद्धनामतिगं । कजन्भासन्नोन्नप्पवेसविसमीकयपवेसं 11 -कम्म० क १ मा ४|५० १६ .०९ । टीका - xxx तेन वीर्यविशेषेण योगसंज्ञकेनौदारिकादिशरीरप्रायोग्यान् पुद्गलान् प्रथमतो गृह्णाति, गृहीत्वा चौदारिकादिरूपतया परिणमयति । तथा प्राणापानभाषा मनोयोग्यान् पुद्गलान् प्रथमतो गृह णाति, गृहीत्वा ख प्राणापानादिरूपतया परिणमयति । परिणमय्य व तन्निसर्गहेतु सामर्थ्य विशेषसिद्धये तानेव पुद्गलानवलम्बते । यथा मन्दशक्तिः कश्चिन्नगरं परिभ्रमणाय यष्टिमवलम्बते ( मवष्टम्भते )। ततस्तदवष्टम्भतो जात सामर्थ्यविशेषः सज् तान् प्राणापानादि पुद्गलान् विसृजतीति परिणामालम्बन ग्रहणसाधनं वीर्यं । तेन च वीर्येण योगसंज्ञकेन मनोवाक्कायावष्टम्भतो जायमानेन 1 'लद्धनामतिगं' ति लब्धं नामत्रिकं । तद्यथा- - मनोयोगो वाग्योगः काययोग इति । तत्र मनसा करणभूतेन योगो मनोयोगः, वाचा योगो बाग्योगः कायेन योगः काययोगः । स्यादेतत् सर्वेषु जीवप्रदेशेषु तुल्यक्षायोपशमिक्या दिलब्धि भावेऽपि किमिति क्वचित्प्रभूतं क्वचित् स्तोकं क्वचित्स्तोकतरमित्येचं वैषम्येण वीर्यमुपलभ्यत इत्यत आह- कज्जेत्यादि, यदर्थं चेष्टते तत्कार्य, तस्याभ्याशः, अभ्यशनमभ्याशः, अशूङ् व्याप्तावित्यस्याभिपूर्वस्य छञन्तस्य प्रयोगः, कार्याभ्याशः कार्यस्यासन्नता निकटीभवन्नित्यर्थः । तथा जीवप्रदेशानामन्योऽन्यं परस्परं प्रवेशः शृङ्खलावयवानामिव परस्परं सम्बन्धविशेषः । ताभ्यां कृत्वा विषमीकृताः (स्व) प्रभूताल्पाल्पतरसद्भावतो विसंस्थुलीकृताः प्रदेशा जीवप्रदेशा येन जीववीर्येण तत्कार्याभ्याशान्योऽन्यप्र देशविषमी कृतप्रदेशं । तथाहियेषामात्मप्रदेशानां हस्तादिगतानामुत्पाट्य मानघटादिलक्षणकार्य नै कट्यं, तेषां प्रभूततरा चेष्टा । दूरस्थानांमंसा (शा) दिगतानां स्वल्पा । दूरतरस्थानां तु पादादिगतानां स्वल्पतरा । अनुभवसिद्ध चैतत् । अपि च लोष्टादिनाऽभिघाते सति यद्यपि सर्वप्रदेशेषु युगपदुवेदनोपजायते, तथापि येषामात्मप्रदेशानामभिघातकलोष्टादिद्रव्यनैकट्यं तेषां तीव्रतरा वेदना, शेषाणां तु मन्दा मन्दतरा । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) तथेहापि जीवप्रदेशेषु परिस्पन्दात्मकं बीर्यमुपजायमानं कार्यद्रव्याभ्याशवशतः केचित्प्रभूतमन्येषु मन्दमपरेषु तु मन्दतमं भबति । एतच्चैचं जीव प्रदेशानां परस्पर सम्बन्धविशेषे सति भवति, नान्यथा, यथा श्रृंखलावयवानां । तथाहितेषां शृंखलावयवानां परस्परं सम्बन्धविशेषे सति एकस्मिन्नबयवे परिस्पन्दमानेऽपरेऽप्यवयवाः परिस्पन्दन्ते । केवलं केचित् स्तोकमपरे स्तोकतरमिति । सम्बन्ध विशेषाभावे त्वेकस्मिन् चलति नापरस्यावश्यंभावि चलनं, यथा गोपुरुषयोः, तस्मात् कार्यद्रव्याभ्याशवशतो जीवप्रदेशानां परस्परं सम्बन्धविशेषतश्चवीर्यं जीवप्रदेशेषु केषुचित्प्रभूतमन्येषु स्तोकमपरेषु स्तोकतरमित्येव वैषम्येणोपजायमानं न विरुध्यत इति । इस योग नामक वीर्यविशेष के द्वारा औदारिकादि शरीर के प्रयोजन होने योग्य पुद्गलों को प्रथमतः ग्रहण करता है और उन पुद्गलों को ग्रहण कर औदारिकादि शरीर रूप से परिणमन करता है । फिर, प्राणापान, भाषा और मन के योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर प्राणापानादि रूप से परिणमन करता है, और परिणमन कर उसके निसर्ग हेतु सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए उन्हीं पुद्गलों का अवलम्बन करता है । यथा- - कोई मन्दशक्ति मनुष्य नगर में घूमने के लिए डंडे का सहारा लेता है उसी प्रकार उन पुद्गलों के अवलम्बन से सामर्थ्य - विशेष प्राप्त कर उन प्राणापानादि पुद्गलों का विसर्जन करता है - यह परिणमन और आलम्बन के ग्रहण का साधनभूत वीर्य है। यह मन, वचन और काय के अवलम्बन से उत्पन्न होनेवाला योग नाम का वीर्य तीन नाम धारण करता है - मनोयोग, वचनयोग और काययोग | मन के द्वारा होनेवाला मनोयोग है, वचन के द्वारा होनेवाला वचनयोग है और काय के द्वारा होनेवाला काययोग है। यह तो ठीक है । किन्तु — सारे जीवप्रदेशों में क्षायोपशमिक लब्धि भाव तो तुल्य रूप से होता है, परन्तु लाभ कहीं अधिक, कहीं अल्प तथा कहीं अल्पतर होता है - ऐसा क्यों ? जिसके लिए चेष्टा होती है वह कार्य है उसका अभ्यास अर्थात योग के द्वारा उसकी निकटता प्राप्त होती है। जीवप्रदेशों की रचना श्रृंखला की तरह एक दूसरे से सम्बद्ध है। जिस प्रकार विषम रूप से अर्थात् अधिक, अल्प और अल्पतर रूप से जिस जीववीर्य के द्वारा जीब प्रदेशों का भार शृंखला पर पड़ता है वह उस कार्य की निकटता के द्वारा परस्पर प्रवेश के कारण होता है, उसी प्रकार जिन हस्तादि आत्मप्रदेशों के द्वारा उठाये जाने वाले घटादि रूप कार्य की निकटता रहती है उनमें अधिक चेष्टा रहती है, उससे कुछ दूरस्थ 'प्रदेश कूल्हे आदि में अल्प चेष्टा होती है तथा दूरतर में स्थित पादादि प्रदेशों में अल्पतर चेष्टा होती है- - इस प्रकार यह अनुभवसिद्ध है । और जिस प्रकार ढेले आदि से अभिघात करने पर यद्यपि सब प्रदेशों में एक साथ वेदना उत्पन्न होती है तथापि जिन आत्मप्रदेशों में अभिघातक लोष्टादि द्रव्य की निकटता होती है वहाँ तीव्रतर वेदना होती है, शेष आत्मप्रदेशों में मन्द और मन्दतर वेदना होती है, इसी प्रकार जीवप्रदेशों में परिस्पन्दन रूप उत्पन्न १६ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२ ) होनेवाला वीर्य कार्यद्रव्य की निकटता से कुछ प्रदेशों में अधिक, कुछ प्रदेशों में मन्द तथा कुछ प्रदेशों में मन्दतर रूप से आभासित होता है। इस प्रकार का आभास जीवप्रदेशों के परस्पर सम्बन्ध-विशेष रहने पर होता है, जैसे शृखलागत अवयवों का परस्पर सम्बन्ध रहता है। शृखला के अवयवों का परस्पर सम्बन्ध बने रहने पर एक अवयव में परिस्पन्दन होने पर दूसरे अवयव भी परिस्पन्दित होने लगते हैं, इतना अवश्य होता है कि कहीं स्पन्दन अधिक होता है और कहीं कम । सम्बन्ध विशेष के अभाव में एक के चलमान होने पर दूसरे का भी चलमान होना आवश्यक नहीं हैं, यथा- गाय और पुरुष में । इसलिए कार्य द्रव्य की निकटता से तथा जीवप्रदेशों के सम्बन्ध विशेष से वीर्य ( योग) कुछ जीवप्रदेशों में अधिक, कुछ प्रदेशों में अल्प तथा कुछ प्रदेशों में अल्पतर रूप से उत्पन्न होता हैइसमें कोई विरोध नहीं है। ..१० लेश्या और कर्म कर्म और योग शाश्वतभाव है। कर्म और योग पहले भी है, पीछे भी है, अनानुपूर्वी है । इनका कोई क्रम नहीं है । न कर्म पहले है और न योग पीछे ; न योग पहले है, न कम पीछे। दोनों पहले भी है, पीछे भी है, दोनों शाश्वत भाव है, दोनों अनानुपूर्वी है। दोनों में आगे-पीछे का क्रम नहीं है (देखो .६४)। भावयोग जीवोदय निष्पन्न है (देखो .५२.५)! द्रव्यलेश्या अजीवोदय निष्पन्न है (देखो .५१.१४)। यह जीवोदय-निष्पन्नता तथा अजीवोदय निष्पन्नता किस-किस कर्म के उदय से है-यह पाठ उपलब्ध नहीं हुआ है। तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य का कहना है कि अशुभयोग मोह कर्मोदय निष्पन्न है तथा शुभयोग नामकर्मोदय-निष्पन्न है । शुभयोग कर्मों की निर्जरा में सहायक होता है । यन्यतेन तु योग परिणामो लेश्या तदभिप्रायेण योगत्रयजनक कर्मोदय प्रभवाः, येवां त्वष्टकर्म परिणामो लेश्या स्तन्मतेन संसारित्वासिद्धत्वपद् अष्टप्रकार कर्मोदयजाइति ! -चतुर्थ कर्म• गा ६६/टीका जिनके मत में लेश्या योग परिणाम रूप है उनके अनुसार जो कर्म तीन योगों के जनक है वह उन कर्मों के उदय से उत्पन्न होने वाली है । कई आचार्यों का कथन है कि योग कर्म बंधन का कारण भी है, निर्जरा का भी। कौन योग कब बंधन का कारण तथा कब निर्जरा का कारण होता है-यह विवेचनीय प्रश्न है । .०११ सलेशी-सयोगी जिहाँ सलेशी तिहाँ सयोगी, जोग कही तिहाँ लेस । जोग लेश्या में कोई फर्क छ-जाण रहा जिन रेस ॥ ---झीणीचर्चा ढाल , Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) .०१२ योग आस्रव और लेश्या भावलेश्या कृष्णादिक तीन, छद्रव्य मांहि जीष । नषतत्व मांहि जीव अरु आस्रव, जोग आस्रव कहीब ॥४॥ -झीणीचर्चा ढाल १ मिथ्यात अव्रत प्रमाद कषाय, एचिवं लेश्या नांहि । जोग आस्रण पिण अशुभ जोगामें, अशुभलेश्या तीनों आय ॥ ५ ॥ .०१३ योग और प्रमाद आस्रव छठे गुणठाणे प्रमाद कह्यो छ, ते किणहीक वेल्यां आवतो जाणो। विषय कषाय अशुभ जोग आयां, तिण में मूढमती करै उलटी ताण ॥ ३७ ॥ इहां पिण प्रमाद ते अशुभ जोग आश्री छै, ते अशुभ जोग किणहीक वेल्वां आवे छ। किणहीक बेल्यां शुभयोग आवै छ, अने प्रमाद आस्रष नीथीत घणी कही छै॥ - झीणीचर्चा ढाल २२-आचार्य जय .०१४ योग और लेश्या तीन जोगां में किसो जोग है, सुणिये तेहनो न्याय । मन पचन कायारा जोगत्रिवं सलेशी कया जिणराय ॥ ६ ॥ उत्तराध्ययन अध्ययन चोंतीश में, त्रिहूँ जोगां री अगुपत । किसन लेश्यानां लक्षण कहिये, श्रीजिन बयण सुसत्य ॥ ७॥ जिहां सलेशी तिहां सजोगी, जोग तिहां कहीलेश । जोगलेश्या में कांइ फरक छ, जांण रहा जिरेनश ॥ ८॥ -मीणीचर्चा ढाल १ .०१५ जोग और प्रमाद आस्रव निरंतरे, दसर्मा लग निरंतर कषाय । निरंतर पाप लागे तेहने, तीनूं जोगा स्यूँ जुदो कहाय ।। ४५॥ -झीणीचर्चा दाल २२ .०१६ योग और निर्जरा भाषलेश्या जीव आस्रव निर्जरा, तो किसा आस्रव रे मांही। जोग आस्रव में शुभ भाषलेश्या छै निर्जरा कर्म कट इणन्याय ॥१०॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) पुन्य बंधै तिनसुं आस्रव, शुभलेश्या कही स्वाम। शुभलेश्या तूं कर्म कटै छ, तिण सुं निर्जरा पदार्थ नाम ॥११॥ -झीणीचर्चा ढाल १ .०१७ अयोग संवर और भाव चवदां गुणठाणां पारिणामिक छ, अजोग संबरसुं कहियै रे। ते अजोग संवर च्यार भाव नहीं छ, तिणसुं पारिणामिक इकलहिये रे ॥४१॥ ___ - झीणीचर्चा ढाल ७ .०१८ योग और आत्मा धर्म अमोलख तीन आत्मा, जोग भला सुखदाय हो । चारित्र सावज जोग त्याग ते, दर्शण सम्यक्त पाय रे ॥ २ ॥ अधर्म भाव दोय उदै पारिणामिक, आत्मां दोय जणाय हो। दर्शण आत्मा उधी सरधा, जोग अशुभ दुःखदाय हो ॥३॥ -झीणीचर्चा दाल ८ .०१९ योग और धर्म-अधर्म अशुभ जोगां ने अनुमारग कह्यो छ, ते पेठो अधर्म तो गिणाय हो। अशुभ जोगां नो प्रबल पणो तिण, अनुमारग कहोताहि हो॥५॥ शुभ जोगां ने मारग कह्यो छ, ते निर्जरा धर्म रे मांहि हो।। अशुभ जोगां ने अनुमारग कह्यो छ, ते अधर्म अनुमारग जणाय हो॥६॥ धर्म अधर्म दोनो सामान्य वाची, जोग अशुभ अव्रत अधर्म मांहि हो। शुभ जोग निर्जरा व्रत संवरए, धर्म में दोनुं गिणाय हो ॥ ७॥ धर्म ते व्रत संवर अधर्म अव्रत अशुभ जोग अनुमारण असार हो। शुभजोग निर्जरां ने, मारग कहिये, ए विशेष वाची पदच्यार हो ॥८॥ -झीणीचर्चा ढाल ८ .०२० योग आत्मा एक नहीं है-अनेक है। किसी आतमा एक कही जै, कुण अनेक दिल देखो जी। द्रव्य आतमां एक कहीजे, सात कही अनेको जी ॥ ३ ॥ - झीणीचर्चा ढाल ६ .०२१ योग आत्मा और सावद्य-निर्वद्य सापद्य निर्वद्य किसी आत्मां, तिसुणो तेहनो न्यायोजी। द्रव्य आतमां नहीं सावध निवेद्य, कषाय सावद्य मांगोजी ।। ४ ।। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ ) जोग दर्शण ए सापद्य निर्वद्य, उपयोग ज्ञान अवध्यारो जी। चारित्र वीर्य एच्यारु'इ, निर्वद्य कही विचारो जी ॥५॥ - झीणीचर्चा ढाल : .०२२ योग और भाव-आत्मा शुभ जोग किसोभाव किसी आत्मा, च्यार भाव चित्त चाहि हो । उपशम वरजीने व्यार भाव छ, आत्मा जोग सुहाय हो ॥१२॥ अशुभ जोग किसोभाष किसी आत्मा, दोयभाव दुःखदाय हो। उदै भाव पारिणामिक कहिये, आत्मा जोग कहिवाय हो ।।१६।। __-झीणीचर्चा ढाल ८ .०२३ योग आत्मा-द्रव्य जीव नहीं है-भावजीव है। भावजीव किसो भाव किसी आत्मा, पाँच भाव कहिवाय हो। आत्मा द्रव्य विनां सातूंई, बुद्धिवंत जाणे न्याय हो ॥३१॥ --झीणीचर्चा ढाल .०२४ योग आत्मा और कर्मबंधन का टूटना कर्म कटै छै किण आत्मा सँ, जोग आत्मा सं जाणी जी। सात आत्मा तूं कर्म कटें नहीं, अधिक न्याय दिल आणीजी ॥ -झीणीचर्चा ढाल .०२५ योग और करनी करणी लेखै आज्ञा मांही, किसी आतमां परणी जी। जोग दर्शणने चारित्र कहिये, अवरन आंणा करणीजी ॥१॥ करणी लेखै निर्वद्य कुण छै, चारित्र एकंत जोयो जी। जोग दर्शण सावज निवंद्य, अधरन कहियै कोयो जी ॥२॥ -झीणीचर्चा दाल : .०२६ अशुभ योग और मुनि अशुभ जोग आवै छै साधू तणेजी, उत्कृष्ट छमासी दोष। तो पिण अत्यागभाव आधी नहीं जी, वर्णपालणपरिणाम निरदोष ॥ ४१॥ -झीणीचर्चा .०२७ योग आत्मा और सर्वउत्तर गुण योग आत्मा और देश उत्तर गुणसर्व उत्तर गुण जोग आतमां, मुनि करै दश पचखाणोजी ॥ १२ ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) देश उत्तर गुण जोग आतमां, श्रावक नी सुविसेखोजी ॥ १३ ॥ सर्व उत्तर गुण देश उत्तर गुण, जोग आतमां किण न्यायोजी। शुभ जोगां सुं कम कटै छै, तिणनें निर्जरा कही जिनरायोजी ।। १४ ।। -झीणीचर्चा दाल E .०२८ योग आत्मा और निर्जरा तिण निर्जरा रा बारै भेद कह्या छै, सूत्र उवाई मांयोजी। प्रथम भेद अणलण जिन भाख्यो, चउत्थ भक्त तिण मांयोजी ॥ १५ ॥ काल उणोदरी उत्तराध्ययने, अध्ययन तीसमां मांडोजी। पुरमट्ठपोरलियादिक तांमें, निपुण विचारै न्यायोजी ॥ १६ ॥ रस परित्याग निर्जरा, मांही, आंविल नबी आयोजी। कर्मकाटणरी एसहुकरणी, जोग आतमां सुखदायो जी ॥ १७ ॥ -झीणीचर्चा दाल .०२९ योग आत्मा और कर्म करमारी करता छै केती, दर्शण जोग कषायोजी। यां तीनां सं कर्म बंधै छ, अवरां सं नहीं बंधायोजी ॥१८॥ पुन्य री कर्ता कवण आत्मा, जोग आत्मा शुभ ताह्यो जी। पाप री करता कवण आत्मा, दर्शण जोग कषायो जी ॥ १९ ॥ -झीणीचर्चा ढालह .०३० योग और प्रमाद आनव मन वचन काया रा व्यापार स्यूँ जी, तीजो आनष जुदो जणाय । जोग आस्रव छै पांचमोजी, प्रमाद तीजो ताहि ॥ २९ ।। असंख्याता जीवरा प्रदेसमें जी, क्षण उछाहपणो अधिकाय । तेदीसे तीनूं जोगास्यूं जुदो जी, प्रमाद आस्रष ताय ॥ ३०॥ ते कर्म उदय होय मिट गया जी, जबर आवै शुभ जोग। तिण वेल्या गुणठाणो सातमों जी, अंतर मुहूरत प्रयोग ॥ ३१ ॥ छठे प्रमाद आम्रप थकांजी लेश्या नोग शुभ आय । अधिक शुभ जोग आया थकांजी, अप्रमादी सातमें थाय ॥ ३२ ।। मद विषय कषाय उदिरर्नेजी, भावनिंदने विकथा ताहि । ए पाँचूं जोग रूप प्रमाद छै जी, तिण स्वू जोग आस्रव में जणाय ।। ३३ ।। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) अधिक प्रमाद आश्री कह्योजी, आहारीक शरीर निपजाय । भगवती शतक सोल में जी, पहिला उदेसा माय || ३४ || एलबद फोड़े ते अशुभ जोग छै जी, त्यांरो नाम कह्यो प्रमाद | ए पांच जोग आस्त्रव मझेजी, पिणतीजे आस्रव नहीं लाध ॥ ३५ ॥ तिम मद विषयादिक जबरनेंजी, कह्या पाँ प्रमाद । ते पिण दीसे आस्रव पंचपेंजी, अशुभ जोग असमाय ॥ ३६ ॥ -झीणीचर्चा ढाल २२ .०३१ योग आत्मा और भाव जोग आत्मां चिहूँ भावे वरतें, उपशम वरजी उदै भाव है किसी आत्मा, दर्शण जोग उदयभाव तेतीश बोलां में शुभजोग तेहिज क्षयोपशमभाव माँहि आवै छै, .०३३ योग आत्मा और सप्रदेशी - अप्रदेशी नामो जी ॥ कषायोजी ॥ .०३२ योग आत्मा - ( अशुभ योग निन्दनीय भी है 1 निन्दनीक छे किती आतमां, दर्शण जोग कषायो जी || ३६ || -झीणीचर्चा ढाल .०३५ योग आतमां और कार्य रूप व्यापार २४ ॥ २५ ॥ -झीणीचर्चा ढाल ६ लेश्या आई रे । तिणसुं बिहुँ भेला उलखाया तिणवार रे || २६ ॥ -झीणी चर्चा ढाल ६ सप्रदेशी अप्रदेशी कुण है, आई सप्रदेशीजी | जीवतणाप्रदेश सहित छे, तिणनें सप्रदेशी कहवीस जी ॥ ३७ ॥ - झीणीचर्चा ढाल ६ .०३४ योग आत्मा और उपयोग जोग उपयोग दर्शण वीर्य में, बारे उपयोग पावेजी ॥ ४३ ॥ -झीणीचर्चा ढाल ६ किसी आत्मा बोले खाले, जोग आतमां जाणी जी । सात आत्मा नहीं बोलें वाले, पेख्यो न्याय पिछाणी जी ॥ ४४॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) असणादिक खावै ते कुंण है, कुण सिनान चित्त भावजी। रांमत खेल करे कुण आतमा, जोग आतमां पावैजी॥ ४५ ॥ सिणगार करै ते किसी आतमां, कुण खेती करसण करती जी। विणज कर ते किसी आतमां, जोग तणी प्रवरती जी ॥ ४६॥ हिंसा करै झूठ कुण बोले, अदक्ष मैथुन सेवैजी। परिग्रही पाप अठारै सेवै, जोग आत्मा सेवैजी ॥ ४७ ।। -झीणीचर्चा० ढाल ६ .०३६ योग आत्मा और नियमा-भजना जोग आत्म ज्यां किती आत्मनी, नियमां भजनां धारीजी। कषाय ज्ञान चारित्रनी भजनां, नियमां अपर विचारी जी ॥ ५७ ।। -झीणीचर्चा ढाल ६ .०३७ योग आत्मा और आहार गृहस्थ आहार करै ते अशुभ जोग छ, ए मोहउदेथी पाप बंधाय रे । ' साधु आहार करें ते शुभ जोगे करी रे, ए पुन्य बंध नाम उदय थी थाय रे ॥१०॥ -झीणीचर्चा ढाल १६ .०३८ योग और स्नातक-निर्ग्रन्थ निग्रंथ इग्यारमें बारमें, सनातक केवल दोय रे । संजोगीने अजोगी कह्या रे, भाई-२ धूर प्रथम बिहछठै जोय ॥८॥ -झीणीचर्चा ढाल २१ .०३९ योग और गुणस्थान छठे गुण ठाणे जीन कह्यारे, जोग सुचवदे होय रे ॥ १२ ॥ -झीणीचर्चा ढाल २१ .०४० योग और आस्रव उदेरी क्रोध करै तसुजी, अशुभ जोग कहिवाय। निरंतर बिगड़ या प्रदेसने जी कहिये आस्रव कषाय ॥१३॥ नवमे अष्टम गुणठाणे छै जी, शुभलेश्या शुभजोग। पिण क्रोधादिक स्यूं बिगड़ या प्रदेसने जी, कषाय आस्रव प्रयोग ।। १४ ।। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) लाल लोह तप्त अगनी थकी जी, काढ्यो संडासा स्यूं बार । थोड़ी बेल्या स्यू लाल पणों मिल्योजी, तपत पणो रह्यो । १५ ॥ तिम लाल पणों अशुभ जोगनों, नहीं सातमा आगे ताहि । ते पिण क्रोधादिक ना उदय थकी जी, तपत रूप ज्यूं आस्रव कषाय ।। १६ ।। -झीणीचर्चा दाल २१ .०४१ मिथ्यादृष्टि में कितने योग "संपहि मिच्छाइट्ठीणं ओधालावे भण्णमाणे अस्थि xxx । आहारदुग्गेण विणा तेरह जोग। -षट् • खं० १, १/टीका/पु० २/पृ० ४१५ अर्थात् ओघतः मिथ्यादृष्टि के आहारक काययोग, आहारकमिश्र काययोग को बाद देकर तेरह योग होते हैं। .०९ योग का नय और निक्षेप की अपेक्षा विवेचन .०९.१ नय की अपेक्षा योग का विवेचन (क) नणु मण-घइ-काओगा सुभासुभा वि समयम्मि दीसंति । व्वम्मि मीसभावो भवेज न उ भावकरणम्मि । -विशेभा० गा १६३६ ठीका-xxx । अयमभिप्रायः-द्रव्ययोगो व्यवहारनयदर्शनेन शुभाशुभरूपोऽपीप्यते, निश्चयनयेन तु सोऽपि शुभोऽशुभो वा केवलः समस्ति, यथोक्तचिन्ता-देशनादिप्रवर्तकद्रव्ययोगाणामपि शुभाशुभरूपमिश्राणां तन्मतेनाभावात् ; मनो-वाक्-कायद्रव्य-योगनिबन्धनाध्यवसायरूपे तु भावकरणे भावयोगे शुभाशुभरूपो मिश्रभावो नास्ति, निश्चयनयदर्शनस्यैवागमेऽत्र विवक्षितस्यात् । न हि शुभान्यशुभानि वाऽध्यवसायस्थानानि मुक्त्वा शुभाशुभाध्यवसायस्थानरूपस्तृतीयो राशिरागमे क्वचिदपीष्यते, येनाध्यवसायरूपे भावयोगे शुभाशुभत्वं स्यादिति भावः। xxx (ख) अत्र तृतीयचतुर्थो मनोयोगौ वाग्योगौ च परिस्थूरव्यवहारनयमतेन द्रष्टव्यो। निश्चयनयमतेन तु मनोज्ञानं वचनं वा सर्वमदुष्टविवक्षापूर्वकं सत्यम्, अज्ञानादिदूषिताशयपूर्वकं त्वसत्यम्, उभयानुभयरूपं तु नास्त्येव सत्यासत्यराशिद्वयेऽन्तर्भावादिति भावनीयम् । -कर्म० मा ४ । गा २४ टीका Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३०) (क) व्यवहार नय की अपेक्षा से द्रव्ययोग तो शुभाशुभ-मिश्र रूप भी हो सकता है, निश्चय नय की अपेआ से तो वह (द्रव्ययोग) भी केवल शुभ या केवल अशुभ रूप ही है । उनके मत में भी यथोक्त चिन्ता तथा देशनादि के प्रवर्तक द्रव्ययोगों का शुभाशुभ मिश्र रूप नहीं माना गया है। मन, वचन और काय के द्रव्ययोग के साधनभूत अध्यवसाय रूप भावकरण या भावयोग में शुभाशुभ रूप मिश्र भाव नहीं है, क्योंकि वहाँ पर आगम में निश्चय नय से ही विवक्षा की गई है। आगम में कहीं भी शुभ और अशुभ इन दो अध्यवसायों के अतिरिक्त शुभाशुभ रूप तीसरा मिश्र-अध्यवसाथ नहीं देखा जाता है जिसके द्वारा अध्यवसाय रूप भावयोग को शुभाशुभ माना जाय । (ख) मनोयोग और वचनयोग के तृतीय-चतुर्थ भेदों को, अर्थात् सत्यासत्य और असत्यामृषा रूप को स्थूल व्यवहार नय की अपेक्षा से समझना चाहिए, निश्चय नय की अपेक्षा से तो सारे मनोज्ञान और वचन, जिनकी विवक्षा निर्दोषतापूर्वक की जाती है वे सत्य है तथा जिनकी विवक्षा अज्ञानादि से दूषित होती है वे असत्य हैं। उभयरूप अर्थात सत्यासत्य रूप और अनुभय रूप अर्थात असत्यामृषा रूप तो है ही नहीं, क्योंकि सत्य रूप का सत्य में और मृषा-असत्य रूप का असत्य में अन्तर्भाव हो जाता है । .०९.१ ववनयोग और मनोयोग पर नय की अपेक्षा विवेचन __ अत्र तृतीयचतुर्थों मनोयोगौ वाग्योगौ च परिस्थूरव्यवहारनयमतेन द्रष्टव्यौ । निश्चयनयमतेन तु मनोज्ञानं वचनं वा सर्वमदुष्टविवक्षापूर्वकं सत्यम्, अज्ञानादिदूषिताशयपूर्वकं त्वसत्यम्, उभयानुभयरूपं तु नास्त्येव सत्यासत्यराशिद्वयेऽन्तर्भावादिति भावनीयम् । -कर्म भा ४गा २४ टीका।पृ० १५१ __ तीसरा और चौथा मनोयोग तथा वचनयोग स्थूल व्यवहार नय की अपेक्षा से जानना चाहिए । निश्चयनय की अपेक्षा से मनोज्ञान या वचन, जिसमें विवक्षा दोषरहित हो तो सब सत्य हैं तथा यदि विवक्षा दोषपूर्वक है तो असत्य है । उभयरूप अर्थात् सत्यासत्य रूप तथा अनुभय रूप अर्थात् असत्यामृषा रूप तो है ही नहीं, क्योंकि सत्य का सत्य में और असत्य का असत्य में अन्तर्भाव हो जाता है । .०९.२ योग का निक्षेप की अपेक्षा विवेचन .१ एत्थजोगो चउविहो-णामजोगो ठवणजोगो दव्वजोगो भाषजोगो चेदि। णाम-ठवणजोगा सुगमा त्ति ण तेसिमत्थो बुञ्चदे। दव्वजोगो दुविहो आगमदव्वजोगो णोआगमदव्वजोगो चेदि । तत्थ आगमदव्वजोगो णाम जोगपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो। णोआगमव्वजोगो तिविहो जाणुगसरीर-भवियतव्यतिरित्तदव्वजोगो चेदि । जाणुगसरीरभवियदम्वजोगा सुगमा । तव्वदिरित्तदव्वजोगो अणेयविहो। तंजहा, सूर-णक्खत्तजोगो चंद-णक्खत्तजोगो गह Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णक्खत्तजोगो कोणंगारजोगो चुण्णजोगो मंतजोगो इच्चेवमादओ। तत्थ भावजोगो दुविहोआगम-भावजोगो णोआगमभावजोगो चेदि । तत्थ आगमभावजोगो जोगपाहुडजाणओ उवजुत्तो। णोआगमभावजोगो तिविहो गुणजोगो संभवजोगो जुंजणजोगो चेदि । तत्थ गुणजोगो दुविहो सचित्तगुणजोगो अचित्तगुणजोगो चेदि । तत्थ अचित्तगुणजोगो जहा रूव-रस-गंध-फासादीहि पोग्गलदव्वजोगो, आगासादीणमप्पप्पणो गुणेहि सह जोगो वा। तत्थ सचित्तगुणजोगो पंचविहो ओदइओ ओवसमिओ खाइयो खओवसमिओ परिणामिओ चेदि। तत्थ गदिलिंग-कसायादीहि जीवस्स जोगो ओदइयगुणजोगो। ओवसमियसम्मत्तसंजमेहि जीवस्स जोगो ओवसमियगुणजोगो। केवलणाण-दसण-जहाक्खादसंजमादीहि जीवस्स जोगो खइयगुणजोगो णाम। ओहि-मणपजवादिही जीवस्स जोगो खओचसमियगुणजोगो णाम। जीव भवियत्तादीहि जोगो पारिणामियगुणजोगो णाम । इंदो मेरु चालइदु समत्थो त्ति एसो संभवजोगो णाम । जो सो जुंजणजोगो सो तिविहो-उववादजोगो एगताणुवढिजोगो परिणामजोगो चेदि। एदेसु जोगेसु झुंजणजोगेण अहियारो, सेसजोगेहितो कम्मपदेसाणमागमणाभाषादो। -~षट • खं० ४।२, ४।सू १७५/टीका।पु १०।पृ० ४३२-३४ योग चार प्रकार का होता है-नामयोग, स्थापनायोग, द्रव्ययोग और भाबयोग। नामयोग और स्थापनायोग सुगम हैं, अतः इसका अर्थ नहीं किया गया है । द्रव्ययोग दो प्रकार का होता है--आगम द्रव्ययोग और नोआगम द्रव्ययोग । इनमें योगप्राभूत का ज्ञाता उपयोगरहित जीव आगम द्रव्ययोग कहलाता है । नोआगमद्रव्ययोग तीन प्रकार का होता है-ज्ञायकशरीर भावी और तद्व्यतिरिक्त । शायकशरी और भावी नोआगमद्रव्ययोग सुगम हैं। तदव्यतिरिक्त नोआगमद्रव्ययोग अनेक प्रकार का होता है, यथा-सूर्य-नक्षत्रयोग, चन्द्र-नक्षत्रयोग, ग्रह-नक्षत्रयोग, कोण-अंगारयोग, चूर्ण योग, मंत्रयोग आदि । भावयोग दो प्रकार का होता है-आगमभावयोग तथा नोआगमभावयोग । आगमभावयोग योगप्राभृत के ज्ञाता उपयोगयुक्त जीव को कहा जाता है। नोआगमभावयोग तीन प्रकार का होता है-गुणयोग, संभवयोग तथा योजनायोग। गुणयोग दो प्रकार का होता है–सचित्तगुणयोग तथा अचित्तगुणयोग। इनमें अचित्तगुणयोग-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि गुणों से पुद्गल द्रव्य का योग होना; अथवा आकाशादि द्रव्यों का अपने-अपने गुणों के साथ योग होने को कहते हैं। सचित्तगुणयोग पाँच प्रकार का होता है-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) उनमें गति, लिंग, कषाय आदि से जो जीव का योग होता है उसको औयिक सचित्तगुणयोग कहते हैं। औपशमिक सम्यक्त्व तथा संयम के साथ जीव के योग को औपशमिक सचित्तगुणयोग कहा जाता है। केवलज्ञान, केवलदर्शन तथा यथाख्यात संयम आदि से होनेवाले जीव के योग को क्षायिक सचित्तगुणयोग कहते हैं । ___ अवधि, मन्नापर्यय आदिशानों के साथ होनेवाले जीव के योग को क्षायोपशमिक सचित्तगुणयोग कहा जाता है । जीवत्व, भव्यत्व आदि के साथ जीव का होनेवाला योग पारिणामिक सचित्तगुणयोग कहलाता है। इन्द्र मेरु पर्वत को चलाने में समर्थ है-इस प्रकार की शक्ति के योग को संभवयोग कहा जाता है । योजना ( मन, वचन तथा काय का व्यापार ) योग तीन प्रकार का है-उपयादयोग, एकान्तानुवृद्धियोग तथा परिणामयोग। इन उपर्यक्त योगों में यहाँ योजनायोग का अधिकार है, क्योंकि शेष योगों के द्वारा कर्मप्रदेशों का आगमन संभव नहीं है । .०९.०२ द्रव्ययोग-भावयोग : पत्थजोगो चउन्धिहो–णामजोगो ठवणजोगो दव्यजोगो भाषजोगो चेदि । णाम-दृधणजोगा सुगमा ति ण तेसिमत्थो वुश्चदे। दव्यजोगो दुविहो आगमदधजोगो णोमागमदधजोगो चेदि । तत्थ भागमदव्वजोगो णाम जोगपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो। णोआगमदव्वजोगो तिविहो जाणुगसरीर-भषियतव्यदिरित्तव्वजोगो चेदि । जाणुगसरीर-भवियद्व्वजोगा सुगमा। तव्यदिरित्तव्वजोगो अणेयविहो। तंजहा–सूर-णक्खत्तजोगो चंद-णक्खत्तजोगो गहणक्खत्तजोगो कोणंगारजोगो चुण्णजोगो मंतजोगो इच्चेवमादओ। तत्थ भाषजोगो दुविहो आगमभावजोगो णोआगमभावजोगो चेदि । तत्थ आगमभावजोगो जोगपाहुडजाणओ उपजुत्तो। णोआगम-भावजोगो तिविहो गुणजोगो संभवजोगो, झुंजणजोगो चेदि । तत्थ गुणजोगो दुविहो सञ्चित्तगुणजोगो अश्चित्तगुणजोगो चेदि। तत्थ अश्चित्तगुणजोगो जहा–रूषरस-गंध-फासादीहि पोग्गलदव्वजोगो, आगासादीणमप्पप्पणो गुणेहि सहजोगो वा। तत्थ सञ्चित्तगुणजोगो पंचविहो-ओदइओ ओवसमिओ खइओ खओवसमिओ पारिणामिओ चेदि। तत्थ गदि-लिंग-कसायादीहि जीवस्स जोगो ओदइयगुणजोगो। ओवसमियसम्मत्तसंजमेहि जीवस्स जोगो ओवसमियगुण Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) जोगो। केवलणाण-दसण-जहापखादसंजमादीहि जीवस्स जोगो खइयगुणजोगो णाम । ओहि मणपजवादीहि जीवस्स जोगो खओवसमियगुणजोगो णाम । जीवस्स भवियत्तादीहि जोगो पारिणामिय गुणजोगो णाम । इंदो मेरु चालइदु समत्थो त्ति एसो संभवजोगो णांम। जो सो जुंजणजोगो सो तिविहो उवषादजोगो एयंताणुवड्ढिजोगो परिणामजोगो खेदि। एदेसुजोगेसु झुंजणजोगेण अहियारो, सेसजोगेहिंतो कम्मपदेसाणमागमणाभावादो। --षट खं ४, २, ४ ! सू १७५ । टीका । पु १० । पृ० ४३२-३४ योग के चार भेद हैं-नामयोग, स्थापनायोग, द्रव्ययोग और भावयोग। नाम और स्थापना योग सुगम हैं, अतः उनका अर्थ नहीं किया गया है। द्रव्ययोग दो प्रकार का हैआगम द्रव्ययोग और नोआगम द्रव्ययोग। आगम द्रव्ययोग योगप्राभृत के ज्ञाता उपयोगरहित जीव को कहते हैं । नोआगम द्रव्ययोग तीन प्रकार का होता है-ज्ञायक शरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त । ज्ञायक शरीर और भावी नोआगम द्रव्ययोग सुगम हैं । तदव्यतिरिक्त नोआगम द्रव्ययोग अनेक प्रकार का है, यथा--सूर्य-नक्षत्रयोग, चन्द्र-नक्षत्रयोग, ग्रह-नक्षत्रयोग, कोण-अंगारयोग, चूण योग तथा मन्त्रयोग आदि । भावयोग के दो भेद हैं--आगम भावयोग और नोआगम भावयोग। आगम भावयोग योगप्राभृत के ज्ञाता उपयोगयुक्त जीव को कहते हैं। नोआगम भावयोग तीन प्रकार का होता है-गुणयोग, संभवयोग और योजनायोग। गुणयोग के दो भेद हैंसचित्त गुणयोग और अचित्त गुणयोग। अचित्त गुणयोग रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि के साथ पुद्गल द्रव्य के योग को अथवा आकाश आदि द्रव्यों का अपने-अपने गुणों के साथ योग को कहते हैं। सचित्त गुणयोग पाँच प्रकार का है-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक । गति, लिंग और कषाय आदि के साथ जीव के योग को औदयिक सचित्त गुणयोग कहा जाता है। औपशमिक सम्यक्त्व और संयम से जीव के योग को औपशमिक सचित्त गुणयोग कहते हैं। केवलज्ञान, केवलदर्शन यथा यथाख्यात संयम आदि के साथ होनेवाले जीव के योग को क्षायिक सचित्त गुणयोग कहा जाता है। अवधि तथा मनःपर्यय आदि के साथ होनेवाले जीव के योग को क्षायोपशमिक सचित्त गुणयोग कहते हैं। जीवत्व, भव्यत्व आदि के साथ होनेवाले जीव के योग को पारिणामिक सचित्त गुणयोग कहा जाता है । इन्द्र मेरु पर्वत को संचालित करने में समर्थ है, इस प्रकार की शक्ति विशेष के साथ योग को संभवयोग कहा जाता है। योजना ( मन, वचन और काय का व्यापार ) योग तीन प्रकार का होता है-उपपादयोग, एकान्तानुवृद्धियोग और परिणामयोग। इन योगों में से यहाँ योजनायोग का अधिकार है, क्योंकि अन्य योगों के द्वारा कर्म प्रदेशों का ग्रहण नहीं होता है । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .०९.०३ मनोयोग का मूलकारण मणवयणाणं मूलणिमित्तं खलु पुण्णदेहउदभो दु । मोसुभयाणं मूलणिमित्तं खलु होदि आवरणं ॥ - गोजी० गा २२६ ( सत्य ) और ( अनुभय ) मनोयोग का मूलकारण (पर्याप्ति ) और शरीर नामकर्म का उदय है । मृषा और उभय मनोयोग का मूलकारण जीव का आवरण कर्म है । .०९.४ वचनयोग का मूल कारण ( १३४ ) मणवयणाणं मूलणिमित्तं खलु पुण्णदेहउदओ दु । मूलणिमित्तं मोसुभयाणं होदि आवरणं ॥ ( सत्य ) और ( अनुभय ) वचनयोग का मूलकारण ( पर्याप्ति ) और शरीर नामकर्म का उदय है । मृषा और उभय वचनयोग का मूल कारण जीव का आवरण कर्म है । .०९.५ वैक्रियकाययोग की संभावना बादरतेऊबाऊपंचिदियपुण्णगा षिगुव्वंति । ओरालियं सरीरं विगुण्षणप्पं हवे जेसिं ॥ योगिकेवली के मनोयोग की सम्भावना बादर तेजस्कायिक, वायुकायिक तथा संज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय भी विक्रिया करते हैं, इसलिए इनका भी औदारिक शरीर वैक्रिय होता है । मणसहियाणं वयणं दिट्ठ तप्पुव्वमिदि मणोवयरेणिदिणाणेण उत्तो अंगोवं गुदयादो मणवग्गणखंधाणं - गोजी० गा २२६ दव्वमण' आगमणादो दु - गोजी० गा २३२ सजोगाम्हि । हि ॥ जिदिचंदहि | मणजोगो "I मन से युक्त जीवों में वचन प्रयोग मनःपूर्वक ही देखा जाता है, अतः इन्द्रियज्ञान से रहित सयोगिकेवली के भी उपचारवश मन कहा गया है । अंगोपांग नामकर्म के उदय भगवान् जिनेन्द्र के हृदय स्थान में विकसित अष्टदल ( कमल) के आकार का द्रव्यमन होता हैं । इस द्रव्यमन के कारणभूत मनोवर्गणा के स्कन्धों का सयोगिकेवली में आगमन होता है, अतः उपचार से मनोयोग का अस्तित्व माना गया है । - गोजी ० गा २२७-२८ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५ ) .०९.६ योगस्थान 1 णाम-वण- दव्व- भावभेदेण द्वाणं खदुव्विहं । णाम-टुवणहाणाणि सुगमाणि त्ति तेसिमत्थो ण वुश्चदे । दव्वद्वाणं दुबिहं आगम-णोआगमदचट्ठाणभेदेण | तत्थ आगमदो दव्वद्वाणं द्वाणपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो । णोआगमन्वठ्ठाणं तिविहं जाणुगसरीर भवियतव्वदिरित्तद्वाणभेएन । तत्थ जाणुगसरीर- भवियद्वाणाणि सुगमाणि । तव्वदिरित्तदव्वद्वाणं तिविहं - सच्चित्त- अश्चित्त-मिस्लणोआगमदव्वद्वाणं चेदि । जं तं सवित्तणोआगमव्वद्वाणं तं दुविहं बाहिरमन्तरं वेदि । जं तं बाहिरं तं दुविहं ध्रुवमद्ध्रुवं वेदि । जं तं ध्रुवं तं सिद्धाणमोगाहाणं । कुदो ? तेसिमोगाहणाए वड्ढि -हाणीणमभावेण थिरसरूवेण अवाणादो । जं तमधुवं सचित्तद्वाणं तं संसारस्थाण जीवाणमोगाहणा । कुदो ? तत्थ वड्ढि -हाणीणमुवलंभादो । जं तमब्भंतरं सच्चित्तट्ठाणं तं दुविहं संकोच - विकोणपर्यं तव्विहीणं चेदि । जं तं संकोच - विकोणप्पयमभंतरसच्चित्तठाणं तं सव्वे सजोगजीवाणं जीवदव्वं । जं तं तव्विहीणमन्भंतरं सच्चित्तद्वाणं तं केवलणाण- दंसणहराणं अमोक्खट्ठिदिबंध परिणयाणं सिद्धाणं अजोगिकेवलीणं वा जीबदध्वं । कथं जीवदव्वस्स जीवदव्वमभिण्णहाणं होदि १ ण, सदो वदिरित्तदव्वाणमण्णदव्वहाण हे दुत्ताभावादो सगतिको डिपरिणामभेदणाभेदणत्तणेण सव्वदव्वाणमवट्ठाणुवलंभादो । जं तमचित्तदव्वद्वाणं तं दुविहं रुबि - चित्तदव्वद्वाणमरूवि यचित्तदव्वद्वाणं खेदि । जं तं रूचिअचित्तदव्वद्वाणं तं दुवि अभंतर बाहिरं येदि । जं तमन्तरं [ तं ] दुविहं जहवुत्ति अजहबुत्तियं वेदि । जं तं जहवुत्तिअभंतरंद्वाणं तं किण्ह णील- रुहिर - हालिद्दसुकिल- सुरहि-दुरहिगंध- तित्त कडुय कसायं बिल- महुर - हिद्ध ल्हुक्खसीदुसुणादिभेदेण अणेयविहं । जं तम वुत्तिरुविअवित्तद्वाणं तं पोग्गलमुत्तिवण्ण-गंध-रस- फास अणुवजोगत्तादि-भेदेण अणेयविहं । जं तं बाहिररूविअचित्तदव्वद्वाणं तमेगागासपदेसा दिभेदेण असंखेजवियप्पं । - जं तमरुवि यचित्तदव्वद्वाणं तं दुविहं अन्तरं बाहिरं चेदि जं तमब्भंतरमरूवि-अचित्तदव्वद्वाणं तं धम्मत्थिय - अधम्मत्थिय आगासत्थिय कालदव्वाणपण सरूवाचट्ठाण हेदुपरिणामा । जं तं बाहिरमरूविअवित्त दव्वद्वाणं तं धम्मत्थिय- अधम्मत्थिय- कालद०वेहि ओट्ठद्वागासपदेसा । आगासत्थियस्स णत्थि बाहिरट्ठाणं, आगासावगाहिणो अण्णस्स दव्वल अभावादो । जं तं मिस्सदव्वद्वाणं तं लोगागासो 1 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) भावणं दुहिं आगम-णोआगमभावद्वाणभेदेण । तत्थ आगम-भावद्वाणं णाम द्वाणपाहुडजाणओ उबजुत्तो । णो आगमभावट्ठाणमोदइयादिभेदेण पंचI विहं । एत्थ ओदश्यभावट्ठाणेण अहियारो, अघादिकम्माणमुदएण तप्पा ओग्गेग जोगुप्पत्तदो । जोगो खओवसमिओ त्ति के वि भांति । तं कथं घडदे ! वीरियंत राइयक्खओवसमेण कत्थ वि जोगस्स वड्ढिमुवलक्खिय खओवसमियत्तादुप्पायादो घडदे | जोगस्स ट्ठाणं जोगट्ठाणं, जोगट्ठाणस्स परूवणदा जोग ठाणपरूवणदा, तीए जोगट्ठाणपरूवणदाए दस अणिओगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति 1 किमत्थमेत्थ जोगट्ठाणपरूषणा कीरदे ? पुव्विलम्मि अप्पाबहुगमि सव्वजीवसमासाणं जहण्णुक्कस्सजोगट्ठाणाणं थोवबहुत्तं खेच जाणाविदं । केत्तिएहि अविभागपडिच्छेदेहि फहहि वग्गणाहिचा जहण्णुकस्सजोगट्ठाणाणि होति त्तिण वृत्तं । जोगट्ठाणाणं छच्चेच अंतराणि अप्पाबहुगम्मि परुविदाणि । तदो तेसिमण्णत्थ निरंतरं वड्ढी होदि ति णव्वदे । साच चड्ढी सम्वत्थ किमवदा किमणवट्ठिदा किंवा बड्ढीए पमाणमिदि पदं पि तत्थ ण परुविदं । तदो एदेसिं अपरूविदअस्थाणं परूवणट्ठ जोगट्ठाणपरूवणा कीरदे । -- षट्० खं ४, २, ४ । सू १७५ । टीका । १० । पृ० ४३४-३६ योगस्थान नाम, स्थापना, द्रव्य ओर भाव के भेद से चार प्रकार का है। इनमें नाम और स्थापना सुगम हैं, अतः इनका अर्थ नहीं कहा गया है । द्रव्यस्थान दो प्रकार का है - आगमद्रव्यस्थान और नोआगम द्रव्यस्थान । स्थानप्राभृत के जानकार उपयोग रहित जीव को आगम द्रव्यस्थान कहते हैं । नोआगम द्रव्यस्थान ज्ञायक शरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त के भेद से तीन प्रकार का है। उनमें ज्ञायकशरीर और भावी स्थान सुगम हैं । तद्व्यतिरिक्त द्रव्यस्थान तीन प्रकार का है - सचित्त, अचित और मिश्र नोआगम द्रव्यस्थान | सचित्त नोआगम द्रव्यस्थान दो प्रकार का है - बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य द्रव्यस्थान दो प्रकार का है - ध्रुव और अध्रुव । ध्रुव बाह्य सचित्त नोआगम द्रव्यस्थान सिद्धों के अवगाहनास्थान को कहते हैं, क्योंकि वृद्धि और हानि का अभाव रहने के कारण उनकी अवगाहना स्थिर रहती है । अव सचित्त स्थान संसारी जीवों की अवगाहना को कहते हैं, क्योंकि उनमें वृद्धि और हानि पाई जाती है । आभ्यन्तर सचित्तस्थान दो प्रकार का है - संकोच - विकोचात्मक और तद्विहीन । संकोचविकोचात्मक आभ्यन्तर सचित्तस्थान योगयुक्त सभी जीवों के जीवद्रव्य को कहते हैं । तद्विहीन आभ्यन्तर सचित्तस्थान केवलज्ञान और केवलदर्शन के धारक तथा मोक्ष और स्थितिबन्ध से अपरिणत सिद्धों और अयोगिकेवलियों के जीवद्रव्य को कहते हैं । यहाँ पर जीवद्रव्य जीवद्रव्य का अभिन्न स्थान होने का कारण यह है। कि स्व से भिन्न द्रव्यों के अन्य द्रव्यस्थान का हेतु न होने से अपने त्रिकोटि ( उत्पाद, व्यय और ध्रोव्य ) स्वरूप परिणाम के कथंचित् भेदाभेद रूप से सब द्रव्यों का अवस्थान पाया जाता है। / Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) अचित्त द्रव्यस्थान दो प्रकार का है- रूपी अचित्तद्रव्यस्थान और अरूपी अचित्तद्रव्यस्थान । रूपी अचित्तद्रव्यस्थान दो प्रकार का है -- आभ्यन्तर और बाह्य । आभ्यन्तर रूपी अचित्त द्रव्यस्थान दो प्रकार का हैं-जहद्वृत्तिक और अजहद्वृत्तिक । जहद्वृत्तिक आभ्यन्तर रूपी अचित्तद्रव्यस्थान कृष्ण, नील, रुधिर, हारिद्र, शुक्ल, सुरभिगन्ध, दुरभिगन्ध, तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल, मधुर, स्निग्ध, रूक्ष, शीत और ऊष्ण आदि भेद से अनेक प्रकार का है । अजहद्वृत्तिक आभ्यन्तर रूपी अचित्त द्रव्यस्थान पुद्गल के मूर्तत्व, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और उपयोगहीनता आदि भेद से अनेक प्रकार का है । बाह्य रूपी अचित्तद्रव्यस्थान के एक आकाशप्रदेश आदि असंख्यात भेद हैं । अरूपी अचित्त द्रव्यस्थान दो प्रकार का है - आभ्यन्तर और बाह्य । आभ्यन्तर अरूपी अचित्त द्रव्यस्थान धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय तथा काल द्रव्यों के अपने स्वरूप में अवस्थान के हेतुभूत परिणामस्वरूप है । बाह्य अरूपी अचित्त द्रव्यस्थान धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और काल द्रव्य से व्याप्त आकाशप्रदेश स्वरूप है । स्तिकाय का बाह्य स्थान नहीं है, क्योंकि आकाश को स्थान देनेवाले दूसरे द्रव्य का अभाव । मिश्र द्रव्यस्थान लोकाकाश रूप है । आकाशा भावस्थान आगम और नोआगम भेद से दो प्रकार का है । आगम भावस्थान स्थानप्राभृत के ज्ञाता उपयोग युक्त जीव को कहते हैं। नोआगम भावस्थान औदयिक आदि भेद से चार प्रकार का है। यहाँ पर औदयिक भावस्थान का अधिकार है, क्योंकि योग की उत्पत्ति तत्प्रायोग्य अघाती कर्मों के उदय से होती है । कुछ आचार्य योग को क्षायोपशमिक भी मानते हैं, उसका कारण यह है कि कहीं पर वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से योग की वृद्धि को पाकर उसको क्षायोपशमिक प्रतिपादन किया गया है । योग का स्थान - योगस्थान । योगस्थान की प्ररूपणा - योगस्थानप्ररूपणा | योग स्थानप्ररूपणा के दस अनुयोगद्वार हैं । यहाँ योगप्ररूपणा करने का कारण यह है कि पूर्वोक्त अल्पबहुत्व प्रकरण में सब जीव समासों के जघन्य और उत्कृष्ट योगस्थानों का ही अल्पबहुत्व बतलाया गया है, किन्तु कितने अविभागप्रतिच्छेदों, स्पर्द्धकों अथवा वर्गणाओं के द्वारा जघन्य और उत्कृष्ट स्थान होते हैं, यह नहीं कहा गया है । योगस्थानों के छः ही अन्तर अल्पबहुत्व में कहे गये हैं, जिससे जाना जाता है कि अन्य स्थानों में उनकी निरन्तर वृद्धि होती है । किन्तु वह वृद्धि सब स्थानों में अवस्थित है या अनवस्थित तथा वृद्धि का प्रमाण नहीं कहा गया है, अतः इन अप्रकाशित अर्थों के प्रकाशनार्थ योगस्थान की प्ररूपणा की जाती है । .०९.७ द्रव्ययोग और स्थान णाम-वण- दग्व-भावभेदेण हाणं चउन्विहं । णाम-टुवणट्ठाणाणि सुगमाणि त्ति मित्थो ण वुच्चदे । दव्वद्वाणं दुविहं आगम-णोआगमभेदेणं । तत्थ आगमदो बट्टाणं द्वाणपाहुडजाणओ अणुबजुत्तो । गोआगमदव्वद्वाणं तिविहं जाणुगसरीर Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) भविय-तव्वदिरित्तट्ठाणभेएण। तत्थ जाणुगसरीर-भषिय-ढाणाणि सुगमाणि । तव्वदिरित्तदव्वट्ठाणं तिविह-सञ्चित्त-अञ्चित्त-मिस्सणोआगमदवट्ठाणं चेदि । जं तं सञ्चित्तणोआगमदव्वट्ठाणं तं दुविहं बाहिरमन्भंतरं चेदि। जं तं बाहिर तं दुविहं ध्रुवमधुवं चेदि । जं तं धुवं तं सिद्धाणमोगाहणट्ठाणं । कुदो ? तेसि. मोगाहणाए वड्ढि-हाणीणमभावेण थिरसरूवेण अवट्ठाणादो। जं तमधुवं सश्चित्तद्वाणं तं संसारत्थाण जीवाणमोगाहणा | कुदो ? तत्थ वड्ढि-हाणीणमुवलंभादो । जं तमभंतरं सचित्तट्ठाणं तं दुविहं संकोच-विकोचप्पयं तविहीणं चेदि । जं तं संकोच-विकोचप्पयमभंतरसचित्तहाणं तं सव्वेसि सजोगिजीवाणं जीपदव्वं । जं तं तविहीणमभंतरं सञ्चित्तद्वाणं तं केवलणाण-दसणहराणं अमोक्खढिदिबंधपरिणयाणं सिद्धाणं अजोगिकेवलीणं वा जीवदव्वं । कधं जीवदव्वस्स जीवदव्यमभिन्नट्ठाणं होदि १ ण, सदो वदिरित्तदव्वाणमण्णवढाणहेदुत्ताभावादो सगतिकोडिपरिणामभेदणाभेदणत्तणेण सब्वव्वाणमवट्ठाणुवलंभादो । जं तमचित्तव्वट्ठाणं तं दुविहं रूवि-यचित्तदवठाणमरूवि-यचित्तदवट्ठाणं चेदि। जं तं रूविअचित्तवट्ठाणं तं दुविहं अन्भंतरं बाहिरं चेदि । जं तमन्भंतरं [तं ] दुविहं जहवुत्तियं-अजहबुत्तियं चेदि। जं तं जहवुत्तिअभंतरहाणं तं किण्ह-णील-रुहिर-हालिद्द-सुकिल-सुरहि-दुरहिगंध तित्त-कडुयकसायंबिल-महुर-ण्हिद्ध ल्हुक्ख-सीदुसणादिभेदेण अणेयविहं । जं तमजहवुत्तिरूवि-अचित्तदवट्ठाणं तं पोग्गलमुत्ति वण्ण-गंध-रस फास-अणुवजोगत्तादिभेदेण अणेयविहं। जंतं बाहिररूविअचित्तवट्ठाणं तमेगागासपदेसादिभेदेण असंखेजवियप्पं । जं तमरूवि-यचित्तदव्वट्ठाणं तं दुविहं अन्भंतरं बाहिरं चेदि । जं तमभंतरमरूवि-अचित्तदव्वट्ठाणं तं धम्मत्थिय-अधम्मत्थिय-आगासत्थिय-कालव्यामप्पणो सरूवाषट्ठाणहेदुपरिणामा। जं तं बाहिरमरूवि-अचित्तदव्वट्ठाणं तं धम्मस्थिय-अधम्मत्थिय-कालदम्वेहि ओहद्धागासपदेसा। आगासत्थियस्स णस्थि बाहिरहाणं, आगासावगाहिणो अण्णस्स दव्वस्स अभावादो। जं तं मिस्सवठ्ठाणं तं लोगागासो। -षट० खं ४।२,४/सू १७५/टीका।पु १०।पृ० ४३४-३६ स्थान चार प्रकार का होता है --- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। इनमें नाम और स्थापना स्थान सुगम है, अतः इनका नहीं कहा जाता है । द्रव्यस्थान दो प्रकार का होता है-आगम द्रव्यस्थान और नोआगम द्रव्यस्थान। इनमें आगम द्रव्यस्थान स्थान-प्राभृत Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) के ज्ञाता उपयोग रहित जीव को कहा जाता है। नोआगम द्रव्यस्थान तीन प्रकार का होता है-ज्ञायक शरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त । इनमें ज्ञायक शरीर और भावी स्थान सुगम हैं। __तव्यतिरिक्त द्रव्यस्थान तीन प्रकार का है-सचित्त द्रव्यस्थान, अचित्त द्रव्यस्थान तथा मिश्र द्रव्यस्थान। सचित्तनोआगम द्रव्यस्थान दो प्रकार का है-बाह्य और आभ्यन्तर। इनमें बाह्य दो प्रकार का है --ध्रव और अध्रव । ध्रव सचित्तनोआगम द्रव्यस्थान सिद्धों के अवगाहना स्थान को कहा जाता है, क्योंकि वृद्धि और हानि का अभाव होने से उनकी अवगाहना स्थिर रूप से अवस्थित रहती है । अध्रुव सचित्त द्रव्यस्थान संसारी जीवों की अवगाहना को कहते हैं, क्योंकि उसमें वृद्धि और हानि पाई जाती है । आभ्यन्तर, सचित्त द्रव्यस्थान दो प्रकार का होता है-संकोच-विकोचात्मक और तविहीन । संकोच-विकोचात्मक सचित्त द्रव्यस्थान सभी योगयुक्त जीवों के जीव द्रव्य को कहा जाता है । तविहीन सचित्त द्रव्यस्थान केवलज्ञान और केवलदर्शन के धारक मोक्ष तथा स्थितिवन्ध से अपरिणत सिद्धों और अयोगिकेवलियों के जीवद्रव्य को कहा जाता है । यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है-जीवद्रव्य का जीवद्रव्य अभिन्न स्थान किस प्रकार होता है ? इसके निराकरण में कहा गया है-स्व से भिन्न द्रव्यों में अन्य द्रव्यस्थान के हेतुत्व का अभाव होने से अपनी त्रिकोटि ( उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ) रूप परिणमन से कथंचित् भेदाभेद रूप से सभी द्रव्यों का अवस्थान प्राप्त होता है । अचित्त द्रव्यस्थान दो प्रकार का होता है-रूपी अचित्त द्रव्यस्थान और अरूपी अचित्त द्रव्यस्थान। इनमें रूपी अचित्त द्रव्यस्थान दो प्रकार का होता है-जहवृत्तिक और अजहद्वृत्तिक । जहद्वृत्तिक आभ्यन्तर रुपी अचित्त द्रव्यस्थान कृष्ण, नील, रुधिर, हारिद्र तथा शुक्ल वर्ण ; सुरभि और दुरभि गन्ध ; तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल और मधुर रस तथा स्निग्ध, रूक्ष, शीत, उष्णादि स्पर्श के भेद से अनेक प्रकार का है। अजहवृत्तिक आभ्यन्तर रूपी अचित्त द्रव्यस्थान पुद्गल के मूर्तित्व, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श तथा उपयोगहीनता आदि भेद से अनेक प्रकार का होता है । बाह्य रूपी अचित्त द्रव्यस्थान के एक आकाशप्रदेश आदि भेद से असंख्यात भेद होते हैं। ___ अरूपी अचित्त द्रव्यस्थान दो प्रकार का होता है--- आभ्यन्तर और बाह्य । आभ्यन्तर अरूपी अचित्त द्रव्यस्थान धर्मास्तिकाय, अधर्मास्ति काय, आकाशास्तिकाय तथा काल द्रव्यों के अपने स्वरूप में अवस्थान के हेतुभूत परिणामस्वरूप को कहते हैं। बाह्य अरूपी अचित्त द्रव्यस्थान धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा काल द्रव्य से अवष्टब्ध ( व्याप्त ) अनेक आकाशप्रदेशों को कहा जाता है । आकाशास्तिकाय का स्थान उससे बाह्य नहीं है, क्योंकि आकाश के अवगाहन करने योग्य अन्य द्रव्य का अभाव है । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४०) .०९.८ भावयोग और स्थान भाषट्ठाणं दुविहं आगम णोआगमभावट्ठाणभेदेण । तत्थ आगमभाषट्ठाणं णाम हाणपाहुडजाणओ उवजुत्तो। णोआगमभाषट्ठाण-मोदइयादिभेदेण पंचविहं । पत्थ ओदइय-भावट्ठाणेण अहियारो अघादिकम्माणमुदएण तप्पाओग्गेण जोगुप्पत्तीदो । जोगो खओवसमिओ त्ति के वि भणंति। तं कधं घडदे ? वीरियंतराइयक्खओवसमेण कत्थ वि जोगस्स वढिमुवलक्खिय खओवसमियत्तपदुप्पायणादो घडदे। - षट० खं ४।२,४/सू १७५/पु १० पृ० ४३६ भावस्थान दो प्रकार का होता है-आगम भावस्थान और नोआगम भावस्थान । इनमें आगम भावस्थान स्थानप्राभृत के ज्ञाता उपयोगयुक्त जीव को कहते हैं। नोआगम भावस्थान औदयिक आदि भेद से पाँच प्रकार का होता है। यहाँ पर औदयिक भावस्थान का अधिकार है, क्योंकि योग की उत्पत्ति तत्प्रायोग्य अघाती कर्मों के उदय से होती है । कुछ आचार्यों ने योग को क्षायोपशमिक भी स्वीकार किया है, क्योंकि क्वचित् वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से योग की वृद्धि पाकर योग का क्षायोपशमिकत्व प्रतिपादन किया गया है, अतः योग का एक भेद क्षायोपशमिक भी घटित होता है । .०९.९ योगस्थान प्ररूपणा के कारण ___ जोगस ठाणं, जोगट्टाणं, जोगट्ठाणस्स परूवणदा जोगट्ठाणपरूवणदा, तीए जोगहाणपरूवणदाए दस अणिभोगहाराणि णावाणि भवंति । किमत्थमेस्थ जोगट्ठाणपरूवणा कीरदे १ पुग्विलम्मि अप्पाबहुगम्मि सव्वजीवसमासाणं जहण्णुक्कस्सजोगाणाणं थोवबष्टुत्तं चेष जाणाविदं। केत्तिएहि अविभागपडिच्छेदेहि फहएहि वग्गणाहि वा जहण्णुक्कस्सजोगट्ठाणाणि होति त्ति ण वुत्तं । जोगठ्ठाणाणं छच्चेव अंतराणि अप्पाबहुगम्मि परूविदाणि। तदो तेसिमण्णत्थ णिरंतरं वड्ढी होदि त्ति णव्वदे। साथ वड्ढी सव्वत्थ किमवट्ठि किमणवट्ठिदा किंवा वड्ढीए पमाणमिदि एदं पि तत्थ ण परूविदं । तदो एदेसि अपरूविदअत्थणं परूवण ठं जोगट्ठाण परूवणा कीरदे। किं जोगो णाम ? जीवपदेसाणं परिप्फंदो संकोच-विकोचभमणसरूवओ। ण जीवगमणं जोगो, अजोगिस्स अघादिकम्मक्खएण वुड्ढं गच्छंतस्स वि सजोगत्तप्पसंगादो। सो च जोगो मण-वचि-कायजोगभेदेण तिविहो। तत्थ बज्मथचिंतावाषदमणादो समुप्पण्णजीवपदेसपरिप्फंदो मणजोगो णाम। भासावग्गणक्खंधे भासारवेण परिणामेंतस्स जीवपदेसाणं परिप्फंदोवदिजोगो णाम। वात-पित्त Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) सेभादीहि जणिदपरिस्समेण जादजीवपरिप्फंदो कायजोगो णाम । जदि एवं तोतिण्णं पि जोगाणमक्कमेण वुत्ती पावदि त्ति भणिदे--ण एस दोसो, जद जीवपदेसाणं पढम परिप्फंदो जादो अण्णम्मि जीव-पदेसपरिप्फंद सहकारिकारणे जादेवि तस्सेव पहाणत्तदंसणेण तस्स तव्ववएसविरोहाभावादो। तम्हा जोगठाणपरूवणा संबद्धा चेष, णासंबद्धा त्ति सिद्ध। -षट ० खं ४।२,४सू १७६।पृ १० पृ० ४३६-३८ योगस्थान प्ररूपणा में दस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य है । यहाँ पर योगस्थान प्ररूपणा करने का अभिप्राय यह है कि अल्पबहुत्व प्रकरण में सब जीवसमासों के जघन्य तथा उत्कृष्ट योगस्थानों का अल्पबहुत्व ही बतलाया गया है, किन्तु वहाँ पर कितने अविभागप्रतिच्छेदों, स्पर्द्धकों अथवा वर्गणाओं से जघन्य तथा उत्कृष्ट योगस्थान होते हैं, यह नहीं कहा गया है। योगस्थानों के छः ही अन्तर अल्पबहुत्व में कहे गये हैं। इससे ज्ञात होता है कि अन्य स्थानों में उनकी निरन्तर वृद्धि होती है। और वह वृद्धि सब स्थानों में अवस्थित होती है या अनवस्थित, तथा वृद्धि का क्या प्रमाण है-यह भी वहाँ नहीं कहा गया है । अतएव इन अप्ररूपित अर्थों के प्ररूपणार्थ योगस्थान की प्ररूपणा की जाती है । योग किसे कहते हैं ? जीवप्रदेशों के संकोच-विकोच व परिभ्रमण रूप परिस्पन्दन को योग कहा जाता है । जीव के गमन रूप परिस्पन्दन को योग नहीं माना गया है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर अघाती कर्मों के क्षय से अर्ध्वगमन में प्रवृत्त अयोगिकेवली में सयोगत्व उपस्थित हो जायगा। यह योग तीन प्रकार का होता है --मनोयोग, वचनयोग और काययोग। इनमें बाह्य पदार्थों के चिन्तन में प्रवृत्त मन से उत्पन्न जीवप्रदेशों के परिस्पन्द को मनोयोग कहते हैं। भाषावर्गणा के स्कन्धों को भाषा रूप से परिणमन कराने वाले जीव के जीवप्रदेशों का परिस्पन्दन होता है, उसको वचनयोग कहते हैं। वात, पित्त तथा कफ आदि के द्वारा उत्पन्न परिश्रम से होनेवाले जीवप्रदेशों के परिस्पन्दन को काययोग कहते हैं। इस प्रकार उपर्युक्त लक्षणों के आधार पर तीनों योगों का एक साथ अस्तित्व प्राप्त हो सकता है। इसके समाधान में कहा गया है-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीवप्रदेशों के परिस्पन्दन के अन्य सहकारी कारण के रहते हुए भी जिस निमित्त से जीवप्रदेशों का प्रथम परिस्पन्दन होता है उसी की प्रधानता मानी जाती है, अतः उपर्यक्त संज्ञा होने में कोई विरोध नहीं हैं। .०१ द्रव्ययोग (प्रायोगिक)-अजीव है-रूपी है.०११ द्रव्ययोग और प्रदेशावगाह-क्षेत्रावगाह .०१ योग क्षेत्राधिकार-क्षेत्रावगाह काययोग का सामान्य से ( सर्व काययोग द्रव्यों की अपेक्षा ) स्वस्थान समुद्घात Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) तथा उपपाद की अपेक्षा सर्वलोक प्रमाण क्षेत्र अवगाह है तथा वचनयोग तथा मनोयोग का लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र परिमाण अवगाह है । .०१२ द्रव्ययोग की स्थिति मनोयोग तथा बचनयोग की स्थिति जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तर्महूर्त, तथा काययोग की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट अनंतकाल की होती है । .०१३ द्रव्ययोग और भाव आगमों में द्रव्ययोग के भाव सम्बन्धी कोई पाठ नहीं है, लेकिन पुद्गल द्रव्य होने के कारण इसका परिणामिक भाव है । .०१४ योगस्थान के दस अनुयोगद्वार अविभागपडिच्छेद परूवणा वग्गणपरूवणा फद्दयपरूवणा अंतरपरूवणा ठापरूवणा अनंतरावणिधा परंपरोवणिधा समयपरूवणा वढिपरूवणा अप्पाबहुए ति । - षट्० खं० ४ २, ४ सू १७६ १० पृ० ४३८ एत्थि दससु अणिओगद्दारेषु अविभागपडिच्छेदपरूवणा चेव किमट्ठ पुव्वं परुविदा ? ण, अणवगएसु अविभागपडिच्छेदेसु उवरिमअधियाराणं परूवणोवायाभावादो । तदणंतरं वग्गणपरूवणा किमट्ठ परुविदा ? ण एस दोसो, अणवगयासु वग्गणासु फद्दयपरूवणाणुववत्तदो । फद्दसु अणवगएसु अंतरपरूवणादीणमुवायाभावादो सेसाणियोगद्दारेसु फद्दयपरूवणा पुण्वं खेच कदा | कहयबहुत्तणिबंधण अंतरे अणवगए बहुफद्दयाहिद्विदट्ठाणादीणं परूवणोवायाभावादो से साणिओगद्दारेहितो पुव्वमेव अंतरपरूवणा कदा | ठाणेसु अणवगएसु अनंतरावणिधादीणमवगमोवायाभावादो पुव्वं द्वाणपरूचणा कदा | अणंतरोवणिधाए अणवगदाए परंपरोवणिधावगंतुं ण सक्किजदि त्ति पुव्यमणंतवणिधा परुविदा । परंपरोवणिधाप अणवगदाए समय- वड्ढि - अप्पा बहुगाणमवगमोवायाभावादो परंपरोवणिधा परुविदा । समएसु अणवगएसु उवरिमअहियाराणमुत्थाणाभावादो समयपरूवणा पुव्वं परुविदा । वड्ढिपरूवणाए अणवगदाए तत्थावट्ठाणकालावगमोवायाभावादो अप्पाबहुवादो पुव्वं वड्ढि - परूवणा कदा । एवं परूविदाणं सव्वेसिं थोवबहुत्त जाणावणट्टमप्पा बहुगपरूवणा कदा | योगस्थान प्ररूपणा के दस अनुयोगद्वार होते हैं, यथा-अविभाग प्रतिच्छेद प्ररूपणा, वर्गणा प्ररूपणा, स्पर्द्धक प्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पबहुत्व | Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ ) उपर्युक्त दस अनुयोगद्वारों में सर्वप्रथम अविभागप्रतिच्छेद प्ररूपणा के निर्देश करने का कारण है कि इसके अज्ञात रहने पर आगे के अधिकारों की प्ररूपणा करने का अन्य कोई उपाय नहीं है । इसके बाद वर्गणाप्ररूपणा करने का कारण यह है इसके अज्ञात रहने पर स्पर्द्धकों की प्ररूपणा नहीं की जा सकती है। स्पर्द्धकों के अज्ञात रहने पर अन्तरप्ररूपणा आदि जानने का कोई उपाय नहीं है । स्पर्द्ध कबहुत्व के कारणभूत अन्तर के अज्ञात रहने पर बहुत स्पर्द्धकों से अधिष्ठित स्थान आदि अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करने का कोई उपाय नहीं है । स्थानों के अज्ञात रहने पर अनन्तरोपनिधा आदि अनुयोग द्वारों की प्ररूपणा नहीं की जा सकती है। अनन्तरोपनिधा अवगत न होने से परम्परोपनिधा जानने का कोई उपाय नहीं है । परम्परोपनिधा के अज्ञात रहने पर समय, वृद्धि तथा अल्पबहुत्व जानने का कोई उपाय नहीं है । समयों के अज्ञात रहने पर अग्रिम अधिकारों का उत्थान नहीं हो सकता है । बुद्धि परूयणा के अज्ञात रहने पर अवस्थान काल जानने का कोई उपाय नहीं है । इस क्रम से प्ररूपित सभी अधिकारों के अल्पबहुत्व को समझाने के लिए अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है । .०१५ औधिक सयोगी जीवों में अल्पबहुत्व : (क) एएसिणं भंते! जीवाणं सजोगीणं मणजोगीणं वइजोगीणं कायजोगीणं अजोगीणय कयरेकयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहि यावा, गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा मणजोगी, वइजोगी असंखेजगुणा, अजोगी अनंतगुणा, काययोगी अनंतगुणा, सजोगी विसेलाहिया । - पण्ण० प० ३ | पृ० २५५ सबसे कम मनोयोगी वाले जीव होते हैं, उनसे वचनयोगी वाले जीव असंख्यातगुणे होते है, उनसे योग रहित ( अयोगी ) जीव अनंतगुणे हैं, उनसे काययोगी वाले जीव अनंतगुणे हैं तथा उनसे सजोगी जीव विशेषाधिक है । (ख) सम्वत्कोया अजोगी सजोगी अनंतगुणा । -जीवा० प्रति ६ | पृ २५१ योगी जीव सबसे कम तथा सयोगी जीव उनसे अनंतगुणे हैं । .०१६ योग और द्रव्य परिणाम ( एक द्रव्य की अपेक्षा ) .०१ मनोयोगी और वचनयोगी तथा एक द्रव्य परिणाम ( एगे भंते ! दव्वे किं पयोगपरिणय x x x ) जइ पयोगपरिणए कि मणपयोगपरिणवा, वयप्पयोगपरिणए वा, कायप्पओग परिणए XXX वा । मणपओगपरिणए कि सचमणप्पओगपरिणए, मोलमणप्पयोगपरिणए, सच्चा मोसम गप्प योगपरिणए, असच्चामोसमणप्पओगपरिणए ? गोयमा ! सच्च Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) योगपरिणए चा, मोसमणपयोगपरिणए वा सच्चामोस मणप्पओगपरिणए वा, असश्वामोसमणप्पओगपरिणए वा । जद्द सश्चमणप्पओगपरिणए कि आरंभसञ्चमणप्पयोगपरिणए, अणारंभचमणपयोगपरिणय, सारंभसच्च मणप्पओगपरिणए, असारंभसश्च मणप्पयोगपरिणए, समारंभसच्च मणप्पओगपरिणए, असमारंभसश्चमणप्पओगपरिणए ? गोयमा ! आरंभसश्चमणष्पओगपरिणए वा, जाव असमारंभसश्चमणप्पओगपरिणए वा । जइ मोसमणपयोगपरिणए कि आरम्भमोसमणप्पओगपरिणए वा ? एवं जहा सच्चे तहा मोसेण वि एवं सच्चामोसमणप्पयोगेण वि, एवं असच्चामोसमणप्पओगेण वि । जइ वइप्पओगपरिणए किं सच्चचइप्पओगपरिणए, मोसवइप्पओगपरिणए ? एवं जहा मणप्पओगपरिणए तहा वयप्पयोगपरिणए बि, जाव असमारंभवइप्पओगपरिणए वा । - भग० श दाउ १२८-३३ (१) एक द्रव्य प्रयोग परिणत होता है, अथवा मिश्र-परिणत होता है, अथवा विसा परिणत होता है । (२) यदि एक द्रव्य प्रयोग परिणत होता है तो वह मन प्रयोग- परिणत होता है, अथवा वचनप्रयोग होता है अथवा कायप्रयोग-परिणत होता है । (३) यदि एक द्रव्य मनप्रयोग-परिणत होता है तो वह सत्यमनप्रयोग- परिणत होता है, अथवा मृषामनप्रयोग-परिणत होता है अथवा सत्यमृषामनप्रयोग - परिणत होता है, अथवा असत्यामृषामनप्रयोग परिणत होता है । (४) यदि एक द्रव्य, सत्यमनप्रयोग-परिणत होता है तो वह आरम्भ सत्यमनप्रयोगपरिणत होता है, अथवा अनारम्भ सत्य मनप्रयोग-परिणत होता है, अथवा सारम्भ सत्यमनपरिणत होता है, असारम्भ सत्यमनप्रयोग- परिणत होता है, समारंभ सत्यमनप्रयोग - परिणत होता है या असमारंभ सत्यमनप्रयोग - परिणत होता है । जिस प्रकार सत्यमनप्रयोग - परिणत के विषय में कहा है, उसी प्रकार एक द्रव्य, मृषामनप्रयोग परिणत के विषय में जानना चाहिए । इसी प्रकार सत्यमृषामनप्रयोग- परिणत के विषय में एवं असत्यामृषामनप्रयोग- परिणत के विषय में भी जानना चाहिए । जिस प्रकार मनप्रयोग-परिणत के विषय में कहा है, उसी प्रकार वचनप्रयोग - परिणत के विषय में भी जानना चाहिए। यावत् वह एक द्रव्य असमारम्भ वचनप्रयोग-परिणत होता है यहाँ तक कहना चाहिए । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) विवेचन-मन, वचन और काय के व्यापार को 'योग' कहते हैं। वीर्यान्तराय के क्षय या क्षयोपशम से मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणा के पुद्गलों का आलम्बन लेकर आत्मप्रदेशों में होने परिस्पन्द-कम्पन या हलन-चलन को भी 'योग' कहते है। इसी योग को 'प्रयोग' भी कहते हैं। __ मनोयोग में केवल विचार मात्र का ग्रहण होता है और वचनयोग में वाणी का ग्रहण है, अर्थात् भावों को वचन द्वारा प्रकट करना । औदारिक आदि काययोग के द्वारा मनोवर्गणा के द्रव्यों से ग्रहण करके उन्हें मनोयोग द्वारा मनपने परिणमाए हुए पुद्गल 'मनःप्रयोग-परिणत' कहलाते हैं। औदारिक आदि काययोग द्वारा भाषा द्रव्य को ग्रहण करके वचनयोग द्वारा भाषा रूप में परिणत करके बाहर निकाले जाने वाले पुद्गल 'वचनप्रयोग परिणत' कहलाते हैं। औदारिक आदि काय योग द्वारा औदारिकादि वर्गणा द्रव्य को औदादिकादि शरीर रूप से परिणत हुए पुद्गल 'काययोग-परिणत' कहलाते हैं । जीवहिंसा को 'आरम्भ कहते है। हिंसामें मनःप्रयोग द्वारा परिणत पुद्गल ‘आरम्भसत्यमनः प्रयोग परिणत' कहलाते हैं। इसी तरह दूसरों के स्वरूप को भी समझ लेना चाहिए, परन्तु इतनी विशेषता है कि जीव-हिंसा के 'अभाव को अनारम्भ' कहते हैं । किसी जीव को मारने के लिए मानसिक संकल्प करना सारंभ (सरम्भ) कहलाता है । जीवों को परिताप उपजाना समारम्भ कहलाता है। जीवों को प्राण से रहित कर लेना' 'आरम्भ' कहलाता है। .०२ काययोगी और एक द्रव्य-परिणाम जइ कायप्पयोगपरिणए कि ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए, ओरालियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए, वेउब्धियसरीरकायप्पयोगपरिणए, वेउब्धियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए, आहारगसरीरकायप्पयोगपरिणए, आहारगमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए वा, जाप कम्मासरीरकायप्पयोगपरिणए वा। -भग° श घाउ १०प्र० ३४ ___ यदि एक द्रव्य काययोग-परिणत होता है, तो वह औदारिक शरीर काययोग-परिणत होता है, अथवा औदारिक मिश्रकाययोग-परिणत होता है, अथवा वैक्रिय शरीर काययोगपरिणत होता है, अथवा वेक्रिय मिश्र शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा आहारक शरीर काय प्रयोग-परिणत होता है, अथवा आहारकमिश्र काय प्रयोग-परिणत होता है, अथवा कार्मण शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है। __विवेचन-काय की प्रवृत्ति को काययोग कहते हैं। इसके सात भेद है । औदारिक काययोगादि । काय का अर्थ है 'समूह' । औदारिकशरीर-पुद्गल स्कंधों का समूह है, इसलिए काय है। इससे होने वाले व्यापार से 'औदारिक शरीर काययोग कहते हैं। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .०३ औदारिक काययोगी और एक द्रव्य-परिणाम जइ ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए कि एगिदियओरालिएसरीरकायप्पयोगपरिणए, एवं जाव पंचिदियओरालिय-जाव परिणए ? गोयमा ! एगिदियओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए वा, बेइंदिय जाव परिणए वा, जाव पंचिंदियओरालियकायप्पयोगपरिणए वा। जइ एगिदियओरालियशरीरकायप्पओगपरिणए किं पुढधिक्काइयएगिदिय जाव परिणए था, जाप वणस्सइकाइयएगिदियओरालियकायप्पओगपरिणए वा ? गोयमा ! पुढविक्काइयएगिदिय जाव परिणए वा, जाब घणस्सइकाइयएगिदिय जाव परिणए वा। ___ जइ पुढधिक्काइयएगिदियओरालियसरीर जाव परिणए, कि सुष्टुमपुढविक्काइय जाव परिणए, बायरपुढविक्काइय जाव परिणए ? गोयमा! सुहुमपुढविक्काइयएगिदिय जाव परिणए घा, बायरपुढधिक्काइय जाप परिणए था। ___ जइ सुहुमपुढविक्काइय जाव परिणए किं पजत्तसुहुमपुढषिक्काइय जाव परिणए, अपजत्तसुहुमपुढविक्काइय जाव परिणए ? गोयमा ! पजत्तसुहुमपुढविकाइय जाव परिणए वा, अपजत्तसुहमपुढधिक्काइय जाव परिणए वा; एवं पायरा बि एवं जाववणस्सइ काइयाणं, चउक्कओ भेओ, बेईदिय-तेइंदिय-वउरिदियाणं दुयओ भेओ-पजत्तगा य अपजत्तगा य । जइपंचिदियओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए कि तिरिक्खजोणियपंचिंदियओरालियसरीरक्कायप्पयोगपरिणए, मणुस्सपंचिदिय जाव परिणए ? गोयमा ! तिरिक्खजोणिय जाव परिणए वा, मणुस्सपंचिदिय जाव परिणए वा। जइ तिरिक्खजोणिय जाप परिणए कि जलयरतिरिक्खजोणिय जाव परिणए घा, थलयर-खहयर जाव परिणए वा? एवं चउक्को भेओ, जाप खहयराणं। जइ मणुस्सपंचिदिय जाव परिणए कि संमुच्छिममणुस्सपंचिदिय जाप परिणए, गब्भवक्कंतियमणुस्स जाव परिणए ? गोयमा ! दोसु घि। जइ गम्भवक्कंतियमणुस्स जाव परिणए कि पजत्तगम्भवक्कंतिय जाध परिणए, अपजत्तगम्भवक्कंतियमणुस्सपंचिंदियोरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए १ गोयमा ! पजत्तगम्भववतिय जाव परिणए वा, अपजत्तगम्भवक्कंतिय जाव परिणए वा। -भग श ८ । उ १ । प्र ३४.४२ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) यदि एक द्रव्य औदारिक शरीर काय प्रयोग परिणत होता है तो वह एक द्रव्य एकेन्द्रिय औदारिक शरीरकायप्रयोग परिणत होता है अथवा द्वीन्द्रिय औदारिक शरीरकायप्रयोग परिणत होता है यावत पंचेन्द्रिय औदारिक-शरीरकायप्रयोग परिणत होता है । जो एक द्रव्य एकेन्द्रिय औदारिक शरीर कायप्रयोग परिणत होता है वह पृथ्वीकाय एकेन्द्रिय औदारिक शरीर कायप्रयोग परिणत होता है अथवा यावत् वनस्पति कायिक एकेन्द्रिय औदारिक शरीरकायप्रयोग परिणत होता है । जो एक द्रव्य पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक शरीरकायप्रयोग परिणत होता है तो वह सुक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक-शरीर प्रयोग परिणत होता है । अथवा बादर पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक शरीरकायप्रयोग परिणत होता है । जो एक द्रव्य सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक शरीरकायप्रयोग परिणत होता है तो वह पर्याप्त पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक शरीरकायप्रयोग परिणत होता है, अथवा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक शरीरकाय प्रयोग परिणत होता है । इसी प्रकार बादर पृथ्वीकायिक के विषय में भी जानना चाहिए । इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक सभी के चार-चार भेद (सूक्ष्म, वादर, पर्याप्त व अपर्याप्त ) के विषय में जानना चाहिए। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के दो-दो भेद ( पर्याप्त-अपर्याप्त) के विषय में कहना चाहिए। यदि एक द्रव्य पंचेन्द्रिय शरीरकाय प्रयोग परिणत होता है तो वह तिर्यचयोनिक पंचेन्द्रिय औदारिक शरीरकायप्रयोग परिणत होता है अथवा मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिक शरीरकायप्रयोग परिणत होता है। __ यदि एक द्रव्य तिर्यंचयोनिक पंचेन्द्रिय औदारिक शरीरकायप्रयोग परिणत होता है तो वह जलचर तिर्य योनिक पंचेन्द्रिय औदारिक शरीरकायप्रयोग परिणत होता है, अथवा स्थलचर तिर्यचयोनिक पंचेन्द्रिय औदारिक शरीरकायप्रयोग परिणत होता है अथवा खेचर तिर्य चयोनिक शरीरकायप्रयोग परिणत होता है। इसी प्रकार यावत् खेचरों तक चार-चार भेदों सम्मुच्छिम, गर्भज, पर्याप्त-अपर्याप्त के विषय में पहले कहे अनुसार जानना चाहिए। यदि एक द्रव्य मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिक शरीरकायप्रयोग परिणत होता है तो वह सम्मुच्छिम अथवा गर्भज मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिक शरीरकायप्रयोग परिणत होता है । यदि एक द्रव्य गर्भज मनुष्य पंचेन्द्रिय औरारिक शरीरकायप्रयोग परिणत होता है Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) तो वह पर्याप्त गर्भज मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिक कायप्रयोग परिणत होता है, अथवा अपयप्त गर्भज मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिक शरीरकायप्रयोग परिणत होता है । .०४ औदारिकमिश्र काययोगी और एक द्रव्य परिणाम जर ओरालियमीसासरीरकायप्पओगपरिणए किं एगिंदिय-ओरालियमीसासरीरकाय पओगपरिणए, बेइ दिय जाव परिणए, जाव पंविदियभोरालिय जाव परिणए ? गोयमा । एगिदियओरालिय एवं जहा ओरालिय सरीरकायप्पयोगपरिणएणं आलावगो भणिओ तहा ओरालिय-मीसासरीरकायप्पओगपरिपण व आलायगो भाणियव्वो, णवरं बायर - वाउक्काइय-गब्भवपकं तिय-पंचिंदिय-तिरिक्ख - जोणिय-गग्भवक्कंतिय- मणुस्साणं एएसिणं पजत्तापजत्तगाणं, सेसाणं अपजत्तगाणं । -भग० श ८ | उ १ । प्र ४३ यदि एक द्रव्य औदारिक- मिश्रशरीर कायप्रयोग परिणत होता है तो यह एकेन्द्रिय औदारिक- मिश्रशरीर कायप्रयोग परिणत होता है अथवा द्वीन्द्रिय औदारिक मिश्रशरीर कायप्रयोग परिणत होता है अथवा यावत् पंचेन्द्रिय औदारिक मिश्रशरीर कायप्रयोग परित होता है। जिस प्रकार औदारिक शरीरकायप्रयोग परिणत के आलापक कहे हैं उसी प्रकार औदारिक- मिश्रशरीर कायप्रयोग परिणत के भी आलापक कहना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि औदारिक मिश्रशरीर कायप्रयोग परिणत का आलापक बादरवायुकायिक, गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंच और गर्भज मनुष्य के पर्याप्त और अपर्याप्त के विषय में कहना चाहिए और इसके सिवाय शेष सभी जीवों के अपर्याप्त के विषय में करना चाहिए । विवेचन - औदारिक- मिश्रकाययोग — औदारिक के साथ कार्मण, वैक्रिय या आहारक की सहायता से होने वाले वीर्यशक्ति के व्यापारको औदारिक मिश्रकाययोग कहते हैं । यह योग उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो, तब तक सभी औदारिक शरीरधारी के होता है । वैक्रियलब्धिधारी मनुष्य और तिर्यंच जब वैक्रियशरीर का त्याग करते है तब भी औदारिक मिश्रकाययोग होता है । आहारक शरीर से निवृत्त होते समय अर्थात् वापस स्व-शरीर में प्रवेश करते समय " औदारिक मिश्रकाययोग होता है । केवली समुद्घात के आठ समयों में से २, ६, ७ वें समय ये औदारिक मिश्रकाययोग का प्रयोग होता है ।” .०५ वैक्रिय काययोगी और एक द्रव्य परिणाम ज वेव्वियसरीरकायप्पयोगपरिणए कि एगिंदियवेऽन्विय सरीरकायप्पयोगपरिणए, जाव पंचिदियवेडव्वियसरीर जाव परिणए ? गोयमा ! एगिंदिय जाव परिणए बा, पंचिदिय जाब परिणए वा । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) जर एगिदिय जाव परिणए, किं वाउक्काइयएगिदिय जाध परिणए, अवाउक्काइयएगिदिय जाव परिणए १ गोयमा! वाउक्काइयएगिदिय जाव परिणए, जो अबाउक्काइय जाव परिणए ; एवं एएणं अभिलावेणं जहा 'ओगाहणसंठाणे वेउब्वियसरीरं भणिय तहा इहघि भाणियव्वं, जाव पजत्तसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोपधाइयवेमाणियदेवपंचिंदियवेउब्विय-सरीरकायप्पओगपरिणए वा, अपजत्तसव्वइसिद्ध अणुप्तरोषवाइय जाव परिणए वा। -भग० श ८ । उ १ । प्र ४४-४५ यदि एक द्रव्य वैक्रियशरीरकायप्रयोग परिणत होता है तो वह एकेन्द्रिय वैक्रियशरीरकायप्रयोग परिणत होता है, अथवा पंचेन्द्रिय व क्रिय शरीरकायप्रयोग परिणत होता है। यदि एक द्रव्य वायुकायिक एकेन्द्रिय वैकिय शरीरकायप्रयोग परिणत होता है। परन्तु अवायुकायिक एकेन्द्रिय वेक्रिय शरीरकायप्रयोग परिणत नहीं होता है । इसी प्रकार इस अभिलाप द्वारा 'प्रज्ञापना सूत्र के इक्कीसवें 'अवगाहना-संस्थान' पद में वैक्रिय शरीर के सम्बन्ध में कथित वर्णन के अनुसार यहाँ भी जानना चाहिए। यावत पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपातिक कल्पातीत वैमानिकदेव पंचेन्द्रिय वैक्रिय शरीर कायप्रयोग परिणत होता है, या अपर्याप्त सर्वार्थ सिद्ध अनुत्तरोपातिक कल्पातीत वैमानिकदेव पंचेन्द्रिय वैक्रिय शरीरकाय प्रयोग परिणत होता है । विवेचन-वैक्रियकाययोग, वैक्रिय शरीर के द्वारा होने वाले वीर्यशक्ति के व्यापार को 'वैक्रिय काययोग, कहते हैं। यह मनुष्यों के और तिर्यचों के वैक्रियलब्धि के बल से वैक्रिय शरीर धारण कर लेने पर होता है। देव और नेररिक जीवों के वैक्रिय काययोग 'भव प्रत्यय' होता है। •०६ वैक्रियमिश्र काययोगी और एक द्रव्व-परिणाम जइ वेउब्धियमीसासरीरकायप्पओगपरिणए किं एगिदियमीसासरीरकायप्पयोगपरिए जाव पंचिदियमीसासरीरकायप्पओगपणिए ? एवं जहा वेउब्वियं तहा वेउव्वियमीलगं वि, णवरं देव-णेरइयाणं अपज्जगाणं सेसाणं पजत्तगाणं तहेष, जाव णो पजत्तसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोषवाइय जाष परिणए, अपज्जत्तसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयदेवपंचिदियवेउब्वियमीसारीरकायप्पयोगपरिणए। --भग श ८। उ १ । प्र ४६ जिस प्रकार वैक्रिय शरीर कायप्रयोग परिणत के विषय में कहा है, उसी प्रकार वैक्रिय मिश्र शरीर काय प्रयोग परिणत के विषय में थी जानना चाहिए। परन्तु विशेषता यह है कि वे क्रिय मिश्र शरीर काय प्रयोग देव और नेरयिक के अपर्याप्त के विषय में और Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) शेष सभी जीवों के पर्याप्त के विषय में कहना चाहिए, यावत् पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौ - यातिक कल्पातीत वैयानिक देव पंचेन्द्रिय वैक्रिय मिश्र कायप्रयोग परिणत नहीं होता, किन्तु अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रिय वैक्रिय मिश्र कायप्रयोग परिणत होता है । विवेचन - वैक्रिय मिश्र काययोग - वैक्रिय और कार्मण द्वारा अथवा वैक्रिय और औदाfरक इन दो शरीरों के द्वारा होनेवाले वीर्य शक्ति के व्यापार को 'वैक्रिय मिश्रकाययोग कहते हैं । वैक्रिय और कार्मण सम्बन्धी वैक्रिय मिश्र काययोग देवों और नारकों में उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो तब तक रहता है । वैक्रिय और औदारिक, इन दो शरीरों सम्बन्धी वैक्रिय मिश्र काययोग, मनुष्य और तिर्यंचों में तभी पाया जाता है जबकि वे लब्धि के बल से वैक्रिय शरीर का आरंभ करते हैं । वैक्रिय शरीर का त्याग करने में वैकिय मिश्र नहीं होता, किन्तु औदारिक मिश्र होता है । '०७ आहारक काययोगी और एक द्रव्य परिणाम जई आहारणसरीरकायप्पयोगपरिणए किं मणुस्साहारगसरीरकायप्पयोगपरिणए, अमणुसाहारण जाव परिणए १ एवं जहा "ओगाहणसंठाणे" जाब इड्ढिपत्तपमत्त संजयसम्म दिट्ठिपजत्त संखेजवा साउय जाब परिणए । -भग० श द उ १ । प्र ४७ यदि एक द्रव्य आहारक शरीर कायप्रयोग परिणत होता है तो वह मनुष्य आहारक शरीर कायप्रयोग परिणत होता है परन्तु अमनुब्याहारक शरीर कायप्रयोग परिणत नहीं होता है । यावत ऋद्धि प्राप्त प्रमत्त संयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्येय- वर्षांयुष्क मनुष्याहारक शरीरकाय प्रयोग परिणत होता है, परन्तु अमृद्धि प्राप्त प्रमत्त संयत सम्यग् दृष्टि पर्याप्त संख्ये वर्षायुष्क मनुष्याहारक शरीर कायप्रयोग परिणत नहीं होता है । विवेचन- -- आहारक काययोग — केवल आहारक शरीर की सहायता से होनेवाला वीर्यशक्ति का व्यापार आहारक काययोग होता है । *०८ आहारक मिश्र काययोगी और एक द्रव्य परिणाम जह आहारगमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए कि मणुस्साहारगमीसासरीरकायपयोगपरिणए, अमणुस्साहारंग जाव परिणए ? एवं अहा आहारगं तहेव मीसगं पि णिरवसेसं भाणियव्वं । -भग० श ८ | उ १ । प्र ४८ यदि एक द्रव्य आहारक मिश्र शरीर कायप्रयोग परिणत होता है तो वह मनुष्याहारक मिश्र शरीर का प्रयोग परिणत होता है, परन्तु अमनुष्याहारक मिश्र शरीरकाय प्रयोग परिणत नहीं होता है । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) और विवेचन--जिस प्रकार आहारक शरीर काययोग परिणत के विषय में कहा है, उसी प्रकार आहारक मिश्र शरीर कायप्रयोग परिणत के विषय में जानना चाहिए । विवेचन-आहारक मिश्र काययोग-आहारक और औदारिक इन दोनों शरीरों के द्वारा होनेवाले वीर्यशक्ति के व्यापार को आहार मिश्र काययोग कहते हैं। आहारक शरीर के धारण करने के समय अर्थात् प्रारम्भ करने के समय तो आहारक मिश्र काययोग होता है और उसके त्याग के समय औदारिक मिश्र काययोग होता है । .०९ कार्मण काययोगी और एक द्रव्य-परिणाम जइ कम्मासरीरकायप्पओगपरिणए कि एगिदियकम्मासरीरकायप्पयोगपरिणए, जाव पंबिंदियकम्मासरीर जाव परिणए ? गोयमा ! एगिदियकम्मासरीरकायप्पयोगपरिणए, एवं अहां 'ओगाहणसंठाणे' कम्मगस्स भेो तहेष इहावि, जाव पजत्तसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव देवपंचिदियकम्मासरीरकायप्पयोगपरिणए, अपजत्तसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाब परिणए वा। -भग० श८ । उ १ । प्र ४६ यदि एक द्रव्य कार्मण शरीर कायप्रयोग परिणत होता है तो वह एकेन्द्रिय कार्मण शरीर कायप्रयोग परिणत होता है अथवा यावत् पंचेन्द्रिय कामण शरीर काय प्रयोग परिणत होता है। विस्तार से इस विषय में जिस प्रकार प्रज्ञापना सूत्र के इक्कीसवे, अवगाहना-संस्थान । पद में काम ण के भेद कहे गये है उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए। यावत् पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रिय कार्मण शरीरकाय प्रयोग परिणत होता है अथवा अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रिय कार्मण शरीर कायप्रयोग परिणत होता है । विवेचन-कार्मण काययोग-केवल कार्मण शरीर की सहायता से वीर्यशक्ति की जो प्रवृत्ति होती है उसे कार्मण काययोग करते हैं। यह योग विग्रह गति में तथा उत्पत्ति के समय में अनाहारक अवस्था में सभी जीवों के होता है। केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में केवली भगवान के होता है। प्रश्न हो सकता है कि कार्मण काययोग के समान तेजस काययोग क्यों नहीं होता है ? चूंकि कार्मण काययोग के समान तैजस काययोग इसलिए अलग नहीं मानाकि तैजस और कार्मण का सदा साहचर्य रहता है अर्थात् औदारिक आदि अन्य शरीर, कभीकभी कार्मण शरीर को छोड़ भी देते हैं किन्तु तैजस शरीर उसे कभी नहीं छोड़ता। इसलिए वीर्यशक्ति का जो व्यापार कामण शरीर होता है। वह निश्चय से ( नियमा) Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) तेजस शरीर द्वारा भी होता रहता है । अतः कार्मण काययोग में ही तेजस काययोग का समावेश हो जाता है, इसलिये उसको पृथक् नहीं गिना गया है । • ०१० मनोयोगी और वचनयोगी तथा द्रव्य- परिणाम (दो) दो भंते ! दव्वा किं पओगपरिणया, x x x । जइ पओगपरिणया किं मणपयोगपरिणया, चइप्पयोगपरिणया, कायप्पयोगपरिणया ? गोयमा ! मणपयोगपरिणया, वइप्पयोगपरिणया, कायप्पओगपरिणया वा; अहवा एगे मणपयोगपरिणए एगेवयप्पयोगपरिणप; अहवा एगे मणप्पयोगपरिणए एगे कायपयोगपरिणए, अहवा एगे वयप्पयोगपरिणए एगे कायप्पयोगपरिणए । जर मणप्पओगपरिणया किं सश्चमणप्पयोगपरिणया, असश्चामणप्पयोगपरिणया, सच्चामोस मणप्पयोगपरिणया, असचा मोसमण-पओगपरिणया ? गोमा ! सचमणप्पओगपरिणया वा, जाव असच्चामोसमणप्पओगपरिणया; अहवा एगे सचमणप्पओगपरिणए एगे मोसमणप्पयोपपरिणए, अहवा एगे सञ्चमणप्पओगपरिणए एगे सच्चामोसमणप्पओगपरिणए अहवा एगे सच्च मणप्पओगपरिणए एगे असच्चामोसमणप्पओगपरिणए; अहवा एगे मोसमणपओगपरिणए एगे सच्चामोसमणप्पओगपरिणए अहवा एगे मोसमणप्पओगपरिणए एगे असश्चामो समणप्पओगपरिणए, अहवा एगे सच्चामोसमणप्पओगपरिणए एगे असच्चामो समणप्पओगपरिणए । जइ सञ्चमणप्पओगपरिणया कि आरंभसश्चमणप्पओगपरिणया, जाब असमारंभसश्चमणप्पओगपरिणया ? गोयमा ! आरंभसच्चमणपओगपरिणया बा, जाच असमारंभसश्चमणप्पओगपरिणया वा; अहवा एगे आरंमसश्चमणप्पओगपरिणए एगे अणारंभसश्च मणप्पओगपरिणए । एवं एएणं गमेणं दुयासंजोगेणं यव्वं, सव्वे संजोगा जत्थ जन्तिया उट्ठेति ते भाणियव्वा, जाव सव्बट्ठसिद्धगइ । -भग० श । ८ । उ१प्र५८-६१ यदि दो द्रव्य प्रयोग परिणत होते हैं तो (१) बे दो द्रव्य मनः प्रयोग परिणत होते हैं। (२) या वचन प्रयोग परिणत होते हैं, (३) या कायप्रयोग परिणत होते हैं या उनमें से एक एक द्रव्य ( ४ ) मनःप्रयोग परिणत होता है और दूसरा वचन प्रयोग परिणत होता है । अथवा (५) एक द्रव्य मनःप्रयोग परिणत होता है और दूसरा कायप्रयोग परिणत होता है। अथवा (६) एक द्रव्य वचन प्रयोग परिणत होता है और दूसरा कायप्रयोग परिणत होता है । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३ ) यदि दो द्रव्य मनःप्रयोग परिणत होते हैं तो ( १-४ ) वे सत्य मनःप्रयोग होते हैं, अथवा यावत् असत्यामृषा मनःप्रयोग परिणत होते हैं । अथवा (५) उनमें से एक द्रव्य सत्य मनःप्रयोग परिणत होता है और दूसरा मृषा मनःप्रयोग परिणत होता है । अथवा (६) एक द्रव्य सत्य मनःप्रयोग परिणत होता है और दूसरा सत्य मृषा मनःप्रयोग परिणत होता है अथवा (७) एक द्रव्य सत्य मनःप्रयोग परिणत होता है और दूसरा असत्यामृषा मनःप्रयोग परिणत होता है अथया (८) एक द्रव्य मृषा मनःप्रयोग परिणत होता है । और दूसरा सत्य मृषामनःप्रयोग परिणत होता है अथवा ( ६ ) एक द्रव्य मृषामनःप्रयोग परिणत होता है और दूसरा असल्यामृषामनः प्रयोग परिणत होता है अथवा (१०) एक द्रव्य सत्यमृषामनः प्रयोग परिणत होता है और दूसरा असत्यामृषामनः प्रयोग परिणत होता है । यदि दो द्रव्य सत्य मनः प्रयोग परिणत होते हैं तो ( १-६ ) वे दो द्रव्य आरम्भ सत्यमनः प्रयोग परिणत होते हैं, अथवा यावत् असमारम्भ सत्यमनःप्रयोग परिणत होते हैं अथवा एक द्रव्य आरम्भ सत्यमनाप्रयोग परिणत होता है और दूसरा अनारम्भ सत्यमनः प्रयोग परिणत होता है । इस प्रकार द्विक संयोगी भांगे जानने चाहिए । जहाँ जितने द्विक संयोगी भांगे होते हैं, वहाँ उतने सभी कहना चाहिए। यावत् सर्वार्थसिद्ध वैमानिक देव पर्यंत कहना चाहिए । विवेचन - दो द्रव्यों के विषय में प्रयोग परिणत असंयोगी तीन भंग होते हैं और द्विक संयोगी भी तीन भंग होते हैं । इस प्रकार छः भंग होते हैं । सत्यमनःप्रयोग परिणत, मृषामनःप्रयोगपरिणत, सत्यमृषामनाप्रयोगपरिणत और असत्यामृषामनःप्रयोग परिणत – इन चार पदों असंयोगी चार भंग होते हैं और द्विक्संयोगी छह भंग होते हैं । इस प्रकार इनके कुल दस भंग होते हैं ? .०११ सयोगी जीव और तीन द्रव्य-परिणाम (तीन) तिन्नि भंते! दव्वा किं पओगपरिणया × × × जर पओगपरिणया कि मणप्पगपरिणया, वयष्पओगपरिणया कायप्पओगपरिणया ! गोयमा ! ओगपरिणया वा, एवं एक्कगसंजोगो, दुयासंजोगो तिया संजोगो भाणियव्वो । जर मणप्पभोगपरिणया कि सचमणष्पओगपरिणया, असच्च मणपभोगपरिणया सच्चामोसमणप्पओगपरिणया असच्चा मोसमणप्पओगपरिणया ? गोयमा ! सचमणप्पओगपरिणया वा, असश्चामोसमणप्पओगपरिणया वा; अहवा एगे सश्चमणप्पओगपरिणए दो मोसमणप्पओगपरिणया बा। एवं दुयासंजोगो, तिया संजोगो भाणियन्वो एत्थवि तहेव × × × । - भग० श द उ १ प्र ६४-६६ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) यदि तीन द्रव्य प्रयोग परिणत होते हैं तो वे मनःप्रयोग परिणत होते हैं, या वचन प्रयोग परिणत होते हैं, या कायप्रयोग परिणत होते है । इस प्रकार एक संयोगी, द्विकसंयोगी और त्रिकसंयोगी भंग कहना चाहिए ! यदि तीन द्रव्य मनःप्रयोग परिणत होते हैं तो वे तीनों द्रव्य सत्य मनःप्रयोग परिणत होते हैं। अथवा यावत् असत्या मृषा मनःप्रयोग परिणत होते हैं। अथवा उनमें से एक द्रव्य सत्य मनःप्रयोग परिणत होता है और दो द्रव्य मृषा मनःप्रयोग परिणत होते हैं । इसी प्रकार यहाँ भी द्विकसंयोगी और त्रिकसंयोगी भंग कहना चाहिए । विवेचन-सत्य मनःप्रयोग परिणत आदि चार पद है, इनके असंयोगी (एक-एक ) चार भंग होते हैं हैं । द्विकसं योगी बारह भंग होते है। और त्रिक संयोगी चार भंग होते हैं। ये सभी बीस भंग होते हैं। इसी प्रकार मृषा मनः प्रयोग परिणत के भी कहना चाहिए। इसी प्रकार वचन प्रयोग परिणत व कायप्रयोग परिणत के भी कहना चाहिए। .०१२ सयोगी जीव और द्रव्य-परिणाम (चार) चत्तारि भंते ! दव्या किं पओगपरिणया xxx । जइ पोगपरिणया किं मणप्पओगपरिणया, वयप्पओगपरिणया, कायप्पओग परिणया ? एवं एएणं कमेणं पंच छ सत्त जाव दस संखेजा असंखेजा य दव्या भाणियव्वा दुयासंजोएणं, तियासंजोएणं, जाव दस संजोएणं, पारससंजोएणं उवजूंजिऊणं जत्थजत्तिया संजोगा-उहति ते सव्वे भाणियवा। -भग० श ८ । उ १ । प्र ६७-२८ यदि चार द्रव्य प्रयोग परिणत होते हैं तो वे सब मनःप्रयोग परिणत होते है, या वचन प्रयोग परिणत होते हैं या कायप्रयोग परिणत होते हैं। ये सब पहले की तरह कहना चाहिए। इसी क्रम द्वारा पांच, छह, सात, आठ, नव, दस, संख्यात, असंख्यात, अनंत द्रव्यों के द्विक संयोगी, त्रिक संयोगी यावत दस संयोगी, बारह संयोगी आदि सभी भंग उपयोगपूर्वक कहना चाहिए । जहाँ जितने संयोग होते हैं वहाँ उतने सभी संयोग कहना चाहिए । नोट-चार द्रव्यों के प्रयोग परिणत आदि तीन के असंयोगी तीन भंग होते हैं। और द्विक संयोगी नौ भंग होते हैं । त्रिक संयोगी तीन भंग होते हैं। इसी तरह ये सभी पन्द्रह भंग होते हैं। .०१३ द्रव्य योग को जीव ग्रहण करता है। जीवव्वाणं भंते ! अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्यमागच्छंति, अजीपदवाजीवव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५ ) गोयमा ! जीवदव्वाणं भजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वभागच्छंति, णो जीवदव्वाणं जीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति । सेकेण्णं भंते! एवं वुश्चइ-जाबहव्वमागच्छंति । गोयमा ! जीवदव्वा णं अजीवदव्वे परियाइयति अजीवदव्वे परियाइइत्ता xxx मणजोगं वइजोग कायजोगं x x x व णिव्वतयंति से तेणट्टणं जाव हव्वमागच्छंति । - भग श २५ । उ २ सू ४ अजीव द्रव्य, जीव द्रव्यों के भोग में आते हैं परन्तु जीव द्रव्य, अजीव द्रव्यों के परिभोग में नहीं आते। जीव द्रव्य, अजीव द्रव्यों को ग्रहण करते हैं । ग्रहण करके × × × मनोयोग, वचनयोग, काय योग x x x में परिणमाते हैं । विवेचन -- जीव द्रव्य सचेतन है और अजीव द्रव्य अचेतन है अतः जीव द्रव्य, अजीव द्रव्यों को ग्रहण करके उनको अपने मनोयोग वचनयोग काययोग रूप में परिणत करते हैं । यह उनका परिभोग है । जीव द्रव्य परिभोक्ता हैं । .०१४ सयोगी और द्रव्य-प्रहण जीवे णं भंते! जाई दव्वाइ सोइ दियत्ताए गेण्हइ ताई किं ठियाइ hoes, अठियाई गेण्हइ १ x x x मणजोगत्ताए जहा कम्मगसरीरं । ( कार्मणपाठ - जीवे णं भंते! जाइ दव्बाइ तेयगसरीरत्ताए गिण्हइपुच्छा । गोयमा ! ठियाइ' गेण्हर, णो अठियाइ गेण्हर, सेसंजहा ओरालियसरीरस्स | कम्मगसरीरे एवं चेव । - प्र १२ ) नवरं नियमं छद्दिसिं, एवं बइजोगत्ताए वि, कायजोगता विजहा ओरालियसरीरस्स । ( औदारिक पाठ जीवे णं भंते! जाइ दव्वाइ' ओराजियसरीरत्ताए गेण्हइ ताई कि ठियाइ' गेव्हर, अठियाई गेण्डर ? गोयमा ! ठियाइ पि गेव्हर, अठियाइ पि गेव्हइ । ताह भंते! कि दव्षओ गेoes, खेत्तओ गेण्हर, कालओ गेण्हइ, भावओ गेण्हइ ? गोयमा ! दव्वओ वि hoes, खेत्तओ वि गेण्हर, कालओ वि गेण्हर, भावओ वि गेण्हइ । ताइ दव्बओ अणतपएसिया' दव्वाइ, खेत्तओ असंखेजपएसो गाढाई - एवं जहा पण्णचणाए पढमे आहारुद्देसए, जाव णिव्वाघापणं छद्दिसिं, वाघायें पडुच्च सिय तिदिसिं, यि चउदिसिं, सिय पंचदिसि । ९-१० ) -भग० श २५ । २ । प्र १५ जीव ( कार्मण शरीर की तरह ) जिन पुद्गल द्रव्यों को मनोयोग रूप में ग्रहण करता है वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित द्रव्यों को नहीं । वह उन द्रव्यों को द्रव्य से भी, क्षेत्र, काल और भाव से भी ग्रहण करता है । वह Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) द्रव्य से अनन्त प्रदेक्षी पुद्गलों को ग्रहण करता है। क्षेत्र से असंख्य प्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है। इस प्रकार प्रज्ञापणा सूत्र के अठाइसवें पद के प्रथम आहारौद्देशक के अनुसार, यावत् निर्व्याघात से छओं दिशाओं से और व्याघात हो तो कदाचित तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से आये हुए पुद्गलों से ग्रहण करता है। इसी प्रकार वचन योग के द्रव्य भी । काययोग के द्रव्य औदारिक शरीर के समान है । विवेचन-जितने आकाश क्षेत्र में जीव रहा हुआ है, उस क्षेत्र में अन्दर रहे हुए जो पुदगल द्रव्य है वे स्थित द्रव्य कहलाते हैं और उससे बाहर के क्षेत्र में रहे हुए पुद्गल द्रव्य ‘अस्थित द्रव्य' कहलाते हैं। वहाँ से खींच कर जीव उनको ग्रहण करता है । इस विषय में किन्हीं आचार्यों का ऐसा कहना है कि जो गतिरहित द्रव्य है-वे स्थित द्रव्य कहलाते हैं और जो गति सहित द्रव्य है वे 'अस्थित द्रव्य' कहलाते हैं । मनोयोगी, वचन योगी अवगाह क्षेत्र के भीतर रहे हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है उससे बाहर रहे हुए द्रव्यों को नहीं करता । क्योंकि उन्हें खींचने का स्वभाव उसमें नहीं है। अथवा वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित द्रव्यों को नहीं। क्योंकि उनका इस प्रकार स्वभाव होता है । काययोगी स्थित द्रव्यों के भी ग्रहण करता है और अस्थित द्रव्यों को भी । नियांधात से छओं दिशाओं से और व्याघात हो तो कदाचित् तीन, कदाचित चार और कदाचित पांच दिशाओं से आये हुए पुद्गलों के ग्रहण करता है । .०१५ योगवर्गणा और लेश्या योगवर्गणान्तर्गतद्रव्यसाधिव्यादात्मपरिणामो लेश्या -जैनसिदी० प्र ८ सू १७ योगवर्गणा के अन्तर्गत पुदगलों की सहायता से होनेवाले आत्मपरिणाम को लेश्या कहते है। ..२ भाषयोग (प्रायोगिक)-अरूपी है-जीव है .०२१ भाषयोग-जीष परिणाम है। .०२२ भावयोग की स्थिति मनोयोगी व वचन योगी की स्थिति जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अंतर्महुर्त होती है। काययोग की स्थित जघन्य अन्तर्महुर्त, उत्कृष्ट अनन्त काल की होती है। .०२३ भाषयोग और भाष सेकिंतं जीवोदयनिप्फने, अजेगविहे पन्नत्ते, तंजहा-नेरइए xxx सजोगी xxx | -अणओ० सू १२६ पंचश्वेभाग १ । पृ० ११० Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५७ ) सयोगी-जीवोदय निष्पन्न भाव है । नोट-योगी में भाब पांच होते हैं : (१) औदयिक भाव (२) क्षायिक भाव (३) क्षायोपशमिक भाव (४) औपशमिक भाव (५) पारिणामिक भाव छहा सन्निपातिक भाव भी होता है । .०२४ भावयोग और उपयोग तस जोय वेय सुक्काहार नर पणिदि सन्नि भवि सव्वे । नयणेयर पण लेसा, कसाइ दस केवलदुगुणा ॥ -कर्म० मा ४ । गा ३१ । पृ. १६५ टीका-xxx 'योगेषु' मनोवाकायरूपेषु x x x सर्वे द्वादशाप्युपयोगाः सम्भवन्ति, एतेषु सर्वेष्वपि सम्यक्त्वदेशविरतिसर्व घिरत्यादीनां सम्भवात् । मन, वचन काय रूप योग है। बारह ही प्रकार के उपयोग में योग होता है । सम्यक्त्वी, देश विरति और सर्व विरति आदि में योग और उपयोग दोनों होते हैं । .०२५ भाषयोग की चंचलता-अस्थिर योग केवली णं भंते ! अस्सि समयंसि जेसु आगासपएसेसु हत्थंवा पायंषा बाहंवा ऊरुवा ओगाहित्ता णं चिट्ठति, पभू णं केवली सेयकालंसि वि तेसु चेव आगासपएसेसु हत्थंवा जापओगाहित्ता णं चिहित्तए ? गोयमा ! णो इण8 समठे। से केणणं भंते ! जाप-ओगाहित्ता णं चिहित्तए ! गोयमा ! केवलिस्स णंएवीरिय-सजोग-सहव्वयाए चलाई उबकरणाई भवंति, चलोवकरणट्टयाए य णं केवली अस्सि समयंसि जेसु आगासपएसेसु हत्थं वा, जाव-चिट्ठह ; णो णं पभू केवली सेयकालंसि पि तेसु चेव जापचिद्वित्तए, से तेणढणं जाव-धुच्चइकेवली णं अस्सि समयंसि जेसु आगासपएसेसु जाव-चिट्ठइणो णं पभूकेवली सेयकालंसि वि तेनु चेष आगासपएसेसु हत्थं वा जाव-चिहित्तए। -भग० श ५ । उ ४ । प्र ३६-३७ । पृ. ८२८ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८ ) केवली भी एक समय में जिन आकाश-प्रदेशों में अपने हाथ, पैर, बाहु और ऊरु ( जंघा ) आदि को अवगाहित करके रहते हैं, उनको भविष्यत्काल में उन्हीं आकाश-प्रदेशों में अवगाहित नहीं कर सकते । इसका कारण यह है कि केवली के भी वीर्यप्रधान योग युक्त जीव द्रव्य होने से उनके हाथ, पैर आदि अंग चलायमान होते हैं। हाथ, पैर आदि अंगों के चलायमान - अस्थिर होते रहने के कारण वर्तमान समय में उनसे जो आकाश-प्रदेश अवगाहित हुए हैं उन्हीं आकाश-प्रदेशों में भविष्यत्काल में हाथ, पैर आदि को अवगाहित नहीं कर सकते । .०२६ भाव योग और वर्गणा सेढिअसं खिज्जं से जोगट्ठाणाणि पयडिटिइ भेया । ठिइबं धज्झवसायाणुभागठाणा असंखगुणा ॥ - कर्म • भा ५ । गा ६५ । पृ० ११७ टीका - योगः -- वीर्य तस्य स्थानानि - वीर्याविभागांशसंख्यातरूपाणि । कियन्ति पुनस्तानि भवन्ति ? इत्याह - "सेढिअसं खिज्जसे " ति श्रेणेः असंख्येयांशः श्रेण्यसंख्येयांशः । एतदुक्तं भवति - श्रेणेर्वक्ष्यमाणरूपाया असंख्येयभागे याबन्त आकाशप्रदेशा भवन्ति तावन्ति योगस्थानानि, एतानि चोत्तरपदापेक्षया सर्व स्तोका नीति शेषः । तत्र यथैतानि योगस्थानानि भवन्ति तथोच्यते - इहकिल सूक्ष्मनिगोदस्यापि सर्वजघन्यवीर्यलब्धियुक्तस्य प्रदेशाः केचिदल्पवीर्य - युक्ताः केचित्तु बहु- बहुतर बहुतमवीर्योपेताः । तत्र सर्वजघन्यवीर्ययुक्तस्यापि प्रदेशस्य सम्बन्धि वीर्य' केवलिप्रज्ञाच्छेदेन च्छिद्यमानमसंयेयलोकाकाश प्रदेशप्रमाणान् भागान् प्रयच्छति, तस्यैवोत्कृष्टवीर्ययुक्ते प्रदेशे यद् बीर्यं तदेतेभ्योऽ संख्येयगुणान् भागान् प्रयच्छति । उक्तं च1 पन्नाए छिज्जंता, असंखलोगाण जत्तिय पपसा । तत्तिय वीरियभागा, जीवपएसम्मि एक क्के ॥ सव्वजहन्नगचिरिए, जीवपएसम्मि एत्तिया संखा । तत्तो असंखगुणिया, बहुविरिए जियपएसम्मि ॥ - ( शत० वृ० भा० गा० ६६८-६६ ) भागा अविभागपलिच्छेदा इति वानर्थान्तरम् । ततः सर्वस्तोकाविभागपलिच्छेदक लितानां लोकासंख्येयभागवर्त्य संख्येयप्रतरप्रदेशराशिसंख्यानां जीव Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) प्रदेशानां समानवीयपलिच्छेदतया जघन्यैका वर्गणा, तत एकेन योगपलिच्छेदे नाधिकानां तापतामेव जीवप्रदेशानां द्वितीयवर्गणा, एवमेकैकयोगपलिच्छेदवृद्ध या वर्धमानानां जीवप्रदेशानां समानजातीयरूपा घनीकृतलोकाकाशश्रेणेरसंख्येयभागप्रदेशराशिप्रमाणा वर्गणा वाच्याः। एताश्चैतावत्योऽप्यसत्कल्पनया षट् स्थाप्यन्ते। ते च जीवप्रदेशा एकैकस्यां वर्गणायामसंख्येयप्रतरप्रदेशमाना अप्यसत्कल्पनया त्रयस्त्रयः स्थाप्यन्ते । एताश्चैतावत्यः समुदिता एक वीर्यस्पर्द्ध कमित्युच्यते । योग-वीर्य अर्थात् जीव का पराक्रम, उसके स्थान जो योग के अविभान्य अंश संख्यात रूप हैं। इन योगस्थानों की संख्या श्रेणी के असंख्यात अंश रूप कही गई है। अभिप्राय यह है कि श्रेणी के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश-प्रदेश होते हैं उतने योगस्थान होते हैं। यह संख्या उत्तर पद की अपेक्षा से सब हे कम है। ये योगस्थान जिस प्रकार होते हैं वह कहा जाता है-सबसे जघन्य वीर्य लब्धि से युक्त जो सूक्ष्मनिगोद जीव है उसके जो प्रदेश हैं उनमें से कुछ तो अल्प वीर्य से युक्त होते हैं, कुछ बहुत, कुछ बहुतर तथा कुछ बहुवम वीर्य से युक्त होते हैं। इनमें सबसे जघन्य वीर्य से युक्त प्रदेश सम्बन्धी जो वीर्य होता है वह भी केवली प्रज्ञाच्छेद से छिन्न होता हुआ असंख्यात लोकाकाश प्रदेश रूप भागों को आवृत करता है ; उसी के उत्कृष्ट वीर्य युक्त प्रदेश में जो बीर्य होता है वह पूर्वोक्त भागों से असंख्यातगुने भागों को आवृत करता है। कहा गया है प्रज्ञा के द्वारा छिन्न होते हुए असंख्यात लोकों के जितने प्रदेश होते है एक-एक जीवप्रदेश में उतने वीर्य अर्थात् योग के भाग होते हैं । सर्वतः जघन्य वीर्यवाले जीवप्रदेश में योगभाग की जितनी संख्या होसी है उससे असंख्यात गुनी अधिक बहुवीर्य वाले जीवप्रदेश में योगभाग की संख्या होती है । भाग और अविभागपरिच्छेद समान अर्थ के द्योतक है। सबसे छोटे अविभागपरिच्छेदों से बने हुए लोक के असंख्येय भागवर्ती असंख्यात प्रतर प्रदेश राशि रूप जीवों की समान वीर्य के परिच्छेदक होने के कारण जघन्य पहली वर्गणा होती है। इससे एक योग परिच्छेद अधिक उतने ही जीवप्रदेशों की दूसरी वर्गणा होती है । इस प्रकार एक-एक योगपरिच्छेद की वृद्धि से समानजातीय जीवप्रदेशों की घनीकृत लोकाकाशश्रेणी के असंख्यात भाग प्रदेशराशि रूप वगणा होती हैं। ये वर्गणाए इतनी होने पर भी असत् कल्पना के आधार पर छः भागों में स्थापित की जाती है। जघन्य वर्गणा में जीवप्रदेश असंख्यात वीर्य भागों से युक्त रहते हुए भी दस भाग किये जाते हैं। वे जीवप्रदेश एक-एक वर्गणा में असंख्यात प्रतर-प्रदेश रूप होते हुए भी तीन-तीन भागों में स्थापित किये जाते हैं। इन सबों को मिलाकर एक वीर्यस्पर्द्धक कहा जाता है । .०२७ जोग और भाषा दसविहे सच्चे पण्णत्ते, तंजहा-संगहणी-गाहा Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) जणवय सम्मय ठवणा, णामे रूवे पडुच्चसच्चे य । ववहार भाव जोगे, दसमे ओधम्मसच्चे य॥ -टाण० स्था.१०। सू८६ दस प्रकार के सत्य में एक योग सत्य भी है। .०२८ योग और परम पुण्य का उपार्जन कषायेन्द्रिययोगानां निग्रहेनियमादिभिः । सहानपूजनैश्चाहंद्गुरु भक्त यादिसेवनैः ॥ २५॥ शुभभावनया ध्यानाध्ययनादिसुकर्मभिः । धर्मोपदेशनैः पुण्यं लभ्यते परमं बुधैः ॥ २६ ॥ -वीरवर्धच० अघि १७ कषाय, इन्द्रिय और मनोयोगादि के निग्रह से, नियमादि के धारण करने से, उत्तम दान देने से, पूजन करने से अहं भक्ति, गुरुभक्ति आदि करने से x x x पंडितजन परम पुण्य को प्राप्त करते हैं। .०२९ प्रदेशबंध और योगस्थान xxx पदेसबंधादो जोगठाणाणि सेडिए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि जहण्णहाणादो अवहिदपक्खेवेण सेडीए असंखेज्जदिभाग पडिभागिएण विसेसाहियाणि जा (व) उक्कसजोगहाणेत्ति दुगुण दुगुणहाणिअद्धाणेहि सहियाणि सिद्धाणि हवंति। कुदो १ जोगेणविणा पदेसबंधाणुषवत्तीदो। अथवा अणुभागबंधादो पदेसबंधो तकारणजोग द्वाणणि च सिद्धाणि हवं ति । कुदो ? पदेसेहि विणाअणुभागाणुववत्तीदो xxx | -षट् • खं १।६ । ७ । सू ४३ । टीका । पु ६ । पृ २०१ प्रदेश बंध से योगस्थान सिद्ध होते हैं। वे योगस्थान जगश्रेणी के असंख्यातवे भागमात्र हैं, और जघन्य योगस्थान से लेकर जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग-प्रतिभाग रूप अवस्थित प्रक्षेप के द्वारा विशेष अधिक होते हुए उत्कृष्ट योगस्थान तक दुगुने-दुगुने गुणहानि आभास से सहित सिद्ध होते हैं, क्योंकि योग के बिना प्रदेश बंध नहीं हो सकता है। अथवा अनुभागबंध से प्रदेशबंध और कारणभूत योगस्थान सिद्ध होते है, क्योंकि प्रदेशों के बिना अनुभागबंध नहीं हो सकता है। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ ) .०३० प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला जीव और योग सो (पढमसम्मत्तं लभदिजीवो) पुण पंचिदिओ सन्नी मिच्छाइट्ठी पज्जत्तओ सम्वविसुद्धो ॥ ४ ॥ टीका-xxxमणयोगी वचियोगी काययोगी वा।xxx। -षट • खं १ । ६ । ८। सू ४ । पु ६ । पृ० २०६-७ प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करनेवाला जीव पंचेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्त और सर्व विशुद्ध होता है। ऐसा जीव तीनों योगों में से किसी एक योग में वर्तमान हो सकता है। .०३१ भाव योग-प्रकृति और प्रदेश बन्ध का हेतु तत्तो कम्मपएसा, अणंतगुणिया तओ रसच्छेया । जोगा पयडिपएसं, ठिइअणुभागं कसायाओ॥ -कर्म० भा० ५ । गा ६६ । पृ• १२० टीका-xxx “जोगा पयडिपएस, ठिइअणुभागं कसायाउ" त्ति योगो वीर्य शत्तिरुत्साह; पराक्रम इति पर्यायाः; तस्मात् योगात् प्रकरणं प्रकतिःकर्मणां ज्ञानावरणादिस्वभाषः, प्रकृष्टाः पुद्गलास्तिकायदेशाः प्रदेशाः-कर्मवर्गणान्तः पातितः कर्मस्कन्धाः, प्रकृतयश्च प्रदेशाश्च प्रकृतिप्रदेशम् समाहारो द्वन्द्वः, तद् जीवः करोतीति शेषः, प्रकृति-प्रदेशबन्धयोर्योंगो हेतु-रित्यर्थः । एतदुक्तं भवति-यद्यपि षडशीतिकशास्त्रे मिथ्यात्वा-ऽविरति-कषाय-योगाः समान्येन कर्मणो बन्धहेतव उक्तास्तथाप्याद्यकारणत्रयाभावे-ऽप्युपशान्तमोहादिगुणस्थानकेषु केवलयोगसद्भावे वेदनीयलक्षणा प्रकृतिस्तत्प्रदेशाश्च बध्यन्ते, अयोग्यवस्थायां तु योगाभाबे न बध्यन्ते इत्यन्वय-व्यतिरेकाभ्यां ज्ञायते प्रकृतिप्रदेशबन्धयोर्योग एव प्रधानं कारणम् । xxx। योग, वीर्य, शक्ति, उत्साह और पराक्रम-ये सभी पर्यायवाची शब्द हैं। इस योग के द्वारा प्रकृति अर्थात कर्मों के ज्ञानावरणादि स्वभाव और प्रकृष्ट पुद्गलास्तिकाय के देश रूप प्रदेश अर्थात् कम वर्गणा के अन्तःपाती कर्मस्कन्ध इन दोनों का जीव जो बन्ध करता है उसका हेतु योग है। इसका अभिप्राय यह है कि यद्यपि षडशीतिक शास्त्र में मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग को सामान्य रूप से कर्म-बन्ध का हेतु कहा गया है तथापि उपरान्त मोह आदि गुणस्थानों में प्रथम तीन कारण अर्थात् मिथ्यात्व, अविरति और कषाय के अभाव में भी केवल योग के सद्भाव में वेदनीय रूप प्रकृति और उसके प्रदेशों का बन्ध होता है तथा अयोगी अवस्था में योगाभाव रहने के कारण बन्ध नहीं होता है-इस प्रकार २१ | Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) 0 अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा जाना जाता है कि प्रकृति और प्रदेश के बन्ध का प्रधान कारण योग है। .०३२ भाव योग और आस्रव (क) मिथ्यात्वमविरतिः प्रमादः कषायो योगश्च-जैनसिदी० प्र ४ । सू १८ आस्रव के पाँच भेद हैं, उसका पाँचवाँ आस्रव योग आस्रव है-- १-मिथ्यात्व आत्रव २-अविरति आस्रव -प्रमाद आत्रव ४-कषाय आस्रव ५-योग आस्रव (ख) शुभयोग एवं शुभकर्मास्रवः -जैनसिदी० प्र ४ । सू २८ शुभयोग ही शुभकर्म का आस्रव है। और योग आस्रव का एक भेद शुभ व एक भेद अशुभ योग आस्रव है। .०३३ भाव योग और निर्जरा यत्र शुभयोगस्तत्र नियमेन निर्जरा -जैन सिदी० प्र ४ । सू २६ जहाँ शुभ योग होता है ; वहाँ निर्जरा अवश्य होती है । .०३३ भाव योग की परिभाषा कायवाङ्मनोव्यापारो योगः -जैनसिदी० प्र ४ । सू २६ शरीर, वचन एवं मन के व्यापार को योग कहते हैं। .०३४ भाव योग के भेद (योगः) शुभोऽशुभश्च -जैनसिदी० प्र४ । सू २७ योग दो प्रकार का होता है-शुभ व अशुभ । .०३५. योग और संवर पंच संवरदारा पण्णत्ता, तंजहा-सम्मत्त, विरई, अप्पमाया, अकसाया, अजोगा। -सम० सम ५ । सू ५ - ठाण० स्था ५ । उ २ । सू ११० पाँच संवर में एक अयोग संवर है जो संपूर्ण योग के निरोध होने पर-चौदहवें गुणस्थान में होता है । संवर पाँच है-यथा-सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोगसंवर। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .०३६ भाव योग परिणाम के भेद .०३६.१ योग परिणाम के भेद जोग परिणामे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते, गोयमा, तिविहे पण्णत्ते, तं जहा - मन- जोग - परिणामे १, बइजोगपरिणामे २, कायजोग परिणामे ३ । -- पण ० प १३ । सू ६३१ । पृ० २२६ ( योग परिणाम के तीन भेद हैं- मनोयोग परिणाम, वचनयोग परिणाम और काययोग परिणाम | १६३ ) .०३७ विभिन्न जीवों में योग- परिणाम .०१ नारकियों में रइया x x x जोगपरिणामेणं मणजोगी वि वइजोगी वि कायजोगी fa x XXI पण ० प १३ । सू ६३८ । पृ० २३० नारकी जीव योग परिणाम की अपेक्षा मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी होते हैं । ३७.०३ वाणव्यन्तर देव में ३७.०४ ज्योतिषी देव में .०३७.०२ भवनपति देष में (क) असुरकुमार, (ख) नागकुमार, (ग) सुपर्णकुमार (घ) विद्युत् कुमार, (ङ) अग्निकुमार, (ख) द्वीपकुमार, (छ) उदधिकुमार, (ज) दिशाकुमार, (झ) वायुकुमार, (ञ) स्तनितकुमार । असुरकुमारा वि एवं चेव ( जहा णेरड्या ) x x x | एवं जाव कुमारा । 1 - पण्ण० प १३ । सू ६३६ / पृ० २३१ भवनपति देवों में असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार योगपरिणाम की अपेक्षा नारकी की तरह मनोयोगी वचनयोगी और काययोगी होते हैं । वाणमंतरा x x x जहा असुरकुमारा । होते हैं । एवं जोतिसिया चि । × × × । वाणव्यन्तर देव असुरकुमार की तरह - पण्ण० प १३ । सु ६४४ | पृ० २३२ - पण्ण० प १३ । सू ६४५ / पृ० २३२ मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी ज्योतिषी देव असुरकुमार की तरह मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी होते हैं । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) .३७.०५ वैमानिक देव में वेमाणिया वि एवं चेष ( जहा जोतिसिया)। -पण्ण० प १३ । सू ६४६ । पृ. २३२ वैमानिक देव भी योगपरिणाम की अपेक्षा से मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी होते हैं। .३७.०६ तिर्यंच में .०१ पृथ्वीकाय में पुढधिकाइया x x x जोगपरिणामेणं कायजोगी x x x | -पण्ण० प १३ । सू ६४० (१) । पृ० २३१ पृथ्वीकायिक जीव योगपरिणाम की अपेक्षा काययोगी होते हैं । ०२ अप्काय में .०३ तेउकाय में •०४ वायुकाय में ३७.०५ वनस्पतिकाय में एवं आउ-वणप्फइकाइया वि (जहा पुढविकाइया)। -पण्ण० प १३ । सू ६४० (३)। पृ. २३१ तेऊ पाऊ एवं चेव। -पण्ण० प १३ । सू ६४० (३)। पृ. २३१ इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीव योगपरिणाम की अपेक्षा से काययोगी होते हैं । '३७०६ द्वीन्द्रिय में बेइंदियाxxx जोगपरिणामेणं वइजोगी विकायजोगी पि xxxi ___ -पण्ण० प १३ । सू ६४१ (१) । पृ० २३१ द्वीन्द्रिय जीव योगपरिणाम की अपेक्षा से वचनयोगी और काययोगी होते हैं । '३७.०७ त्रीन्द्रिय में '३७०८ चतुरिन्द्रिय में एवं जाव चउरिदिया। -पण्ण० प १३ । सू ६४१ (२) । २३१ इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव योगपरिणाम की अपेक्षा से वचनयोगी और काययोगी होते हैं। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) '३७.०९ तिर्यच पंचेन्द्रिय में पंचेदियतिरिक्खजोणियाx x x जहा णेरइयाणं xxx। –पण्ण० प १३ । सू ६४२ । पृ० २३१ पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक जीव योगपरिणाम की अपेक्षा से नारकियों की तरह मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी होते है । '३७.०१० मनुष्य में मणुस्सा x x x जोगपरिणामेणं मणजोगी वि जाव अजोगी वि x x x | -पण्ण• प १३ । सू ६४३ । पृ. २३२ मनुष्य योगपरिणाम की अपेक्षा से मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी होते हैं तथा अयोगी भी होते हैं । .५ योग और जीव •०१ योग की अपेक्षा जीप के भेद ५१-१ जीवों के भेद (क) अहवा दुविहा सव्वजीचा पन्नत्ता; तंजहा--सकाइया चेष अकाइया वेव, एवं चेष । एवं सजोगी वेव अजोगी चेव तहेव । -जीवा प्रति ६ । सर्व जीव । पृ० २५१ सर्व जीव के दो भेद होते हैं - सलेशी जीव, अलेशी जीव । (क) दुविहा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजहा x x x एवं एसा गाहा फासेयव्वा जाव ससरीरी चेव असरीरी चेव । सिद्धसइंदिकाए, जोगे वेए कसाय लेसाय । णाणु घओगाहारे, भासग चरिमेय ससरीरी ॥ -ठाण० स्था २ । उ ४ । सू १०१ सर्व जीवों के दो भेद-सयोगी जीव और अजोगी जीव । (ख) दुविहा सघजीवा पण्णत्ता तंजहा-xxx सजोगी चेव अजोगी वेष।xxx। -ठाण० स्था २ । उ ४ । सू ४१० टीका-xx ५ सयोगाः-संसारिणः अयोगा-अयोगिनः सिद्धाश्च xxx सव्वजीवों के दो विभाग किये जाते हैयथा १ सयोगी-संसारी जीव तथा २ अयोगी-अयोगी जीव तथा सिद्ध जीव । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१.२ जीवों के तीन भेद ( १६६ ) संसारिय जीब × × ×1 तिविह तिथिह - जोए योग की अपेक्षा जीव तीन प्रकार के है- काययोगी, वचनयोगी और मनयोगी । वेपणवि । *५१ - ३ जीव के चार भेद (क) तत्थणं जे ते एवमाहंसु - चउग्विहा सव्वजीबा णण्णत्ता; ते एचमाहं सु; तं जहा - मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी, अजोगी । - जीवा० प्रति ६ । सू २५७ सर्व जीव (ख) उव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा- मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी, अजोगी । - ठाण० स्था २ । ४ । सू ६०६ सर्व जीवों के चार भेद होते हैं- मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी तथा अयोगी । ५३ विभिन्न जीवों में योग • ०१ औधिक जीव में - वीरजि० सन्धि १२ | कड ४ ५२ योग की अपेक्षा जीव की वर्णणा मनोयोग जीवों की एक वर्गणा है, इसी प्रकार वचनयोग, काययोगी जीवों की वर्गणा है । . मनोयोगी नारकियो की एक वर्गणा होती है, इसी प्रकार दंडक में जिसके जितने योग होते हैं उतनी वर्गणा कहनी चाहिए । (क) तत्य ओघेण अस्थि x x x पण्णरह जोगा, अजोगो वि x x x संपहि मिच्छारट्ठीणं ओघालावे भण्णमाणे अस्थि x x x आहार- दुगेण विणा तेरह जोग XXX | सासणसम्माइट्ठीणमोघे भण्णमाणे अस्थि x x x तेरह जोग xxx सम्मामिच्छा इट्ठोणमोघालावे भण्णमाणे अस्थि x x x दस जोग x x x असंजद- सम्माइट्ठीणमोघ- परूवणे भण्णमाणे अस्थि xxx तेरह जोगxxxसंजदासंजदाणमोघालावे भण्णमाणे अस्थि XX X णव जोग x x x पमन्तसंजदाणमोघालावे भण्णमाणे अस्थि xxx एक्कारह जोग xxx । अप्पमत्तसंजदाणमोघालावे भणमाणे अस्थि x x x णव जोग x x x । अपुव्यकरणाणमोघालावे भण्णमाणे अस्थि x x x णव जोग, ज्झाणीणमपुग्धकरणाणं भवदु णाम वचिबलस्स अत्थित्तं भासापजन्ति सण्णिदपोग्गलखंध-जणिद-सत्ति-सम्भाषादो । ण पुण बचिजोगो Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) कायजोगो वा इदि ? न, अन्तर्जल्पप्रयत्नस्य कायगत सूक्ष्मप्रयत्नस्य च सत्र सत्त्वात्। x x x | पढम-अणियट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि xxx णव जोग x x x | विदिय द्वाणट्ठिद-अणियट्टीणं भण्णमाणे अस्थि xxx णव जोग x x x। तदियट्ठाण-हिद-अणियट्टीणं भण्णमाणे अत्थि x x x णव जोग x x x | उ हाण-हिदअणियट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि xxx णव जोग xxx। पंचम-ट्ठाण-हिद-अणियहीणं भण्णमाणे अस्थि x x x णव जोग xxx। सुहमसांपराइयाणमोघालावे भण्णमाणे अस्थि x x x णघ जोग x x x । उवसंतकसायाणमोघालावे भण्णमाणे अस्थि xxx णष जोग x xx। खीणकसायाणं भण्णमाणे अस्थि xxx णघ जोग x x x | सजोगिकेवलीण भण्णमाणे अस्थि x x x सत्त जोग, सञ्चमणजोगो असञ्चमोसमणजोगो सञ्चवचिजोगो असश्चमोसवचिजोगो ओरालियकायजोगो कवाडगदस्स ओरालियमिस्सकायजोगो पदर-लोगपूरणेसु कम्मइयकायजोगो, एवं सजोगिकेलिस्स सत्त जोगा भवंति । xxxअजोगिकेवलीणं भण्णमाणे अस्थि x x x अजोगो xxx। -षट • खं १, । टीका पु २ । पृ० ४१५-४७ औधिक जीव में पन्द्रह योग होते हैं तथा अयोगावस्था भी होती है। विभिन्न गुणस्थानवी औधिक जीव में योग का सद्भाव इस प्रकार होता है। औधिक मिथ्याष्टि जीव में आहारक और आहारक मिश्र के व्यतिरिक्त तेरह योग होते हैं । सासादन सम्यग्दृष्टि जीव में तेरह योग। सम्यग-मिथ्यादृष्टि जीव में दस योग। असंयत सम्यग्दृष्टि जीव में तेरह योग। संयतासंयत जीव में नौ योग। प्रमत्तसंयत जीव में ग्यारह योग। अप्रमत्त संयत जीव में नौ योग होते हैं। अपूर्व करण जीव में नौ योग होते हैं। ध्यानस्थ अपूर्व करण जीव में वचनबल का अस्तित्व तो रहता ही है, क्योंकि भाषायर्याप्ति संज्ञक पुद्गलस्कन्धों से उत्पन्न शक्ति का सद्भाव रहता है ; अतएव वचनयोग और काययोग का भी सद्भाव मानना चाहिए, क्योंकि अन्तजल्प के लिए प्रयत्न तथा कायगत सूक्ष्म प्रयत्न का भी उस अवस्था में सद्भाव रहता है। अनिवृत्तबादर ( करण ) जीव के प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतर्थ और पंचम स्थान में नौ योग/सूक्ष्मसंपराय जीव में नौ योग/उपशान्तकषाय जीव में नौ योग/क्षीणकषाय जीव में नौ योग होते हैं। सयोगिकेवली जीव में सत्यमनोयोग, असत्यामृषा मनोयोग, सत्यवचन योग, असत्यामृषा वचनयोग, औदारिक काययोग, कपाट समुद्घातको प्राप्त सयोगिकेवली में औदारिकमिश्र काययोग, लोकपूरण समुद्घात में कार्मण काययोग-इस प्रकार सात योग होते हैं । अयोगिकेवली जीव में योग का सद्भाव नहीं रहता है। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) .०१ औधिक जीषों में (ख) तिविहे जोगे पण्णत्ते, तं जहा---मणजोगे, वइजोगे, कायजोगे । एवं. णेरइयाणं विगलिंदयवजाणं जाव वेमाणियाणं । -ठाणा० स्था ३ । उ १ । सू १३ । पृ० ५४१ टीका-सामान्येन योगं प्ररूप्य विशेषतो नारकादिषु चतुर्विशतौ पदेषु तमतिदिशन्नाह-एव' मिथ्यादि, कण्ठ्यं नवरमतिप्रसंगपरिहारायेदमुक्त'"विगलिंदियवजाणं” ति तत्र विकलेन्द्रियाः-अपच्चेन्द्रियाः,तेषां ह येकेन्द्रियाणां काययोग एव, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां तु काययोग-वाग्योगाविति । (ग) चउब्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु तं जहा-मणजोगी वइजोगी कायजोगी अजोगी। -जीवा० प्रति ६ । सू २५७ । पृ ४४६ (घ) जीवाणं भंते ! कतिविधे पओगे पण्णत्ते ? गोयमा ! पण्णरसविधे पण्णत्ते, सञ्चमणप्पओगे असञ्चमणप्पओगे २ सञ्चामोसमणप्पओगे ३ असञ्चामोसमणप्पओगे ४ सचावइप्पओगे ५ असच्चवइप्पओगे ६ सञ्चामोसवइप्पओगे ७ असञ्चामोसवइप्पओगे ८ ओरालियसरीर कायप्पओगे ९ ओरालियमीस सरीर. कायप्पओगे १० वेउब्वियसरीरकायप्पओगे ११ वेउम्वियमीससरीरकायप्पओगे १२ आहारकसरीरकायप्पओगे १३ आहारकमीससरीरकायप्पओगे १४ (जाब) कम्मासरीरकायप्पओगे १५। -पण्ण प १६ । सू१०६६ । पृ. २६२ __समास मैं योग तीन होते हैं जो विकलेन्द्रिय अर्थात् एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय को छोड़कर अवशेष सभी जीवों में होते हैं, क्योंकि एकेन्द्रियों में केवल काययोग होता है तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय में काययोग और वचनयोग होते हैं। योग की अपेक्षा सब जीव चार प्रकार के होते हैं, यथा-मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी तथा अयोगी। औधिक जीवों में पन्द्रह प्रयोग अर्थात् प्रकर्षता से युज्यमान योग होते हैं, यथासत्यमनोप्रयोग यावत् काम ण शरीर काय प्रयोग। .०१.०१ औधिक अपर्याप्त जीवों में संपहि अपजति-पजाय-विसिहे ओघे भण्णमाणे अस्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी पमत्तसंजदा सजोगिकेवलि त्ति पंच गुणट्ठाणाणि xxx ओरालियमिस्स-वेउब्धियमिस्स-आहारमिस्स-कम्मइयकायजोगेत्ति चत्तारि जोगा xxx | Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) तसि ( मिच्छाइट्ठीणं ओघालावे ) चेष अपजत्तोघे भण्णमाणे अस्थि xxx तिणि जोग xxx । तेर्सि ( सासणसम्माइठ्ठीणं) चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x तिण्णि जोग xxx। तेसिं (असंजदसम्माइट्ठीणं ) वेव अपजत्ताणमोघपरूवणे भण्णमाणे अस्थि x x x तिण्णि जोग x x x | __ षट • खं १, १ । टीका पु २ | पृ. ४२१-३० अपर्याप्ति पर्याय से युक्त औधिक अपर्याप्त जीवों में मिथ्या दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत और सयोगिकेवली ये पाँच गुणस्थान होते हैं। अतः इनमें औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र, आहारकमिश्र और कार्मणकाय-ये चार योग होते हैं । ___ औधिक मिथ्यादृष्टि अपर्याप्त, सासादन सम्यग्दृष्टि अपर्याप्त तथा असंयत सम्यग्दृष्टि अपर्याप्त जीवों में तीन योग होते हैं । सामान्य अपर्याप्त जीवोंमें तीन ही गुणस्थान होते हैं और इन गुणस्थानवी अपर्याप्त जीवों में तीन ही योग पाये जाते हैं। प्रमतसंयत में विशेष अपेक्षा से अपर्याप्त अवस्था मानी गयी है और उस अवस्था में उनमें चार योग होते हैं। सयोगी केवली में समुद्रघात की विशेष अवस्था में अपर्याप्तता मानी जाती है और उनमें दो योग होते हैं । .०१.०२ औधिक पर्याप्त जीवों में पजत-विसिह ओघे भण्णमाणे अत्थि चोद्दस गुणट्ठाणाणि, अदीदगुणट्ठाणं णस्थि; पजनेसु तस्स संभवाभावादो । x x x ओरालिय-वेउब्धिय-आहारमिस्स-कम्मइयकायजोगेहि विणा एकारह जोग, अजोगो घि अस्थि xxx। तेसिं चेव मिच्छाइट्ठीणं पजत्तोधे भण्णमाणे अस्थि xxx दसजोग x x x | तेसिं चेव सासणसम्माइट्ठीणं पजत्ताणमोघालावे भण्णमाणे अस्थि xxx दसजोग x x x | असंजदसम्माइट्ठीणं पजत्ताणमोघालावे भण्णमाणे अस्थि xxx दसजोग xxx पमत्तसंजदाणमोघालावे भण्णमाणे अत्यि x x x एक्कारह जोग xxx। (अन्य गुण स्थानों के आलापक ओघ के समान ही होते हैं) -षट्० खं १, १ । टीका। पु २ | पृ० ४२०-४३२ पर्याप्ति-पर्याय विशिष्ट औधिक पर्याप्त जीवों में चौदह गुणस्थान होते हैं, किन्तु अतीत गुणस्थान नहीं होता है, क्योंकि पर्याप्त जीवों में अतीत गुणस्थान की संभावना नहीं है । औदारिकमिश्र, वैक्रिय मिश्र, आहारकमिश्र और कार्मणकाय योग के बिना ग्यारह योग होते हैं तथा अयोगावस्था भी होती है । गुणस्थान की अपेक्षा से औधिक पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीवों में दस योग होते हैं। इनके सासादन सम्यग्दष्टि जीवों में दस योग। इनके असंयत सम्यग्दृष्टि जीवों में दस योग । प्रमत्तसंयत जीवों में ग्यारह योग होते हैं । २२ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) ०२ औधिक नारकी में (क) आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीप णेरइयाणं भण्णमाणे अस्थि Xxx एगारह जोग x x x | संपहि णेरइय-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि xxx एगारह जोग XX X | सासगसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि x x x णव जोग x x x | सम्मामिच्छाइठ्ठीणं भण्णमणे अस्थि x x x णव जोग XXX | असंजद-सम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि x x x एगारह जोग x x x | - षट्० खं १, १ | टीका । पृ २ पृ० ४४८-५४ (ख) से किं तं नेरइया १ २ सत्तबिहा पण्णत्ता, तं जहा - रयणप्पभापुढविनेरइया जाव अहेलत्तमपुढविनेरइया, ते समासओ दुबिहा पण्णत्ता, तंजहापज्जन्ता य अपजन्ता य । तेसि णं भंते ! जीवाणं x x x तिविधे जोगे x x x | - जीवा० प्रति १ | सू ३२ | पृ० ३३ 1 (ग) तिवि जोगे पण्णत्ते, तं जहा - मणजोगे, वइजोगे, काययोगे । एवं णेरइयाणं × × × ⁄ -ठाणा स्था ३ । उ १ । सू १३ । पृ० ५४१ (घ) णेरइयाणं भंते ! कतिविहे पओगे पण्णत्ते १ गोयमा ! एक्कारस विहे पओगे पण्णत्ते । तं जहा - सच्चमणप्पओगे १ जाव असच्चामोसवइप्पओगे ८ asव्वियसरीरकायप्पओगे ९ वेउब्वियमीससरीरका यप्पओगे १० कम्मासरीरकायओगे ११ । पण्ण० प १६ । सू १०७० । पृ० २६१ औधिक नारकियों में चार मन के, चार वचन के, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र और कार्मण काययोग -- ये ग्यारह योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि औधिक नारकियों ग्यारह योग | सासादनसम्यग्दृष्टि औधिक नारकियों में वैक्रियमिश्र और कार्मणकाय के बिना नौ योग । सम्यग्मिथ्यादृष्टि औधिक नारकियों में नौ योग । असंयतसम्यग्दृष्टि औधिक नारकियों में ग्यारह योग होते हैं । नारकी सात प्रकार के होते हैं - रत्नप्रभा ( प्रथम पृथ्वी, द्वितीय पृथ्वी, तृतीय पृथ्वी, चतुर्थ पृथ्वी, पंचम पृथ्वी, षष्ठम पृथ्वी ) यावत् अधः, सप्तम पृथ्वी । वे समासतः दो प्रकार के होते हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त । इन नारकी जीवों में तीन योग होते हैं, यथामनोयोग, वचनयोग और काययोग । नारकियों में ग्यारह प्रयोग अर्थात् प्रकर्ष रूप से युज्यमान योग होते हैं । मन के, चार वचन के, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र और कार्मण शरीर काय प्रयोग । (च) इसी से णं भंते ! रयणप्पमाए जाव नेरइया किं मणजोगी ? योगी ? कायजोगी यथा चार Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१ ) तिणि वि । x x x। एवं वइजोए। एवं कायजोए। -भग श १ । उ ५ । सू २३७, २३६, २४० रत्नप्रभा यावत् तमतमा प्रभा नारकी मनोयोगी, वचनयोगी व काययोगी होते हैं । ०२.०१ औधिक नारकी अपर्याप्त जीवों में (क) तेसि (णेरइयाणं ) चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x दो जोगxxx। तेसिं (णेरइय-मिच्छाइट्ठीणं ) चेष अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि xxx बे जोग x xx। तेसिं (णेरइय-असंजदसम्माइट्ठीणं ) चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x बे जोगxxx। --षट ० खं १, १ । टीका । पृ २ । पृ० ४५०-५५ औधिक अपर्याप्त नारकी जीवों में वै क्रियमिश्र और कार्मणकाय ये दो योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि औधिक अपर्याप्त नारकी जीवों में दो योग। असंयत सम्यग्दष्टि औधिक अपर्याप्त नारकियों में दो योग होते हैं। सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि--ये दो गुणस्थान अपर्याप्त नारकी के नहीं होते है। •०२०२ औधिक नारकी पर्याप्त जीवों में तेसिं (णेरइयाणं) चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि xxxणव जोग, xxx । तेसिं (णेरइय-मिच्छाइट्ठीणं) चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थिxxx णब जोग x x x। तेसिं (णेरइय-असंजदसम्माइट्ठीणं) चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थिxxx णव जोगxxx। -षट • खं १, १ । टीका । पु २ । पृ० ४४६-५५ ___ औधिक पर्याप्त नारकियोंके चार मन के, चार वचनके और वैक्रियकाय-ये नौ योग होते हैं। गुणस्थान की अपेक्षा से औधिक पर्याप्त नारकियों में नौ योग। असंयत सम्यग्दृष्टि औधिक पर्याप्त नारकियों में नौ योग होते हैं। सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान पर्याप्त नारकियों के ही होते हैं, अतः इन दोनों गुणस्थानों के औधिक नारकियों ( पाठ ०२ ) में नौ योग होते हैं । .०३ प्रथम पृथ्वी के नारकियों में (क) पढमाए पुढवीए रइथाणं भण्णमाणे अस्थि xxxएगारह जोग xxx । संपहि पढम-पुढवि-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि xxx एगारह Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) जोग x x x | सासणसम्माइट्ठीणं ( णेरइयाणं भण्णमाणे अस्थि x x x णव जोग XxX | सम्मामिच्छा इट्ठीणं ( णेरइयाणं ) जोग xxx । असंजदसम्माइट्टीणं भण्णमाणे XXX! भण्णमाणे अस्थि x x x णच अत्थि x x x एगारह जोग - षट० खं १, १ । टीका | पु २ | पृ० ४५६-६२ --ठाणा० स्था ३ उ १ । सू १३ । पृ० ५४१ रयणप्पभाए कि मणजोगी वइजोगी कायजोगी ? - जीवा० प्रति ३ । उ २ । सू ८८ । पृ० ११५ (ख) देखो पाठ ०२ (ग) इमीसे णं भंते! तिणिवि x x x प्रथम पृथ्वी के औधिक नारकियों में चार मन के, चार वचन के, वैक्रिय, वैक्रिय - मिश्र, और कार्मणकाय - ये ग्यारह योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि प्रथम पृथ्वी के नारकियों में उपर्युक्त ग्यारह योग । सासादन सम्यग्दृष्टि प्रथम पृथ्वी के नारकियों में चार मन के, चार वचन के और वैक्रियकाय - नौ योग । सम्यग्मिथ्यादृष्टि प्रथम पृथ्वी के नारकियों में चार मन के, चार वचन के और वैक्रियकाय नौ योग । असंयत सम्यग्दृष्टि प्रथम पृथ्वी के नारकियों में चार मन के, चार वचन के, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र और कार्मणका - ग्यारह योग होते हैं । रत्नप्रभा - प्रथम पृथ्वी के नारकियों में मन, वचन और काय - तीन योग होते हैं। ०३०१ प्रथम पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में तेसि ( पढमाए पुढचीए णेरइयाणं ) चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि xxx दो जोग x x x । तेसिं ( पढम- - पुढवि-मिच्छाइट्ठीणं) चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x दो जोग x x x । तेसि ( पढम- पुढवि - असंजदसम्माइडीणं) चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x वे जोग x x x | - षट् ० खं १, १ । टीका । पृ २ पृ० ४५६-६३ प्रथम पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में वैक्रियमिश्र और कार्मणकाय दो योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि प्रथम पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में उपर्युक्त दो योग । असंयत सम्यग्दृष्टि अपर्याप्त प्रथम पृथ्वी के नारकियों में उपर्युक्त दो योग होते हैं । सासादन सम्यग्fष्ट और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अपर्याप्त अवस्था नहीं होती है । ०३०२ प्रथम पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में तेलि ( पढमाए पुढवीए णेरइयाणं ) वेब पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थिxxx णव जोग x x x | तेसिं ( पढम- पुढवि-मिच्छाइट्ठीणं ) वेब पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x णव जोग x x x । तेसिं ( पढम- पुढषि-असंजदसम्माइट्ठीणं ) वेब पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्यि x x x णव जोग x x x -- षट् ० खं १, १ । टीका । पु २ । पृ० ४५७-७३ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३ ) प्रथम पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में चार मन के, चार वचन के और वे क्रियकायनौ योग होते हैं। गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि पर्याप्त प्रथम पृथ्वी के नारकियों में उपर्युक्त नौ योग। असंयतसम्यग्दृष्टि पर्याप्त प्रथम पृथ्वी के नारकियों में उपर्युक्त नौ योग होते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्याटष्टि गुणस्थान पर्याप्त नारकियों के ही होते है और उनमें उपर्युक्त नौ योग होते हैं । •०४ द्वितीय पृथ्वी के नारकियों में (क) विदियाए पुढपीए णेरइयाणं भण्णमाणे अस्थि x x x एगारह जोग x xx। (विदियाए पुढवीए) मिच्छाइठ्ठीणं भण्णमाणे अस्थि x x x एगारह जोग x x x | सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि xxx णव जोग xxx। सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमणे अस्थि xxx णव जोग xxx। असंजदसम्माइट्ठणं भण्णमाणे अस्थि xxx णव जोग x x x | --षट ० खं १, १ । टीका । पु २ । पृ० ४६४-६६ (ख) देखो पाठ ०२। -ठाठा० स्था ३ । उ १ । सू १३ । पृ० ५४१ (ग) इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए कि मणजोगी वइजोगी कायजोगी ? तिण्णिवि, एवं जाव अहेसत्तमाए। -जीवा० प्रति ३ । उ २ । सू ८८ । पृ० ११५ (घ) नेरइयाणं भंते ! कतिविधे पओगे पण्णत्ते १ गोयमा! एक्कारसविधे पओगे पण्णत्ते, तं जहा-सच्चमणप्पओगे जाव असञ्चामोसवयप्पओगे वेउब्धिय सरीरकायप्पओगे वेउब्वियमीससरीरकायप्पओगे ( तेया ) कम्मसरीरकायप्प37191 xxx! --पण्ण० प १६ । सू १०७० । पृ० २७१ द्वितीय पृथ्वी के औधिक नारकियों में चार मन के, चार वचन के, वैकिय, वैक्रियमिश्र और कार्मणकाय-ग्यारह योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि द्वितीय पृथ्वी के नारकियों में उपयुक्त ग्यारह योग होते हैं। सासादन सम्यग्दृष्टि द्वितीय पृथ्वी के नारकियों में चार मन के, चार वचन के और वैक्रियकाय-नौ योग। सम्यग्मिथ्यादृष्टि द्वितीय पृथ्वी के नारकियों में उपर्युक्त नौ योग/असंयत सम्यग्दृष्टि द्वितीय पृथ्वी के नारकियों में उपर्युक्त नौ योग होते हैं । द्वितीय पृथ्वी के नारकियों में मन, वचन और काय-तीन योग होते हैं। द्वितीय पृथ्वी के नारकियों में चार मन के, चार वचन के, वैक्रियशरीर, वैक्रियमिश्र शरीर और कार्मणशरीर काय-ग्यारह प्रकृष्ट योग या प्रयोग होते हैं । .०४.०१ द्वितीय पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में तेसि ( विदियाए पुढवीए णेरइयाणं ) चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) गुट्टा xxx वे जोग x x x | तेसि ( विदियाए पुढवीए णेरइय-मिच्छाइट्ठी) चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x वे जोग x x x ० खं० १, १ । टीका । पु२ | पृ० ४६५-६७ - षट् ० द्वितीय पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियो में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है तथा मिश्र और कार्मणकाय - दो योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि द्वितीय पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में उपर्युक्त दो योग होते हैं । .०४.०२ द्वितीय पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में सि (विदिया पुढवीए णेरइयाणं ) चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि x x x णव जोग x x x । तेसि ( विदियाए पुढबीए रद्दय-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि x x x णव जोग x x x | ० खं १, १ । टीका । २ । पृ० ४६५-६७ - षट् ० द्वितीय पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में चार गुणस्थान होते हैं तथा चार मन के, चार वचन के और वैक्रियकाय - नौ योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि पर्याप्त नारकियों में उपर्युक्त नौ योग होते हैं । सासादन सम्यग्टष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि द्वितीय पृथ्वी के पर्याप्त नारकी ही होते हैं और इनमें उपर्युक्त नौ योग होते हैं । .०५ तृतीय पृथ्वी के औधिक नारकियों में (क) एवं ( जहा विदियाए पुढवीए णेरइयाणं ) तदिय - पुढवि-आदि जब सप्तम- पुढवित्ति चदुण्हं गुणहाणाणमालाचो वक्तव्वो । - षट् ० ० खं० १, १ । टीका । २ । पृ० ४७० - ठाण० स्था ३ । उ १ । सू १३ । पृ० ५४१ - जीवा० प्रति ३ । उ२ । सू८ । पृ० ११५ (ख) देखो पाठ ०२ । (ग) देखो पाठ ०२.०४ । (घ) देखो पाठ . ०२.०४ । - पण्ण० प १६ । सू १०७० | पृ० २६१ तृतीय पृथ्वी के औधिक नारकियों में चार मन के, चार वचन के, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र और कार्मणकाय - ग्यारह योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि तृतीय पृथ्वी के नारकियों में उपर्युक्त ग्यारह योग होते हैं । सासादन सम्यग्दृष्टि तृतीय पृथ्वी के नारकियों में चार मन के, चार वचन के, और वैकियकाय - नौ योग । सम्यग्मिथ्यादृष्टि तृतीय पृथ्वी के नारकियों में उपर्युक्त नौ योग । असंयतसम्यग्टष्टि तृतीय पृथ्वी के नारकियों में उपर्युक्त नौ योग | तृतीय पृथ्वी के नारकियों में मन, वचन और काय - तीन योग होते हैं । तृतीय पृथ्वी के नारकियों में चार मन के, चार वचन के, वैक्रियशरीर, वैक्रियमिश्रशरीर और कार्मणशरीरकाय - ग्यारह प्रकृष्ट योग या प्रयोग होते हैं । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ) .०५.०१ तृतीय पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में देसो पाठ द्वितीय पृथ्वी के अपर्याप्त नारकी .०४.०१ । - षट् ० खं० १, १ । टीका । पृ २ | पृ० ४६५-६७ तृतीय पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में एक ही मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है तथा यमिश्र और कार्मणकाय - दो योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि तृतीय पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में उपर्युक्त दो योग होते हैं । .०५.०२ तृतीय पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में देखो पाठ द्वितीय पृथ्वी के पर्याप्त नारकी . ०४.०२ । - षट् • खं० १, १ । टीका । पु २ | पृ० ४६५-६७ तृतीय पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में आदि के चार गुणस्थान होते हैं तथा चार मन के, चार वचन के और वैक्रियकाय - नौ योग होते हैं। गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि तृतीय पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में उपर्युक्त नौ योग । सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि तृतीय पृथ्वी के पर्याप्त नारकी ही होते हैं और इनमें - उपर्युक्त नौ योग होते हैं । .०६ चतुर्थ पृथ्वी के औधिक नारकियों में देखो पाठ द्वितीय पृथ्वी के नारकी .०४ । चतुर्य पृथ्वी के औधिक नारकियों में चार मन के, चार वचन के, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र और कार्मणकाय -- ग्यारह योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि चतुर्थ पृथ्वी के नारकियों में उपर्युक्त ग्यारह योग होते हैं । सासादन सम्यग्दृष्टि चतुर्थ पृथ्वी के नारकियों में चार मन के, चार वचन के और वैक्रियकाय-नौ योग । सम्यग्मिथ्यादृष्टि चतुर्थ पृथ्वी के नारकियों में उपर्युक्त नौ योग । असंयत सम्यग्दृष्टि चतुर्थ पृथ्वी के नारकियों में उपर्युक्त नौ योग होते हैं । चतुर्थ पृथ्वी के नारकियों में मन, वचन, और काय - तीन योग होते हैं । चतुर्थ पृथ्वी के नारकियों में चार मन के, चार वचन के, वे क्रियशरीर, वे क्रियमिश्र - शरीर और कार्मणशरीरकाय - ग्यारह प्रकृष्ट योग या प्रयोग होते हैं । .०६.०१ चतुर्थ पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में देखो पाठ द्वितीय पृथ्वी के अपर्याप्त नारकी . ०४.०१ । चतुर्थं पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है तथा क्रियमिश्र और कार्मणकाय - - दो योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि चतुर्थं पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में उपर्युक्त दो योग होते हैं । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) .०६.०२ चतुर्थ पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में देखो पाठ द्वितीय पृथ्वी के पर्याप्त नारकी .०४.०२ । चतुर्थ पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में आदि के चार गुणस्थान होते हैं तथा चार मन के, चार वचन के और वे क्रियकाय-नौ योग होते है । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि चतुर्थ पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में उपर्युक्त नौ योग। मासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि चतुर्थ पृथ्वी के पर्याप्त नारकी ही होते हैं और इनमें-उपर्युक्त नौ योग होते हैं। •०७ पंचम पृथ्वी के औधिक नारकियों में देखो पाठ द्वितीय पृथ्वी के नारकी '०४। __ पंचम पृथ्वी के औधिक नारकियों में चार मन के, चार वचन के, वैक्रिय, वै क्रियमिश्र और कार्मणकाय-ग्यारह योग होते हैं। गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि पंचम पृथ्वी के नारकियों में उपर्यक्त ग्यारह योग होते हैं। सासादन सम्यग्दृष्टि पंचम पृथ्वी के नारकियों में चार मन के, चार वचन के और वे क्रियकाय-नौ योग। सम्यग्मिथ्याष्टि पंचम पृथ्वी के नारकियों में उपर्युक्त नौ योग । असंयत सम्यग्दृष्टि पंचम पृथ्वी के नारकियों में उपर्युक्त नौ योग होते हैं। पंचम पृथ्वी के नारकियों में मन, वचन और काय-तीन योग होते हैं। पंचम पृथ्वी के नारकियों में चार मन के, चार वचन के, वैक्रियशरीर, वैक्रियमिश्र शरीर और कार्मणशरीर काय-ग्यारह प्रकृष्ट योग या प्रयोग होते हैं । ०७.०१ पंचम पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में देखो पाठ द्वितीय पृथ्वी के अपर्याप्त नारकी '०४.०१ । पंचम पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में एक मिथ्याटष्टि गुणस्थान होता है तथा वैक्रियमिश्र और कार्मणकाय-दो योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि पंचम पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में उपर्युक्त दो योग होते हैं । ०७.०२ पंचमी पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में देखो पाठ द्वितीय पृथ्वी के पर्याप्त नारकी ०४.०२ । पंचम पुथ्वी के पर्याप्त नारकियों में आदि के चार गुणस्थान होते हैं तथा चार मन के, चार वचन के और वैक्रियकाय-नौ योग होते हैं। गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि पंचम पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में उपर्युक्त नौ योग। सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि पंचम पृथ्वी के पर्याप्त नारकी ही होते हैं और इनमें-उपर्यक्त नौ योग होते हैं। •०८ षष्ठम पृथ्वी के औधिक नारकियों में देखो पाठ द्वितीय पृथ्वी के औधिक नारको ०४ । षष्ठम पृथ्वी के औधिक नारकियों में चार मन के, चार वचन के, वैक्रिय, वैक्रिय Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७७ ) मिभ और कामणकाय- ग्यारह योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि षष्ठम पृथ्वी के नारकियों में उपयुक्त ग्यारह योग होते हैं । सासादन सम्यग्दृष्टि षष्ठम पृथ्वी के नारकियों में चार मन के, चार वचन के और वैक्रियकाय-नौ योग। सम्यग्मिथ्यादृष्टि षष्ठम पृथ्वीके नारकियों में उपर्युक्त नौ योग । असंयत सम्यग्दृष्टि षष्ठम पृथ्वी के नारकियों में उपर्युक्त नौ योग होते हैं। षष्ठम पृथ्वी के नारकियों में मन, वचन और काय-तीन योग होते हैं। षष्ठम पृथ्वी के नारकियों में चार मन के. चार वचन के वैक्रियशरीर, वैक्रियमिश्रशरीर और कार्मणशरीर काय-ग्यारह प्रकृष्ट योग या प्रयोग होते हैं । •०८०१ षष्ठम पृथ्वी के अपर्याप्त नारिकयों में देखो पाठ द्वितीय पृथ्वी के अपर्याप्त नारकी ०४.०१ । षष्ठम पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है तथा वै क्रियमिश्र और कामणकाय-दो योग होते हैं। गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि षष्ठम पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में उपर्युक्त दो योग होते हैं । .०८.०२ षष्ठम पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में देखो पाठ द्वितीय पृथ्वी के पर्याप्त नारकी ०४.०२ । षष्ठम पृथ्वी के पर्याप्त नारकियोंमें आदि के चार गुणस्थान होते हैं तथा चार मन के, चार वचन के और वैक्रियकाय - नौ योग होते हैं। गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि षष्ठम पृथ्वीके पर्याप्त नारकियों में उपर्युक्त नौ योग । सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि षष्ठम पृथ्वी के पर्याप्त नारकी ही होते हैं और इनमें उपर्यक्त नौ योग होते है। ०९ सप्तम पृथ्वी के औधिक नारकियों में देखो पाठ द्वितीय पृथ्वी के औधिक नारकी '०४। सप्तम पृथ्वी के औधिक नारकियों में चार मन के, चार वचन के, वैक्रिय, वैक्रियमिभ और कार्मणकाय-ग्यारह योग होते हैं। गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि सप्तम पृथ्वी के नारकियों में उपर्युक्त ग्यारह योग होते हैं। सासादन सम्यग्दृष्टि सप्तम पृथ्वी के नारकियों में चार मन के, चार वचन के और वैक्रियकाय-नौ योग। सम्यग्मिथ्यादृष्टि सप्तम पृथ्वी के नारकियों में उपर्युक्त नौ योग। असंयतसम्यग्दृष्टि सप्तम पृथ्वी की नारकियों में उपर्युक्त नौ योग होते हैं। सप्तम पृथ्वी के नारकियों में मन, वचत और काय-तीन योग होते हैं। सप्तम पृथ्वी के नारकियों में चार मन के, चार वचन के, वैक्रियशरीर, वैक्रियमिश्रशरीर और कार्मणशरीर काय-ग्यारह प्रकृष्ट योग या प्रयोग होते हैं। Jain Education Intentional Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) ०९.०१ सप्तम के अपर्याप्त नारकियों में देखो पाठ द्वितीय पृथ्वी के अपर्याप्त नारकी ०४.०१ । सप्तम पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में एक मिथ्याढष्टि गुणस्थान होता है तथा वैक्रियमिश्र और कार्मणकाय-दो योग होते । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि सप्तम पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में उपर्युक्त दो योग होते हैं। .०९.०२ सप्तम पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में देखो पाठ द्वितीय पृथ्वी के पर्याप्त नारकी .०४.०२ । सप्तम पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में आदि के चार गुणस्थान होते हैं तथा चार मन के, चार वचन के और वैक्रियकाय-नौ योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि सप्तम पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में उपर्युक्त नौ योग। सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि सप्तम पृथ्वी के पर्याप्त नारकी ही होते हैं और इनमें उपयुक्त नौ योग होते हैं। .०१० औधिक तियचों में (क) तिरिक्खगईए तिरिक्खाणं भण्णमाणे xxx अस्थि पंच गुणट्ठाणाणि xxx एगारह जोग xxx। संपहि तिरिक्ख-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि xxx एगारह जोग xxx। तिरिक्ख-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि xxx एगारह जोग x x x | तिरिक्ख-सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि xxx णव जोग x x x | तिरिक्ख-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि xxx एगारह जोग xxx| तिरिक्ख-संजदासंजदाणं भण्णमाणे अस्थि xxx णव FIT X X X/ -घट ० खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ४७१-८१ (ख) ते णं भंते ! (तिरिक्खजोणिया ) जीवा कि मणजोगी वइजोगी कायजोगी? गोयमा ! तिविधाधि। --जीवा० प्रति ३ । उ १ । सू ६७ । पृ० १३३ (ग) तिविहे जोगे पन्नत्ते, तनहा-मणजोगे वतिजोगे कायजोगे, एवं णेरतिताणं विगलिंदियषज्जाणं जाच वेमाणियाणं ।। -ठाण० स्था ३ । उ १ । सू १३ । पृ. ५४१ औधिक तियंचों के पाँच गुणस्थान होते हैं और इनमें चार मन के, चार वचन के, औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग और कामणकाय-- ग्यारह योग होते हैं। गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादष्टि तिर्यचों में उपर्युक्त ग्यारह योग। सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यचों में उपयुक्त ग्यारह योग । सम्यग्मिथ्यादृष्टि तियचों में चार मन के, चार वचन के, और औदारिककाय--नौ योग/असंयत-सम्यग्दृष्टि तिर्यचों में चार मन के, चार वचन के, Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) औदारिक, औदारिकमिम और कार्मणकाय - ग्यारह योग । संयतासंयत तिर्यंचों में चार मन के, चार वचन के और औदारिक काय --- नौ योग होते हैं । औधिक तिर्यंचों में मन, वचन और काय - तीनों ही योग होते हैं । .०१०.१ अपर्याप्त तियंचों में सिं (तिरिक्खाणं ) चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x बे जोग xxx । तेसिं ( तिरिक्ख-मिच्छाइट्ठीणं) वेब अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि × × × वे जोग x x x | तेसिं ( तिरिक्ख- सासणसम्माइट्ठीणं ) चेव भण्णमाणे अस्थि x x x वे जोग x x x । तेसि ( तिरिषख - असंजदसम्माइट्ठीणं ) चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x वे जोग xxx । ० खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ४७३-८० - षट् ० अपर्याप्त तिर्यंचों में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय - दो योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि अपर्याप्त तिर्यंचों में उपर्युक्त दो योग । सासादन सम्यग्दृष्टि अपयप्ति तिर्यंचों में उपर्युक्त दो योग । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान अपर्याप्त जीव में नहीं होता है | असंयत सम्यग्दृष्टि अपर्याप्त तिर्यचों में उपयुक्त दो योग । • १०.०२ पर्याप्त तिर्य खो में सिं (तिरिक्खाणं ) चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x णव जोग xxx । तेसिं ( तिरिक्ख-मिच्छाइट्ठीणं ) चेव पजताणं भण्णमाणे अस्थि x x x व जोग x x x | तेसिं ( तिरिक्ख- सासणसम्माइट्ठीणं ) चेव पजात्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x णव जोग x x x । तेसि ( तिरिक्ख - असंजदसम्माइट्ठीणं ) चेच पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x णव जोग x x x | - षट् ० ० १, १ । टीका । पृ २ | पृ० ४७२-८० पर्याप्त औधिक तिर्यों में चार मन के, चार वचन के, और औदारिककाय - नौ योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि पर्याप्त तिर्यचों में उपर्युक्त नौ योग । सासादन सम्यग्दृष्टि पर्याप्त तिर्यंचों में उपर्युक्त नौ योग । असंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त तिर्यंचों मैं उपर्युक्त नौ योग होते हैं । इनसे आगे के सभी गुणस्थान पर्याप्त में ही होते हैं, अतः सभ्यग् मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में उपर्युक्त नौ योग होते हैं । .०११ औधिक एकेन्द्रियों में (क) सामण्णे दियाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं x x x तिण्णि जोग x x x | - षट् ० ० खं० १, १ । टीका । पु२ | पृ० ५६६ (ख) तिविहे जोगे पन्नत्ते, तंजहा- मणजोगे वतिजोगे कायजोगे, एवं णेरतिताणं विगलिंदियवजाणं x x x | - ठाण● स्था ३ | उ १ । सू १३ । पृ० ५४१ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ) टीका - "विगलिंदियवजाणं" ति तत्र विकलेन्द्रिया:- अपञ्चेन्द्रियाः, तेषां ह्य केन्द्रियाणां काययोग एव, x x x औधिक एकेन्द्रियों में औदारिक, औदारिक मिश्र और कार्मणकाय - तीन योग होते हैं। .०११.०१ अपर्याप्त एकेन्द्रियों में तेसि ( सामण्णेइ' दियाणं ) चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x दो जोग x x x 1 - षट् ० ० खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ५७० अपर्याप्त औधिक एकेन्द्रियों में औदारिक मिश्र और कार्मणकाय - दो योग होते हैं । ( .०११.०२ पर्याप्त एकेन्द्रियों में तेसि ( सामण्णेइ दियाणं ) खेव पजताणं भण्णमाणे अस्थि x x x ओरालियकायनोगो x x x } ० खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ५७० - षट, ० पर्याप्त औधिक एकेन्द्रियों में औदारिककाय - एक योग होता है । .०११.०३ सूक्ष्म एकेन्द्रियों में सुमेर दियाणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं x x x तिण्णि जोग x x x - षट् ० खं० १, १ । टीका । पृ० । पृ० ५७३ ०११०३०१ अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियों में तेसि (सुडुमेह दियाणं ) खेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x दो जोग x x x 1 ० खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ५७४ - षट् ११०३०२ पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियों में सि (सुमेई दियाणं ) चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x ओरलियकायजोगो x x x 1 - षट्० खं १, १ । ठीका । पु २ । पृ० ५७४ *११०३०३ लब्धि - अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियों में सुहुमेई दियलद्धिअपजत्ताणं पि अपजत्तणामकम्मोदयसहियाणं एओ अपजत्तालाचो । ० खं १, १ । टीका । पृ २ । पृ० ५७५ पर्याप्त नाम कर्म से युक्त लब्धि - अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियों के एक अपर्याप्त आलापक होता है औदारिकमिश्र और कार्मणकाय - दो योग होते हैं । - षट् ० ११०३०४ निर्वृत्तिपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियों में एवं पज्जत्त-णामकम्मोदय- सहियाणं सुहुमेइं दियणिव्यत्तिपजत्ताणं तिष्णि - षट् ० खं १, १ । टीका । पु २ । पृ ५७५ आलावा चत्तव्चा | Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८१ ) जिस प्रकार औधिक सूक्ष्म एकेन्द्रियों के तीन आलापक कहे गये हैं उसी प्रकार पर्याप्त नाम कर्म के उदय से युक्त निवृत्ति पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियों के भी तीन आलापक कहना चाहिये । यथा - औधिक निवृत्तिपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियों में औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाय - तीन योग होते है । अपर्याप्त निवृत्तिपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियों में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय - दो योग होते हैं । पर्याप्त निवृत्तिपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियों में एक औदारिक काययोग होता है । ११०४ बादर एकेन्द्रियों में बादरेई दियाणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणद्वाणं x x x तिण्णि जोग - षट् ० ० १, १ । टीका । पु२ | पृ० ५७१ X X X I * ११.०४.०१ अपर्याप्त बादर एकेन्द्रियों में X X X I - षट् ० तेसि (बादरेइं दियाणं) वेब अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x दो जोग ० खं १, १ । टीका । पृ २ । पृ० ५७२ अपर्याप्त बादर एकेन्द्रियों में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय - दो योग होते हैं । ११०४०२ पर्याप्त बादर एकेन्द्रियों में तेसि ( बाद दियाणं ) चेव स्नियकाययोगो × × × | पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि x x x ओरा- षट् ० खं १, १ । टीका पु २ | पृ० ५७२ बादर एकेन्द्रियों में एक औदारिक काययोग होते है । '११०४०३ लब्धि अपर्याप्त बादर एकेन्द्रियों में ई दियअपजत्तालाष भंगो । अपजत्ताणामकम्मोदयाणं बादरेई दियलद्धिअपजत्ताणं भण्णमाणे बादरे - - षट् ० ० खं १, १ । टीका । ५० २ पृ० ५७३ अपर्याप्त नामकर्मोदय से युक्त बादर एकेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीवों का आलापक अपर्याप्त बादर एकेन्द्रियों के समान जानना चाहिए । इसके अनुसार औदारिकमिश्र और कार्मणका - दो योग होते हैं । '११०४०४ निवृत्तिपर्याप्त वादर एकेन्द्रियों में एवं ( जहा बादरेइं दियाणं ) बादरेइं दियापजत्ताणं पजत्तणामकम्मोदयाणं तिण्णि आलावा चन्तव्वा -षट ० खं १, १ । टीका । पृ २ | पृ० ५७३ पर्याप्त नामकर्म के उदय से युक्त निवृत्तिपर्याप्त बादर एकेन्द्रियो के बादर एकेन्द्रियों के समान तीन आलापक होते हैं । यथा Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) औधिक निवृत्तिपर्याप्त बादर एकेन्द्रियों में औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाय-तीन योग होते हैं। अपर्याप्त निवृत्तिपर्याप्त बादर एकेन्द्रियों में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय-दो योग होते हैं। पर्याप्त निवृत्तिपर्याप्त बादर एकेन्द्रियों में एक औदारिक काययोग होता है । १२ पृथ्वीकाय में पुढविकाइयाणं भण्णमाणे अत्थिx x x तिणि जोगxxxi -षट् • खं १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६०४ पृथ्वीकाय के जीवों में तीन योग होते हैं। यथा-(१) औदारिककाययोग, (२) औदादिकमिश्र काययोग और (३) कार्मणकाययोग '०१२०१ अपयांप्त पृथ्वीकाय में तेसि (पुढविकाइयाणं) चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x दो जोगxxx। -षद्० खं १, १ । टीका । पु २ | पृ० ६०६ अपर्याप्त पृथ्वीकाय के जीवों में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय-दो जोग होते है । १२.०२ पर्याप्त पृथ्वीकाय में तसिं ( पुढविकाइयाणं) चेव पजत्ताणं भण्णमाणे x x x ओरालियकाययोगो xxx -षट् • खं १, १ । टीका । पु. २ । पृ० ६०५ पर्याप्त पृथ्वीकाय के जीवों में एक औदारिक काययोग होता है । '०१२:०३ सूक्ष्म पृथ्वीकाय में सुहुमपुढवीए सुहुमेई दिय-भंगो -षट ० खं १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६.६ सूक्ष्म पृथ्वीकाय में औदारिक औदारिकमिभ और कार्मणकाय तीन योग होते है। ( देखो पाठ ११.०३)। १२.०३.०१ अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय में देखो पाठ ११०३०१। अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय-दो योग होते है। १२०३०३ लब्धि-अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय में सुहुमपुढपीए सुहुमेई दिय-भंगो। -षट ० खं १, १ । टीका। पु २ । पृ० ६.६ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८३ ) लब्धि-अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय---दो योग होते हैं। ( देखो पाठ ११.०३.०३) १२.०३.०४ निर्वृत्तिपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय में सुहुमपुढवीए सुहुमेई दिय-भंगो। -षट् ० खं १, १ । टीका । पृ २ पृ० ६.६ निर्वृत्तिपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय में एक औदारिक काययोग होता है । १२.०३.०२ पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्बीकाय में देखो पाठ ११.०३०२। पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय में एक औदारिक काययोग होता है । १२.०४ बादर पृथ्वीकाय में बादरपुढषिकाइयाणं भण्णमाणे अस्थि x x x तिण्णि जोगxxx। -षट• खं १, १ । टीका । पु २ । पृ. ६०७ १२.०४.०१ अपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय में तेसि ( बादग्पुढविकाइयाणं) चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थिxxx दो जोगxxxi -षट् खं १, १ । टीका। पु २ | पृ० ६.अपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय- दो योग होते हैं । १२.०४.०२ पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय में तेसि ( बादरपुढविकाइयाणं ) चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्यि xxx ओरालियकायजोगो xxxi -षट • खं १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६०८ पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय में एक औदारिक काययोग होता है । १२.०४.०३ लब्धि-अपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय में । बादरपुढविलद्धिअपजत्तस्स बादरेइंदिय-अपज्जत्त-भंगो। -षट • खण्ड १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६.६ लब्धि-अपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय में बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त के समान एक भंग होता है। तदनुसार औदारिकमिश्र और कामणकाय-दो योग होते हैं। १२.०४.०४ निवृत्तिपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय में एवं (जहाबादरपुढविकाइयाणं ) बादरपुढविणिव्वत्तिपज्जत्तस्स तिण्णि आलावा वत्तवा। -षट • खं १, १ । टीका । पृ २ । पृ० ६०६ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) निवृत्तिपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय में बादर पृथ्वीकाय की तरह औधिक, अपर्याप्त और पर्याप्त-तीन आलापक होते हैं । यथा औधिक निवृत्ति बादर पृथ्वीकाय में औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाय-तीन योग होते हैं। अपर्याप्त निवृत्तिपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय-दो योग होते हैं। पर्याप्त निवृत्तिपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय में एक औदारिक काययोग होता है । .०१३ अपकाय में आउकाइयाणं पुढषि-भंगो। -षट • खं० १, १ । टीका । पृ २ । पृ० ६०६ अप्काय के जीवों में पृथ्वीकायिक जीवों की तरह तीन योग होते हैं-यथा (१) औदारिक काययोग, (२) औदारिकमिश्र काययोग और (३) कार्मण काययोग .०१३.०१ अपर्याप्त अप्काय में आउकाइयाणं पुढवि-भंगो। --षट् • खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ॰ ६०६ अपर्याप्त अप्काय में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय- दो योग होते हैं । .०१३.०२ पर्याप्त अपकाय में आउकाइयाणं पुढवि-भंगो। -षट • खं १, १ । टीका । पु २ पृ० ६.६ पर्याप्त अप्काय में एक औदारिक काययोग होता है। .०३.०३ सूक्ष्म अपकाय में मुहुमआउकाइयाणं सुहुमपुढविकाइय-भंगो। - षट० खं. १, १ । टीका । पु २ पृ० ६१० सूक्ष्म अप्काय में औदारिक, औदारिकमिश्र और कामणकाय--तीय योग होते हैं । ( देखे पाठ .१२.०३) .०१३०३.०१ अपर्याप्त सूक्ष्म अपकाय में सुहुम आउकाइयाणं सुहमपुढविकाइय-भंगो। (देखो पाठ .०१२.०३.०१) -षट • खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६१० अपर्याप्त सूक्ष्म अप्काय में औदारिकमिश्र और कामणकाय-दो योग होते है । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८५ ) .०१३.०३.०२ पर्याप्त सूक्ष्म अप्काय में सुहुमआउकाइयाणं सुहुमपुढवि-भंगो। (देखो पाठ .०१२.०३.०२) -षट खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६१० पर्याप्त सूक्ष्म अप काय में एक औदारिक काययोग होता है। .०१३.०३.०३ लब्धि-अपर्याप्त सूक्ष्म अप्काय में सुहमआउकाइयलद्धिअपञ्चत्ताणं च सुहमपुढवि x x x अपजत्तभंगो। -पट • खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६१० लब्धि- अपर्याप्त सूक्ष्म अप्काय में औदारिकमिश्र और कामणकाय दो योग होते हैं । .०१३.०३.०४ निर्वृत्तिपर्याप्त सूक्ष्म अप्काय में सुहमआउकाइयणिवत्तिपज्जत्तापज्जत्ताणं xxx सुहमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-भंगो। -षट • खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६१. निवृत्तिपर्याप्त सूक्ष्म अपकाय के औधिक, अपर्याप्त और पर्याप्त-तीन आलापक होते हैं। यथा औधिक निवृत्ति वादर अपकाय में औदारिक, औदारिकमिश्र तथा कार्मण तीन योग होते हैं। निवृत्तिपर्याप्त सूक्ष्म अपकाय में औदारिक काययोग होता है । इनके अपर्याप्त काल में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय दो योग होते हैं । .०१३.०४ बादर अयकाय में एवं चेव बादआउकायस्स वि तिणि आलावा वत्तव्वा । --षट ० खं० १, १ । टीका । पु २ | पृ० ६१० बादर अप्काय में औदारिक, औदारिकमिश्र और काम णकाय-तीन योग होते हैं । '०१३.०४.०१ अपर्याप्त बादर अपकाय में एवं चेव यादरआउकायस्स वि तिणि आलावा वत्तव्वा । -षट • खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ०६१० अपर्याप्त बादर अप्काय में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय-दो योग होते हैं । .०१३.०४.०२ पर्याप्त पादरअप्काय में एवं चेव बादरआउकायस्स वि तिण्णि आलावा वत्तव्वा । ~षट् ० खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ०६१० inte penal Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) पर्याप्त बादर अप्काय में एक औदारिक काययोग होता है । .०१३.०४.०३ लब्धि-अपर्याप्त बादर अप्काय में बादरआउलद्धिअपज्जत्ताणं बादरआउणिवत्ति-अपज्जत्त-भंगो। -षट.. खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६१० लब्धि-अपर्याप्त बादर अप्काय में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय-दो योग होते हैं। (देखो पाठ .०१३.०४.०४) .०१३.०४.०४ निवृत्ति-पर्याप्त बादर अप्काय में बादरआउकाइयणिवत्तिपज्जत्ताणं पि तिण्णि आलावा एवं चेव वत्तव्वा । -षट् • खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६१० निवृत्तिपर्याप्त बादर अप्काय के औधिक जीवों में औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाय-तीन योग होते हैं । इनके अपर्याप्त काल में औदारिकमिश्र और काम णकाय --- दो योग होते हैं । इनके पर्याप्तकाल में एक औदारिक काययोग होता है । .०१४ तेउकाय में तेउकाइयाणं तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं x x x आउकाइयाणं तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं xxx भंगो। -घट • खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६१० अग्निकाय काय के जीवों में तीन योग होते हैं- यथा-(१) औदारिक काययोग (२) औदारिकमिश्र काययोग और (३) कार्मणकाययोग । .०१४.०१ अपर्याप्त तेउकाय में तेउकाइथाणं तेसिं चेव पजत्तापजत्ताणं x x x आउकाइयाणं तेसिं चेव पजत्तापज्जत्ताणं xxx भंगो। -षट • खं० १, १ । टीका पु २ । पृ० ६१० अपर्याप्त तेउकाय में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय-- दो योग होते हैं। ( देखो पाठ .०१३.०१) .०१४.१२ पर्याप्त तेउकाय में तेउकाइयाणं तेर्सि चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं x x x आउकाइयाणं तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं xxx भंगो। --षट • खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६१० पर्याप्त अपकाय में एक औदारिक काययोग होता हैं । ( देखो पाठ .० १३.०२) Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .०१४.०३ सूक्ष्म तेउकाय में सुहुमते काइयाणं सुहुम आउकाइयाणं सुहुम- भंगो । - षट् ० खं० १, १ । टीका । पृ २ | पृ० ६११ औधिक सूक्ष्म अपकाय में औदारिक, औदारिक मिश्र और कार्मणकाय -- तीन योग होते हैं । ( १८७ ) .०१४.०३.०१ अपर्याप्त सूक्ष्म ते काय में सुमते काइयाणं सुहुमआउकाइयाणं सुहुम- भंगो । -- षट् ० ० खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६११ अपर्याप्त सूक्ष्म अप्काय में औदारिक मिश्र और कार्मणकाय - दो योग होते हैं । .०१४.०३.०२ पर्याप्त सूक्ष्म ते काय में सुमते काइयाणं सुहुमआउकाइयाणं सुहुम- भंगो । षट् ० खं० १, १ । टीका । पर्याप्त सूक्ष्म तेउकाय में एक औदारिक काययोग होता है । .०१३.०३.०२ ) २ । पृ० ६११ .०१४.०३.०३ लब्धि- अपर्याप्त सूक्ष्म काय में सुहुतेकाइयाणं सुहुमआउकाइयाणं सुहुम- भंगो | - षट् ० ० खं० १, १ । टीका । पु २ पृ० ६११ लब्धि अपर्याप्त सूक्ष्म तेउकाय में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय - दो योग होते हैं । .०१४.०३.०४ निवृत्तिपर्याप्त सूक्ष्म तेउकाय में सुमते काइयाणं सुहुमआउकाइयाणं सुहुम- भंगो । - षट् ० खं० १, १ । टीका । पृ २ | पृ० ६११ निवृत्तिपर्याप्त औधिक तेउकाय में औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाय - तीन योग होते हैं । इनके अपर्याप्त काल में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय - दो योग होते हैं । इनके पर्याप्त काल में एक औदारिक काययोग होता है । ( देखो पाठ .१३.०३.०४ ) । ( देखी पाठ .०१४.०४ बादर तेउकाय में Xxx बादर ते काइयाणं तेसि चेव पज्जन्तापज्जत्ताणं च x x x बादरआउकाइयाणं तेसिं वेब पज्जन्तापज्जन्ताणं xxx भंगो । - षट ० खं १, १ । टीका । पु २ | पृ० ६१० Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८८ ) बादर तेउकाय में औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाय-तीन योग होते हैं । (देखो पाठ .१३.०४) १४.०४.०१ अपर्याप्त बादर तेउकाय में xxxबादरतेउकाइयाणं तेसिं चेव पजत्तापजत्ताणं च x x x बादरआउकाइयाणं तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं x x x भंगो। -- षट • खं १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६११ अपर्याप्त बादर तेउकाय में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय-दो योग होते हैं । (देखो पाठ .१३.०४.०१) १४.०४.०२ पर्याप्त बादर तेउकाय में xxxबादरतेउकाइयाणं तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं चxxx बादराउकाइयाणं तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं x x x भंगो। ___-षट • खण्ड १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६१० पर्याप्त बादर तेउकाय में एक औदारिक काययोग होता है। (देखो पाठ .१३.०४.०२) १४.०४.०३ लब्धि-अपर्याप्त बादर तेउकाय में xxx बादरतेउलद्धिअपजत्ताणं x x x बादरआउकाइयलद्धिअपजत्ताणंxxx भंगो। ___ -षट् • खं० १, १ । टीका । पृ २ । पृ० ६१० लब्धि अपर्याप्त बादर तेउकाय में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय-दो योग होते हैं । (देखो पाठ .१३.०४.०३) १४.०४.०४ निर्वृत्तिपर्याप्त बादर तेउकाय में xx x पज्जत्त-णामकम्मोदयतेउकाइयाणं तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं xxx पज्जत्तणामकम्मोदयआउकाइयाणं तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं x x x भंगो। -षट • खं १, १ । टीका । पृ २ । पृ० ६१० औधिक निवृत्तिपर्याप्त बादर तेउकाय में औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाय-तीन योग होते हैं। इनके अपर्याप्त काल में औदारिकमिश्र और कार्मण काय-दो योग होते हैं। इनके पर्याप्त काल में एक औदारिक काययोग होता है । (देखो पाठ .१३.०४.०४) Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) .१५ वायुकाय में वाउकाइयाणं तेउ-भंगो।xxx -षट • खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६११ वायुकाय के जीवों में तीन योग होते हैं । (१) औदारिक काययोग, (२) औदारिकमिश्र काययोग और (३) कार्मण काययोग। नोट-आगम साहित्य में पाँच योग का उल्लेख मिलता है। ३+२ (वैक्रिय काययोग, वेक्रिय मिश्रकाययोग)= ५ '१५.०१ अपर्याप्त वायुकाय में पाउकाइयाणं तेउ-भंगो। ~षट० खं १, १ । टीका । पृ २ । पृ० ६११ अपर्याप्त वायुकाय में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय-दो योग होते हैं । १५.०२ पर्याप्त वायुकाय में वाउकाइयाणं तेउ-भंगो। -षट० खं १, १ । टीका । पु० २ पृ० ६११ पर्याप्त वायुकाय में एक औदारिक काययोग होता है । १५.०३ सूक्ष्म वायुकाय में सुड्डमवाऊणं सुहुमतेउ-भंगो। -षद् खं १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६१२ सूक्ष्म वायुकाय में औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाय-तीन योग होते हैं । (देखो पाठ .१४.०३) १५.०३.०१ अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय में सुहुमवाऊणं सुहुमतेउ-भंगो। --षट • खं १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६१२ अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय-दो योग होते हैं । १५.०३.०२ पर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय में सुहुमवाऊणं सुहुमतेउ-भंगो। - षट् • खं १, १ । टीका । पु २ । पृ• ६१२ पर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय में एक औदारिक काययोग होता है । १५.०३.०३ लब्धि-अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय में मुटुमवाऊणं सुहुमतेउ-भंगो। -षट् ० खं १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६१२ लब्धि-अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय में औदादिकमिश्न और कार्मणकाय-दो योग होते हैं। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) '१५-०३-०४ निवृत्तिपर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय में सुहुमषाऊणं सुहुमते भंगो । - षट् खं १, १ । टीका । पृ २ | पृ० ६१२ औधिक निवृत्तिपर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय में औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाय - तीन योग होते हैं । -दो अपर्याप्त निवृत्तिपर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय में औदारिक मिश्र और कार्मणकाय --: योग होते हैं । पर्याप्त निवृत्तिपर्यंत सूक्ष्म वायुकाय में एक औदारिक काययोग होता है । *१५:०४ बाद वायुकाय में - षट्० खं० १, १ । टीका | २ | पृ० ६११ बादर वायुकाय में औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाय - तीन योग होते हैं । '१५०४०१ अपर्याप्त बादर वायुकाय वाकाइयाणं तेज-भंगो । में वाडकाइयाणं तेउ-भंगो । ० खं १, १ । टीका । २ । पृ० ६११ - षट् ० अपर्याप्त बादर वायुकाय में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय - दो योग होते हैं । १५०४०२ पर्याप्त बादर वायुकाय में वाउकाइयाणं तेउ-भंगो । -षट् ० पर्याप्त बाद वायुकाय में एक औदारिक काययोग होता है । ० खं १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६११ १५०४०३ लब्धि - अपर्याप्त बादर बायुकाय में वाकाइयाणं तेउ-भंगो । -- षट्० खं १, १ । टीका । पु२ | पृ० ६११ लब्धि अपर्याप्त बादर वायुकाय में औदारिक मिश्र और कार्मणकाय -- दो योग होते हैं। - १५०४०४ निवृत्तिपर्याप्त बादर वायुकाय वाकाइयाणं तेज - भंगो । में -षट्० खं १, औधिक निवृत्तिपर्यंत बादर वायुकाय में औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाय - तीन योग होते हैं । १ । टीका । पु २ | पृ० ६११ अपर्याप्त निवृत्तिपर्याप्त बादर वायुकाय में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय - दो योग होते हैं । पर्याप्त निवृत्तिपर्याप्त बादर वायुकाय में एक औदारिक काययोग होता है । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ ) .१६ वनस्पतिकाय मैं वणप्फइकाइयाणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणहाणं xxx तिण्णि नोग xxx। -षट ० खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६१२ वनस्पतिकाय के जीवों का प्रथम गुणस्थान है। उनमें तीन योग होते हैं । यथा (१) औदारिक कायरोग, (२) औदारिक मिश्रकाययोग और (३) कार्मणकाययोग। .१६.०१ अपर्याप्त वनस्पतिकाय में तेसिं ( वणप्फइकाइयाणं ) चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि xxx दो FTTT X X XI -षट • खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६१३ अपर्याप्त वनस्पतिकाय में औदारिकमिश्र और काम काय -- दो योग होते हैं । '१६०२ पर्याप्त वनस्पतिकाय में तेसिं ( वणप्फइकाइयाणं) चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x ओरालियकायजोग xxx| -षट ० खं० १, १ । टीका । पृ २ । पृ० ६१३ पर्याप्त वनस्पतिकाय में एक औदारिक काययोग होता है । १६.०३ प्रत्येक शरीर वनस्पतिकाय में पत्ते यसरीरषणप्फईणं भण्णमाणे अस्थि x x x तिण्णि जोग x x x | -षट ० खं० १, १ । टीका । पु० २ । पृ० ६१४ प्रत्येक शरीरी वनस्पतिकाय के जीवों में तीन योग होते हैं । यथा --- (१) औदारिक काययोग, (२) औदारिकमिश्र काययोग तथा (३) कार्मण काययोग । १६.०३.०१ अपर्याप्त प्रत्येक शरीर वनस्पतिकाय में तेसिं (पत्ते यसरीरवणप्फईणं ) चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि xxx दो जोग xxx। -षट० खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६१५ अपर्याप्त प्रत्येक शरीर वनस्पतिकाय में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय- दो योग होते हैं। .१६.०३.०२ पर्याप्त प्रत्येकशरीर वनस्पतिकाय में तेसि ( पत्ते यवणप्फईj) चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x ओरालियकायजोगो xxx। -षट् ० खं १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६१५ पर्याप्त प्रत्येक शरीर वनस्पतिकाय में एक औदारिक काययोग होता है । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) .१६.०३०३ लब्धि-अपर्याप्त प्रत्येकशरीर वनस्पतिकाय में लद्धिअपजत्ताणं ( पत्तेयसरीरवणप्फाईणं) पि एगो आलायो पत्तेयवणप्फइ-अपजत्ताणं जहा तहा वत्तव्यो। -षट ० खं १, १ । टीका । पृ २ । पृ० ६१६ लब्धि-अपर्याप्त प्रत्येक शरीर वनस्पतिकाय में औदारिकमिश्न और कार्मणकाय-दो योग होते हैं। .१६.०३.०४ निवृत्तिपर्याप्त प्रत्येक शरीर वनस्पतिकाय में एवं णिव्वत्तिपजत्तस्स वि तिणि आलावा वत्तव्वा । __ -षट ० ख० १, १ । टीका ! पु २ । पृ० ६१६ औधिक निवृत्तिपर्याप्त प्रत्येकशरीर वनस्पतिकाय में औदारिक, औदारिकमिश्र और कामणकाय-तीन योग होते हैं ।। अपर्याप्त निवृत्तिपर्याप्त प्रत्येकशरीर वनस्पतिकाय में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय दो योग होते हैं। पर्याप्त निवृत्तिपर्याप्त प्रत्येकशरीर वनस्पतिकाय में एक औदारिक काययोग होता है। .१६.०४ साधारण बनस्पतिकाय में साधारणवणप्फइकाइयाणं भण्णमाणे अस्थि x x x तिणि जोग x x x | -षट • खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ६१६ साधारण वनस्पति काय में तीन योग होते हैं । .१६.०४.०१ अपर्याप्त साधारण वनस्पतिकाय में तेसि ( साधारणवणप्फईणं ) चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि xxx à FTTT X X X -षट० खं १, १ । टीका । पु २ । पृ ६१८ अपर्याप्त साधारण वनस्पतिकाय में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय-दो योग होते हैं। .१६.०४.०२ पर्याप्त साधारण वनस्पतिकाय में तेसिं (साधारणवणप्फइकाइयाणं) चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि xxx ओरालियकायजोगो xxx। -षट ० ख० १, १ । टीका । सु २ । पृ० ६१७ पर्याप्त साधारण वनस्पतिकाय में एक औदारिक काययोग होता है । .१६.०४.०३ सूक्ष्म साधारणशरीर वनस्पतिकाय में । सव्व साधारणसरीरसुहुमाणं मुहुमपुढवि-भंगो। -षट • खं० १, १ । टीका । पु० । पृ० ६२० Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) सूक्ष्म साधारणशरीर वनस्पतिकाय में औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणकाय --- तीन योग होते हैं । ( देखो पाठ . १२.०३ ) .१६.०४.०३.०१ अपर्याप्त सूक्ष्म साधारणशरीर वनस्पतिकाय में सव्वसाधारणशरीरसुहुमाणं सुहुमपुढवि-भंगो | - षट् ० ० १, १ 1 टीका । पु २ | पृ० ६२० अपर्याप्त सूक्ष्म साधारणशरीर वनस्पतिकाय में औदारिकमिश्र और कार्मणकाय — दो योग होते हैं । ( देखो पाठ - १२.०३.०१ ) .१६.०४.०३.०२ पर्याप्त सूक्ष्म साधारणशरीर वनस्पतिकाय में सव्वसाधारणसरीर सुहुमाणं सुहुमपुढवि-भंगो । पर्याप्त सूक्ष्म साधारण शरीर वनस्पतिकाय में एक औदारिक काययोग होता है । ( देखो पाठ . १३.०३.०२ ) षट् ० खं० १, १ । टीका | २ | पृ० ६२० - १६ उत्पल आदि दस प्रत्येक बादर वनस्पतिकाय में (क) ( उप्पले णं भंते ! एगपत्तए ) तेणं भंते । जीवा किं मणजोगी ? जोगी ? काययोगी ? गोयमा ! नो मणजोगी, नो वझ्योगी, कायजोगी वा, कायजोगिणो वा । - भग० श ११ । उ १ । सू १५ एक पत्री उत्पन्न वनस्पतिकाय के जीव मनोयोगी नहीं होते हैं, वचनयोगी नहीं होते है तथा काययोगी होते हैं । (ख) ( सालुए एगपत्तए) एवं उप्पलुद्दे सगवतव्वया ! भाणियव्वा जाव अनंत खुत्तो । एक पत्री उत्पल की तरह एक पत्री शालुक को जानना । (ग) ( पलासे एगपत्तए ) एवं भाणियव्वा । २५ अपरिसेसा -भग० श ११ । २ । सू ४२ अपरिसेला - भग० श० ११ । ३ । सू ४४ उप्पलुद्दे सगवत्तव्वया एक पत्री उत्पल की तरह एक पत्री पलास को जानना । (घ) ( कुंभिए एगपत्तए) एवं जहा पलासुद्देसर तहा भाणियन्वे । - भग० श ११ । ४ । सू ४६ एक पत्री उत्पल की तरह एक पत्री कुंभिक वनस्पतिकाय के जीव मनोयोगी नहीं होते है, वचनयोगी नहीं होते हैं तथा काययोगी होते हैं । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) (ङ) ( नालिए एगपत्तए ) एवं कुंभिउद्देसग वत्तव्वया निरवसेसं भाणियव्वा । -भग० श ११ । उ ५ । सू ४६ पत्र पत्री नालिक वनस्पति में एक कुंभिक की तरह मनोयोगी तथा वचनयोगी नहीं होते हैं, काययोगी होते हैं। (च) (पउमे एगपत्तए) एवं उप्पलुद्देसग वत्तव्वया निरवसेसा भाणियवा। -भग श ११ । उ ६ । सू ५१ एक पत्री पद्म वनस्पतिकाय में उत्पल की तरह मनोयोगी व वचनयोगी नहीं होते हैं, काययोगी होते हैं। (छ) ( कण्णिए पगसत्तए ) एवं चेव निरवसेसं भाणियध्वं । -भग° श ११ । उ ७ । सू ५३ एक पत्री कर्णिका वनस्पतिकाय में उत्पल की तरह मनोयोगी तथा वचनयोगी नहीं होते हैं, काययोगी होते हैं । (ज) ( नलिणे एगपत्तए) एवं चैव निरवसेसं जाव अणंतखुत्तो। -भग० श ११ । उ८ । सू ५.५ एक पत्री नलिन वनस्पतिकाय में उत्पल की तरह मनोयोगी व वचनयोगी नहीं होते हैं, काययोगी होते हैं। शालि, व्रीहि आदि वनस्पतिकाय में (क) इनके मूल में साली-वीहि-गोधूम-जाप जवजवाणं xxx जीवा मूलत्ताए-तेणं भंते ! जीवाकिं मणजोगी १ वइजोगी ? कायजोगी ? गोयमा । नो मणजोगी, नो वइजोगी, कायजोगी वा, कायजोगिणो वा। -भग० श २१ । व १ उ १ । सू ५ शाली, वीहि, गोधूम यावत् जवजव आदि के मूल के जीव मनोयोगी व वचनयोगी नहीं होते हैं, काययोगी होते हैं । (ख) इनके कंद में __ साली-वीही-गोधूम-जाप जवजवाणं xxx जीवा कंदत्ताए । xxx मूलुद्देसो अपरिसेसो भाणियव्यो। -भग० श २१ । व १ उ २ । सू १० काययोगी होते हैं। (ग) इनके स्कंध में एवं खंधे वि उद्देसओ नेयम्वो। -भग• श० २१ । व १ उ ३ । सू १२ काययोगी होते हैं। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (घ) इनकी त्वचा में एवं तयाए वि उद्देसो भाणियव्वो । काययोगी होते हैं । (ङ) इनकी शाखा में (ख) इनकी प्रवाल में (छ) इनके पत्र में ( १९५ ) सालेवि उद्देसो भाणियव्वो । पावलेवि उद्देसो भाणियव्वो । पत्ते चि उद्देसो भाणियन्बो । इनकी शाखा के, इनके प्रवाल के, इनके पत्र जीव काययोगी होते हैं । (झ) इनके फल में -- (ञ) इनके बीज में - भग० २१ । व १ उ ४ । सू १२ (ज) इनके पुष्प में एवं पुष्फेवि उद्देसओ, नवरंदेवा उववज्जंति जहा उप्पलुदेसे चत्तारि लेस्साओ, असीइभंगा | - भग० श २१ । व १उ८ । सू १२ काययोगी होते हैं । .१७ - द्वीन्द्रिय . १८ - त्रीन्द्रिय . १९ - चतुरिन्द्रिय .२० - असंज्ञी तिर्यच पंचेन्द्रिय भग० श २१ । व १ उ५, ६, ७ । सू १२ जहा पुष्फे एवं फले वि उट्ठेसओ अपरिसेलो भाणियव्वो । एवं वीएवि उद्देसओ । फल में तथा बीज में फूल की तरह काययोगी होते हैं । - भग० श २१ । व १ उ ६, १० । सू २४ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञी तिर्यच पंचेन्द्रिय- काययोगी व वचनयोगी होते हैं । इनके अपर्याप्त में एक काययोग होता है तथा पर्याप्त में दो योग- काययोग, वचनयोग होते हैं | Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) .२१ तिर्यच पंचेन्द्रिय में पंचिंदिय-तिरिक्खाणं भण्णमाणे x x x एगारह जोग x x x। तेसि चेव पजत्ताणं xxx णव जोग xxx । तेसिं चेव अपजत्ताणं xxx वे जोग xxx। पंचिंदियतिरिक्ख-मिच्छाइट्ठीणं x x x एगारह जोग x x x । तेसि चेव पजत्ताणं xxx णव जोग xxx| तेसि चेव अपजत्ताणं x x x वे जोग x x x | पंचिदिय. तिरिक्ख-सासणसम्माइट्ठीणं xxx एगारह जोग xxx| तेसि चेव पजत्ताणं xxx णव जोग x x x | तेर्सि चेव अपजत्ताणं x x x दो जोग x x x | पंचिदियतिरिक्ख-सम्मामिच्छाइट्ठीणं x x x णव जोग x x x। पंचिदियतिरिक्ख-असंजदसम्माइट्ठीणं x x x एगारह जोग x xx। तेसिं चेव पजत्ताणं x x x णव जोग x x x | तेसिं चेष अपजत्ताणं xxx दो जोग x x x | पंचिंदियतिरिक्खसंजदासंजदाणं x x x णव जोग x x x | -षट ० खं० १, १ । पु २ । पृ० ४८२-६१ पंचेन्द्रिय तिर्य च में ग्यारह योग होते हैं ( ४ मन के, ४ वचन के, औदारिक, औदारिकमिश्र व कार्मण)। इसके अपर्याप्त में दो योग होते हैं-औदारिक मिश्र व कामण। पर्याप्त में नव योग होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यच मिथ्या दृष्टि में ग्यारह योग होते हैं । अपर्याप्त में दो योग, पर्याप्त में नव योग होते हैं। सास्वादान सम्यग्दृष्टि तिय च पंचेन्द्रिय में ग्यारह योग होते हैं। अपर्याप्त में दो योग, पर्याप्त में नव योग होते हैं ! तिर्यंच पंचेन्द्रिय सम्मामिथ्यादृष्टि में नव योग होते हैं । पंचेन्द्रिय तिर्यच असंयत सम्यग्दृष्टि में ग्यारह योग होते हैं । पर्याप्त में नव, अपर्याप्त में दो योग होते हैं। संयतासंयत पंचेन्द्रिय तिर्यच में नव योग होते हैं । .२२.१ तिर्यच पंचेन्द्रिय-स्त्री जीव में पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीणं भण्णमाणे x x x एगारह जोग xxxi तासिं चेव पजत्तजोणिणीणं x x x णव जोग xxx। पंचिंदियतिरिक्खअपजत्त. जोणिणी] x xx दो जोग xxx। पंचिदियतिरिक्खजोणिणी-मिच्छाइट्ठीणं xxx एगारह जोग xxx। पजत्तपंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-मिच्छाइट्ठीणं xxx णव जोग x x x | तासिमपजत्तीणं xxx वे जोग xxx| पंचिदियतिरिक्खजोणिणो-सासणसम्माइट्ठीणं x x x एगारह जोग x xx। तासि चेव पजत्तीणं x x x णब जोग xxx| तासिमपजत्तीणं xxx दो जोग xxx। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचिदियतिरिक्खजोणिणी-सम्मामिच्छाइट्ठीणं x x x णव जोग xxx ) पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी- असंजदसम्माइट्ठीणं xxx णव जोग। पंचिदियतिरिक्खजोणिणी-संजदासंजदाणं xxx णच जोग xxx। -----षट • खं १।१ । पु २ । पृ० ४६२-५०० तिर्यच पंचेन्द्रिय-स्त्री जीव जो गर्भज हैं, उनके औधिक, मिथ्यादृष्टि व सास्वादान सम्यग्दृष्टि मैं ग्यारह योग होते हैं ---४ मन के, ४ . वचन के, औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग व कार्मण काययोग होते हैं। इनके अपर्याप्त में दो योगऔदारिकमिश्र काययोग, कामण काययोग होते है। इनके पर्याप्त अवस्था में नव योग होते हैं। ___ सम्यग् मिथ्यादृष्टि तथा संयतासंयत पंचेन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय में नव योग होते हैं-४ मन के, ४ वचन के, १ औदारिक काययोग । .२३ मनुष्य में पन्द्रह प्रकार का प्रयोग मणूसाणं पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते, तंजहा-सश्चमणपओगे मोसमणपओगे सञ्चामोसवइपओगे असञ्चामोसमणपओगे सञ्चवइपओगे मोसवइपओगे सञ्चामोसमणपओगे असञ्चामोसवइपओगे ओरालियसरीरकायपओगे ओरालियमिसकायपओगे बेउब्वियसरीकायपओगे वेउब्धियमिसकायपओगे आहारयसरीरकायपोगे आहारयमिससरीरकायपओगे कम्मयसरीरकायपओगे। -सम० सम १५ । सू ७ मनुष्यों में पन्द्रह प्रकार के प्रयोग होते हैं । यथा (१) सत्य मनोप्रयोग, (२) असत्य मनोप्रयोग, (३) सत्यासत्य मनोप्रयोग, (४) असत्यामृषा मनोप्रयोग ( व्यवहार मनोप्रयोग ), (५) सत्य वचन प्रयोग, (६) असत्य वचन प्रयोग, (७) सत्यासत्य वचन प्रयोग, (८) असत्यामृषा वचन प्रयोग तथा सात कायप्रयोग होते हैं। .२३ मनुष्य में मणुस्साणं भण्णमाणे x x x तेरह जोग अजोगो वि अस्थि xxx। तेसिं चेव पजत्ताणं xxx तेरह जोग ओरालिय-आहार-भिस्स-कम्मए हि विणा दस वा अजोगो वि अस्थि xxx। तेसिं चेव अपजत्ताणं xxx आहार-मिस्सेण सह तिणि जोग xxx | मणुस-मिच्छाइट्ठीणं xxx एगारह जोग। तेसि चेव पजत्ताणं xxx णव जोग xxx। तेसि चेष अपजत्ताणं xxx दो जोग x x x | मणूस्स-सासणसम्माइट्ठीणं xxx Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) एगारह जोग xxx। तेसि चोव पज्जत्ताणं xxx णव जोग xxx| तेसिं गेव अपज्जत्ताणं xxx दो जोग xxx | मणुस्स-सम्मामिच्छाइट्ठीणं x xx णध जोग xxx | मणुस-असंजदसम्माइट्ठीणं xxx एगारह जोग xxx । तेसिं चेव पजत्ता] x x x णव जोग xxx। तेसिं चेव अपजत्ताणं xxx दो जोग xxx | मणुस्ल-संजदासंजदाणं x x x णव जोग x x x | संपहि पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ताव मूलोघालावो आणूणो अणधिओ वत्तव्यो। -घट ० खं १ । १ । पु २ । पृ० ५०१-१२ .२३.१ मनुष्यणी में मणुसिणीणं भण्णमाणे अत्यि xxx एगारह जोग अजोगो वि अस्थि, एस्थ आहार-आहारमिस्स-कायजोग णस्थि । किं कारणं? जेसि भावो इत्थि वेदो दव्वं पुण पुरिसवेदो, ते बि जीपा संजमं पडिवज्जति । दधस्थि वेदा संजमं ण पडिवज्जंति, संचेलत्तादो। भावत्थि वेदाणं दब्वेण पुंवेदाणं पि संजदाणं णाहाररिद्धि समुपज्जदि दव्यभावेहि पुरिसवेदाणमेव समुपज्जदि तेणिस्थिवेदे पि णिरूद्ध आहारदुगं णत्थि, तेण एगारह जोगा भणिया। xxx । तासि पज्जत्ताणं xxx एगारह जोग णव वा अजोगो वि अस्थि, xxx । तासि वेव अपज्जत्ताणं xxx दो जोग Xxx । मणुसिणी-मिच्छाइट्ठीणं xxx एगारह जोग xxx | मिच्छादिहि-पज्जत्त-मणुसिणीणं xxx णव जोग x x x | मिच्छादिहि-अपज्जत-मणुसिणीणं xxx दो जोग xxx। मणुसिणीसासण सम्माइट्ठीणं xxx एगारह जोग xxx| पज्जत्त-मणुसिणी-सासणसम्माट्ठीणं xxx णव जोग x x x | अपज्जत्त मणुसिणीसासणसम्माइट्ठीणं x x x दो जोग xxx । मणुसिणी-सम्मामिच्छाइट्ठीणं xxx णव जोग xxx। मणुसिणी असंजद सम्माइट्ठीणं xxx णव जोग xxx। मणुसिणी-संजदासंजदाणं xxx णव जोग x x x । मणुसिणी-पमत्तसंजदाणं xxx णव जोग इत्थिवेद-णपुं. सयवेदाणमुदए आहारदुर्ग मणपज्जवणाणं परिहारसुद्धिसंजमो व णस्थि xxx | मणुसिणी-अपमत्त संजदाणं x x x णव जोग, xxx । मणुसिणी-अपुवकरणाणं xxx णव जोग xxx। मणुसिणी पढम अणियहोणं xxx णव जोग xxx | मणुसिणो विदिय अणियट्ठीणं x x x णवजोग x x x। मणुसिणी तदिय अणियट्ठीणं x x x णव जोग x x x | मणुसिणी चउत्थ अणियट्ठीणं xxx णव जोग x xx। मणुसिणी पंचम अणियट्ठीणंxxx णव जोग x x x | मणुसिणी सुहमसांपराइयाणं x x x णव जोग xxx। मणुसिणीसु उवसंतकसायणं xxx Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) xxx णव जोग x x x | मणुसिणीसु खीणकसायाणं x x x णव जोग xxx | मणुसिणी सजोगिजिणाणं x x x सत्त जोग xxx। मणुसिणी अजोगिजिणाणं xxx अजोगो xxx -षट् खण्ड १ । सू २ । पु० २ । पृ० ५१३-३२ .२३.२ लब्धि अपर्याप्त मनुष्य में लद्धि-अपज्ज-मणुस्साणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणट्ठाणं xxx वे जोग xxx - घट • खं १ । १ । पु २ । पृ० ५३० लब्धि अपर्याप्त मनुष्य में दो योग होते हैं - औदारिकमिश्र काय व कामण काययोग होते हैं .२४ देव में देवगदीए देवाणं भण्णमाणे x x x एगारह जोग x xx। तेसिं चेव पज्जत्ताणं x x x णव जोग x x x | तेसिं चेव अपज्जत्ताणं x x x दो जोग x x x | देव मिच्छाइट्ठीणं x x x एगारह जोग x x x । तेसिं चेव पज्जत्ताणं xxx णव जोग x x x | तेसिं चेव अपज्जत्ताणं x x x दो जोग xxx। देव-सासणसम्माइट्ठीणं x x x एगारह जोग x x x ! तेसिं चेव पज्जत्ताणं xxx णव जोग xxx । तेसिं चेव अपज्जत्ताणं x x x दो योग xxx। देव-सम्मामिच्छाइठ्ठीणं xxx णव जोग xxx1 देव-असंजदसम्माइट्ठीणं xx = एगारह जोग xxx । तेसि चेव पज्जत्ताणं xxx णब जोग xxx । तेसिं चेष अपज्जत्ताणं x x = बे जोग x x x । -षट ० खं १ । १ । पु २ । पृ० ५३१-४२ देवों में ग्यारह योग (४ मन के, ४ वचन के, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र काययोग, कार्मणकाय) होते है । इनके अपर्याप्त में दो योग-वैक्रियमिश्र काययोग व कार्मण काययोग होते हैं । पर्याप्त में नवयोग होते हैं ( ४ मन के, ४ वचन के, वे क्रिय काययोग )। सम्यगमिथ्यादृष्टि में नव योग होते हैं। .२४.१ देवी में एवं चेव ( देवाणं) इथिवेदणिरु भणं काऊण वत्तव्यं । -षट० खं १ । १ । पु २ । पृ० ५५० देवी में ग्यारह योग होते हैं। पर्याप्त में नव योग व अपर्याप्त में दो योग होते हैं। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २५ भवनपति देव में • २६ वाणव्यन्तर देव में .२७ ज्योतिषी देव में भवणवासिय वाणवें तर जोइसियाणं भण्णमाणे x x x एगारह जोग X X X | तेसि खेव पजत्ताणं X X X णव जोग XX X | तेसिं चेच अपजत्ताणं X X X दो जोग X X X ! भवणवासिय वाणर्वे तर जोइ सियदेव - मिच्छाइट्ठीणं X X X एगारह जोग XX X | तेसिं चेव पज्जन्त्ताणं x x x णव जोग x XX । तेसिं चैव अपज्जत्ताणं X X x दो जोग X Xx । भवणवासिय वाणवेंतरजोइसियदेव - सासणसम्माइट्ठीणं xxx एगारह जोग x x x तेसि चेव पज्जत्ताणं XXX णव जोग xxx । तेसिं चेव अपज्जत्ताणं Xxx दो जोग xxx । भवणवासिय वाणवेतर - जोइसियदेव- सम्मामिच्छाइट्ठीणं XXX णव जोग x x x भवणवासिय वाणवें तर - जोइसियदेव असंजदसम्माइट्ठीणं X X X णव जोग XX X । ( २०० ) . २५.१ भवनपति देवी में .२६ १ वाणन्यन्तर देवी में .२७.१ ज्योतिषी देवी में ० खं १ । १ । पृ २ । पु० ५४३ - ५० भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी देवों में ग्यारह योग होते हैं । इसके पर्याप्त में नव योग व अपर्याप्त में दो योग होते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि में नव योग होते हैं । - षट् ० एवं चेव इत्थवेदणिरु भणं काऊण वक्तव्वं । - षट् ० ० खं १ । १ । पु २ | पृ० ५५० भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी देवी में ग्यारह योग होते हैं । पर्याप्त में नव योग तथा अपर्याप्त में दो योग होते हैं । . २८ वैमानिक देव में वैक्रिय काययोग, वैमानिक देवों में ग्यारह योग (४ मन के, ४ वचन के, वैक्रियमिश्र काययोग, कार्मण काययोग) होते हैं । इनके अपर्याप्त में दो योग तथा पर्याप्त में नव योग होते हैं । • २८.१ वैमानिक देवी में वैमानिक देवी में ग्यारह योग होते हैं । इनके अपर्याप्त में दो योग व पर्याप्त में नव योग होते हैं । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१ ) .२८.२ वैमानिक देव के विभिन्न भेदों में .२८.२.१ सौधर्म-ईशान देव में ___ सोधम्मीसाणदेवाणं भण्णमाणे xxx एगारह जोग xxx। तेसिं चेष पज्जत्ताणं XXX णव जोग XXX । तेसिं चेव अपज्जत्ताणं xxx दो जोग xxx। सोधम्मीसाणदेवमिच्छाइट्ठीणं xxx एगारह जोग xxX । तेसिं चेष पज्जत्ताणं XXX णव जोग XXX । तेसिं चेष अपज्जत्ताणं XXX दो जोगxx X| लोधम्मीसाण-सासणसम्माइट्ठीणं XXX एगारह जोग xxx। तेसि चेव पज्जत्ताणं XXX णव योग XXX| तेसि चेष अपज्जत्ताणंxxx दो जोग XXX। सोधम्मीसाणसम्मामिच्छाइट्ठीणं xxx णव जोग XXX । सोधम्मीसाण-असंजदसम्माइट्ठीणं XXX एगारह जोग xxxi तेसिं चेष पज्जताणं x xx णव जोग x x x । तेसिं चेष अपज्जत्ताणं xxx दो जोग xxx। -षट• खं १।१ । पु २ । पृ० ५५१-५६ सौधर्म-ईशान देवों में ग्यारह योग होते हैं। इनके पर्याप्त में नव योग तथा अपर्याप्त में दो योग होते हैं। (वै क्रियमिश्र क्राययोग, कामण काययोग) .२८.१.२ सनत्कुमार-माहेन्द्र देव में सणक मार माहिंददेवाणं भण्णमाणे x x x एगारह जोग x x x। तेसि येव पजत्ताणं xxx णव जोग x x x | तेसिं चेव अपजत्ताणं x x x दो जोग xxx | संपहि मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइडि त्ति ताव चदुण्हं गुणट्ठाणार्ण सोधम्म भंगो। -षट० खं १ । १ । पु २ पृ० ५६१-६३ सनत्कुमार-महेन्द्र देवों में ग्यारह योग होते हैं। इनके पर्याप्त में नव योग तथा अपर्याप्त दो योग होते हैं। इनमें प्रथम चार गुणस्थान हैं । .२८.२.३ ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर में बम्ह-बम्हुत्तर xxx कप्पदेवाणं सणक्कुमार-भंगो। -षट खं १।१ । पु२ । पृ. ५६३ जैसा सनत्कुमार देवों में कहा है वैसा ही ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर देवों में योग कहना । .२८.२.४ लांतव-कापिष्ठ देवों में xxx लांतव-कापिट्ट x x x कप्पदेवाणं सणक्कुमार-भंगो। -षट० खं । १ । १ । पु २ । पृ० ५६३ २६ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२ ) जैसा सनत्कुमार देवों में कहा है, वैसा ही लांतव, कापिष्ट देवों के विषय में योग कहना । .२८.२.५ शुक्र- महाशुक्र देवों में xxx शुक- महाशुक कप्पदेवाणं सणक्कुमार-भंगो । - षट् ० ० खं १ । १ । पु २ | पृ० ५६३ सनत्कुमार देवों की तरह शुक्र - महाशुक्र देवों के विषय में योग कहना । .२८.२.६ शतार - सहस्रार कल्पवासी देवों में सदार-सहस्सारकप्पदेवाणं बम्हलोग-भंगो । - षट् ० खं १ । १ । पृ २ | पृ० ५६४ ब्रह्मलोक की तरह सतार सहस्रार देवों के विषय में योग जानना चाहिए । .२८.२.७ आनत-प्राणत-आरण-अच्युत कल्पवासी देवों में आणद- पाणद- आरणच्चुद xxx सहस्सार-भंगो | एदेसिं यदु x x x कप्पाणं सदार - षट् ० खं० १ । १ । पृ २ | पृ० ५६४ सतार - सहस्रार देवों की तरह आनत - प्राणत- आरण-अच्युत कल्पदेवों में ग्यारह योग होते हैं । इनके पर्याप्त अवस्था में नव योग, अपर्याप्त अवस्था में दो योग होते हैं । .२८.२.८ नौ ग्रैवेयक कल्पातीत देवों मैं मणस xxx सुदंसण- अमोघ सुप्पबुद्ध - जसोधर- सुबुद्ध- सुविसाल-सुमण-सउ- पीदिकर मिदि एदेसि x x x णव - कप्पाणं सदार- सहस्सार भंगो - षट् ० खं १ । १ । पु २ | पृ० ५६४ सुदर्शन आदि नौ ग्रैवेयक कल्पातीत देवों में सतार - सहस्रार कल्पों की तरह योग होते हैं । • २८.२.९ नौ अनुदिश विमानवासी देवों में अच्चि - अचिमालिणी - वइर वइरोयण-सोम- सोमरूव- अंकफलिह-आइच्च xxx देसि णव x x x अणुदिस x x x भण्णमाणे x x x एगारह जोग x x x | -षट् ० १ । १ । पु २ । पृ० ५६४-६५ अर्चि आदि नौ अनुदिश वैमानिक देवों में ग्यारह योग होते हैं । दो योग व पर्याप्त में नव योग होते हैं । इनके अपर्याप्त में Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०३ ) .२८.२.१० चार अनुत्तर विमानवासी देवों में xxx विजय-वइजयन्त-जयन्त-अपराइद x x x त्ति एदेसि xxx पंच xxx अणुत्तराणं भण्णमाणे x x x एगारह जोग xxx। -षट् खं १।१ । पु २ । पृ० ५६५ विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित वैमानिक देवों में ग्यारह योग होते हैं । .२८.२.११ सर्वार्थसिद्धि देवों में सम्वट्ठसिद्धि त्ति x x x भण्णमाणे xxx एगारह जोग xxx। -षट० खं १।१ । पु २ | पृ० ५६५ सर्वार्थसिद्धि देवों में ग्यारह योग होते हैं । .२९ संझी जीव में __सणियाणुवादेण सण्णीणं भण्णमाणे xxx पण्णारह जोग x x x | तेसिं चेव पन्जत्ताणं x x x एगारह जोगxxx । तेसिं चेव अपजत्ताणं xxx चत्तारि नोग xxx । सण्णि-मिच्छाइट्ठीणंx x x तेरह जोग x x x | तेसि चेच पजत्ताणंx x x दस जोगxxx । तेसि वेध अपजत्ताणंxxx तिण्णि जोगxxx | (सण्णि) सासणसम्माइट्ठीणंxxxतेरह जोगxxx | तेसिं चेव पजत्ताणंx x दस जोग xxx| तेसिं चेव अपजत्ताणं x x x तिणि जोग xxx। (सण्णि) सम्मामिच्छाइट्ठीणं xxx दस जोग xxx। (सण्णि) असंजदसम्माइट्ठीणं x x x तेरह जोग xxx। तेसिं चेष पजत्ताणं xxx दस जोग x x x | तेसिं चेव अपजत्ताणं x x x तिणि जोग xxxसंजदासंजदप्पहुडि जाप खीणकसाओ त्ति ताव मूलोघ भंगो। -षट् • खं १ । १ । पृ २ । पृ० ५२५-३३ संशी जीव में पन्द्रह योग होते हैं। इनके पर्याप्त में ग्यारह योग होते हैं (४ मन के, ४ वचन के, औदारिक वैक्रिय, आहारक काययोग) तथा इनके अपर्याप्त में चार योग (औदारिकमिश्र काययोग, वे क्रियमिश्र काययोग, आहारकमिश्र काययोग, कार्मण काययोग) होते है। ___ संशी मिथ्यादृष्टि में तेरह योग होते हैं। इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते है। सास्वादान संशी जीव में तेरह योग होते हैं। इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग (वै क्रियमिश्र काययोग, औदारिकमिश्र काययोग, कार्मण काययोग) होते है। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४ ) संशी सम्मामिथ्यादृष्टि में दस योग होते हैं (चार मन के, चार वचन के, वैक्रिय काययोग, औदारिक काययोग)। __ संज्ञी असंयत सम्यग्दृष्टि में तेरह योग होते हैं। इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते हैं। संयतासंयत से क्षीण कषाय गुणस्थान में मुलोध भंग की तरह योग होते हैं। .३० असंशी जीव में असण्णीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं x x x चत्तारि जोग xxxi तेसिं चेष पजत्ताणं xxx दो जोग xxx। तेसिं चेव अपजत्ताणं x x x दो जोग xxx। -षट• खं १।१ । पु २ । पृ०८३४-३५ असंशी जीव में चार योग (औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग, व्यवहार वचन योग, कार्मण काययोग) होते हैं। इनके पर्याप्त में दो योग (औदारिक काययोग, व्यवहार वचन योग) तथा अपर्याप्त में दो योग होते हैं (औदारिकमिश्र काययोग, कामण काययोग)। .३१ सकायिक जीव में कायाणुबादेण ओघालावे भण्णमाणे x x x पण्णारह जोग अजोगो वि अस्थि xxx| तेसिं चेव पजत्ताणं x x x एगारह जोग अजोगो वि अस्थि xxx| तेसिं चेव अपजत्ताणं xxx चत्तारि जोग xxx। मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अकाया त्ति मूलोघ भंगो x x x | -षट • खं १ । १ । पु २ । पृ० ५६१-६०४ सकायिक जीव में पन्द्रह योग होते हैं, अयोगी भी होते हैं। इनके पर्याप्त अवस्था में ग्यारह योग होते हैं, अयोगी भी होते हैं । अपर्याप्त अवस्था में चार योग होते हैं । मिथ्यादृष्टि यावत अकायिक (सिद्ध) में मूलोष भंग की तरह योग जानना चाहिए । .३२ त्रसकायिक जीष में तसकाइवाणं भण्णमाणे x x x पण्णारह जोग अजोगो घि अत्वि xxx। तेसिं चेव पजत्ताणं xxx एगारह जोग अजोगो वि अस्थि x x x तेसिं चेष अपजत्ताणं xxx तिणि जोग चत्तारि वा x x x | तसकाइय-मिच्छाइट्ठीणं xxx तेरह जोग xxx तेसिं चेष पजत्ताणं x x x दस जोग xxx। तेसिं येव अपजताणं xxx तिणि जोग xxx। सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति मूलोघ-भंगो। -षट खं० १, १ । पु २ । पृ० ६२१.२७ त्रसकायिक कीवों में पन्द्रह योग होते हैं । अयोगी भी होते है। इनके पर्याप्त में ग्यारह योग होते हैं । अयोगी भी होते हैं। इनके अपर्याप्त में तीन अथवा चार योग होते Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०५ ) हैं । मिथ्यादृष्टि सकायिक जीवों में तेरह योग होते हैं । इनके पर्याप्त में दस योग होते है तथा अपर्याप्त में तीन योग - ( औदारिक काय योग, वैक्रिय मिश्रकाययोग तथा कार्मणका योग ) होते हैं । सास्वादान सम्यग्दृष्टि से अयोगी केवली के विषय में मूलोघ भंग की तरह योग जानना चाहिए। . ३३ सइन्द्रिय जीव में दियाणुवादेण अणुवादो मूलोघो । - पट० खं० १, १ । । पु २ | पृ० ५६६ इन्द्रिय जीव में पन्द्रह योग होते हैं - यथा - चार मन के योग, चार वचन के योग, औदारिक काययोग, औदारिकमिश्रकाय योग, वैक्रियमिश्र काययोग, वैक्रियकाय योग, आहारककाय योग, आहारक मिश्र काययोग तथा कार्मणकाय योग । • ३४ अनिन्द्रिय में अणिदियाणं सिद्ध-भंगो । - षट् ० ० १, १ । पु २ | पृ० ५६० अनिन्द्रिय में सात योग होते है - सत्यमनोयोग, व्यवहारमनोयोग, सत्यवचनयोग, व्यवहारवचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग | सिद्ध ( अयोगी गुणस्थान तथा सिद्ध में ) अवस्था में योग नहीं होता है । • ३५ सयोगी में जोगवादेण अणुवादो मूलोघ- भंगो । - षट् ० ० १, १ । पु २ | पृ० ६२८ सयोगी में पन्द्रहयोग होते हैं । • ३६ मनोयोगी में मणजोगीणं भण्णमाणे x x x चत्तारि मणजोग x x x । मणजोगिमिच्छाइट्ठीणं x x x वत्तारि मणजोग x x x । मणजोगि सासणसम्माइट्ठीणं x x x चत्तारि मणजोग x x x । मणजोगि सम्मामिच्छा इट्ठीणं x x x वत्तारि मणजोग xxx । मणजोगि - असंजदलम्माइट्ठीणं x x x यन्तारि मणजोग x x x । मणजोगिसंजदासंजदाणं x x x खत्तारि मणजोग x x x मण जोगि पमत संजदाणं xxx चत्तारि मणजोग x x x । मणजोगि अप्पमत्तसंजदप्यहुडि जाव सजोगिकेवलित्ति ताव मूलोघ-भंगो। णवरि चप्तारि मणजोगा वत्तव्या । सजोगिकेवलिस सञ्चमणजोगो असच मोसमणजोगो इदि दो मणजोगा वक्तव्वा । - षट् ० खं० १, १ । २ । पृ० ६२८-६३३ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) मनोयोगी चार प्रकार के होते हैं-सत्यमनोयोगी, असत्यमनोयोगी, मिश्रमनोयोगी, और व्यवहार मनोयोगी। मनोयोगी मिथ्यादृष्टि में चार मनोयोग, मनोयोगी सास्वादान सम्यग्दृष्टि में चार मनोयोग, मनोयोगी सम्यग् मिथ्यादृष्टि में चार मनोयोग, मनोयोगी असंयत सम्यग्दृष्टि में चार मनोयोग, मनोयोगी संयतासंयत में चार मनोयोग, मनोयोगी प्रमत्तसंयत मे चार मनोयोग, मनोयोगी अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से क्षीण मोह गुणस्थान में चार मनोयोग होते हैं तथा सयोगी केवली गुणस्थान में दो मनोयोग होते हैं-सत्यमनोयोग, व्यवहार मनोयोग। .३७ सत्यमनोयोगी में __सच्चमणजोगीणं मिच्छाइटिप्पाहुडि जाय सजोगिकेवलि त्ति ताव मूलोघभंगो। णवरि सश्चमणजोगो एक्कोचेव वत्तव्यो। -षट् खं० १, १ । पु २ । पृ• ६३३ ___ सत्य मनोयोगी-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से सयोगी केवली गुणस्थान तक होते हैं । सत्यमनोयोग-एक ही ( मनोयोग ) का कथन करना चाहिए । .३८ मृषा मनोयोगी जीव में .३८ मोसमणजोगीणं भण्णमाणे xxx मोसमणजोग x x x | -षट० खं० १, १ । पु २ । पृ० ६३३ मृषामनोयोगी के कथन में इस एक का ही कथन करना चाहिए। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से क्षीण मोह गुणस्थान तक मृषामनोयोग होता है । .३९ सत्यमृषामनोयोगी जीव में एवं (जहा मोसमणजोगीणं ) सञ्चमोसमणजोगीणं पि चत्तव्वं । -षट ० खं• १, १ । पु २ । पृ० ६३३ सत्यमृषा मनोयोगी-मिथ्यादृष्टि से क्षीण मोह गुणस्थान तक होते हैं । .४० असत्यमृषामनोयोगी जीव में (जहा सश्चमणजोगीणं) एवमसच्चमोसमणजोगीणं पि, गवरि असञ्चमोसमणजोगो एक्को चेच वत्तन्यो। -षट • खं० १, १ । पु २ । पृ० ६३३ असत्यमृषामनोयोगी-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से सयोगी केवली गुणस्थान तक होते हैं। लेकिन असत्यमृषा मनोयोग-एक मनोयोग का ही कथन करना चाहिए। .४१ पचनयोगी जीव में पचिजोगीणं भण्णमाणे xxx वत्तारि वचिजोग xxx। चचिजोगि Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०७ ) मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे xxx चत्तारि वचिजोग xxx। सासणसम्माइटिप्पहुडिजाव सजोगिकेवलि त्ति ताव मणजोगीणं भंगो। णवरि चत्तारि वचि. जोगा वत्तव्वा। सजोगिकेपलिस्स सञ्चवचिजोगो असश्चमोसवचिजोगो च भवदि। -षट • खं० १, १ । पृ २ । पृ• ६३४-३६ वचनयोग चार प्रकार के होते हैं-सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, मिश्रवचनयोग और व्यवहार वचमयोग। वचनयोगी मिथ्या दृष्टि में चार वचनयोग, सास्वादन, सम्यगमिथ्याष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत प्रमत्तसंयत गुणस्थान में मनोयोगी की तरह चार वचनयोग होते हैं। अप्रमत्त संयत से क्षीण मोह तक चार वचन योग तथा सयोगी केवली गुणस्थान में मनोयोगी की तरह दो वचनयोग होते है-यथा-सत्य वचनयोग व व्यवहार वचनयोग। .४२ सत्यवचनयोगी जीवों में सञ्चवचिजोगस्स सश्चमणजोग-भंगो। णचरि जत्थ सच्चमणजोगो तत्थ तं अवेऊण सम्बवचिजोगो वत्तव्यो। -षट • खं० १, १ । पु २ । पृ० ६३६ सत्यवचनयोगी में सत्य मनोयोगी की तरह मिथ्यादृष्टि से सयोगी गुणस्थान तक होते हैं। .४३ मृषाववनयोगी जीवों में __मोसवचिजोगस्स वि मोसमणजोग-भंगो। णवरि मोसपचिजोगो वत्तव्यो। -षट ० ख० १, १ । पु २ । पृ० ६३६ मृषावचनयोगी में मिथ्यादृष्टि से क्षीण मोह तक मृषामनोयोगी की तरह गुणस्थान मिलते है। .४४ सत्यमृषावचनयोगी जीवों में एवं (जहा मोसवचिजोगस्स) सञ्चमोसवचिजोगस्स वि वत्तव्वं । -षट् • खं० १, १ । पु० २ । पृ• ६३६ सत्यमृषा मनोयोगी की तरह सत्यमृषा वचनयोगी में मिथ्यादृष्टि से क्षीण मोह गुणस्थान होते हैं। ४५ असत्यमृषावचनयोगी जीवों में असश्चमोसवचिजोगस्स वचिजोग-भंगो। णवरि असञ्चमोसवचिजोगो एक्कोचेव वत्तव्यो। -घट ० खं० १, १ । पृ २ । पृ० ६३६ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०८ ) असत्यमृषा मनोयोगी की तरह असत्यमृषा वचनयोगी में मिथ्याट ष्टि से सयोगी केवली गुणस्थान तक होते हैं। लेकिन असत्यमृषा वचनयोग एक की ही वक्तव्यत्ता जाननी चाहिए। .४६ काययोगी में कायजोगीणं भण्णमाणे xxx सत्त कायजोग Xxx। तेसिं चेष पजत्ताणं xxx वेउब्धियमिस्सेण विणा छ जोग तिणि वा xxx। तेसिं चेव अपजत्ताणंXXX चत्तारि जोग XXX | कायजोगि-मिच्छाइट्ठीणंXXX पंच कायजोग XXX । तेसिं चेव पजत्ताणं xxx वे जोग x xx । तेति चेव अपजत्ताणंxxx तिणि जोग x xx| कायजोगि सासणसम्माइट्ठीणं xxx पंच जोग x x x। तेसिं चेव पजत्ताणं Xxx वे जोग x x x । तेसिं चेव अपजत्ताणं xxx तिणि जोग xxx । कायजोगि-सम्मामिच्छाइठ्ठीणं xxx वे जोग xxx । कायजोगि-असंजदसम्माइठ्ठीणं xxx पंच जोगxxx । तेसि चेव पजत्ताणं xxx वे जोग xxx। तेसिं चेव अपजत्ताणं xxx तिण्णि जोग xxx । कायजोगि-संजदासंजदाणं x x x ओरालियकायजोगो x x x | कायजोगि-पमत्तसंजदाणं xx x ओरालियआहार-आहारमिस्सा इदि तिण्णि जोग x xx कायजोगि-अप्पमत्तसंजदाणं xxx ओरालियकायजोगो x x x | अपुवयरणप्पटुडि जाव खीणकसाओ त्ति ताच कायजोगीणं मूलोघ-भंगो। णवरि ओरालियकायजोगो सव्वस्थ वत्तव्वो। कायजोगि-केवलीणं xxx ओरालिय-ओरालियमिस्स-कम्मइयकायजोगो इदि तिणि जोग x x x | -षट् ० ख० १, १ । पु २ । पृ० ६३७-४८ काययोगी के कथन में सात योग का कथन करना चाहिए। यथा-(१) औदारिक काययोग, (२) औदारिकमिश्र काययोग, (३) वैक्रिय काययोग, (४) वैक्रियमिश्र काययोग, (५) आहारक काययोग, (६) आहारकमिश्र काययोग और (७) कार्मण काययोग । पर्याप्त में वैक्रियमिन काययोग को छोड़कर छह योग अथवा तीन योग होते हैं । अपर्याप्त में चार योग होते हैं। काययोगी मिथ्यादृष्टि में पाँच काययोग ( आहारक, आहारकमिश्र काययोग छोड़कर) होते हैं। इनके पर्याप्त में दो योग तथा अपर्याप्त में तीन योग होते हैं । काययोगी सास्वादान समदृष्टि गुणस्थान में पाँच योग होते हैं। इनके पर्याप्त में दो योग तथा अपर्याप्त में तीन योग होते हैं । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) काययोगी सम्यग मिथ्यादृष्टि में दो योग वैक्रिय-औदारिक काययोग होते हैं । (इनमें पर्याप्त अवस्था ही होती है।) काययोगी असंयत सम्यग्दृष्टि में पाँच योग होते है । इनके पर्याप्त में दो योग तथा अपर्याप्त में तीन योग होते हैं । काययोगी संयतासंयत गुणस्थान में औदारिककाय योग ( एक योग) होता है । काययोगी प्रमत्त संयत गुणस्थान में-औदारिक, आहारक तथा आहारकमिश्र काययोग-तीन काय योग होते हैं। काययोगी अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में एक काययोग-( औदारिक काययोग) होता है। काययोगी अपूर्वकरण से क्षीणमोह गुणस्थान तक सिर्फ औदारिक काययोग होता है। काययोगी सयोगी केवली गुणस्थान में तीन काययोग होते है-यथा-औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग और कामण काययोग। .४७ औदारिक काययोगी में ओरालियकायजोगीणं भण्णमाणे xxx ओरालियकायजोगो xxx। ओरालियकायजोगि-मिच्छाइट्ठीणं xxx ओरालियकायजोगो xxx । ओरालियकायजोगि-सासणसम्माइट्ठीणं xxx ओरालियकायजोग xxx। ओरालियकायजोगि-सम्मामिच्छाइट्ठीणं xxx ओरालियकायजोगो xxx । ओरालियकायजोगि-असंजदसम्माइट्ठीणं xxx ओरालियकायजोगो xxx | संजदासंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ताव कायजोगि-भंगो। णवरि सम्वत्थ ओरालियकायजोगो एको चेव वत्तव्यो। -षट् • खं १ । १ । पु २ । पृ० ६४६-५२ औदारिक काययोगी के कथन में औदारिक काययोग का कथन करना चाहिए। औदारिक काययोगी मिथ्यादृष्टि में औदारिक काययोग होता है। औदारिक काययोगी सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में औदारिककाययोग होता है। औदारिक काययोगी सम्यग मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में औदारिक काययोग होता है । औदारिक काययोगी असंयत सम्यग्दृष्टि में औदारिक काययोग होता है । औदारिक काययोगी संयतासंयत गुणस्थान में औदारिक काययोग होता है। यावत् (औदारिक प्रमत्तसंयत गुणस्थान से सयोगी केवली गुणस्थान तक औदारिक काययोगी सयोगी गुणस्थान में औदारिक काययोग होता है। लेकिन सर्व स्थान पर औदारिक काययोग-एक का ही कथन करना चाहिए । Jain Education Inouational Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१० ) .४८ औदारिक मिश्रकाययोगी में ओरालियमिस्सकायजोगीणं भण्णमाणे xxx ओरालियमिस्सकायजोगो x x x । ओरालियमिस्सकायजोगि-मिच्छाइट्ठीणं xxx ओरालियमिस्सकायजोगो xxx। ओरालियमिस्सकायजोगि - सासणसम्माइट्ठीणं xxx ओरालियमिस्सकायजोगो xxx। ओरालियमिस्सकायजोगि-असंजदसम्माइठ्ठीणं xxx ओरालियमिस्सकायजोगो x x x । ओरालियमिस्तकायजोगि-सजोगिकेवलीणं xxx ओरालिय मिल्सकायजोगो xxx। -षट् ० खं० १, ५ । पु २ । पृ० ६५३-६० औदारिकमिश्र काययोगी की वक्तव्यत्ता में औदारिकमिश्र काययोग का कथन करना चाहिए। (१) औदारिकमिश्र काययोगी मिथ्यादृष्टि में औदारिक मिश्र काययोग होता है। (२) औदारिकमिश्र काययोग सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में औदारिकमिश्र काययोग होता है। (३) औदारिकमिश्र काययोगी असंयत सम्याग्दृष्टि में औदारिकमिश्र काययोग होता है। ___(४) औदारिकमिश्र काययोगी सयोगी केवली गुणस्थान में औदारिकमिश्र काययोग होता है। .४९ वैक्रियकाययोगी में वेउध्वियकायजोगीणं भण्णमाणे xxx वेउब्वियकायजोगो x x x | वेउब्धियकायजोगि-मिच्छाइट्ठीणं x xx वेउव्वियकायजोग xx x । वेउब्धियकायजोगि-सासणसम्माइट्ठीणं xxx वेउव्वियकायजोगो x x x। वेउवियकायजोगि-सम्मामिच्छाइट्ठीणं x x x बेउब्वियकायजोगो xxx । वेउब्धियकायजोगि-असंजदसम्माइट्ठीणं xxx वेउव्वियकायजोग x x x | -षट ० खं । १ । १ । पु २ | पृ० ६६१.६३ वैक्रिय काययोगी की वक्तव्यत्ता में वैक्रिय काययोग की वक्तव्यत्ता कहनी चाहिए । वैक्रिय काययोगी मिथ्यादृष्टि में वैक्रिय काययोग होता है । वैक्रिय काययोगी सास्वादान सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में वैक्रिय काययोग होता है। वैक्रिय काययोगी सम्यग्-मिथ्यादृष्टि में वैक्रिय काययोग तथा वैक्रिय काययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि में वैक्रिय काययोग होता है। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २११ ) .५० वैक्रियमिश्रकाययोगी में वेउब्धियमिस्सकायजोगीणं भण्णमाणे xxx वेउब्धियमिस्सकायजोगो xxx | वेउब्धियमिस्सकायजोगि-मिच्छाइट्ठीणं xxx वेउब्धियमिल्सकायजोगो xxx। वेउब्धियमिस्तकायजोगि-सासणसम्माइट्ठीणं xxx वेउब्धियमिस्सकाय जोगो xxx। उब्धियमिस्सकायजोगि-असंजदसम्माइट्ठीणं xxx वेउब्धियमिस्सकायजोगो xxx। -षट • खं० १, १ । पु २ । पृ० ६६४.६६ वैक्रियमिश्र काययोगी जीव की वक्तव्यत्ता में वैक्रियमिश्र काययोगी का प्रतिपादन करना चाहिए। वैक्रियमिभ काययोगी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में वैक्रियमिश्र काययोग होता है । वैक्रियमिश्र काययोगी सास्वादान सम्यग्दृष्टि में वैक्रियमिश्र काययोग होता है तथा वैकिय मिश्र काययोगी असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में वैक्रियमिन काययोग होता है। .५१ आहारक काययोगी में आहारककायजोगाणं भण्णमाणे xxx आहारकायजोगो x x x | -षट् • खं• १, १ । पु २ पृ० ६६७ आहारक काययोगी भी वक्तव्यत्ता में आहार काययोग का प्रतिपादन करना चाहिए। यह योग प्रमत्त संयत गुणस्थान में ही होता है । .५२ आहारक मिश्रकाययोगी में आहारमिल्सकायजोगाणं भण्णमाणे xxx आहारमिस्सकायजोगो xxx। -षट • खं० १, १ । पृ २ । पृ० ६६८ आहारकमिश्र काययोगी की वक्तव्यत्ता में आहारकमिश्र काययोग का प्रतिपादन करना चाहिए । यह योग भी प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही होता है। .५३ कामणकाययोगी में कम्मइयकायजोगाणं भण्णमाणे xxx कम्मइयकायजोगो xxx। कम्मइयकायजोग-मिच्छाइट्ठीणं xxx कम्मइयकायजोगो xxx। कम्मइयकायजोग-सासणसम्माइट्ठीणं xxx कम्मइयकायजोगो xxx। कम्मइयकायजोगअसंजदसम्माइट्ठीणं xxx कम्मइयकायजोगो xxx। कम्मइयकायजोगसजोगिकेवलीणं x xx कम्मइयकायजोगो xxx। -षट ० खं १, १। २ । पृ० ६६८-७२ कामणकाययोगी की वक्तव्यत्ता में कार्मणकाययोग का प्रतिपादन करना चाहिए । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२ ) Sarfararti मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में कार्मणकाययोग होता है। कार्मणकाययोगी सास्वादान सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में कार्मणकाययोग होता है । कार्मणकाययोगी असंयत गुणस्थान में कार्मणकाययोग होता है तथा कार्मणकाययोगी सयोगी गुणस्थान में कार्मणका योग होता है । .५४ अयोगी में सुगममजोगीणं । -- षट्० खं० १, १ । पृ २ | पृ० ६७२ अयोगी - अयोगी केवली गुणस्थान अयोग -- योग रहित होता है । •५५ सवेदी में वेदाणुवादेण अणुवादो जहा मूलोघो णीदो तहा णेदन्धो । -- षट् ० ० खं० १, १ । २ । पृ० ६७२ सवेदी में प्रथम नौ गुणस्थान होते हैं सवेदी जीव में पन्द्रह योग होते हैं । .५६ स्त्रीबेदी में इत्थवेदाणं भण्णमाणे x x x आहार - आहार मिस्सकायजोगेहि विणा तेरह जोग x x x । तेसि चेव पज्जत्ताणं x x x दस जोग x x x । इत्थिवेद - अपज्जत्ताणं xxx तिष्णि जोग x x x | इस्थिवेद-मिच्छाइट्ठीणं x x x तेरह जोग x x x | तेसिं चेव पत्ताणं xxx दस जोग x x x । तेसिं चेव अपजत्ताणं x x x तिण्णि जोग x x x । इत्थिवेद- सासणसम्माइट्ठीणं x x x तेरह जोग x x x । तेसिं चेब पजत्ताणं x x x दस जोग x x x । तेसिं चेव अपजत्ताणं x x x तिण्णि जोग xxx । इत्थिवेद - सम्मामिच्छाइट्ठीणं x x x दस जोग x x x | इत्थिवेद-असंजदसम्माइट्ठीणं xxx दस जोग x x x । इत्थिवेद-संजदासंजदाणं णव जोग xxx । इस्थिवेद - पमत्तसंजदाणं x x x णव जोग, आहारदुगं णत्थि x x x इत्थिवेद - अप्पमत्त संजदाणं x x x णव जोग x x x | इस्थिवेद - अपुव्वयरणाणं xxx णव जोग x x x 1 इत्थिवेद - अणियद्वीणं x x x णव जोग xxx | - षट् • खं १, १ । पृ २ । पृ० ६७३-८३ स्त्री वेदी जीव में आहारक आहारकमिश्र काययोग के बाद देकर तेरह योग होते हैं । इनके पर्याप्त में दस योग होते हैं । ( आहारक, आहारकमिश्र, वैक्रियमिश्र, औदारिक मिश्र, कर्मकाययोग छोड़कर दस योग ), अपर्याप्त स्त्री वेदी में तीन योग वैक्रियमिश्र काययोग औदारिकमिश्र तथा कामंणकाय योग ) होते हैं । मिथ्यादृष्टि स्त्रीवेदी में तेरह योग होते हैं । इनके अपर्याप्त दस योग व अपर्याप्त में तीन योग होते हैं । स्त्री वेदी सास्वादान सम्यग् - दृष्टि गुणस्थान में तेरह योग । इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त तीन योग होते हैं । स्त्री Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१३ ) वेदी सम्यग मिथ्यादृष्टि में दस योग होते हैं । स्त्री वेदी असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में दस योग होते हैं । स्त्री वेदी संयतासंयत गुणस्थान में नव योग, स्त्री वेदी प्रमत्तसंयत में नौ योग ( चार मन के, ४ वचन के, १ औदारिक काययोग = ६ योग ) आहारक-आहारिक मिश्रयोग स्त्री वेदी प्रमत्तसंयत में नहीं होता है। स्त्री वेदी अप्रमत्तसंयत में, अपूर्व करण में अनिवृत्ति वादर गुणस्थान में नौ योग होते है। .५७ पुरुषवेदी में पुरिसवेदाणं भण्णमाणे x x x पण्णारह जोग x x x । तेसिं चेष पज्जत्ताणं xxx एगारह जोग x xx । तेसिं चेव अपज्जत्ताणं xxx चत्तारि जोग xxx। पुरिसवेद-मिच्छाइट्ठीणं xxx तेरह जोग xxxi तेसिं चेव पज्जत्ताणं xxx दस जोग xxx। तेसिं चेव अपज्जत्ताणं xxx तिण्णि जोग x x x | पुरिसवेद-सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव पढम-अणियट्टि त्ति ताप मूलोघ-भंगो । xxx -षट० खं १, १ । पु २ । पृ० ६८४-८८ ___ पुरुष वेद में पन्द्रह योग होते हैं। इनके पर्याप्त में ग्यारह योग होते हैं तथा अपर्याप्त में चार योग होते हैं (औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र, आहारिकमिश्र कार्मणकाययोग) पुरुष वेद मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में तेरह योग। इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते पुरुषवेद सास्वादान सम्यग्दृष्टि में तेरह योग, इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते हैं-( वे क्रियमिश्रकाय, औदारिकप्रिश्र काययोग तथा कार्मणकाययोग ) पुरुष वेद सम्यगमिथ्यादृष्टि में दस योग होते हैं। इस गुणस्थान में अपर्याप्त अवस्था नहीं बनती है । पुरुष वेदी असंयत सम्यग्दृष्टि में दस योग । संयतासंयत में नौ योग होते हैं। प्रमत्तसंयत में ग्यारह योग होते हैं । अप्रमत्तसंयत, अपूर्व करण, प्रथम अनिवृत्ति बादर गुणस्थान में नौ योग होते है। .५८ नपुंसकवेदी में __णवंसयवेदाणं भण्णमाणे xxx तेरह जोग xxx। तेसिं चेव पज. ताणं xxx दस जोग Xxx। तेसिं चेव अपजत्ताणं xxx तिण्णि जोग xxx। णवंसयवेद मिच्छाइट्ठीणं xxx तेरह जोग xxx। तेसि सेव पजत्ताणं xxx दस जोग XXX| तेसिं चेष अपजत्ताणं xxx तिणि जोग xxx। णवंसयवेद-सासणसम्माइट्ठीणं XXX बारह जोग, सासणगुणेण जीवा णिरयगदीए ण उप्पज्जति तेण वेउब्धिय मिस्सकायजोगो णस्थि ।x_xxi तेसिं चेव पजत्ताणं xxx दस जोग। तेसिं चेव अपजत्ताणं xxx वे जोग xxx णवंसयवेद-सम्मामिच्छाइट्ठीणं xxx दस जोग xxx | णवंसयवेदअसंजदसम्माइट्ठीणं xxx बारह जोग, ओरालियमिस्लकायजोगो णस्थि । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ) xxx। तेसिं चेव पजत्ताणं xxx दस जोग XXX । तेसिं चेव अपज्जत्ताणं xxx वे जोग xxx| णउसयवेद-संजदासंजदाणं xxx णव जोग। xxx | णउसयवेद-पमत्तसंजदप्पहुडि जाव पढम-अणियहि त्ति ताव इत्यिवेदभंगो। ---षट० खं १, १ । पु २ । पृ० ६८८-६८ __ नपुंसक वेद में तेरहयोग होते हैं ? इनके पर्याप्त में दस योग होते हैं । ( आहारक, आहारिकमिश्र काययोग, वैक्रियमिश्र काययोग, औदारिकमिश्र काययोग कार्मणकाययोग को बाद देकर=१० योग) अपर्याप्त नपुंसक वेद में तीन योग ( औदारिकमिश्र काययोग, वे क्रियमिश्र काययोग-कार्मणकाययोग) होते हैं। नपुंसक मिथ्यादृष्टि में तेरहयोग होते हैं। इनके पर्याप्त में दस योग तथा अपर्याप्त में तीन योग होते हैं। नपुंसक सास्वादान सम्यगदृष्टि गुणस्थान में बारह योग ( आहारक-आहारमिश्र वैक्रियमिश्र काययोग बाद) होते हैं। चूँकि नपुंसक सास्वादान सम्यग्दृष्टि गुणस्थान के जीव नरक गति में उत्पन्न नहीं होते हैं अतः इनमें वे क्रियमिश्र काययोग नहीं होता है । नपुंसक सास्वादान सम्यग्दृष्टि गुणस्थान के पर्याप्त में दस योग तथा अपर्याप्त में दो योग होते हैं-औदारिकमिश्र काययोग तथा कामण काययोग। नपुंसक सम्यगमिथ्यादृष्टि में दस योग होते हैं। इस गुणस्थान में अपर्याप्त अवस्था नहीं होती है । नपुंसक असंयत सम्यग्दृष्टि में बारह योग होते हैं । ( औदारिक मिश्र काययोग नहीं होता है । ) इनके पर्याप्त में दस योग तथा अपर्याप्त में दो योग होते हैं। नपुंसक वेद संयतासंयत में नौ योग होते होते हैं । नपुंसक वेद प्रमत्तसंयत यावत प्रथम अनिवृत्ति बादर गुणस्थान में स्त्री वेद की तरह नौ योग होते हैं। .५९ अपगतवेदी में __अवगदवेदाणं भण्णमाणे xxx एगारह जोग अजोगो घि अस्थि XXX । विदिय-अणियट्टिप्पाहुडि जाव सिद्धा त्ति ताच मूलोघ-भंगो। -षट ० खं १, १ । पु २ । पृ ६६८-६६ अपगत वेदी-अर्थात वेदरहित जीव में ग्यारह योग होते हैं-(नौ योग में औदारिकमिश्र काययोग कार्मणकाययोग-११ योग होते हैं) तथा अयोगी भी होते हैं। द्वितीय भाग के अनिवृत्ति बादर गुणस्थान यावत सिद्धों में मूल औधिक की तरह नौ योग होते हैं-द्वितीय भाग अनिवृत्ति बादर गुणस्थान में नौ योग, दसवें, ग्यारवें, बारहवें गुणस्थान में नौ योग होते हैं। तेरहवें गुणस्थान में सातयोग (५+२=७ (औदारिकमिश्र काययोग-कार्मणकाययोग ) चौदहवें गुणस्थान तथा सिद्धों में योग नहीं है । .६० सकषायी में कसायाणुवादेण ओघालावा मूलोघ-भंगा। -षट् ० खं १, १ । पृ २ । पृ० ६६६ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१५ ) सकषायी में पन्द्रह योग होते हैं । इनके पर्याप्त में ग्यारह योग होते हैं तथा अपर्याप्त में चार योग ( औदारिकमिश्र, आहारकमिश्र, वैक्रियमिश्र तथा कार्मण काययोग ) होते हैं । अधिक आलाप की तरह सकषायी में योग का प्रतिपादन करना चाहिए । .६१ क्रोधकषायी में कोधकसायाणं भण्णमाणे X X X पण्णारह जोग X X X। तेसिं चेव पजत्ताणं X X X एगारह जोग X X X | तेसिं चेच अपज्ञत्ताणं X X X वत्तारि जोग X X X । कोधकसाय - मिच्छाइट्ठीणं XX X तेरह जोग X Xx । I तेसिं वेब पजत्ताणं x x x दस जोग X Xx X | तेसिं खेव अपज्जन्त्ताणं X X X तिणि जोग X X X | कोधकसाथ - सासणसम्माइट्ठीणं XX X तेरह जोग XXX | तेसिं चेष पज्जत्ताणं X X X दस जोग XX X। तेसिं चेच अपज्जताणं XXX तिणि जोग XX X | कोध कसाय सम्मा मिच्छाइट्ठीणं XX X दस जोग XX X | कोधकसाय - असंजदसम्माइट्ठीणं X X X तेरह जोग X X X | तेर्सि वेष पज्जन्त्ताणं X X X दस जोग X XX | तेसि चेव अपज्जताणं x x x तिण्णि जोग X X X | कोधकसाय-संजदासंजदाणं X X X णव जोग XX X | कोधकसाय-पगत्तसंजदाणं XX X एगारह जोग x x x | कोध कसाय - अप्पमत्तसंजदाणं x x x णव जोग x x x । कोधकसाय-अपुजोग x x x कोधक साय-पढमअणियट्टीणं कोधकलाय - विदिय-अणियट्टीणं x x x णव जोग - षट् ० ० खं १ । १ । पृ २ । पृ० ७००-१२ व्यरणाणं x x x णव xxx णव जोग × × × । XXXI क्रोधकधायी में पन्द्रह योग होते हैं । इनके पर्याप्त में ग्यारह योग तथा अपर्याप्त में चार योग । ( औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रियमिश्र काययोग, आहारकमिश्र काययोग तथा कार्मणका योग ) होते हैं । क्रोधकषायी मिथ्यादृष्टि में तेरह योग होते हैं। इनके पर्याप्त में दस योग तथा अपर्याप्त में तीन योग होते ( वैक्रियमिश्र काययोग, औदारिकमिश्र काययोग तथा कार्मणकाययोग ) क्रोधकषायी सास्वादन सम्यागृष्टि में तेरह योग होते हैं इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते हैं । क्रोधकषायी सम्यग् मिथ्यादृष्टि में दस योग होते हैं । क्रोधकषायी असंयत सम्यग्दृष्टि में तेरह योग होते हैं । इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते हैं । क्रोधकषायी संयतासंयत में नवयोग होते हैं। क्रोधकषायी प्रमत्तसंयत मैं ग्यारह योग अप्रमत संयत में नौ योग, क्रोधकषायी अपूर्वकरण गुणस्थान में नव योग, starषायी प्रथम अनिवृत्ति गुणस्थान बादर तथा द्वितीय अनिवृत्ति बादर गुणस्थान में नौ योग होते हैं । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) .६२ मानकषायी में .६३ मायाकषायी में .६४ लोभकषायी में एवं ( जहा कोधकसायाणं ) माण-मायाकसायाणं पि मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणियहि त्ति वत्तव्वं । लोभकसायस्स कोधकसाय-भंगो। णवरि ओघालावे भण्णमाणे दस गुणट्ठाणाणि xxx। -षट् • खं १, १ । पु २ । पृ० ७१२ __ मानकषायी तथा मायाकषायी के विषय, में जैसा क्रोधकषायी के विषय में कहावैसा कहना चाहिए। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से द्वितीय अनिवृत्ति बादर गुणस्थान तक जानना चाहिए। लोभकषायी के विषय में क्रोधकषायी की तरह जानना चाहिए लेकिन ( सूक्ष्म संपराय तक) मिथ्या दृष्टि से दसवें गुणस्थान तक कहना चाहिए। .६५ अकषायी में अकसायाणं भण्णमाणे xxx एगारह जोग अजोगो वि अस्थि xxx। उवसंतकसायप्पहुडि जाव सिद्धा त्ति ओघ-भंगो। -षट् ० खं १, १ । पु । पृ० ७१३-१४ अकषायी में ग्यारह योग होते हैं । उपशांत मोह गुणस्थान व क्षीण मोहनीय गुणस्थान में नौ योग तथा तेरहवें गुणस्थान में सात योग होते हैं। चौदहवां गुणस्थान अयोगी होता है। सिद्ध भी अयोगी होते हैं । .६६ मति-अज्ञानी में .६७ श्रुत-अज्ञानी में मदि-सुदअण्णाणीणं भण्णमाणे xxx तेरह जोग xxx। तेसिं चेव पजत्ताणंxxx दस जोग xxx। तेसिं चेव अपजत्ताणं x x x तिणि जोग xxx । मदि-सुदअण्णाण-मिच्छाइट्ठीणं x x x तेरह जोग xxx। तेसिं चेव पजत्ताणं xxx दस जोग x x x | तेसिं चेव अपजत्ताणं x x x तिण्णि जोग xxx । मदि-सुदअण्णाण-सालणसम्माइट्ठीणं x x x तेरह जोग xxx। तेसि चेव पजत्ताणं x x x दस जोग xxx। तेर्सि चेव अपजत्ताणं xxx तिण्णि जोग xxxi -षट • खं १, १ । पु २ । पृ० ७१४-२० मति-अज्ञानी व श्रुतअज्ञानी में तेरह योग, इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते हैं । औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रियमिश्र काययोग-कार्मणकाययोग ।) Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७ ) मति-अज्ञानी, श्रुतअज्ञानी मिथ्यादृष्टि में तेरह योग, इनके पर्याप्त में दस योग अपर्याप्त में तीन योग होते हैं। मति-श्रुत अज्ञानी सास्वादान सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में तेरह योग, इनके पर्याप्त में दस योग व अपर्याप्त में तीन योग होते हैं । नोट-मति-श्रुत अज्ञानी सम्यग् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में दस योग होते हैं । .६८ विभंगवानी में विभंगणाणाणं भण्णमाणे x x x दस जोग xxx। विभंगणाणि-मिच्छाइट्ठीणं xxx दस जोग xxx | विभंगणाणि सासणसम्माइट्ठीणं xxx दस जोग xxx -षट् • खं १, १ । पु २ । पृ० ७२०-२२ विभंगशानी में दस योग, विभंगशानीमिथ्यादृष्टि में दस योग व विभंगशानी सास्वादान सम्यग्दृष्टि में दस योग होते हैं । नोट-विभंगज्ञानी सम्यम् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में दस योग होते हैं-४ मन के, ४ वचन के, वैक्रियकाययोग व औदारिक काययोग=१० योग । ६९ मतिज्ञानी में ( आभिनिबोधिक शानी में ) .७० श्रुतहानी में आभिणियोहिय सुदणाणाणं भण्णमाणे xxx पण्णारह जोग x x x | तेसिं चेष पजत्ताणं x x x एगारह जोग x xx। तेसिं चेष अपजत्ताणं xxx चत्तारि जोग xxx। आभिणियोहिय सुदणाण असंजदसम्माइट्ठीणं xxx तेरह जोग x xx। तेसि व पज्जत्ताणं x x x दस जोगxxx। तेर्सि चेष अपजत्ताणं xxx तिणि जोग x x x | संमदासंजदप्पहुडि जाच स्त्रीणकसाओ त्ति ताव मूलोघ-भंगो। -षट् खं १, १ । पु २ पृ. ७२२-२६ याभिनिबोधिक-श्रतज्ञानी में पन्द्रह योग, इनके पर्याप्त में ग्यारहयोग, अपर्याप्त में चार योग (आहारकमिश्र काययोग, वे क्रियमिश्र काययोग, आहारकमिश्र काययोग कार्मणकाययोग) होते हैं। आभिनिबोधक-श्रुतज्ञानी असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में तेरह योग, इनके पर्याप्त में दस योग तथा अपर्याप्त में तीन योग होते हैं । संयतासंयत यावत् क्षीणकषायी आमिनिबोधिक-श्रुतशानी में मूलौधिक की तरह जानना चाहिए। ___ आभिनिबोधिक-श्रतज्ञानी संयतासंयत में नौ योग, प्रमत्तसंयत में चौदह योग ( कार्मणयोग छोड़कर ) अप्रमत्त संयत से क्षीणमोहनीय गुणस्थान में नव योग होते हैं । (सत्यमनोयोग, व्यवहारमनोयोग, असत्यमनोमोग, मिभमनोयोग, सत्यवचनयोग, व्यवहारवचनयोग, असत्यवचनयोग, मिश्रवचनयोग, औदारिककाययोग)। .७१ अवधिधानी में एषमोहिणाणं पि वत्तव्वं । -षट• खं १, १। २ पृ. ७२६ Jain Education Integrational Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८ ) इसी प्रकार अवधिज्ञानी के विषय में जानना चाहिए। ( मतिज्ञानी-श्रतज्ञानी की तरह)। .७२ मनःपर्ययज्ञानी में मणपज्जवणाणीणं भण्णमाणे xxx आहारदुगेण विणा णव जोग xxx। मणपज्जवणाण पमत्तसंजदप्पहुडि जाव खीणकसाओ त्ति ताप मूलोघ-भंगो। -षट ० खं १, १ । २ । पृ० ७२७-२६ मनःपर्ययज्ञानी में आहारक-आहारकमिश्र काययोग के बिना नौ योग होते हैं। मनःपर्ययज्ञानी प्रमत्तसंयत से क्षीणकषायी गुणस्थान में मूलौधिक की तरह नौ योग जानना चाहिए। ( मनःपर्ययज्ञानी अप्रमत्तसंयत में नवयोग, मनःपर्ययज्ञानी अप्रमत्तसंयत से क्षीणमोहनीय गुणस्थान में नौ योग होते हैं ( सत्यमनोयोग, व्यवहारमनोयोग, असत्य मनोयोग, मिश्र मनोयोग, सत्यवचनयोग, व्यवहार वचनयोग, असत्य वचनयोग, मिश्र वचनयोग, औदारिक काययोग)। .७३ केवलज्ञानी में केवलणाणाणं भण्णमाणे xxx सत्त जोग अजोगो वि अस्थि xxx। सजोगि-अजोगि-सिद्धाणमालाषा मूलोघोब्ध बत्तव्वा । -षट० खं १, १ । पु २ । पृ० ७२६-३० केबलज्ञानी में सातयोग होते है, अयोगी भी होते है । सयोगी केवली में सात योग, अयोगी व सिद्ध में योग नहीं है। .७४ चक्षुदर्शनी में बक्खुदंसणीणं भण्णमाणे X X X पण्णारह जोग xxx| तेसिं चेव पज्जत्ताणं xxx एगारह जोग xxx| तेसि चेव अपज्जत्ताणं xxx चत्तारि जोगxxx|चक्खुदंसण मिच्छाइट्ठीणंxxx तेरह जोगxxx। तेसिं चेव पज्जत्ताणं xxx दस जोग xxX । तेसिं चेव अपज्जत्ताणं xxx तिणि जोग xxx| चक्खुदंसण-सासणसम्माइट्ठिप्पहुडि जाव खीणकसाओ त्ति मूलोघ-भंगो। -षद्० खं १, १ । पु २ | पृ०७३८-४३ चक्षुदर्शनी में पन्द्रह योग होते है। इनके पर्याप्त में ग्यारह योग (औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रियमिश्र काययोग, आहारक मिश्र काययोग कार्मणकाययोग को छोड़कर )। . चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि में तेरह योग। इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते हैं। चक्षुदर्शनी सास्वादान सम्यग्दृष्टि यावत क्षीणमोहनीय गुणस्थान में मूलओधिक की तरह जानना चाहिए। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) .७५ अचक्षुदर्शनी में - अचक्खुदंसणाणं भण्णमाणे xxx पण्णारह जोग xxx । तेसिं चेष पजत्ताणं xxx एगारह जोग xxx| तेसिं चेष अपजत्ताणंxxx वत्तारि जोग XXX । अचक्खुदंसण-मिच्छाइट्ठीणंxxx तेरह जोग xxxi तेसिं चेव पजत्ताणं xxx दस जोग xxxतेसिं चेष अपजत्ताणं xxx तिण्णि जोग xxx| सासणसम्माइटिप्पहुडि जाप खीणकसाओ त्ति ताव मूलोघ-भंगो। -षट० खं ।। १। पु २i पृ. ७४३-४७ अचक्षुदर्शनी में पन्द्रह योग कहा है। इनके पर्याप्त में ग्यारह योग, अपर्याप्त में चार योग ( औदारिकमिश्र काययोग, वे क्रियमिश्र काययोग, आहारकमिश्र काययोग, कार्मण काययोग) होते हैं। अचक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि में तेरह योग, इनके पर्याप्त में दस योग-४ मन के योग, ४ वचन के योग-वैक्रिय काययोग, औदारिक काययोग होते है। इनके अपर्याप्त में तीन योग-औदारिक,, औदारिकमिश्र काययोग, कामण काययोग होते हैं। सास्वादान सम्यग्दृष्टि यानत क्षीणकषाय गुणस्थान में मुलौधिक की तरह योग कहना चाहिए। .७६ अवधिदर्शनी में ओहिदसणीणं भण्णमाणे xxx पण्णारह जोग x xx। तेसिं चेष पजत्ताणं xxx एगारह जोग xxx । तेसिं चेष अपजत्ताणंxxx चत्तारि जोग x x x | असंजदसम्माइटिप्पहुडि जाव खीणकसाओ त्ति ताव ओहिणाणभंगो। -षट् खं० १, १ । २। पृ० ७४८-५. ___ अवधि दर्शन में पन्द्रह योग होते हैं। इनके पर्याप्त में ग्यारह योग, अपर्याप्त में चार योग होते हैं। अवधिदर्शनी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से क्षीणकषाय गुणस्थान में अवधिशान की तरह वक्तव्यता कहनी चाहिए। .७७ केवलदर्शनी में केवलदसणस्स केषलणाण-भंगो। -षट • खं १ । १ । पु २ । पृ. ७५० केवलदर्शनी में सात योग होते है। केवलदर्शनी सयोगी केवली गुणस्थान में सात योग, केवलदर्शनी अयोगी केवली गुणस्थान में योग नहीं होता है। केवलदर्शनी सिद्धों में योग नहीं होता है। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२० ) .७८ सलेशी में लेस्साणुवादेण ओघालायो मूलोघ-भंगो। णवरि-अजोगिगुणहाणेण विणा तेरह गुणहाणाणि अस्थि xxx -षट् खं १।१ । पु २ । पृ. ७५० सलेशी में पन्द्रह योग होते हैं। अयोगी केवली गुणस्थान के बिना तेरह गुणस्थान में सलेशी होते हैं। लेश्यानुवाद में-औधिक आलाप मूलौधिक की तरह योग कहना चाहिए। .७१ कृष्णलेशी में किण्हलेस्सालावे भण्णमाणे xxx तेरह जोग। तेसिं चेव पजत्ताणं xxx दस जोग xxx। तेसिं चेव अपजत्ताणं xxx तिण्णि जोग xxx। किण्हलेस्सा-मिच्छाइट्ठीणं x x x तेरह जोग xxx। तेसि वेष पजत्ताणं x x x दस जोग xxxतेसिं चेष अपजत्ताणं xxx तिणि जोग xxx। किण्हलेस्सा-सासणसम्माइट्ठीणं xxx तेरह नोग yxx। तेसिं चेव पजत्ताणं xxx दस जोग xxx। तेसि चेष अपजत्ताणं xxx तिणि जोग xxx| किण्हलेस्सा-सम्मामिच्छाइट्ठीणं xxx दस जोग xxx। किण्हलेस्सा-असंजदसम्माइट्ठीणं xxx वेउन्धियमिस्सेण पिणा बारह जोग xxx। तेसिं चेव पजत्ताणxxx दस जोग। तेसिं चेष अपजत्ताणं xxx वे जोग xxx। -षट् • खं १ । १। पु २ । पृ. ७५०-५८ कृष्णलेशी में तेरह योग होते है । इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते हैं। कृष्णलेशी मिथ्यादृष्टि में तेरह योग होते है। इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते हैं। कृष्णलेशी सास्वादान सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में तेरह योग होते हैं। इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते हैं। कृष्णलेशी सम्मामिथ्यादृष्टि गुणस्थान में दस योग होते है । कृष्णलेशी असंयतसम्यग्दृष्टि में वैक्रियमिश्र काययोग के बिना बारह योग होते है। इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में दो योग ( औदारिकमिश्र काययोग, कार्मण काययोग) होते है। .८० नीललेशी में णीललेस्साए भण्णमाणे ओघादेसालाषा किण्हलेस्सा-भंगा। -षट् खं १ । १ । पु २ । पृ. ७५६ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२१ ) नीललेशी में तेरह योग होते है। इसका सब विवेचन कृष्णलेशी की तरह जानना चाहिए। .८१ कापोतलेशी में काउलेस्साणं भण्णमाणे x x x तेरह जोग xxx। तेसिं चेष पजत्ताणं x x x दस जोग x x x | तेसिं चेष अपजत्ताणं x x x तिण्णि जोग xxx। काउलेस्ला-मिच्छाइट्ठीणं x x x तेरह जोग xxx । तेसिं चेव पज्जत्ताणं xxx दस जोग x xx। तेसिं चेव अपज्जत्ताणं x x x तिणि जोग xxx। काउलेस्सा-सासणसम्माइट्ठीणं xxx तेरह जोग xxxi तेसिं चेव पज्जत्ताणं xxx दस जोग x xx। तेसिं चेष अपज्जत्ताणं xxx तिण्णि जोग xxx। काउलेस्सा-सम्मामिच्छाइट्ठीणं xxx दस जोग xxx। काउलेस्सा-असंजदसम्माइट्ठीणं x x x तेरह जोग xxx । तेसिं चेव पज्जत्ताणं xxx दस जोग xxx | तेसिं चेव अपज्जत्ताणं xxx तिणि जोग x xx। -षट् खं १ । १ । पु २ | पृ० ७५६-६८ कापोतलेशी में तेरह योग होते हैं। इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते है। कापोतलेशी मिथ्याडष्टि में तेरह योग होते हैं। इनके पर्याप्त में दस योग व अपर्याप्त में तीन योग होते हैं। कापोतलेशी सास्वादान सम्यग्दृष्टि में तेरह योग होते हैं। इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते है। कापोतलेशी सम्यगमिथ्याटष्टि गुणस्थान में दस योग होते हैं। कापोतलेशी असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में तेरह योग, इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते हैं। .८२ तेजोलेशी में तेउलेस्साणं भण्णमाणे xxx पण्णारह जोग xxx। तेसि वेव पज्जत्ताणं x x x एगारह जोग xxx। तेसिं चेव अपज्जत्ताणं xxx चत्तारि जोग xxx। तेउलेस्सा-मिच्छाइट्ठीणं xxx ओरालियमिस्सेण विणा बारह जोग x x x । तेसि चेव पज्जत्ताणं xxx दस जोग xxx । तेसिं चेष अपज्जत्ताणं xxx दो जोग xxx। तेउलेस्सा-सासणसम्माइट्ठीणं xxx ओरालियमिस्सेण विणा बारह जोग xxx। तेसिं चेव पज्जत्ता] x x x दस जोग xxx। तेसिं चेव अपज्जत्ताणं xxx दो जोग xxx। तेउलेस्सा-सम्मामिच्छाइट्ठीणं x xx दस जोग xxx। तेउलेस्सा-असंजदसम्माइट्ठीणं xxx तेरह जोग xxx। तेसि चेव पज्जत्ताणं xxx दस जोग xxx| तेसिं चेष Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२२ ) अपज्जन्ताणं x x x तिण्णि जोग x x x | तेउलेस्सा-संजदासंजदाणं xxx णव जोग x x x । तेउलेस्सा- पमत्तसंजदाणं xxx एगारह जोग x x x | ते उलेस्सा - अप्पमत्तसंजदाणं x x x णव जोग x x x । - षट्० खं १ । १ । पु २ | पृ० ७६८-७६ तेजोलेशी में पन्द्रह योग होते हैं । इनके पर्याप्त में ग्यारह योग (वैक्रियमिश्र काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, आहारकमिश्र काययोग, कार्मण योग को छोड़कर) तथा अपर्याप्त मैं चार योग होते हैं ( ओदारिक मिश्र, वैक्रियमिश्र, आहारकमिश्र, कार्मण काययोग ) । तेजोलेश्या मिथ्यादृष्टि में बारह योग होते है - औदारिकमिश्र काययोग के बिना । इनके पर्याप्त में दस योग व अपर्याप्त में दो योग होते हैं ( वै क्रियमिश्र काययोग और कार्मण काययोग | तेजोलेशी सास्वादान सम्यग्दृष्टि में औदारिक मिश्र काययोग के बिना बारह योग होते हैं । इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में दो योग होते हैं। तेजोलेशी सम्यग्मिथ्यादृष्टि में दस योग होते हैं। तेजोलेशी असंयत सम्यग्दृष्टि में तेरह योग होते हैं । इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते हैं । तेजोलेशी संयतासंयत में नौ योग, तेजोलेशी प्रमत्त संयत में ग्यारह योग ( ४ मन के, ४ वचन के, औदारिक, आहारक, वैक्रिय काययोग ) होते हैं। तेजोलेशी अप्रमत्तसंयत में नौ योग होते हैं। 1 • ८३ पद्मलेशी में पम्मले साणं भण्णमाणे X X X पण्णारह जोग x x x । तेसिं चेव पज्ज - ताणं xxx एगारह जोग XX X। तेसिं चेच अपजत्ताणं x x x चत्तारि जोग xxx । पम्पलेस्सा-मिच्छाइट्ठीणं x x x ओरालिय मिस्सेण विणा बारह जोग xxx | तेसि वेव पजत्ताणं X X X दस जोग X XX। तेसिं चेव अपजत्ताणं XXX दो जोग XX X | पम्मलेस्सा - सासणसम्माइट्ठीणं x x x बारह जोग XXX | तेर्सि वेब पज्जत्ताणं X X X दस जोग XX X | तेसि वेव अपज्जताणं x x x दो जोग । पम्मलेस्सा- सम्मामिच्छा इट्ठीणं x x x दस जोग xxx । पम्मलेस्सा - असं जदसम्माइठ्ठीणं X X X तेरह जोग x x x | तेर्सि वेब पज्जत्ताणं Xxx दस जोग X X X | तेसिं चेव अपज्जन्ताणं X X X तिष्णि जोग XX X | पम्मले स्सा-संजदासंजदाणं X X X णव जोग XX X | पम्मलेस्ला - पमत्तसंजदाणं XX X एगारह जोग X XX | पम्मलेस्सा - अप्पमन्तसंजदाणं XX X णव जोग X X X - षट्० खं १ । १ । २ । पृ० ७७६-६० पद्मलेसी जीव में पन्द्रह योग होते हैं । उनके पर्याप्त में ग्यारह योग तथा अपर्याप्त में चार योग होते हैं । पद्मलेशी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में औदारिक मिश्र काय योग के बिना बारह योग होते हैं । इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में दो योग होते हैं- वैक्रिय मिश्र काययोग तथा काम काय योग । पद्मलेशी सास्वादान सम्यग्दृष्टि — गुणस्थान में बारह Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३ ) योग होते है। इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में दो योग होते है। पदमलेशी सम्यगमिथ्यादृष्टि में दस योग होते हैं। पद्मलेशी असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में तेरह योग होते हैं। इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते है। पद्मलेशी संयतासंयत में नौ योग होते हैं। पदमलेशी प्रमत्त संयत में ग्यारह योग होते हैं। पदमलेशी अप्रमत्तसंयत में नौ योग होते है। .८४ शुक्ललेशी में सुक्कलेस्साणं भण्णमाणे XXX पण्णारह जोग Xxx। तेसिं चेष पज्जत्ताणं XXX एगारह जोग Xxx। तेसिं चेच अपज्जत्ताणं xxx चत्तारि जोग XXX । शुक्कलेस्सा मिच्छाइट्ठीणं xxx ओरालियमिस्सकायजोगेण पिणा बारह जोग xxx । तेसिं चेष पज्जत्ताणं x x x दस जोग xxx । तेसिं चेष अपज्जत्ताणं x x x वे जोग xxx। सुक्कलेस्सा-सासणसम्माइट्ठीणं xxx बारह जोग, ओरालियमिस्सकायजोगो णत्थि। कारणं, देव-मिच्छाइद्विसासणसम्माइट्ठीणं तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पज्जमाणाणं अमुणिय-परमत्थाणं तिव्वलोहाणं संकिलेसेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ फिटिऊण किण्ह-णील-काउलेस्साणं एगदमा भवदि। सम्माइट्ठीणं पुण मणुस्सेसुचेष उप्पज्जमाणाणं मंदलोहाणं समुणिदपरमत्थाणं अरहंतभयवंतम्हि छिण्ण-जाइ-जरा-मरणम्हि दिण्णबुद्धोणं तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ चिरंतणाओ जाव अंतोमुहुत्तं ताप ण णस्तंति । x x x । तेसिं चेव पज्जत्ताणं x x x दस जोग xxx तेर्सि वेव अपजत्ताणं xxx दो जोग x x x | सुक्कसेस्सा-सम्मामिच्छाइट्ठीणं xxx दस जोग xxx । सुक्कलेस्सा-असंजदसम्माइट्ठीणंxxx तेरह जोग xxx। तेसिं चेव पजत्ताणं x x x दस जोग xxx । तेसिं चेव अपजताणं x x x तिण्णि जोग xxx। सुक्कलेस्सा-संजदासंजदाणं xxx णव जोग xxx| सुक्कलेस्सा-पमत्तसंजदाणं xxx एगारह जोग xxxi सुक्कलेस्सा-अप्पमत्तसंजदाणं xxx णव जोग xxx। अपुव्वयरणप्पडुडि जाप जाप सजोगिकेवलि त्ति ओघभंगो; तेसु शुक्लेस्सा-वदिरित्तण्णलेस्साभावादो । -षट् ० खं• १, १ । पु० २ । पृ. ७६०-८०१ शुक्ललेशी में पन्द्रह योग होते हैं । इनके पर्याप्त में ग्यारह योग, अपर्याप्त में चार योग होते हैं। शुक्ललेशी मिथ्यादृष्टि में औदारिकमिश्र काययोग के बिना बारह योग होते है। इनके पर्याप्त में दस योग व अपर्याप्त में दो योग-वै क्रियमिश्र काययोग-कामण काययोग होते हैं। शुक्ललेशी सास्वादान सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में बारह योग ( औदारिकमिश्र काययोग के बिना ) होते हैं । देव मिथ्यादृष्टि सास्वादान सम्यग्दृष्टि जब तियं च पंचेन्द्रिय Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) मनुष्य में उत्पन्न होते हैं । xxx | इनके पर्याप्त में दस योग व अपर्याप्त में दो योग होते है। शुक्ललेशी सम्यग मिथ्या दृष्टि में दस योग होते हैं। शुक्ललेशी असं यत सम्यग्दृष्टि में तेरह योग होते हैं। इनके पर्याप्त में दस योग व अपर्याप्त में तीन योग होते हैं। शुक्ललेशी संयतासंयत में नौ योग होते हैं। शुक्ललेशो प्रमत्तसंयत में ग्यारह योग होते हैं। शुक्ललेशी अप्रमत्तसंयत में नौ योग होते हैं। शुक्ललेशी अपूर्वकरण गुणस्थान यावत सयोगी केवली गुणस्थान में योग का विवेचन औघिक भंग की तरह जानना चाहिए। .८५ अलेशी में अलेस्साणं अजोगि-सिद्धाणं ओघ-भंगो चेव । - षट० खं १।१ । पु २ । पृ०८०१ अलेशी जीव अयोगी केवली गुणस्थान वाले होते हैं। अलेशी सिद्ध में भी योग नहीं है। .८६ भव्यसिद्धिक में भषियाणुवादेण भषसिद्धियाणं भण्णमाणे मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अजोगकेवलि त्ति ओघ-भंगो। -षट • खं० १, १ । पु २ । पृ० ८०१ भवसिद्धिक जीव में पन्द्रह योग होते हैं। भवसिद्धिक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान यावद अयोगीकेवली गुणस्थान में औधिक भंग की तरह योग के विषय में जानना चाहिए। .८७ अभव्यसिद्धिक में _अभवसिद्धियाणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणट्ठाणं XXX तेरह जोग xxx। तेसिं चेव पजत्ताणं x x x दस जोग x x x | तेसिं चेष अपजत्ताणं xxx fafout FIT X X XI -षट• खं० १, १ । पृ २ । पृ.८०१-३ ___अभवसिद्धिक जीव में गुणस्थान एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। उसमें योग तेरह होते हैं। अभवसिद्धिक पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते हैं-यथा-वे क्रियमिश्र काययोग, औदारिकमिश्र काययोग-कार्मण काययोग । .८८ आहारक में ____ आहाराणुवादेण आहारीणं भणमाणे xxx चोइस जोग कम्मइयकायजोगो णत्थि x x x । तेसिं चेव पजत्ताणं x x x एगारह जोग x x x। ओरालिय-वेउब्विय-आहारमिस्स-कम्मइयकायजोगा णस्थि। xxx। तेसिं चेष अपजत्ताणं x x x तिणि जोग xxx। आहारि-मिच्छाइट्ठीणं xxx वारह जोग, कम्मइयकायजोगो णस्थि । xxxतेसिं चेव पज्जत्ताणं xxx दस जोग xxx। तेसि वेव अपज्जत्ताणं x x x दो जोग xxx। आहारि-सासणसम्मा. इट्ठीणं xxx बारह जोग xxx तेसिं चेव पज्जत्ताणं xxx दस जोग x x x | Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५ ) I सिं चेष अप जन्ताणं xxx दो जोग x x x | आहारिसम्मामिच्छाइट्ठी xxx दस जोग xxx | आहारि - असंजदसम्माइट्ठीणं xxx बारह जोग xxx । तेसिं चेव पज्जत्ताणं xxx दस जोग xxx । तेसिं चेव अपजन्ताणं x x x दो जोम XXX | आहारि-संजदासंजदाणं x x x णव जोग x x x । आहारि-पमत्तसंजदाणं xxx एगारह जोग XX X | आहारि - अप्पमत्तसंजदाणं Xxx णव जोग XXX | आहारि - अपुव्वयरणाणं x x x णव जोग X XX आहारिपढम - अणियट्टीणं X X X णव जोग XX X | सेसचदुण्हमणियट्टीणं ओघ - भंगो । आहार - सुहुमसांपराइयाणं x x x णव जोग x x x । आहारि-उवसंतकसायाणं XX X णव जोग XX X | आहारि-क्षीणकलायाणं x x x णव जोग XXX आहारि-सजोगिकेवलीणं X X Xx छ जोग, कम्मइयकायजोगो णत्थि XXXI - षद्० खं १, १ । पु २ | पृ० ८३६-५० आहारक में चौदह योग ( कार्मणकाय योग को वाद देकर होते हैं । इनके पर्याप्त में ग्यारह योग होते हैं। ( औदारिक - वैक्रिय आहारकमिश्र कार्मण काययोग के बिना ) । इनके अपर्याप्त में तीन योग होते है आहारक मिथ्यादृष्टि में बारह योग ( कार्मण काय योग नहीं है । ) इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में दो योग; औदारिकमिश्र काययोग वैक्रियमिश्र काययोग होते हैं। आहारक सास्वादान सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में बारह योग होते हैं । इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त मैं दो योग होते हैं । आहारक सम्यग् मिथ्यादृष्टि में दस योग होते हैं । आहारक असंयत सम्यग्टष्टि गुणस्थान बारह योग होते हैं । इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में दो योग होते है । आहारक संयतासंयत में नौ योग होते हैं। आहारक प्रमत्तसंयत में ग्यारह योग होते | आहारक अप्रमत्तसंयत में नौ योग होते हैं । आहारक अपूर्वकरण गुणस्थान में नव योग होते हैं । आहारक प्रथम अनिवृत्ति गुणस्थान में नौ योग होते हैं । तृतीय - चतुर्थ - पंचम अनिवृत्ति में औधिक भंग की तरह नौ योग होते हैं । आहारक द्वितीय आहारक सूक्ष्म संपराय, में नौ योग होते हैं- आहारक उपशांतकषायी में नौ योग तथा क्षीणकषायी में नौ योग होते है । आहारक सयोगी केवली में छः योग ( कार्मण काय योग को छोड़कर ) होते हैं । ८९ अनाहारक में अणाहारीणं भण्णमाणे X X X कम्मइयकायजोगो अजोगो वि अस्थि XXX अणाहारि-मिच्छाइट्ठीणं X X X कम्मइयकायजोगो X XX | अणाहारिसासणसम्मट्ठीणं X X X कम्मइयकायजोगो xxx । अणाहारि-असंजद Jain Education Interational Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) सम्माइट्ठीणंxxx कम्मइयकायजोगो xxx। अणाहारि-सजोगिकेवलीणं xxx कम्मइयकाययोगोxxx। अणाहारि-अजोगिकेवलीणं xxx अजोगो xxx। अणाहारि-सिद्धाणं xxx अजोगो xxxi -षट० खं १, १ । पृ २ । पृ० ८५०-५५ अणाहारिक में एक कार्मण काय योग होता है अणाहारिक जीव में अयोगी अवस्था भी होती है। अणाहारिक मिथ्यादृष्टि में, सास्वादान सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में तथा असंयत सम्यग्दष्टि गुणस्थान में एक कार्मण-काय-योग होता है। अणाहारिक सयोगिकेवली में एक कार्मण काययोग होता है। अणाहारिक अयोगि-केवली में अयोगी होता है। अणाहारिक सिद्ध भी अयोगी ही होता है। ९९ सम्यग्दृष्टि में सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्ठीणं भण्णमाणे xxx पण्णारह जोग अजोगो वि अस्थि x x x | तेसिं चेव पजत्ताणं x x x एगारह जोग अजोगो वि अस्थि xxx । तेसिं चेष अपजत्ताणं x x x चत्तारि जोग x x x | उवरि असंजवसम्माइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ताप मूलोघ-भंगो; तेसिं सव्वेसि सम्मत्तसंभवादो। -षट० खं १, १ । पु २ । पृ०८०३-६ __ सम्यग्दृष्टि में पन्द्रह योग होते हैं। उनके पर्याप्त में ग्यारह योग, अयोगी भी होते हैं । उनके अपर्याप्त में चार योग होते हैं । उपरि असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान यावत् अयोगी केवली में योग के विषय में मूलोघिक भंग की तरह जानना चाहिए। उन सब में सम्यक्त्व होता है । ९०.१ क्षायिक सम्यग्दृष्टि में खइयसम्माइट्ठीर्ण भण्णमाणे xxx पण्णारह जोग अजोगो वि अस्थि xxx। तेसिं चेव पजत्तार्ण xxx एगारह जोग अजोगो वि अस्थि xxx | तेसिं चेव अपजत्ताणं x xx चत्तारि जोग x x x खइयसम्माइट्ठीणं असंजदाणं तेरह जोग x x x। तेसिं चेष पज्जत्ताणं x x x दस जोग x x x | तेसिं चेच अपज्जत्ताणं x x x तिण्णि जोग x x x | खइयसम्माइट्ठीणं संजदासंजदाणं xxx णव जोग x x x | खइयसम्माइट्ठीणं पमत्तसंजदप्पहुडि सिद्धावसाणाणं मूलोघभंगो।xxx। -षट ० खं० १, १ । पु २ । पृ०८०७-१२ क्षायिक सम्यग्दृष्टि में पन्द्रह योग होते हैं। उनके पर्याप्त में ग्यारह योग तथा अयोगी भी होते हैं। इनके अपर्याप्त में चार योग होते हैं। क्षायिक सम्यग्दृष्टि असंयत में तेरह योग होते हैं । उनके पर्याप्त में दस योग होते हैं-४ मन के योग, ४ वचन Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२७ ) के योग, औदारिक और वैक्रिय काय योग। इनके अपर्याप्त में तीन योग-औदारिकमिश्र, वै क्रियमिश्र, कार्मण काययोग । क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत में नौ योग । क्षायिक प्रमत्तसंयत से सिद्ध तक मूलोधिक भंग की तरह जानना चाहिए। ९०२ वेदक (क्षयोपशम) सम्यग्दृष्टि में वेदगसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे x x x पण्णारह जोग x x x तेसिं चेष पजत्ताणं x x x एगारह जोग xxx | तेसि चेव अपजत्ताणं xxx चत्तारि जोग x x x | वेदगसम्माइट्ठि-असंजदाणं x x x तेरह जोग x x x | तेसिं चेव पज्जत्ताणं x x x दस जोग x x x | तेसिं चेव अपज्जत्ताणं xxx तिण्णि जोग xxx। वेदगसम्माइहि-संजदासंजदाणं xxx णव जोग x x x | वेदगसम्माइट्ठि-पमत्तसंजदाणं x x x एगारह जोग xxx। वेदगसम्माइट्ठिअप्पमत्तसंजदाणं xxx णव जोग xxx। - षट् खं• १, १। पृ २ पृ० ८१२-१७ वेदक (क्षयोपशम ) सम्यग्दृष्टि में पन्द्रह योग होते हैं। उनके पर्याप्त में ग्यारह योग, अपर्याप्त, में चार योग होते हैं। वेदक सम्यग्दृष्टि असंयत में तेरह योग होते हैं। इनके पर्याप्त में दस योग तथा अपर्याप्त में तीन योग होते हैं। वेदक सम्यग्दृष्टि संयता संयत में नौ योग होते हैं। वेदक सम्यग्दृष्टि प्रयत्त संयत में ग्यारह योग होते है। वेदक अप्रत्तसंयत में नौ योग होते हैं । ९०३ उपशमसम्यग्दृष्टि में उपसमसम्माट्ठीणं भण्णमाणे xxx ओरालियमिस्स-आहार - आहारमिस्सेहि धिणा बारह जोग x xx। तेसिं चेष पज्जत्ताणं x x x दस जोग xxx। तेसिं चेव अपज्जत्ताणं xxx दो जोग xxx। उवसम-सम्माइट्ठिअसंजदाणंxxx बारह जोग xxx | तेसि चेव पज्जत्ताणं xxx दस जोग xxx। तेसिं चेच अपज्जत्ताणं xxx दो जोगx xx। उवसमसम्माइटिसंजदासंजदाणं xxx णव जोग xxx| उवसमसम्माइट्ठि-पमत्तसंजदाणं xxx णव जोगxxx । उवसमसम्माइट्टि-अप्पमत्तसंजदाणं xxx णव जोग xxx | अपुन्षयरणप्पहुडि जाप उवसंतकसाओ त्ति ताव ओघ-भंगो। -षट • खं० १, १ । पु २ । पृ० ८१८-२५ ___ उपशम सम्यग्दृष्टि में औदारिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र काययोग को बाद देकर बारह योग होते हैं। उनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में दो योग वैक्रियमिश्र काय कार्मण काययोग होते हैं। उपशम सम्यग्दृष्टि असंयत में बारह योग होते हैं। उनके Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८ ) पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में दो योग होते हैं। उपशम सम्यग्दृष्टि संययासंयत में नौ योग होते हैं । उपसम सम्यग्दृष्टि प्रमत्त संयत में नौ योग, अप्रमत्त संयत में नौ योग होते हैं । उपशम सम्यगढष्टि अपूर्वकरण यावद उपशांत कषाय गुण स्थान में औधिक भंग की तरह नौ योग होते हैं। ९१ असंयत में असंजदाणं भण्णमाणे xxx तेरह जोग xxx। तेसिं चेव पजताणं xxx दस जोग xxx। तेसिं चेष अपजत्ताणं x x x तिण्णिजोग xxx। मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइहि त्ति मूलोघ-भंगो। -षट्० खं १ । १ । पु २ । पृ० ७३६-३८ असंयत में तेरह योग होते हैं। इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते हैं --असंयत मिथ्यादृष्टि यावत् असंयत सम्यग्दृष्टि में मूल औधिक की तरह योग के विषय में जानना चाहिए। असंयत सम्मामिथ्याष्टि में दस योग होते हैं। इनमें अपर्याप्त अवस्था नहीं होती है । ९२ संयत में संजमाणुवादेण संजदाणे भण्णमाणे xxx तेरह जोग अजोगो पि अस्थि xxx | पमत्तसंजदाणंxxx एगारह जोग XXX| अप्पमत्तसंजदाणं xxx णव जोग । अपुब्धयरणप्पष्टुडि जाप अजोगिकेवलि ति ताप मूलोघ-भंगो। -षट • खं १।१।पु २ | पृ. ७३०-३२ संयत में तेरह योग होते हैं, अयोगी भी होते है संयत-प्रमत्त संयत में ग्यारह योग, अप्रमत्त संयत में नौ योग होते हैं। अपूर्वकरण गुण स्थान यावत अयोगी केवली गुण स्थान में योग के विषय में मूल औधिक की तरह जानना चाहिए । संयत अपूर्वकरण से क्षीण मोह गुण स्थान तक नौ योग होते हैं। संयत सयोगी केवली में सात योग तथा अयोगी केवली गुणस्थान में योग नहीं होता है । ९२.१ सामायिक संयत में ९२.२ छेदोपस्थापनीय संयत में ९२.३ परिहारविशुद्धि संयत में '९२४ सूक्ष्मसंपराय संयत में ९२५ यथाख्यात संयत में .९२१ सामाइयसंजए णं भंते ! कि सजोगी होज्जा, अजोगी होज्जा १ गोयमा! Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) सजोगी जहा पुलाए। एवं जाव सुहुमसंपरायसंजए। अहक्खाए जहा लिणाए। -भग० श २५ । उ७पु ४४ सामायिक संयत सयोगी होते हैं, अयोगी नहीं होते हैं । पुलाक की तरह सामायिक संयत मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी होते हैं । इसी प्रकार छेदोपस्थानीय, परिहार विशुद्धि तथा सूक्ष्म संपराय संयत मनोयोगी, वचन योगी और काययोगी होते हैं। __ यथा ख्यात संयत स्नातक की तरह सयोगी भी होते हैं अयोगी भी होते हैं। यदि सयोगी होते हैं तो शैलेशी अवस्था में पहले तक के सयोगी होते हैं और शैलेशी अवस्था में अयोगी बन जाते हैं। ९२.१ सामायिक शुद्धिसंयत में सामाइयसुद्धिसंजदाणं भण्णमाणे xxx एगारह जोग xxx। पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणियहि त्ति ताव मूलोघ-भंगो। -षट् खं० १, १ । पु २ । पृ० ७३३ सामायिकशुद्धि संयत में ग्यारह योग होते हैं। प्रमत्त संयत में ग्यारह योग होते है । अप्रमत्त संयत, अपूर्व करण, अनिवृत्ति बादर गुण स्थान में नौ योग होते हैं। .९२२ छेदोपस्थानीय संयत में एवं (जहा समाइयसुद्धिसंजदाणं) छेदोवठ्ठाषणसंजमस्स वि वत्तन्वं । -षट • खं १, १ । पु २ । पृ० ७३३ जैसा सामायिक शुद्धि संयत में योग के विषय में कहाँ-वैसा ही छेदोपस्थापनीय संयत के विषय में जानना चाहिए । अप्रमत्त संयत छेदोपस्थापनीय यावत् अनिवृत्ति बादर गुण स्थान में नौ योग होते हैं। प्रमत्त संयत छेदोपस्थायनीय में औधिक छेदोपस्थापनीय संयत में ग्यारह योग होते हैं । ९२.३ परिहारविशुद्धि संयत में परिहारसुद्धिसंजदाणं भण्णमाणे XXX णव जोग आहाराहारमिस्सा णस्थि xxx। पमत्त-अप्पमत्त-परिहारसुद्धिसंजदाणं. पुधपुध भण्णमाणे ओघ-भंगो। -षट् खं १ । १ । पु २ । पृ० ७३३-३४ परिहार विशुद्धि संयत में नौ योग होते हैं । इस संयत में आहारक तथा आहारकमि काय योग नहीं होता है। प्रमत्त संयत तथा अप्रमत्त संयत परिहार विशुद्धि संयत में पृथक्पृथक औधिक भंग की तरह नौ योग होते हैं । ९२.४ सूक्ष्मसापरायिक शुद्धि संयत में Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३० ) सुष्टुमसांपराइयसुद्धिसंजदाणं भण्णमाणे मूलोघ-भंगो। -षट् • खं १ । १ । २ । पृ० ७३५ सूक्ष्म सांपराय-शुद्धि-संयत में मूलोधिक की तरह नौ योग होते हैं। यह दसवें गुणस्थान में है। .९२.५ यथाख्यात संयत में जहाक्खादसुद्धिसंजदाणं भण्णमाणे x x x एगारह जोग x x x | उवसंतकसायप्पटुडि जाव अजोगि केवलि त्ति मूलोघ-भंगो। -षट • खं १।१ । पु२ । पृ० ७३५ यथाख्यात संयत में ग्यारह योग होते हैं 1 उपशांत कषाय यथाख्यात संयत में नौ योग होते हैं । क्षीणकषाय यथाख्यात संयत में नौ योग होते हैं । सयोगी केवली यथाख्यात संयत में सात योग होते हैं। अयोगी केवली यथाख्यात संयत में योग नहीं होता है। .९३ निर्ग्रन्थ में .९३.१ पुलाक .९३.२ बकुस .९३.३ प्रतिसेवनाकुशील .९३.४ कषायकुशील .९३.५ निर्ग्रन्थ पुलाए णं भंते ! किं सजोगी होजा, अजोगी होजा ? गोषमा ! सजोगी होजा, णो अजोगी होजा। जइ सजोगी होजा किं मणजोगी होजा, पयजोगी होजा, कायजोगी होजा ? गोयमा! मणजोगी वा होजा, पयजोगी वा होजा, कायजोगी पा होजा। एवं जाव नियंठे। -भग• श २५ । उ ६ । पु०८३ पुलाक सयोगी होते हैं, अयोगी नहीं होते हैं । सयोगी होते है तो ये मनोयोगी, वचन योगी और काययोगी होते हैं। इसी प्रकार बकुस, प्रतिसेवनाकुशील, कषायकुशील और निग्रन्थ सयोगी होते है, अयोगी नहीं होते हैं। मनोयोगी, वचन योगी व काययोगी होते हैं । .९३.६ स्नातक में सिणाए णं-पुच्छा। गोयमा ! सजोगी पा होजा, अजोगी पा होज्जा। जइ सजोगी होज्जा किं मणजोगी होज्जा-सेसं जहा पुलागस्स । -भग० श २५ । उ६। पु०८४ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३१ ) स्नातक सयोगी भी होते हैं, अयोगी भी होते है। यदि सयोगी होते हैं तो वे मनोयोगी, वचनयोगी व काययोगी होते हैं । नोट-स्नातक में दो गुणस्थान है, तेरहवां सयोगी केवली है व चौदहवां अयोगी केवली है। .९४ अश्रुत्वा केवली में अश्रुत्वा केवली होने वाले जीव के अवधिज्ञान के प्राप्त करने की अवस्था में असोञ्चाणं भंते ! (विभंगे अण्णाणे सम्मत्तपरिग्गहिए खिप्पामेव ओही पराषत्तइ ) सेणं भंते। किं सजोगी होजा? गोयमा सजोगी होजा, नो अजोगी होज्जा ? जइ, सजोगी होज्जा, किं मणजोगी होज्जा ? पइजोगी होज्जा १ कायजोगी होज्जा ? गोयमा। मणजोगी वा होज्जा, वइजोगी चा होज्जा, कायजोगी षा होज्जा। -भग० श६ । उ ३१ । सू३६ अश्रत्वा केवली होने वाले जीव के विभंगज्ञान की प्राप्ति के बाद मिथ्यात्व के पर्याय क्षीण होते-होते, सम्यग्दर्शन के पर्याय बढ़ते-बढ़ते विभंगज्ञान सम्यक्त्व युक्त होता है तथा अतिशीघ्र अवधिज्ञान रूप परिवर्तित होता है। वह अवधिज्ञानी जीव सजोगी होता है, अजोगी नहीं। यदि सजोगी होता है तो यह मनोजोगी, वचन जोगी व कायजोगी होता है। .९५ श्रुत्वा केवली होने वाले जीव के अवधि ज्ञान प्राप्ति करने की अवस्था में (सोचाणं भंते xxx सेणं तेणं ओहीनाणेणं समुप्पन्नेणं x x x) सेणं भंते । कि खजोगी होज्जा ? अजोगी होज्जा ? गोयमा! सजोगी होज्जा नो अजोगी होज्जा। जइ सजोगी होज्जा, कि मणजोगी होज्जा १ घइजोगी होज्जा ? कायजोगी होज्जा ? गोयमा ! मणजोगी वा होज्जा, वइजोगी वा होज्जा, कायजोगी वा होज्जा। -भग• श ६ । उ ३१ । सू ५८ श्रुत्वा केवली होने वाले जीव के अवधिज्ञान की प्राप्ति होने के बाद वह अवधिज्ञानी जीव सयोगी होता है, अयोगी नहीं। यदि सयोगी होता है तो वह मनोयोगी, वचनयोगी तथा काययोगी होता है। .९६ के सभी पाठ भगवती अ०२४ से लिए गये हैं। इस शतक में स्व/पर योनि से स्व/पर योनि में उत्पन्न होने वाले योग्य जीवों का नौ गमकों Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३२ ) तथा उपपात के अतिरिक्त निम्नलिखित बीस विषयों से विवेचन हुआ है : १- स्थिति ४ - शरीरावगाहना ७- दृष्टि १० - उपयोग १३ - इन्द्रिय १६ – वेद १९ - कालादेश तथा २ - संख्या ५- संस्थान ८- ज्ञान ११ - संज्ञा १४- समुद्घात १७ - कालस्थिति २०- भवादेश ३- संहनन ६- लेश्या - योग ९ १२- कषाथ १५ - वेदन १८ - अध्यवसाय हमने योग की अपेक्षा से पाठ ग्रहण किया है। गमकों का विवरण नीचे में देखें । .९६ किसी एक योनि से स्व/ पर योनि से उत्पन्न होने योग्य जीवों में कितने योग १ . ९६.१ रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जीवों में : १ - इस विवेचन में निम्नलिखित नौगमकों की अपेक्षा से वर्णन किया गया है : (१) उत्पन्न होने योग्य जीव की औधिक स्थिति तथा उत्पन्न होने योग्य जीव स्थान की औधिक स्थिति | (२) उत्पन्न होने योग्य जीव की औधिक स्थिति तथा उत्पन्न होने योग्य जीव स्थान की जघन्य काल स्थिति । (३) उत्पन्न होने योग्य जीव की औधिक स्थिति तथा उत्पन्न होने योग्य जीव स्थान की उत्कृष्ट काल स्थिति । (४) उत्पन्न होने योग्य जीव की जघन्य स्थिति तथा उत्पन्न होने योग्य जीब की औधिक स्थिति | (५) उत्पन्न होने योग्य जीव की जघन्य स्थिति यथा उत्पन्न होने योग्य जीव की जघन्य काल स्थिति | (६) उत्पन्न होने योग्य जीव की जघन्य काल स्थिति तथा उत्पन्न होने योग्य जीव स्थान की उत्कृष्ट काल स्थिति । (७) उत्पन्न होने योग्य जीव की उत्कृष्ट काल स्थिति तथा उत्पन्न होने योग्य जीव स्थान की औधिक काल स्थिति । (८) उत्पन्न होने योग्य जीव की उत्कृष्ट काल स्थिति तथा उत्पन्न होने योग्य जीव स्थान की जघन्य काल स्थिति । (६) उत्पन्न होने योग्य जीव की उत्कृष्ट काल स्थिति धथा उत्पन्न होने योग्य जीव स्थान की उत्कृष्ट काल स्थिति । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३३ ) .९६.१.१ पयांत असंही तिर्यच पंचेन्द्रिय योनि से रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १:-पयांत असंक्षी पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि से रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने जो जीव है (पजत्ता असन्नि पंचिंदियतिरिक्ख-जोणिए गं भंते ! जे भधिए रयणप्पभाए पुढवीए नेरइएसु उववजित्तए xxx तेणं भंते ! जीवा । किं मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी। गोयमा णो मणजोगी वयजोगी घि कायजोगी घि) वे मनयोगी नहीं है। वचनयोगी तथा काययोगी है। --भग० श २४ । उ २ । सू १५ गमक २-पर्याप्त असंशी पंचेन्द्रिय तिर्य च योनि से जघन्य (स्थान) स्थितिवाले रत्नप्रभा पृथ्वी से उत्पन्न होने योग्य जो जीव है (पजात्ता असन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते। जे भषिए जहन्नकालढिईएसु रयणप्पभापुढविनेरइएसु उवधज्जित्तए xxxतेणं भंते। xxxएवं सच्च व वत्तव्वया निरषसेसा भाणियन्वा । ) वे मनोयोगी नहीं होते हैं, वचनयोगी तथा काययोगी होते है। -भग० श २४ । उ १ । सू २८-२९ गमक ३-पर्याप्त असंशी पंचेन्द्रिय तियच योनि से उत्कृष्ट स्थिति वाले रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकों में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( पजत्ता असन्नि पंचिंदियतिरिक्त जोणिए णं भंते। जे भषिए उक्कोसकालहिइएमु रयणप्पभापुढविनेरइएसु उवधज्जित्तए xxx तेणं भंते ! जीवा० अवसेसं तं चेष, जावअनुबंधो ) वे मनोयोगी नहीं होते हैं, वचनयोगी व काययोगी होते हैं । -भग श २४ । उ १ । सू३१, ३२ गमक ४-जघन्य स्थिति वाले पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि से रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है (जहन्न काल द्विइय पजत्ता असम्नि पंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भषिए रयणप्पयापुढविनेरइएसु उषषजित्तए xxx तेणं भंते । x x x सेसं तं चेव ) वे मनोयोगी नहीं होते है, वचनयोगी तथा काययोगी होते है। -भग० श २४ । उ १ । सू । ३७, ३८ गमक ५-जघन्य स्थिति वाले असंशी पंचेन्द्रिय तिथंच योनि से जघन्य स्थिति बाले रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है (जहन्न कालटिईय पजत्ता असन्नि पंचिंदियतिरिखजोणिए णं भंते ! जे भविए जहन्नकालाढिईएम 1 . Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ) रयणप्पभापुढपिनेरइएमु उपजिसएxxx ते णं भंते ! जीवा सेसं तं चेव) उनमें मनोयोग नहीं होता है परन्तु वचनयोगी व काययोगी होते हैं। -भग श २४ । उ १ । सू३७, ३८ गमक ६-जघन्य स्थिति वाले पर्याप्त असंशी पंचेन्द्रिय तियंच योनि से उत्कृष्ट स्थिति वाले रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( जहन्नकालटिईय पजत्ता जाप तिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए उक्कोसकालहिईएसु रयणप्पभापुढषिनेरइएसु उववजित्तएxxx तेणं भंते ! जीवा अबसे तं चेष) उनमें मनोयोग नहीं होता है परन्तु वचनयोग काययोग होता है । गमक ७-उत्कृष्ट स्थिति वाले पर्याप्त असंशी पंचेन्द्रिय तियंच योनि से रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( उक्कोसकालढिईय पजत्त-असम्नि पंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जे मषिए रयणप्पभापुढषिनेरहएसु उपवजित्तएxxx ते णं भंते! जीवाxxx अवसेसंजहेव ओहियगमएणं तहेष मणुगंतम्बं) उनमें मनोयोग नहीं होता है तथा वचनयोग तथा काययोग होता है। गमक-उत्कृष्ट स्थिति वाले पर्याप्त असंही तियच योनि से रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है (डक्कोसकालडिईय पजत्त असन्नि पंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढविनेरइएसु उपजित्तए xxxते णं भंते ! जीवाxxx सेसं तं घेव, जहा सत्तमगमए ) उनमें मनो. योगी नहीं होते है, वचनयोगी तथा काययोगी होते है । -भग० श २४ । उ १ । सू ४६, ४७ गमक ९-उत्कृष्ट स्थिति वाले पर्याप्त असंशी पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि से उत्कृष्ट स्थिति वाले रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( छक्कोसकालडिईय पजत जाप तिरिक्खाजोणिए णं भंते ! जे भषिए उक्कोसकालढिईएसु रयण जाव उपजित्तए x x x तेणंभंते ! जीवाxxx सेसं जहासत्तमगमए) उनमें मनोयोग नहीं होता है तथा वचनयोगी काययोगी होते हैं। ९६१.२ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु पाले संक्षी पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि से रत्नप्रमा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जीवों में : गमक १-पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संशी पंचेन्द्रिय तियच योनि से रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( पजत्त संखेज्जवासाउय Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३५ ) सन्निपंचिदियतिरिकख जोणिए णं भंते! जे भषिए रयणप्पभापुढबिने रहरसु उवज्जित्तए x x x तेणं भंते ! xxx जोगो तिविहो षि) उनके तीन योग होते हैं । भग० श २४ । उ १ । सू५५, ५६ गमक २ - पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच योनि से जघन्य काल स्थिति वाले रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( पज्जत्तसंखेज्ज० जाव जे भविए जहन्नकाल XX X ते णं भंते जीवा एवं सो व पढमगमओ निरवसेसो भाणियन्वो ) उनके तीनों योग होते हैं । -भग० श २४ । उ १ । सू ६१-६२ गमक ३ - पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि से उत्कृष्ट स्थिति वाले रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( सो चेव उकोस कालट्ठिएसु उववन्नो XXX अवसेसो परिमाणादीओ भवापस पज्जवसाणो सो वेब पढमगमओ णेयम्चो ) उनमें तीनों योग होते हैं । - भग० श २४ | उ १ | सू ६३ गमक ४ - जघन्य स्थिति वाले पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि से रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( जहन्नकालट्ठिईय पज्जत्तसंखेज्जवासा उवसन्नि पंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भषिए रयणप्पभापुढवि० जाव उबवज्जिन्तर x x x तेणं भंते ! x x x अवसेसं जहा पढमगमए XXX ) उनमें तीनों योग होते है । गमक ५ - जघन्य स्थिति वाले पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तियच योनि से जघन्य स्थिति वाले रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( सो वे जहन्नकालट्ठिईएस उषचन्नो x x x तेणं भंते ! एवं सो वेव वत्थो गमओ निरवसेसो भाणियग्यो ।) उनमें तीनों योग होते हैं । -भग० श २४ । ३१ । ६४ से ६६ गमक ६ - जघन्य स्थिति वाले पर्याप्त संख्यात वर्ष की तियच यनि से उत्कृष्ट स्थिति वाले रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में जीव है ( सो चे उक्कोसका लट्ठिएसु उवषन्नो x x x तेणं भंते ! aa त्यो गमओ निरवसेसो भाणियम्बो ) उनमें तीनों योग होते है । आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय उत्पन्न होने योग्य जो एवं सो वेष - भग० श २४ । उ १ । सू ६७ गमक ७ - उत्कृष्ठ स्थिति वाले पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संशी तियंच पंचेन्द्रिय योनि से रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( उक्कोस Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६ ) कालहिईय पज्जत्तसंखेज्जवासउय० जाव तिरिक्ख जोणिए णं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढधिनेरइएसु उववज्जित्तएxxx तेणं भंते ! जीवा अषसेसो परिमाणादीओ भवाएसपज्जवसाणो एएसि चेव पढमगमओ णेवग्यो) उनमें तीनों योग होते हैं। -भग० श २४ । उ १ । सू६६, ६६ ९६१३ पर्याप्त संख्यात वर्ष का आयु वाले संक्षी मनुष्य से रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जीवों में : गयक १-९-पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्य से रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसन्निमणुस्से र्ण भंते ! जे भविए रयणप्पभाए पुढवीए नेरहएसु उवधज्जित्तए x x x तेणं भंते ! एवं सेसं जहा सन्निचिदियतिरिक्खजोणियाणंजाव भवाएसोत्ति गमक १ सोचेव जहन्नकालढिईएसु उववन्नो-एसचेववत्तव्यया। गमक २ सोचेष उक्कोसकालटिईएसु उघवन्नो-एसचेवपत्तव्वया । गमक ३ सोचेव अप्पणा जहन्नकालढिईओ जाओ एसवत्तब्धया। गमक ४ सोचेष जहन्नकाल टिइएसु उपधन्नो-एस चेष वत्तव्वया चउत्थगमग सरिसा नेयव्वा । गमक ५ सोचेव उक्कोसकालटिइओ उपवन्नो एसचेव गमगो६ सोचेव अप्पणा उक्कोसकालढिइओजाओ, सोचेव पढमगमओ णेयव्यो । गमक सोचेव जहन्नकालटिईएसु उववन्नो सच्चेव सत्तमगमगवत्तव्यया गमक ८ सोचेष उक्कोसकालढिईएसु उवधन्नो, सच्चेष सत्तमगमग पत्तव्धया गमक ९) उनमें नव ही गमको में तीनों योग होते हैं। -भग• श २४ । उ १ । सू६१ से १६० गमक ९-उत्कृष्ट स्थिति वाले पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संशी पंचेन्द्रिय योनि से उत्कृष्ट स्थिति वाले रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है (उक्कोसकालट्टिईयपज्जत्त० जाव-तिरिक्खजोणिए णं भंते जे भषिए उक्कोसकालढिईय० जाव उववज्जित्तएxxx तेणं भंते ! जीषा० सोचेष सत्तमगमओ निरवसेओ भाणियन्वो। उनमें मनोयोगी नहीं होते हैं, वचन योगी काययोगी होते है। -भग• श २४ । उ १ । सू ७२-७३ गमक ९-उत्कृष्ट स्थिति वाले पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संशी तिर्यच पंचेन्द्रिय योनि से जघन्य स्थिति वाले रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( सोचेव जहन्नकालटिईएसु उवषन्नोxxx तेणं भंते ! जीषा सोचेष Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३७ ) सत्तमो गमओ निरवसेलो भाणियन्यो) उनमें मनोयोगी नहीं होते हैं, वचनयोगी व काययोगी होते हैं। -भग श २४ । उ १ । सू ७१ ९६२ शर्करा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जीवों में .९३२.१ पर्याप्त संख्यात् वर्ष की आयु पाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि से शर्कराप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जीवों में : गमक १९-पर्याप्त संख्याव वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्य च योनि से शर्करा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( पज्जत्त संखेज्जवासा उयसन्निपंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए सक्करप्पमाए पुढवीए नेरइएसु उपवज्जित्तर xxxतेणं भंते! जीवाx x x एवंजहेव रयणप्पभाए उववज्जंत ( गम) गस्स लद्धी सच्चेव निरवसेसा भाणियव्वाx xxएवं रयणप्पभापुढविगमगा सरिसा णवषि गमगा भाणियव्वा xxx ) उनमें तीनों योग होते हैं। भग• श २४ । उ १ । सू ७४-७५ ९६२२ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संही मनुष्य से शर्करा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जीवों में : गमक १९-पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्य से शर्करा प्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( पजत्तसंखेजवासाउयसन्नि मणुस्से णं भंते ! जे भषिए सक्करप्पभाए पुढवीए नेरइएसु-जाघ-उववजित्तए xxx तेणं भंते । सो चेव रयणप्पभापुढधिगमओ णेवव्यो । एवं एसा ओहिए सुतिसु घि गमएसु मणुसस्सलद्धीxxx। सो चेव अप्पणा जहन्नकालढिईओ जाओ तस्स वि तिसु वि गमएसु एस चेष लद्धीxxx। सो चेव अप्पणा उक्कोसकालाडिईओ जाओ तस्सवि तिसुवि गमएसुxxx सेसं जहा पढमगमए ) उनमें तीनों योग होते हैं। -भग० श २४ । उ १ । सू १०१-१०४ ९६३ बालुका प्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जीवों में :९६३१ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु पाले संज्ञी तिथंच पंचेन्द्रिय योनि से वालुका प्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जीवों में : गमक १ से ९-पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संशी पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि से वालुका प्रमा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( पजत्तसंखेज Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३८ ) घासाउयसन्नि पंचिंदियतिरिक्ख जोणिए णं भंते! जे भषिए सक्करप्पभाए पुढवीए नेरइएसु उववजित्सए xxxतेणं भंते! जीवा x x x एवं जहेव रयणप्पभाए उवषज्जंतग (मग) एस लद्धी सच्चेष निरवसेसा भाणियव्वा जाव-भषाएसो' त्ति। xxx एवं रयणप्पभपुढविगमसरिसा णवहि गमगा भाणियव्वोxxx एवं जाव छटपुटवि त्ति ) उनमें तीनों योग होते हैं । -भग° श २४ । उ १ । सू ७४-७५, .९६३१-गमक १ से ९--पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संशी मनुष्य से बालुका प्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( पजत्तसंखेजपासाउयसन्निमणस्से णं भंते ! जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए नेरइए सु जाव-उववजित्तए x x x तेणं भंते । सो चेव, जाव-भवाएसो त्ति x x x एवं एसा ओहिएसु तिसु गमए सु मणुसस्स लद्धी x x x। सो चेव अप्पणा जहन्नकाल द्विइओ जाओ, तस्सवि तिसुधि गमएसु एस चेव लद्धी। x x x सेसं जहा ओहियाणं सो चेव अप्पणा उक्कोसकालढिईओ जाओ। तस्सधि तिसुधि गमएसुx xx सेसं जहा पढमगमए ।xxx। एवं जाव छ? पुढवि) उनमें नव ही गमकों में तीनों योग होते हैं। -भग० श २४ । उ १ । सू १०१-१०४ ९६४ पंक प्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जीवों में : •९६४.१ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संशी पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि से पंक प्रमा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( देखो पाठ ६६३१) उनके तीनों योग होते हैं। -भग० श २४ । उ १ । सू ७४-७५ '१६'४.२ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु पाले संही मनुष्य से पंक प्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जीवों में : गमक १ -पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु पाले संझी मनुष्य से पंकप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य नो जीव है ( देखो पाठ ६६३२) उनमें तीनों योग होते हैं। -भग श २४ । उ १ । सू १०१-१०४ ६६५ धूम प्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जीवों में :१६५१ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संक्षी पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि से Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६ धूम प्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है (देखो *६६३१ ) उनके तीनों योग होते हैं । - भग० श २४ । उ १ । सू ७४-७५ '६६५२ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्य से धूम प्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है (देखो ६६३२) उनमें तीनों योग होते है । -भग० श २४ । उ १ । सू १०१-१०४ '६'६ तमप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जीवों में '६६'६'१ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी तिर्यच पंखेन्द्रिय योनि से तमप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य को जीव है (देखो ६६ ३१ ) उनमें तीन योग होते हैं । -भग० श २४ । १ । सू ७४-७५ '६६'६'२ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्य से तमप्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है । उनमें तीनों योग होते है । (देखो ६६०३२) -भग० श २४ । उ १। सू १०१-१०४ '९६७ तमतमा प्रभा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जीवों में :९६७१ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी तियंच पंचेन्द्रिय योनि से तमतमा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव हैं ( पजत्तसंखेजवा साउयं जे भविए असत्तमाए पुढबीए जीवा एवं जहेब रयणप्पभाएणव उनमें तीन योग होते है । जाब- तिरिषख जोणिए णं भंते! नेरइपसु उववजित्तए । तेणं भंते ! गमगा लद्धी व सच्चेष । x x x ) -भग० श २४ । उ १ । सू ७६-८६ ·९६'७·२ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्य से तमतमा पृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( पजत्तसंखेजवासाज्यसन्निमणुस्से णं भंते! जे भषिए अहेसत्तभाए पुढवि नेरइएसु उबवजित्तए × × × ते भंते! जीवा X X x अवसेसो सोचेघसक्करप्पभापुढविगमओ वो xxx ) उनमें तीनों योग होते हैं । ९६८ असुरकुमार देवों में उत्पन्न होने योग्य अन्य गति के जीवों में :'९६'८'१ पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच योनि से असुर कुमार देवों में उत्पन्न होने योग्य Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४० ) जो जीब है ( पजत्तअसन्निपंचिदियतिरिषख जोणिए णं भंते! जे ? भविए असुरकुमारेसु उवधिज्जित्तए XXX तेणं भंते ! जीवा ! एवं रणभागमगसरिसा णववि गमा भाणिवन्वा x x x अवसेसं तं ) उनमें तीनों योग होते हैं । -भग० श २४ । २ । सू २-३ '९६'८२. असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय योनि से असुरकुमार देवों में उत्पन्न होने योग्य जीबों जो जीव है ( असंखेजवा साउयसन्निपंचिदियतिरिक्ख जोणिए णं भंते! जे भविए असुरकुमारेसु उवषज्जित्तए x x x तेणं भंते ! जीवा पुच्छा x x x जोगो तिविहे × × × ) उनमें योग तीनों होते हैं । -भग० श २४ । उ २ । सू ५-१५ '९६'८'३ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि से असुरकुमार देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में :--- गमक १ से ९ - पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुवाले संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनि से असुरकुमार देवों में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( पजत्तसंखेजवा साउथ सम्निपचिदियतिरिक्ख जोणिए णं भंते! जे भविए असुरकुमारेसु उवषजित्तए × × × तेणं भंते ! जीवा X Xxएवं एएसि रयणप्पभपुढ विगमगसरिसा नव गमगा णेयव्वा x x x 1 ) उनमें तीनों योग होते हैं । - भग० श २४ । २ । सू १६, १७ '९६'८४ असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्य से असुरकुमार देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में : गमक १ से ९ - असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्य से असुरकुमार देवों में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( असंखेजवालाउयसन्नि मणुस्से णं भंते ! जे भबिए असुरकुमारेसु उवचज्जित्तए xxx एवं असंखेज्जघा साउयतिरिक्ख - जोणिय सरिसा आदिल्ला तिन्नि गमगा णेयव्वा XXX ) उनमें तीनों योग होते हैं । -भग० श २४ । २ । सू २०-२२ '९६°८'५ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्य से असुरकुमार देवों में उत्पन्न होने योग्य जीत्रों में ( पज्जत्तसंखेज्जवासाज्यसन्नि मणुस्से णं भंते! जे भषिए असुरकुमारेसु उववज्जित्तए XXX तेणं भंते ! जीवा ? एवं जब एएसिं रयणप्पभाए उववज्जमाणाणं णच गमगा तहेब इह विणय Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४१ ) गमगा भाणियचा xxx सेसंत चेष) उनमें नौ गमकों में तीन योग होते है। -भग० श २४ । उ २ । सू २४-२५ .९६६ नागकुमार यावत् स्तनित देषों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में :१६.६१ पर्याप्त असंशी तिथंच पंचेन्द्रिय योनि से नागकुमार से स्तनित देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में ( नागकुमारा णं भंते ! xxx जहतिरिक्त एवं जहा असुरकुमाराणं पत्तब्धया तहाएएसि पि जाब-'असन्नित्ति) उनके नव गमकों में मनोयोग नहीं होता है, वचनयोगी-काययोगी होते हैं। '१६९.२ असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि से नागकुमार से स्तनित देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में ( असंखेज्जवासाउय-सण्णिपंचिंदिय तिरिक्ख जोणिए णं भंते! जे भविए असुरकुमारेसु उवषज्जित्तप xxx जोगो तिविहो घि xxx1) उनमें तीनों योग होते है। -भग• श २४ । उ ३ । सू ४-६ ९६९३ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि से नागकुमार देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में (पजत्तसंखेज्जवासाउय० जाष जे भषिए नागकुमारेसु उपवजित्तए xxx एवं जहेच असुरकुमारेसु उपवजमाणस्स वत्तव्वया तहेव इहविणवसुवि गमएसु x x x सेसं तं वेष ) उनके नव गमकों में तीनों योग होते हैं। ९६९.४ असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्य से नागकुमार देवों में होने योग्य जीवों में ( असंखेजवासाउयसन्नि मणुस्से गं भंते ! जे भविए नागकुमारेसु उववजित्तए xxx एवं जेहव असंखेजवासाउयाणं तिरिक्तजोणियाणं नागकुमारेसु आदिल्ला तिन्नि गमगा जहेव इमस्स पि। xxx) उनके नव गमकों में तीनों योग होते हैं। - भग० श २४ । उ ३ । सू १३, १५ ९६९.५ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संशी मनुष्य से नागकुमार देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में (पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसन्निमणुसे णं भंते ! जे भषिए नागकुमारेसु उपज्जित्तए xxx एवं जहेव असुरकुमारेसु उषषज्जमाणस्स सच्चेष छट्ठी लद्धि निरवसेला नवसु गमएसुxxx) उनके नव गमकों में तीनों योग होते हैं। -भग• श २४ । उ३ । सू १७ ३१ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४२ ) '९६ ९१ सुवर्णकुमार यावत् स्तनितकुमार देवों में उत्पन्न होने योग्य नागकुमार देवों की तरह जो पाँच प्रकार के जीव हैं ( अवसेला सुवन्नकुमाराई जाव थणियकुमारा एए अट्ठवि उद्देसगा जहेव नागकुमारा तहेव निरवसेसा भाणियव्या) उन पांचों ही प्रकारके जीव- १ असंज्ञी तियंच पंचेन्द्रिय में मनयोग नहीं है । वचन - काययोग है अवशेष चार प्रकार के जीव ( संज्ञी तिर्यच पंचेन्द्रिय २, संज्ञी मनुष्य २ ) में तीनों योग होते हैं । - भग० श २४३ ४-११ ९६ १० पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में ९६ ११ स्वयोनि से पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में - गमक १ - ९ – (पुढषिक्काइए णं भंते ! जे भधिए पुढविक्काइएसु उववज्जितर x x x तेणं भंते । जीवा x x x णो मणजोगी, णो वइजोगी, कायजोगी x x x 1 ) उनमें नव ही गमकों में मनोयोग तथा वचनयोग नहीं होता है परन्तु काययोग होता है । - भग० श २४ । उ १२ । सू ३-१३ 1 ९६ १०२ अकायिक योनि से पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों मेंगमक १-९-- आउक्काइए णं भंते । जे भषिए पुढषिकाइए उपवजित्तए XXXI एवं पुढविक्वाइय गमगा सरिसा नव गमगा भाणियम्बा xxx ) इनमें एक काययोग होता है । ९६ १०३ अग्निकायिक योनि से पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों मेंगमक १- ९ - ( जइ तेडक्काइप हितो उववज्जंति० तेडक्काइयाणं वि एस येव वक्तव्वया x x x ) उनमें काययोग होता है । - भग० श २४ । उ १२ । सू १६ ९६ १०४ वायुकायिक योनि से पृथ्वी कायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों मेंगमक १-९–( जइ वाउक्काइए हितो० १ बाउक्काइयाणं वि एवं चेच णव ? गमगा जव उक्काइयाणं । x x x 1 ) उनमें केवल काययोग होता है । - भग० श २४ । उ १२ । स् १७ ९६ १०५ वनस्पतिकायिक योनि से पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में ( जर वणस्सइकाइए हितो उववज्जंति ? वणस्सइकाइयाणं आल्काइयगमगसरिसा णव गममा भाणिणाचा ) उनमें एक काययोग होता है । - भग० श २४ । उ १२ । सू १८ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४३ ) ९६१०.६ द्वीन्द्रिय से पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में (बेई दिए णं भंते। जे भविए पुढधिक्काइएसु उववजित्तए x x x तेणं भंते ! xxx (णो मणजोगी ववजोगी घि, कायजोगी yि xxx1) णो मनजोगी णो वयजोगी कायजोगी xxx उनमें मनोयोगीxxx नहीं होते वचनयोगी है काययोगी होते है । चौथे-पाँचवें छ? तीन गमकों में काययोगी होते हैं वचनयोगी नहीं होते है। -भग० श २४ । उ १२ । सू २०-२५ नोट-अपर्याप्त द्वीन्द्रिय में काययोग होता है, वचनयोग-मनोयोगी नहीं होते है। यहाँ जघन्य स्थिति है। ९६१०७ त्रीन्द्रिय से पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में (जइ तेई. दिएहितो उववज्जंति० एवं चेव नव गमगा भाणियब्धा xxx ) उनमें काययोगी व वचनयोगी होते हैं । परन्तु मध्यम तीन गमकों में वचनयोगी मनोयोगी नहीं होते हैं काययोगी होते हैं। -भग० श २४ । उ १२ । सू २६ •९६१०.८ चतुरिन्द्रिय से पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में (जइ चडरिदिएहितो उपवजंति० एवं चेव चउरिदियाणं वि नव गमगा भाणियव्या xxx ) उनमें वचनयोगी व काययोगी होते हैं। मध्यम तीन गमकों में काययोगी होते हैं, वचनयोगी मनोयोगी नहीं होते हैं। -भग० श २४ । उ १२ । सू २७ ९६.१०.९ असंशी पंचेन्द्रिय तियं च योनि से पृथ्बीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में ( असन्निपंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भषिए पुढिषिक्काइएसु उषवजित्तएxxx तेणं भंते ! जीवा० एवं जहेव बेइं दियाए ओहियगमए लद्धी तहेव xxx सेसं तं चेव) उनमें छहों में बचनयोगी-काय योगी होते है। चौथे-पाँचवें-छठे गमक में काययोगी होते हैं वचनयोगी मनोयोगी नहीं होते हैं। -भग० श २४ । उ १२ । सू । ३. ९६.१०.१० संख्यात वर्ष की आयु वाले संशी पंचेन्द्रिय तिथंच योनि से पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( जइ संखेज्जवासाउय सन्निपंचिदियतिरिक्ख-जोणिए०) x xx तेणं भंते ! जीया xxx एवं जहा रयणप्पभाए उववजमाणस्स सन्निस्स तहेव इहषि xxx1) उनमें तीनों योग होते हैं। लेकिन पृथ्वीकायिक जीवों में काययोग होता है। मध्यम तीन गमकों में काययोगी होते हैं, वचनयोगी-मनोयोगी नहीं होते है। -भग श २४ । उ १२ । सू३३-३४ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४४ ) .९११०.११ असंज्ञी मनुष्य से पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में ( असन्निमणुस्से णं भंते ! जे भविए पुढषिकाइएसु सेणं भंते xxx एवं जहा असण्णिपंचिदियतिरिक्खजोणियस्स जइण्णकालाढिईयस्स तिन्नि गमगातहा एयस्स वि ओहिया तिण्णि गमगा भाणियब्धा तहेष णिरषसेस, सेसा छण भण्णंति ) उनमें एक काययोग होता है। -भग० श २४ । उ १२ । सू३६ ९६१०.१२ संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्य से पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में (सन्निमणुस्से णं भंते । जे भविए पुढधिक्काइएसु उपवजित्तएxxx तेणं भंते! जीवा० एवं जहेव रयणप्पभाए उषवजमाणस्स तहेवतिसु वि गमएसु लद्धीxxxl) उनमें तीनों योग होते है। मध्यम तीन गमकों में काययोगी होते हैं परन्तु मनोयोगी व वचनयोगी नहीं होते हैं। -भग० श २४ । उ १२ । सू३, ६, ४. ९६१०.१३ असुरकुमार देवों से पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में ( असुरकुमारे णं भंते ! जे भविए पुढविक्काइएसु उपवजित्तएxxx तेणं भंते ! जीवाणं xxx । जोगो तिधिहा वि xxx1) उनमें तीनों योग होते है। -भग० श २४ । उ १२ । सू ४३,४७ १६१०.१४ नागकुमार यावत् स्तनितकुमार देवों से पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में ( नागकुमारे णं भंते ! जे भविए पुढविष्काइएसु एस चेष पत्तव्धया जाव 'भवाएसो' त्ति x x x ) उनमें तीनों योग होते हैं । -भग० श २४ । उ १२ । सू ४८ '१६१०.१५ वाणव्यंतर देवों से पृथ्वीकायिक जीवों से उत्पन्न होने योग्य जीवों में पाणमंतर देवे णं भंते! जे भविए पुढविष्काइएसु एएसिषि असुरकुमारगमगा णव गमगा भाणियव्वा xxx सेसं तहेव ) उनमें तीनों योग होते हैं। -भग० श २४ । उ १२ । सु५. "१६१०.१६ ज्योतिषी देवों से पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में (जोइसिए देवे णं भंते ! जे भविए पुढषिष्काइएसु लद्धी जहा असुरकुमारा ।xxx) उनमें तीनों योग नव गमकों में होते हैं । -भग० श २४ । उ १२ । सू ५२ १६.१०.१७ सौधर्म कल्पोपपन्न वैमानिक देवो से. पृथ्वीकायिक-जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४५ ) "१६१०१८ ईशान कल्पोपपन्म वैमानिक देवों से पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में (सोहम्मे णं भंते! जे भविए पुढविषकाइयएसु उपवज्जित्तए xxx एवं जहा जोइसिय गमगोxxx । ईसाणदेवे णं भंते ! जे भविएxxx एवं ईसाणदेवेण वि णव गमगा भाणियधा xxx) उनमें तीनों योम होते हैं। -भग० श २४ । उ १२। सू५५ ६.११ अप्कायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में स्व-पर यौनि से अप्कायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में ( आउकाइया णं भंते! कओहिंतो उववज्जति ? एवं जहेष पुढविष्काइयउद्देसए जाधxxx) उनके सम्बन्ध में पृथ्वीकायिक के विषय में कहा-वैसा कहना ? -भग• श २४ । उ १ । सू १ १६१२ अग्निकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में ( तेउक्काइया णं भंते ! कओहितो उपधज्जति । एवं जहेव पुढविक्काइयउद्देसगसरिसो उद्देसो भाणियब्यो। नवरंxxx देवेहितो ण उववज्जति, सेसं तं चेव) उनके विषय में कायकी अपेक्षा पृथ्वीकायिक जीवों के उद्देशक में जैसा कहा-वैसा कहना । देव उत्पन्न नहीं होते है । -भग० श २४ । उ १४ । सू १ '१६१३ स्व-पर योनि से वायुकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में (वाउपकाइया णं भंते ! कओहितो उपधज्जति एवं जहेव तेउपकाइयउद्देसमो तहेष xxx) -भग० श २४ । उ १५ । सू' उनके सम्बन्ध में योग की अपेक्षा अग्निकायिक उद्देशक में जैसा कहा-वैसा ही कहना। "१६१४ चनस्पतिकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १६-स्व पर योनि से वनस्पतिकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में ( वणस्सइकाइया णं भंते !x x x एवं पुढविषकाइयसरिसो उद्देसो) उनके सम्बन्ध में योग की अपेक्षा पृथ्वीकायिक उद्देशक में जैसा कहा वैसा कहना । -भग० श २४ । उ १६ । सू १ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) ९६ १५ द्वीन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १९-बेइंदियार्ण भंते ! कओहितो उपधज्जति ? जाप पुढषिपकाइए णं भंते! जे भषिए बेइं दिएसु उपवज्जित्तएxxx सच्चेष पुढविकाइयस्स लद्धी x x x देवेसु नचेष उपजंति ) -भग श २४ । उ १७ । सू. १ उनके सम्बन्ध में योग की अपेक्षा पृथ्वीकायिक उद्देशक ( ६६१० ) में जैसा कहा वैसा ही कहना। १६.१६ त्रीन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १९-तेई दिया णं भंते ! कमोहितो उषषज्जति ? एवं तेइंबियाण जहेष बेइंदियाण उद्देसो। -भग• श २४ । उ १८ । सू१ उनके सम्बन्ध में योग की अपेक्षा द्वीन्द्रिय उद्देशक में जैसा कहा-वैसा ही कहना। "१६१७ चतुरिन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में चउरिदिया णं भंते ! कओहितो उपवज्जति एवं जहा तेई दियाणं उहेसओ तहेष चउरिदयाण घि -भग• श २४ । उ १६ । सू १ उनके सम्बन्थ में योग की अपेक्षा त्रीन्द्रिय उद्देशक में जैसा कहा-वैसा ही कहना। १६.१८ पंचेन्द्रिय तिथंच योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में '१६१८१ से ७ रत्नप्रभा नारकी से तमतमाप्रभा पृथ्वी के नारकी से उत्पन्न होने योग्य जीवों में रयणपमापुढविनेरइए णं भंते ! जे भषिए पंचिंदियतिरिक्खजोणिएनु उवषजित्तए xxxएवं सेसापिसत्तगमगा भाणियघा जहेष नेरइए उद्देसए सन्निपंचिदिएहि सम्म x x x | सक्करप्पभापुढविनेरइए णं भंते ! जे भविए. एबं जहा रयणप्पभाए णव गमगा तहेषसक्करप्पभाए पिxxx एवं जाप छहपुढपी x x x। अहेसत्तमाए पुढषीनेरइए णं भंते ! जेभषिए० एवं चेष णष गममाxxx। -भग• श २४ । उ २० । सू ३ से ५ उन सातों नारकी में तीनों योग होते हैं। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४७ ) *६६.१८'८ पृथ्वी कायिक जीवों से पंचेन्द्रिय तियंच पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होने योग्य जीवों में ( पुढविकाइए णं भंते ! जे भषिए पंचिदियतिरिषखजोणिएसु उधवजित्तर x x x तेणं भंते ! x x x सेसं तं चेच ) उनमें एक काययोग होता है । - भग० श २४ । उ२० । सू १० से १२ *९६·१८°६ अप्कायिक योनि से पंचेन्द्रिय तियंच योनि से उत्पन्न होने योग्य जीवों मेंगमक १-६ - पुढचिकाइए णं भंते! जे भविए पंविदियतिरिक्खजोणिएसु उवषजित्तए । XXX | तेणं भंते ! जीवा० १ x x x जहेव पुढषिक्काइपसु उवषजमाणाणं लदी तहेव सव्वत्थ Xxx ) उनमें एक काय योग होता है । — भाग श २४ । उ २० । १० से १२ '६६·१८'१० अग्निकायिक जीवों से पंचेन्द्रिय तियच योनि से उत्पन्न होने योग्य जो जीव है (देखो पाठ ६६ १८६) उनके नौ गमकों में एक काययोग होता है । - भग० श २४ । उ २० । सू १० से १२ . *६६·१८·११ वायुकायिक योनि में पंचेन्द्रिय तियंच योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में·६६°१८′१२ वनस्पतिकायिक योनि से पंचेन्द्रिय तियंच योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में उनके नौ ही गमकों में एक काययोग होता है (देखो ६६-१८-६ ) -भग० श २४ । उ२० । सू १०-१२ '६६ १८१३ द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय योनि से उत्पन्न होने योग्य जीवों में (देखो६६ १८६) '६६ १८१४ उनमें नौ ही गमकों में दो योग- काययोग-वचन योग होता है मध्यम तीन '६६·१८'१५ गमकों में केवल काय-योग होता है। भग० श २४ । उ २० । सु १०-१२ ·९६°१८′१६ असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच योनि से पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में - असग्निपं चिदयतिरिक्खओणिए णं भंते 1 जे भविए पंचेन्द्रियतिरिक्तजोणिएसु उवयजित्तए x x x तेण भंते ! अघसेसं जहेव पुढविक्काइए सु उबवज्जमाणस्स असन्निस्स तहेव निरवसेस जाव भवाएसोत्ति x x x 1 ) उनमें काययोग-वचनयोग होता है । लेकिन मध्यम तीन गमकों में केवल काययोग होता है । -भग० श २४ । उ० २० । सु १४-२२ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४८ ) *६६ १८१७ संख्यात वर्ष की आयुवाले संज्ञी तियंच पंचेन्द्रिय योनि से पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में -- संखेजवासा उयसन्निपंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु उवषजित्तए XX X तेणं भंते! अवसेसं जहा एयस्स चेव सन्निस्स रयणप्पभाए उववजमाणस्स पढमगमए XX X ) उनमें तीनों योग होते हैं । लेकिन मध्मम तीन गमकों में एक काययोग होता है । -भग० श २४ । उ २० । सू २५-३२ '६६·१८'१८ असंज्ञी मनुष्य योनि से पंचेन्द्रिय तियंच पंचेन्द्रिय योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १-३ - असन्निमणुस्से णं भंते! जे भविए पंचिंन्द्रियतिरिक्खजोणिपसु उववजित्तए XX X लद्वीसे तिसुवि गमपसु जहेब पुढबिषकाइपसु उववजमाणस्स X X X ) उनमें तीन गमकों में एक काययोग होता है । -भग० श २४ । उ २५ । सु ३४ *६६ १८१६ संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्य योनि से पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १-६ - सन्निमणुस्से णं भंते! जे भविए पंचिदियतिरिक्खजोणिपसु उचवजित्तए XX X तेणं भंते! लद्धी से जहा एयस्सेव सग्निमणुस्सस्स पुढविषकाइएसु उववजमाणस्स पढमगमए एस चेष वत्तव्वया x X X ) उनके छः ही गमकों में तीनों योग होते हैं। मध्यम तीन गमकों में केवल काययोग होता है । - भग० श २४ । उ २० । सू ३७-४४ *६६°१८′२० असुश्कुमार देवों से पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में - गमक १-६ - असुरकुमारे णं भंते! जे भविए पंचिदयतिरिषखजोणिएसु उपवजित्तए XX X | असुरकुमाराणं लद्धी गवसुचि गमएसु जहा पुढविक्काइएसु उबवजमाणस्स, एवं जाव ईसाणदेवस्स तहेब लद्धी । ) उनके नव गमकों में तीनों योग होते हैं । - भग० श २४ । उ २० । सू ४७ ·६६·१८°२१ नागकुमार यावत् स्तनितकुमार देवों से पंचेन्द्रिय तियंच योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में -- गमक १-६ - नागकुमारे णं भंते! जे भविए ? एस० चेष वक्तव्या xxx । एवं जाव यणियकुमारे) उनके नब ही गमकों में तीनों योग होते हैं । - भगः श २४ । उ२० । सू ४८ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४९ ) ·६६°१८२२ वाणव्यंतर देवों से पंचेन्द्रिय तिर्यं च योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १-६ - वाणमंतरे णं भंते ! जे भविए पंचिदियतिरिषखजोगिएसु ? एवं चेष ) उनके नौ ही गमकों में तीनों योग होते है । - भग० श २४ । उ २० । सू ५० ९६ १८२३ ज्योतिषी देवों से पंचेन्द्रिय तियंच योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १- ९ - जोइलिए णं भंते ! जे भषिए पंखिदियतिरिखजोणिए सु ? एस वेष वक्तव्वया जहा पुढविकाइउद्देसए । XXX ) उनके नौ ही गमकों में तीनों योग होते हैं । - भग० श २४ । उ२० । सू ५२ ९६ १८२४ सौधर्म कल्पोपन्न वैमानिक देवों से पंचेन्द्रिय तियंच योनि से उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १९ - सोहम्मे देवे णं भंते! जे भषिए पंचिदियतिरिक्खजोणिवसु उवषजित्तए Xxx सेसं जद्देव पुढविकाश्य उद्देसए नवसु षि गमएसु xxx ) उनके नव गमकों में तीनों योग होते हैं। - भग० श २४ । उ २० । सू ५४ *९६·१८'२५ ईशान कल्पोपन्न बैमानिक देवों से पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनि में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( x x x एवं ईसाण देवे वि) उनके नव गमकों में तीन योग होते हैं । - भग० श २४ । उ २० । सू ५.४ '९६'९८'२६ सनत्कुमार से सहस्रार कल्पोपन्न वैमानिक देवों से पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनि में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है । ईसाण देवे वि । एएणं कमेणं अवसेसा वि जाब सहस्रदेवेसु उबवायव्वा ) उनके नव गमकों में तीन योग होते हैं । भग० श २४ । उ २० । सू ५४ ९६१९ मनुष्य योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में'९६°१९१ रत्नप्रभा पृथ्वी से तमतमाप्रभा के नारकी से उत्पन्न होने योग्य जीवों में ( रयणप्पभापुढवि नेरइए णं भंते । जे भषिए मणुस्सेसु उषषज्जिसए × × × अवसेसा वक्तव्वया जहा पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु उचबज्जंतस तब xxx सेसं तं चेव x x x जहा रयणप्पभाए बत्तव्वया तहा लकरप्पभाए बिxxx एवं जाब तमापुढषि नेरइए ) उनके नौ ही गमकों मैं तीनों योग होते हैं । - भग० श २४ । उ २१ | सू २ ३२ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५० ) ९६१९२ पृथ्वी कायिक से वनस्पतिकायिक जीवों से मनुष्य-योनिक में उत्पन्न होने योग्य जीवों में - पुढविक्काइए णं भंते! जे भषिए मणुस्सेसु उबवजित्तए । तेणं भंते ! जीवा० ? एवं जहेच पंचिदियतिरिक्ख जोणिएसु उवषजमाणस्स पुढधिकाइयस्स वक्तव्यया सा वेष इह वि उवषजमाणस्स भाणियव्वा णवसु वि गमपसु x x x एवं आउक्कायाणं वि ( एवं षणस्सइकायस्स बि ।) उनके नव गमकों में एक काययोग होता है - भग० श २४ । उ २१ । सू ४-६ '९६ १६.३ द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय, असन्नि पंचेन्द्रिय से मनुष्य में उत्पन्न होने योग्य जीवों में एवं जाप वडरिंदियाणंषि । असन्निपंचिंदियतिरिषखजोणिए लण्णिपंचिदियतिरिक्खजोणिय असण्णिमणुस्स सण्णिमणुस्सा य एए सव्वेषि जहा पंचिदियतिरिषखजोणियउद्देसए तहेव भाणियब्बा xxx ) उनके छः गमकों में वचनयोग, काययोग होता है । मध्य के तीन गमकों में एक काययोग होता है। -भग० श २४ । २१ । सू ६ ‘९६१९°४ संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय योनि से मनुष्य योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में उनमें छः गमकों में तीनों योग होते हैं । मध्य के तीन गमको में केवल काययोग होता है । - भग० श २४ । २१ । सू ६ *६६ १६५ असंज्ञी मनुष्य से मनुष्य योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में - उनमें एक काय-योग होता है । - भग० श २४ | उ २१ | सू ६ ६६ १६ ६ संज्ञी मनुष्य से मनुष्य योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में - उनमें तीनों योग होते है । - भग० श २४ । २१ । स् ६ *९६ १९ ७ असुरकुमार ने स्तानितकुमार, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक ( सौधर्म वे सहस्रार ) देवों से मनुष्य में उत्पन्न होने योग्य जीवों में असुरकुमारे णं भंते! जे भविए मणुस्सेसु उवषजित्तए x x x एवं जब पंचिदियतिरिक्खजोणिए उद्देसर वक्तव्धया सच्चेव एत्थ वि भाणियन्वा xxx सेसं तं शेष । एवं जाव ईसाण देवो । न्ति । x x x सत्क्कुमारा 1 दीया जाच सहस्रारो त्ति x x x ) उनमें तीनों योग होते हैं । - भग० श २४ । २१ । सू ६ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५१ ) ९६१९.४ आनत यावत अच्युत ( आनंत, प्राणत, आरण-अच्युत) देवों से मनुष्य योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में आणय देवे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उपजित्तए xxx तेणं भंते ! एवं जहेष सहस्सारदेषाणं पत्तव्धया xxx सेसं तं चेव xxx एवं णव वि गमगा.xxx एवं जाप अच्चुयदेवोxxx) उनके नौ गमकों में ही तीनों योग होते हैं। --- भग• श २४ । उ २१ । सू १०.११ ६.१६६ ग्रेवेयक कल्पातीत ( नौ अवेयक ) देवों से मनुष्य योनि में उत्पन्न होने योग्य जीबों में गमक १-६-गेवेन्जग देवे णं भंते ! जे भधिए मणुस्सेतु उवषजित्तए xxx अपसेसं महा आणयदेवस्स बत्तव्यया xxx सेसंत चेव xxx एवं सेसेसु वि अट्ठगमएसु) उनके नौ गमकों में ही तीनों योग होते हैं । - भग० श २४ । उ २१ । सू १४ १६१९१० विजय वैजयन्त, जयत्त, अपराजित तथा सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक कल्पातील देवों से मनुष्य योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में विजय, वेजयंत, जयंत, अपराजिय देवे णं भंते! जे भषिए मणुल्सेतु उववज्जित्तए xxx एवं जहेच गेवेजग देवाणंxxxएवं सेसा पि अडगमगा भाणियषाxxxसेसं तं चेव । सम्वट्ठसिद्धगदेवे णं भंते १ जे भधिए मणुस्सेसु उषषजित्तए.१ सा चेष विजयादि देष बत्तन्वया भाणियव्वा ।xxx। -भग० श २४ । उ २१ । सू १६-१६ विजयादि चार अनुत्तरोपातिक देवों के नौ ही गमकों में तीन योग होते हैं। सर्वार्थसिद्ध देवों में प्रथम तीन गमक होते है- उनमें तीनों योग होते हैं। ९६.२० वाणव्यतर देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में९.६.२०.१ पर्याप्त असंशी तियंच पंचेन्द्रिय-योनि से वाणव्यंतर देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १-१-चाणमंतराणं भंते! एवं जहेष णागकुमारहेसए असन्नी तहेष निरषसेसं )xxx ) उनके नौ गमकों में वचनयोग-काययोग होता है परन्तु मनोयोग नहीं होता है। -भग• श २४ । उ २२ । सू१ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५२ ) ६६.२०२ असंख्यात वर्ष की आयुवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच योनि जीवों से वाणव्यंतर देवों में उत्पन्न होने योग्य जो जीव है ( असंखेजवासाउय) सन्निपंचिदिय० जे भविए वाणमंतरेसु उवजित्तए xxx जहा णागकुमारसए xxx) उनके नौ गमकों में तीनों योग होते हैं। -भग० श २४ । उ २२ । सू २-४ •९६२०.३ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुवाले संशी पंचेन्द्रिय तिथंच योनि के जीवों से वाणव्यंतर देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में(संखेजपासाउय० तहेव, देखो पाठ १६२००२) उनके तीनों योग होते हैं। -भग० श २४ । उ २२ । सू २-४ १६.२०.४ असंख्यात वर्ष की आयुवाले संशी मनुष्य से वाणव्यंतर देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में-- जइ मणुस्स० असंखेजावासाउयाणं तहेव नागकुमाराणं उसे तहेव वत्तष्षयाx x x सेसं तहेव Xxx ) उनके नौ गमकों में तीनों योग होते है। -भग० श २४ । उ २२ । सू ५ ४६२०५ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुवाले संज्ञी मनुष्य से वाणव्यंतर देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में (xxx (संखेजपासउयसन्निमणुस्से जहा णागकुमारसए xxx) उनके नौ गमकों में तीनों योग होते हैं । -भग• श २४ । उ २२ । सू५ "१६२१ ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में१६२११ असंख्यात वर्ष की आयुवाले संशी पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि से ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १-४ व ७-8-असंखेजवासाउय सन्निपंचिदियतिरिषखजोणिए णं भंते ! जे भविए ? जोइसिएसु उवधज्जित्तए xxx अपसेसं जहा असुर कुमारलए xxx ) उनके सातों गमकों में तीन योग होते हैं। -भग० श २४ । उ २२ । सू ३-८ १६.२१२ संख्यात वर्ष की आयुवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच योनि से ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १-8-जइ संखेजवासाउयसन्निपंचिंदय०१ संखेजबासमुयाणं Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५३ ) जहेप असुरकुमारेसु उववज्जमाणाणं तहेव नव वि गमा भाणियव्या xxx सेसं तहेव निरषसेसं भाणियव्वं ) उनके नौ ही गमकों में तीनों योग होते हैं। -भग श २४ । उ २३ सू६ '१६२१३ असंख्यात वर्ष की आयुवाले संज्ञी मनुष्य से ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होने वाले जीवों में गमक १.४, ७-8-असंखेजवासाउयसन्निमणुस्से णं भंते । जे भषिए जोइएसु उवजित्तए ? XXX एवं जहाअसंखेजवासाउयसन्निपंबिंदियस्स जोहपसु चेव उववजमाणस्स सत्त गमगा जहेष मणुस्साण वि xxx सेसं तहेव निरपसेसं जाव 'संवेहो' त्ति) उनके सातों गमकों में तीन योग होते हैं । -भग० श २४ । उ २३ । सू ११ '६६२१४ संख्यात वर्ष की आयुबाले संज्ञी मनुष्य योनि से ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १-६-जइ संखेजवासाउयसन्निमणुस्से०१ संखेजवासाउयाणं जहेष असुरकुमारेसु उपवज्जमाणाणं तहेव नव गमगा भाणियचा xxx सेस तंचेष निरवसेसं ) उनके नौ ही गमकों में तीनों योग होते हैं । -भग० श २४ । उ २३ । सू १२ १६.२२ सौधर्म देवों में उत्पन्न होने वाले जीवों में१६.२२१ असंख्यात वर्ष की आयुवाले संशी तिथंच पंचेन्द्रिय से सौधर्म देवों में उत्पन्न होने वाले जीवों में गमक १-६-असंखेजवासाउयसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! जे भषिए सोहम्मगदेवेसु उववजित्तए । तेणं भंते अवसेसं जहा जोइएसु उपवमाणस्ल xxx1) उनके नव गमकों में तीनों योग झेते हैं। -भग श २४ । उ २४ । सू३-७ .९६.२२.२ संख्यात वर्ष की आयु वाले संशी तियं च पंचेन्द्रिय से सौधर्म देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में। गमक १९ जइ संखेजवासाउय सन्निपंचिंदिय०१ संखेजवासाच्यस्स जहेव असुरकुमारेसु उवयजमाणस्स तहेव णवषि गमगाxxx सेसं तंवेध।) उनके नव गमकों में तीनों योग होते हैं । -भग० श २४ । उ २४ । सू८ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५४ ) .९६.२२.३ असंख्यात वर्ष की आयु वाले संशी मनुष्य से सौधर्म कल्प देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में। गमक १-४, ७-९ असंखेजपासाउयसन्निमणुस्सेणं भंते ! जे भविए सोहम्मकप्पे देवत्ताए उववजित्तए ०१ एवं जहेव असंखेजषासाउयस्स सन्निपंचिदियतिरिक्खजोणियस्स सोहम्मेकप्पे उववज्जमाणस्स तहेच सत्त गमगा xxx सेसं तहेव निरवसेस) उनमें सात गमक होते हैं उन सबमें तीनों योग होते है। -भग० श २४ । उ १४ । सू१० .९६.२२.४ संख्यात वर्ष की आयुवाले संज्ञी मनुष्य से सौधर्म देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १-8 जइ संखेज्जवासाउय सन्निमणुस्सेहितो ०१ एवं संखेज्जबासाउय सन्निमणुस्साणं जहेव असुरकुमारेसु उवधज्जमाणाणं तहेव णव गमगा भाणियब्बा xxx सेसंतचेव) उनके नव गमकों में ही तीनों योग होते हैं। -भग० श २४ । उ २४ । सू ११ .६६.२३. ईशान देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में.६६.२३.१ असंख्यात वर्ष की आयु वाले संशी पंचेन्द्रिय तियंच योनि से ईशान देवों में होने योग्य जीवों में (ईसाणदेवाणं एसचेव सोहम्मगदेवसरिसा वत्तव्यया xxx सेसं तहेव) (गमक १-४,७-६ ) उनमें सात गमक होते हैं उनमें तीनों योग होते है। -भग० श २४ । उ २४ । १२ .६६.२३.२ संख्यात वर्ष की आयुवाले संज्ञी तियंच पंचेन्द्रिय ये ईशान देवों में उत्पन्न होने वाले जीवों में गमक १-६ संखेज्जयासाउयाणं तिरिक्खजोणियाणं मणुस्साण-य जहेष सोहम्मेसु उववज्जमाणाणं तहेष निरवसेसं णपषिगमगा ) उनके नौ गमकों में ही तीनों योग होते हैं। -भग० श २४ । उ २४ । सू १४ .६६.१३.३ असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्य से ईशान देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १-४,७-६ असंखेज्नवासाउयसन्निमणुस्सं वि तहेष xxx जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्सं असंखेज्जवासाउयस्स xxx सेसंतहेव) उनके सातों गमकों में तीन योग होते हैं। -भग• श २४ । उ २४ । सू १३ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५५ ) .१६.२३.४ संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्य से ईशान देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों मेंगमक १६ उनके नौ गमकों में तीनों योग होते हैं ( देखो १६-२३-२) -भग० श २४ । उ २४ । सू १४ ९६.२४ सनत्कुमार देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में .६६.२४.१ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आय वाले संशी पंचेन्द्रिय तियंच योनि से सनत्कुमार देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १-६ पज्जत्तसंखेज्जवासाउय सन्निपंचिंदियतिरिक्त जोणिए गं भंते ! जेभषिए सर्णकुमारदेवेसु उवधज्जित्तए २१ अवसेसा परणामादीया भषाएस पज्जवसाणा सच्चेव वत्तव्धया भाणियन्वा जहा सोहम्मे उववज्जमाणस्स xxx ) उनके नौ गमकों में ही तीनों योग होते हैं -भग० श २४ । उ २४ । सू १६ १६.२४२ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संशी मनुष्य से सनत्कुमार देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १-६ ( जइ मणुस्सेहितो उपवज्जति ०१ मणुस्साण जहेष सक्कप्पभाए उववजमाणाण तहेव व वि गमाभाणियव्वा ) उनके नौ गमकों में तीनों योग होते हैं। - भग० श २४ । उ २४ । सू १७ .९६.२५ माहेन्द्र देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में.९६.२५.१ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संशी४६.२५.२ संज्ञी तिथंच पंचेन्द्रिय तथा संज्ञी मनुष्य से माहेन्द्र देवों में उत्पन्न होनेवाले जीवों में गमक १-९ माहिंदगदेवाणं भंते! xxx जहा सणकुमारगदेवाणं पत्तब्धयातहा माहिदगदेवाणं भाणियन्वा ) उनके नव गमकों में तीनों योग होते है। .९६.२६ ब्रह्मलोक देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में.६६.२६.१ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संशी.६६.२६.२ संशी तियंच पंचेन्द्रिय व संज्ञी मनुष्य से ब्रह्मलोक देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) ...... (एवं बभलोगदेवाणं वि वत्तव्यया) उनके नव गमकों में ही तीनों योग होते हैं। -भग• श २४ । उ २४ । सू १८ .६६.२७ लांतक से सहस्रार देवों से उत्पन्न होने योग्य जीवों में पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी तिर्यच पंचेन्द्रिय व संज्ञी मनुष्य में लांतक, महाशुक्र तथा सहस्रार देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १-९ जहा सणकुमारगदेवाणं वत्तव्षया तहा माहिदगदेवाणं भाणियव्वा x x x एवं जाव सहस्सारो) उनके नौ गमकों में ही तीनो योग होते है। -भग श २४ । उ २४ । सू १९ १६.२८ पर्याप्त संज्ञी मनुष्यों से आनत-प्राणत-आरण-अच्युत देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १-६ पजत्तसंखेजवासाउयसन्निमणुस्सेणं भंते ! जे भविए आणयदेवेषु उवधज्जित्तए ०१ मणुस्साण य वत्तव्वया अहेव सहस्सारेसु उवषजमाणाणं xxx एवं जाव अच्चुयदेवा ) उनके नव गमकों में ही तीनों योग होते है । -भग० श २४ । उ० २४ । स२. १६.२६ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संशी मनुष्य से ग्रेवेयक देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १६ गेवजगदेवाणं भंते! xxx । एसचेष वत्तवया) उनके नव गमकों में तीन योग होते हैं । -भग• श २४ । उ २४ । सू २१ .९६.३० पर्याप्त संख्यात वर्ष वाले संशी मनुष्य से विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित देषों में उत्पन्न होने वाले जीवों में विजय - वेजयंत - जयंत - अपराजियदेवाणं भंते । एस० चेष पत्तब्धया निरवसेसा xxx । मणुस्सेजद्धी वसुवि गमएसु जहा गेवेज्जेसु उषषजमाणल्स xxx ।) उनके नौ गमकों में तीन योग होते है। -भग श २४ । उ २४ । सू २२ १६.३१ पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संशी मनुष्य से सर्वार्थ सिद्ध देवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों में गमक १-४-७ सघट्टसिद्धदेवा xxx सेणं भंते! अवसेसा जहा Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५७ ) विजयाईसु उपधजताणं xxx एस तिन्नि गमगा सम्वट्ठसिद्धदेवाणं xxx ) उनके १, ४-७ गमक में तीनों योग होते है। उनकी स्थिति ज. उ. ३३ सागर की है अतः तीन गमक बनते हैं। -भग• श २४ । उ २४ । सू २३-३६ .६७ महायुग्म जीवों में योग .६७.१ कृतयुग्मकृतयुग्म राशि रूप एकेन्द्रिय में कितने योग (कडजुम्मकडजुम्मएगिदिया) तेणं भंते! xxx णो मणजोगी, णो वइजोगी, कायजोगी। -भग० श ३५ । उ श १ अवान्तर । उ १ । सूह कृतयुग्मकृतयुग्म राशि रूप एकेन्द्रिय-मनोयोगी नहीं, वचनयोग नहीं, काययोगी होते है। ___ नोट-महायुग्म के १६ भेद में से पहला भेद कृतयुग्मकृतयुग्म है। जिस राशि में से चार संख्या का अपहार करते हुए चार शेष रहे और उस राशि के अपहार समय भी कृतयुग्म (चार) हो, यह राशि कृतयुग्मकृतयुग्म कहलाती है। .६७.२ कृतयुग्म न्योज राशि रूप एकेन्द्रिय में कितने योग xxx जहा कडजुम्म करजुम्माणं जाप अणंतखुत्तो। -भग० श ३५ । श १ । उ १ । सू १४ ये मनोयोगी, वचनयोगी नहीं होते, काययोगी होते हैं। •९७.३ कृतयुग्म-द्वापर युग्म राशि एकेन्द्रिय में कितने योग । (कडजुम्मदायरजुम्मएगिदिया ) सेसं तहेब जाव अणंतक्खुत्तो । -भग० श ३५ । श १ अबान्तर । सू १७ कृतयुग्म द्वापर युग्म राशि एकेन्द्रिय मनोयोगी वचनयोगी नहीं होते हैं। काययोगी होते है। यह महायुग्म का तीसरा भेद है। .९७.४ कृतयुग्म कल्पोज एकेन्द्रिय ५ न्योज कृययुग्म ६ व्योज योज ७ व्योज द्वापर युग्म ८ व्योज कल्योज ६ द्वापर युग्म कृतयुग्म १० द्वापर युग्म योज। ११ द्वापर युग्म द्वापर युग्म , १२ द्वापर युग्म कल्योज , १३ कल्योज कृत युग्म " Jain Education in pational Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ कल्योज योज १५ कल्योज द्वापर युग्म १६ कल्योज - कल्योज एक्को गमओ । ( २५८ ) " " xxx सेसं तहेब जाव अणंतक्खुत्तो। एवं एएसु सोलससु महाजुम्मेसु - भग० श ३५ । श १ । उ १ " ये सब एकेन्द्रिय जीव मनोयोगी- वचनयोगी नहीं होते हैं । काययोगी होते हैं । ६७१७ प्रथम समय उत्पन्न कृतयुग्म कृतयुग्म राशि एकेन्द्रिय यावत् प्रथम समय उत्पन्न कल्योज कल्योज राशि एकेन्द्रिय । ( पढम-समय कडजुम्मकडजुम्म एगिंदिया ) एवं जद्देव पढमो उद्देसओ तब सोलसखुत्तो विइओ वि माणियन्बो, तहेब सव्वं । xxx -भग० श ३५ । श १ । उ २ प्रथम समय उत्पन्न कृतयुग्म कृतयुग्म राशि एकेन्द्रिय आदि सोलह युग्म - काययोगी होते हैं, मनोयोगी - वचनयोगी नहीं होते हैं । ६७१८ अप्रथम समय के कृतयुग्म कृतयुग्म राशि एकेन्द्रिय आदि सोलह महायुग्म एकेन्द्रिय में । - ( अपढम समय कडजुम्मकडजुम्मएगिदया ) एसो जहा पढमुद्देसो सोलसाह विजुम्मेसु तहेव णेयब्धो जाच कलिओग-कलिओगत्ताए जाब अत्तखुत्तो । भग० श ३५ । श १ । उ ३ अप्रथम समय के कृतयुग्म कृतयुत्रम राशि एकेन्द्रिय यावत् कल्पोज कल्पोज राशि एकेन्द्रिय में मनोयोग-वचनयोग नहीं होते हैं, काययोग होता है । *६७१६ चरम समय कृतयुग्म - कृतयुग्म राशि एकेन्द्रिय आदि सोलह महायुग्म में योग-( चरम समय कडजुम्मकडजुम्म एगिदिया ) एवं जहेव पढमसमय उद्देओ । -भग० श ३५ । श १ | उ ४ चरम समय कृतयुग्म - कृतयुग्म आदि सोलह महायुग्म एकेन्द्रिय में काययोग होता है । *१७°२० अचरय समय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय में योग ( अचरमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिंदिया, जहा अपढम समय उद्देस्सो तव णिरवसेओ भाणियन्बो । - भग० श ३५ । उ ५ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) अचरय समय कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेन्द्रिय में आदि सोलह महा युग्म में काययोग होता है। ६७.२१ प्रथम-प्रथम समय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय प्रथम अप्रथम समय कृतयुग्म कृतयग्म एकेन्द्रिय (पढम पढम समय कडजुम्मकडजुम्म एगिदिया) जहा पढम समय उद्देसओ तहेव णिरपसेस ( पढमअपढम समय कडजुम्मकडजुम्म एगिदिया) . जहा पढम समय उहेसमो तहेष भाणिणग्यो। -भग श ३५ । श १ । उ ६,७ प्रथम-प्रथम समय, प्रथम-अप्रथम कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय आदि सोलह महायुग्म में काययोग होता है। ६७२२ प्रथम चरम समय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय प्रथम अचरम , , एकेन्द्रिय । .. (पढम चरम समय कडजुम्मकडजुम्मएगिदिया ) जहा चरमुहेसमो तहेष णिरवसेसं। (पढम अचरम समय कडजुम्मकडजुम्मएगिदिया) जहा बीओ उद्देसओ तहेव गिरवसेसं। -भग• श ३५ । श १ । उ८,६ प्रथम चरम समय, प्रथम अचरम समय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय आदि सोलह महायग्म में काययोग होता है । ९७.२३ चरम-चरम समय कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेन्द्रिय चरम अचरम (चरम-चरम समय कडजुम्मकरजुम्मएगिदिया) जहा बउत्यो उहेससो तहेष। (चरम अचरम समय कडजुम्मकडजुम्मएगिदिया) जहा पढम समय उद्देससो तहेच णिरवसेसं। -भग श ३५ श १ । उ १०१११ चरम चरम समय के व चरम अचरम समय के कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय में आदि सोलह महायुग्मों में काययोग होता है । ९८ लेशी महायुग्म में योग .९८.१ कृष्ण लेशी कृतयग्म-कृतयग्म एकेन्द्रिय जीव में योग Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ० ) ( कण्हलेस कडजुम्मकडजुम्मएगिंदिया ) एवं जहा ओहि उद्देस XXX सेसं तहेब जाव अनंतखुत्तो । एवं सोलस वि जुम्मा भाणियव्का । भग० श ३५ । श २ कृष्णलेशी कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय आदि सोलह महायुग्म में काययोग होते है । • ६८.२ प्रथम समय कृष्ण लेशी कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय में योग ( पढम-समय- कण्हलेस - कडजुम्मकडजुम्मएगिंदिया ) एवं जहा ओहियस एक्कारस उद्देगा भणिया तहा कण्हलेस्सप बि एक्कारस उद्देलगा भाणियव्वा । -भग० श ३५ । श २ औधिक शतक के ग्यारह उद्देशक के समान कृष्ण लेशी शतक में भी ग्यारह उद्देशक कहना | उनमें काययोग होता है । • ६८.३ नील लेशी महायुग्म में एकेन्द्रिय में • ६८.४ कापोत लेशी एवं णीलले सेहि वि सयं कण्हलेस्ससयसरिदि, एक्कासंस उसगा तय | ------ एवं काउलेस्सेहि वि सयं कण्हलेस सयसरिसं । होता है । 33 -भग० श ३५ । श ३।४ कृष्ण लेश्या शतक के समान नील लेश्या - कापोत लेश्या सोलह युग्म में काययोग *६६ भवसिद्धिक महायुग्म में योग '६६·१ भवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय में योग (भवसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्मएगिदिया ) जहा ओहियसयं तद्देष । raj एक्कारससु बि उसएसु । भवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय में काययोग होता है । ही ग्यारह योग (काययोग) होते हैं । सोलह महायुग्म में काययोग होता है । ·६६२ कृष्णलेशी भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म एकेन्द्रिय में योग - भग० श ३५ श ( कण्हलेस - भवसिद्धिय कडजुम्म कडजुम्मएगिदिया) एवं कण्हलेस - भवसिद्धियएगिदिएहिं बि लयं बिइयस्य कण्हलेस्ससरिसं भाणियन्वं । -भग० श ३५ / श ६ ग्यारह उद्देशक में Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६१ ) कृष्णलेशी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के विषय में कृष्ण लेश्या के दूसरे शतक के समान कहना चाहिए। काययोग होता है। सोलह महायुग्म में काययोग होता है। ६९.३ नीललेशी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय में योग एवं णीललेल्सभवसिद्धियएगिदियपएहि वि सयं । -भग० श ३५ । श ७ नीललेशी भवसिद्धिक कृतयग्मकृतयग्मादि महायग्म एकेन्द्रिय में काययोग होता है । "EE४ कापोतलेशी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय में योग एवं काउलेस्स भषसिद्धियएगिदियहि वि तहेव एकारस उद्देसगसंजुत्त सयं। -भग० श ३५ । उ८ कापोतलेशी भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयग्म महायग्म एकेन्द्रिय में काययोग होता है । १०० अभवसिद्धिक महायुग्म में योग १ अभवसिद्धिक कृतयरमकृतयग्म एकेन्द्रिय में योग "२ कृष्णलेशी '३ नीललेशी “४ कपोतलेशी जहा, मषसिद्धिएहिं चत्तारि सया भणियाई एवं अभयसिद्धिएहि पिचत्तारि सयाणिलेस्सासंजुत्ताणि भाणियवाणि | -भग० श ३५ । श ६ से १२ जिस प्रकार भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के चार शतक कहे उसी प्रकार अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय में भी लेश्या सहित चार शतक कहने चाहिए। महायग्म लेश्या सहित एक काययोग होता है। १०१ महायुग्म द्वीन्द्रिय में योग "१ कृतयुग्मकृतयुग्म द्वीन्द्रिय जीव और योग (कडजुम्मकडजुम्मबेइ दिया ) णो मणयोगी, वययोगी चा काययोगी पाxxx एवं सोलससु वि जुम्मेसु । -भग० श ३६ । श १ उ १ कृतयुग्म कृतयुग्म द्वीन्द्रिय मनोयोगी नहीं होते है। वचनयोगी व काययोगी होते है। सोलह महायग्म में मनोयोग नहीं होता है । वचनयोग-काययोग होता है। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६२ ) २ प्रथम समयोत्पन्न कृतयग्म कृतयुग्म द्वीन्द्रिय में योग ( पढम समय कडजुम्मकडजुम्म बेई दिया ) णो मणजोगी, णोवयजोगी, काययोगी । × × × । एवं एए बिजहा एगिंदिय महाजुम्मेसु एक्कारस उद्देगा तहेव भाणियव्या । - भग० श ३६ । श १ । उ २ से ११ प्रथम समय समयोत्पन्न कृतयुग्मकृतयग्म द्वीन्द्रिय में काययोग होता है । चरम समय उत्पन्न आदि आठ उद्देशक में काययोग होता है । * १०२ महायुग्म तेइन्द्रिय में योग * १ कृतमुग्म कृतयुग्म तेइन्द्रिय जीव और योग ( कडजुम्मकडजुम्म तेइंदिया ) एवं तेइ दिएसुचिबारस सयाकायव्वा बेई दियसयसरिसा । x x x सेसं तदेव | --भग० श ३७ कृतयुग्मकृतयुग्म तेइन्द्रिय जीवों के ग्यारह शतक है । १६ महायग्म में मनोयोगी नहीं होते हैं । वचनयोगी - काययोगी होते है । प्रथम समय समुत्पन्न में सिर्फ काययोगी होते हैं । १०३ महायुग्म चतुरिन्द्रिय में योग चतुरिन्द्रिय कृतयुग्मकृतयुग्म में योग चरिदिएहि वि एवं चेव बारस सया कायव्या । xxx सेसं जहा बेदि याणं । -भग० श ३८ इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय कृतयुग्मकृतयुग्य में मनोयोगी नहीं होते हैं । वचनयोगी व काययोगी होते हैं । प्रथम समयोत्पन्न चतुरिन्द्रिय में आदि आठ उद्देशक में सिर्फ काययोगी होते हैं । • १०४ महायुग्म असंज्ञी तियच पंचेन्द्रिय में योग * १ कृतयुग्मकृतयुग्म असंशी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में योग ( कडजुम्मकडजुम्मअसणि पंचिदिया जहा बेह दियाणं तहेब असण्णिसु - भग० शः ३६ बि बारस या कायश्वा xxx । सेसं जहा बेई दियाणं । कृतयुग्मकृतयुग्म असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मनोयोगी नहीं होते हैं । काययोगी होते हैं । १६ महायुग्म ऐसा ही है । वचन योगी व Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६३ ) प्रथम समयोत्पन्न असंज्ञी पंचेन्द्रिय आदि आठ में काययोगी होते हैं । मनोयोगी वचनयोगी नहीं होते हैं । - १०५ महायुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में योग • १ संज्ञी पंचेन्द्रिय कृतयुग्मकृतयुग्म में योग ( कडजुम्मकडजुम्म सण्णि पंचिदिया ) मणजोगी - वयजोगी- कायजोगी xxx एवं सोलसु बि जुम्मेसु भाणियव्वं XXX । - भग० श ४० कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय मनोयोगी- वचनयोगी और काययोगी होते हैं । सोलह महायुग्मों वाले मनोयोगी- वचनयोगी काययोगी होते हैं । • २ प्रथम समय कृष्ण लेशी कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव में योग ( पढमसमय कण्हलेस कडजुम्मकडजुम्म-सणि पंचिंदिया ) जहा सणि पंचिदिय पढमसमय उसए तहेब णिरवसेसं । xxx एवं सोलससुवि जुम्मेसु । x x x । एवं एएषि एक्कारस वि उद्देसगा कण्हले सलए । - भग० श ४० । श २ । सू २ प्रथम समय कृष्णलेशी कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में काययोग होता है । वचनयोग- मनोयोग नहीं होता है । इस प्रकार सोलह महायुग्मों में काययोग कहना चाहिए । इस प्रकार कृष्णलेशी शतक के आठ उद्देशक में काययोग होता है । • ३ कृष्णलेशी कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में योग ( कण्हलेस कडजुम्मकडजुम्म सण्णि पंचिंदिया ) तहेव जहा पढमुद्दे - सओ सण्णीणं X××। -भग० श ४० । श २ कृष्णलेशी कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय - ( संज्ञी के प्रथम उद्देशक की तरह ) मनोयोगी - वचनयोगी-काययोगी होते हैं । इसी प्रकार सोलह महायुग्म मनोयोगी - वचनयोगी काययोगी होते हैं । ४ नीललेशी कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में योग । प्रथम समय नीललेशी कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में योग । एवं नीलले सेतु षि सयं । xxx एवं तिसु उद्देसएसु, सेसंतंचेष | - भग० श ४० । श ३ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६४ ) नीलेशी कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में काययोग- वचनयोग- मनोयोग होता है । प्रथम समय नीललेशी कृतयुग्मकृतयग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में काययोग होता है। आठ उदेशक में काययोग होता है । . ५ कापोतलेशी कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में योग प्रथम समय एवं काउलेस्सस षि । ××× । एवं तिसु षि उद्देसएसु, सेसंतंचेव " इसी प्रकार कापोतलेशी कृतयुग्मकृतयग्मादि सोलह महायुग्मों में संशी पंचेन्द्रिय में काययोग-वचनयोग-मनयोग होता है । प्रथमसमय कापोतलेशी कृतयुग्मकृतयुग्म आदि महायुग्मों में संज्ञी पंचेन्द्रिय में काययोग होता है। आठ उद्देशक में काययोग होता है । *६ तेजोलेशी कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में योग प्रथम समय एवं ते लेसेसुचि सयं । XXX । एवं तिसुषि उद्देसरसु, सेसंतंचेव । • भग० श ४० । श ५ "" 23 " तेजोलेशी कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय के काययोग- वचनयोग- मनयोग होता है । सोलह महायुग्म में तीनों योग होते हैं । प्रथमसमय तेजोलेशी कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में काययोग होता है-वचनयोग व मनोयोग नहीं होता है । आठ उद्देशक में व सोलह महायुग्मों में काययोग होता है .७ प्रथमसमय कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में योग - ( पढमसमय कडजुम्मकडजुम्म सण्णि पंचिंदिया ) सेसं जहा बेहं दियाणं पढमसमइयाणं जाव अनंतखुत्तो Xxx । एवं सोलससु वि जुम्मेसु परिमाणं तव सवं । एवं एत्थ वि एक्कारस उद्देसगा तद्देव । -भग० श ४० | श ६ प्रथमसमयोत्पन्न संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव में बेइन्द्रिय की तरह मनोयोगी - वचनयोगी नहीं होते हैं -- काययोगी होते हैं । सोलह महायुग्मों में काययोगी होते हैं । आठ उद्देशक में काययोगी होते हैं । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .८ पद्मलेशी कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय पढम समय " ( २६५ ) در जहा तेउलेस्सासयं तहा पम्हलेस्सा सयं वि xxx सेसंतं चेव । भग० श ४० श. ६ पद्मलेशी कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में काययोग- वचनयोग-मनोयोग होता है। सोलह महायुग्म में तीनों योग होते हैं । प्रथम समय पद्मलेशी कृतयुग्मकृतयुग्म संशी पंचेन्द्रिय में काययोग होता है । सोलह महायुग्मों में आठ उद्देशक में काययोग होता है । "" '३० शुक्ललेशी कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय प्रथम समय 39 सुक्कलेस्ससयं जहा ओहियसयं । सेसं तहेव जाव अनंतखुन्तो । शुक्ललेशी कृतयुग्मकृतयुग्म संची पंचेन्द्रिय- मनोयोगी - वचनयोगी - काययोगी होते | सोलह महायुग्म मनोयोगी वचनयोगी काययोगी होते हैं । -भग० श ४० । श ७ प्रथम समय शुक्ललेशी कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में काययोग होता है वचनयोग व मनोयोग नहीं होता है सोलह महायुग्म में आठ उद्देशक में काययोग होता है । 1 ३१ कृतयुग्मकृतयुग्म भवसिद्धिक संज्ञी पंचेन्द्रिय में योग ( भवसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्मसणिपंचिदिया जहा पढमं सण्णिसयं तहा यव्वं भवसिद्धियाभिलावेण । -भग० श ४० । श८ कृतयुग्मकृतयुग्म भवसिद्धिक संज्ञी पंचेन्द्रिय में प्रथम शतक की तरह मनोयोगी, बचनयोगी व काययोगी होते हैं । .३२ कृष्णलेशी भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में योग ( कण्हलेस -भवसिद्धिय- कडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिंदिया ) एवं एएण अभिलावेणं जहा ओहियकण्हलेस्संसयं । - भग० श ४० | शतक ६ कृष्णलेशी भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी होते है । 21 • ३३ नीललेशी भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में योग एवं नीललेस्स भवसिद्धिए धि सय । ૪ -- भग० श ४० । श १० Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६ ) नीललेशी भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय -- मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी होते हैं । • ३४ कापोतलेशी भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म संशी पंचेन्द्रिय में योग • ३५ तेजोलेशी • ३६ पद्मलेशी • ३७ शुक्ललेशी " एवं जहा ओहियाणि लण्णि पंचिदियाणं सत्त स्याणि भणियाणि । एवं भवसिद्धिएहि विसत्त सयाणि कायव्वाणि । × × × 1 - भग० श ४० । श ११ से १४ कापोतलेशी, तेजोलेशी, पद्मलेशी, शुक्ललेशी भवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्म संशी पंचेन्द्रिय मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी होते हैं । " प्रथम समय अभवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में योग- ( पढमसमय अभबसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्मसण्णि-पंचिंदिया ) जहा सणीण पढमसमयउद्देसए तहेव x x एवं एत्थ वि एक्कारस उद्देसगा काथव्या । - भग० श ४० । श १५ होते है । "" प्रथम समय अभवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय - काययोगी होते है । मनोयोगी, वचनयोगी नहीं होते है । ग्यारह उद्देशक में से आठ में काययोगी होते हैं । तथा तीन में तीन योग होते हैं । अभवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में योग ( अभषसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्मसण्णि-पंचिंदिया ) xxx सेसं जहा कण्हले सलए जाव अनंतखुतो । - भग० श ४० । श १५ अभवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय – मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी काययोगी होते है । कृष्णलेशी अभवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में योग ( कण्हलेस अभवसिद्धिय - कडजुम्मकडजुम्मसण्णि - पंचिंदिया ) जहा एएसि चेष ओहियं सयं जहा कण्हलेस्सलयं पि । x x x -भग० श ४० । श १६ कृष्णलेशी अभवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय- मनोयोगी, वचनयोगी, Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६७ ) नीललेशी अभवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म संशी पंचेन्द्रिय में योगकापोतलेशी तेजोलेशी पद्मलेशी शुक्ललेशी (कण्हलेस्स - अभषसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिंदिया) एवं उहि वि लेस्साहि छ सया कायव्वा जहा कण्हलेससयं । -भग० श ४० । श १७ से २१ जिस प्रकार कृष्णलेश्या का शतक कहा, उसी प्रकार नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या के विषय में जानना चाहिए। वे सब मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी होते हैं। १०६.५-६ सयोगी और गुणस्थान की अपेक्षा योग तेरहमउ स - जोइ - जिणु जायउ । उपरिलउ अजोह पर अक्खरु॥ - वीरजि० संधि १२ । कड ४ तेरहवां गुणस्थान सयोगि जिन अथवा सयोगि केवली कहलाता है । अन्तिम चौदहवां गुणस्थान उन अयोगि-केवली जीवों को होता है जिन्होंने मन, वचन, काय-इन तीन योगों का परित्याग कर दिया है। १०७ एकेन्द्रिय में योग .१ पृथ्वीकाय में कितने योग तेसिणं (पुढविकाइया) x x x तेणं भंते। जीपाकि मणजोगी, अयजोगी, कायजोगी ? गोयमा। णो मणजोगी, णो षयजोगी, कायजोगी। -भग० श १६ । उ ३ । सू५ पृथ्वीकायिक जीव मनोयोगी नहीं है, वचनयोगी भी नहीं है, एक काययोगी है। .२ अपकायिक जीवों में कितने योग .३ अग्निकायिक जीवों में कितने योग .४ वायुकायिक जीवों में कितने योग .५ वनस्पतिकायिक जीवों में कितने योग Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६८ ) एवं णो पुढविकाइयाणं गमो सो चेव भाणियम्बो x x x | तेक्काइया० x x x एवं चेव । वाउकारयाणं एवं खेव । वणस्सकाइया० - सेसंजहा तेउकाइयाणं जाव उब्वट्टति | पृथ्वीकायिक जीवों की तरह इनमें एक काययोग होता है । विवेचन - एकेन्द्रियपने उत्पन्न हुए जिनको उत्पन्न हुए एक समय हुआ है और जो कृतयुग्मकृतयुग्म राशि रूप है - ऐसे एकेन्द्रिय जीव को प्रथम समय कृतयुग्मकृतयुग्म एकेन्द्रिय कहते हैं । २ जिनको उत्पन्न हुए द्वितीयादि समय हो गये हैं वे अप्रथम समय में आते हैं । ३ 'चरम समय' शब्द से यहाँ एकेन्द्रियों का मरण समय विवक्षित है और यह उनके परभव आयु का प्रथम समय जानना चाहिए । ४ जिन एकेन्द्रिय जीवों का उपर्युक्त चरम समय नहीं है वे अचरम समय है । ५ प्रथम समय में उत्पन्न और कृतयुग्मकृतयुग्मत्व के अनुभव के प्रथम समय में वर्तमान एकेन्द्रिय जीवों के काय योग होता है । '१०८ जीव समूहों में योग '१ योग और जीव -- भग० श १६ । ३३ । सू १७ मनोयोग किसके होता है ? सण्णिमिच्छा इट्टिप्प हुडि मणजोगो सचमणजोगो असश्वमोसमणजोगो - षट् खं १ । १ सू ५० / ५११ पृ० २८२ जाव सजोगिकेवलिति । टीका - मनोयोग इति पञ्चमो मनोयोगः क्व लब्धश्चेन्नैष दोषः, चतसृणां मनोव्यक्तीनां सामान्यस्य पञ्चमत्वोपपत्तेः किं तत्सामाभ्यमिति चेन्मनसः सादृश्यम् । मनसः समुत्पत्तये प्रयत्नो मनोयोगः । पूर्वप्रयोगात् प्रयत्नमन्तरेणापि मनसः प्रवृत्तिर्दृश्यते इति चेद्भवतु, न तेन मनसा योगोऽत्र मनोयोग इति विवक्षितः, तन्निमित्तप्रयत्न सम्बन्धस्य परिस्पन्दरूपस्य विवक्षितत्वात् । भवतु केवलिनः सत्यमनोयोगस्य सत्त्वं तत्र वस्तुयाथात्म्याचगतेः सत्वात् । नासत्यमोषमनोयोगस्य सत्त्वं तत्र संशयानध्यवसाययोरभाषादिति Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६९ ) म, संशयानध्यवसायनिबन्धनषचनहेतुमनसोऽप्यसत्यमोषमनस्वमस्तीति तत्र तस्य सत्त्वाविरोधात्। किमिति केवलिनो वचनं संशयानध्यवसायजनकमिति चेत्स्वार्थानन्त्याच्छ्रोतुराधरणक्षयोपशमातिशयाभाषात । तीर्थकरवचनमनक्षरस्वात् ध्वषिरूपं तत एष तदेकम् । एकत्वान्न तस्य वैविध्यं घटत इति चेन्न, तत्र स्यादित्यादि असत्यमोषपचनसत्त्वतस्तस्य वनेरनक्षपरत्वासिद्ध। साक्षरत्वे च प्रतिनियतैकभाषात्मकमेव तद्वचनं नाशेषभाषारूपं भवेदिति चेन्न, क्रमविशिष्टवर्णात्मकभूयः पतिकदम्बस्य प्रतिप्राणिप्रवृत्तस्य बनेरशेषभाषारूपत्वाविरोधात्। तथा च कथं तस्य पनित्यमिति चेन्न, एतद्भाषारूपमेघेति निर्देष्टुमशक्यत्वतः तस्य ध्वनित्यसिद्ध। अतीन्द्रियज्ञानत्वान्न केवलिनो मन इति चेन्न, द्रव्यमनसः सत्त्वात्। भवतु द्रव्यमनसः सत्त्वं न तत्कार्य मिति चेद्भवतुतत्कार्यस्य क्षायोपशमिकज्ञानस्याभाषः, अपि तु तदुत्पादने प्रयत्नोऽस्त्येष तस्य प्रतिबन्धकस्वाभवात् । तेनात्मनो योगः मनोयोगः। विद्यमानोऽपि तदुत्पादने प्रयत्न किमिति स्पकार्य न विदध्यादिति चेन्न, तत्सहकारिकारणक्षयोपशमाभावात्। असतो मनसः कथं वचनद्वितयसमुत्पत्तिरित चेन्न, उपचारतस्तयोस्ततः समुत्पत्तिषिधानात् । ___ औधिक मनोयोग और विशेष रूप से सत्यमनोयोग तथा असत्यामृषामनोयोग संशी मिथ्यादष्टि से लेकर सयोगिकेवली पर्यन्त होते है। मनोयोग के चार भेदों के अतिरिक्त वह पाँचवाँ 'मनोयोग' कहाँ से प्राप्त हुआ ! वह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वह अपने चार भेदों में रहता है, अतः उसकी पाँचवीं संख्या स्वतः बन जाती है। यह सामान्य जो चारों मनोयोगों में प्राप्त होता है उसको मन की सदृशता से ग्रहण करना चाहिए। मन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है उसको मनोयोग कहते हैं। यदि पूर्व प्रयोग से प्रयत्न के बिना भी मन की प्रवृत्ति होती है तो हो, क्योंकि यहाँ पर 'मन से होनेवाले योग को 'मनोयोग' कहते है' यह अर्थ विविक्षित नहीं है ; किन्तु 'मन के निमित्त से जो परिस्पन्दन रूप प्रयत्नविशेष होता है वह मनोयोग है' यह अर्थ विवक्षित है। केवली में सत्यमनोयोग का सद्भाव तो रह सकता है, क्योंकि वहाँ पर वस्तु के बथार्थ ज्ञान का सद्भाव रहता है ; परन्त उनमें असत्यामृषामनोयोग का सद्भाव संभव नहीं है, क्योंकि उनमें संशय और अनध्यवसाय रूप शान का प्रभाव रहता है। संशय और अनध्यवसाय के कारणरूप वचन का कारण मन है और केवली में मन की सत्ता रहती है। अतः अनुभय मनोयोग स्वीकार कर लेने में कोई आपत्ति नहीं है। " केवली के वचन से संशय और अनध्यवसाय की उत्पत्ति होने में तात्पर्य यह है कि Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७० ) उनमें ज्ञान के विषयभूत पदार्थ अनन्त होते है और श्रोता के आवरणकर्म का क्षयोपशम अतिशयरहित होता है। तीर्थकरों के वचन अनक्षरात्मक होने के कारण ध्वनिरूप हैं, अतः वे एकरूप है, फिर भी उनमें सत्य और अनुभय-इन दो रूपों के होने का कारण यह है कि केवली के वचन में 'स्यात्' इत्यादि रूप से अनुभप रूप वचन का सद्भाव रहता है, अतः केवली के वचन की अनक्षरात्मकता असिद्ध है । केवली की ध्वनि को साक्षर स्वीकार लेने पर उनके वचन एक भाषारूप हो जायेंगे, अशेष भाषारूप नहीं रहेंगे-ऐसा भी नहीं कहना, चाहिए, क्योंकि क्रमविशिष्ट, वर्णात्मक, अनेक पंक्तियों के समुच्चय रूप और सब श्रोताओं में प्रवृत्त होनेवाली केवली की ध्वनि को सम्पूर्ण भाषारूप मान लेने में कोई विरोध नहीं रहता है। यद्यपि केवली के वचन अनेक भाषारूप होते है, फिर भी वे ( वचन ) ध्वनिरूप है, क्योंकि केवली के वचन ‘इसी भाषारूप होते हैं'-ऐसा निर्देश नहीं किया जा सकता है। केवली में अतीन्द्रिय ज्ञान होता है, अतः उनमें मन का अभाव रहता है-ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उनमें द्रव्यमन का सद्भाव रहता है। ___यह भी नहीं कहा जा सकता है कि द्रव्यमन का सद्भाव तो रहता है, परन्तु उसके कार्य नहीं होते हैं, क्योंकि द्रव्यमन के कार्य रूप उपयोगात्मक क्षायोपशमिक ज्ञान का अभाव भले ही रहे; किन्तु द्रव्यमन के उत्पन्न करने में प्रयत्न तो रहता ही है, क्योंकि द्रव्यमन की वर्गणाओं को लाने के लिए होनेवाले प्रयत्न में कोई प्रतिबन्धक कारण नहीं रहता है। अतः सिद्ध होता है कि मन के निमित्त से आत्मा के परिस्पन्दन रूप प्रयत्न को मनोयोग कहते है। केवली में द्रव्यमन के उत्पन्न करने में प्रयत्न विद्यमान रहते हुए भी उसके कार्य न होने का कारण यह है कि केवली में मानसिक ज्ञान के सहकारीकारण रूप क्षयोपशम का अभाव रहता है। यद्यपि केवली में वस्तुतः क्षायोपशमिक मन नहीं रहता है तथापि सत्य और अनुभय रूप वचनों की उत्पत्ति उपचार से किया जाता है, अतएव उन दोनों वचनों की उत्पत्ति का विधान किया गया है। '२ असत्यमनोयोग-उभयमनोयोग किसके होता है। मोसमणजोगो सचमोसमणजोगो सण्णिमिच्छाइडि-प्पहुडि जाप खीणकसाय-वीयराग छदुमत्था त्ति। -षट खं १ । १ सू ५१ । पू १ । पृ० २८५ टीका-भवतु नाम आपकोपशमकानां सत्यस्यासत्यमोषस्य च सत्त्वं Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५१ ) नेतरयोरप्रमावस्य प्रमादविरोधित्वादिति न, रजोजुषां 'विपर्ययानध्यवसायाजानकारणमनसः सत्त्याविरोधात् । न च तद्योगात्प्रमादिनस्ते प्रमादस्य मोहपर्यायवाद। ___असत्यमनोयोग और उभयमनोयोग संशी मिथ्यादष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय वीतराग छदमस्थ गुणस्थान तक पाये जाते है । त्ति। क्षपक उपशमक जीवों में सत्यमनोयोग और अनुभयमनोयोग का सद्भाव तो हो सकता है, परन्तु असत्यमनोयोग और उभयमनोयोग का सद्भाव कैसे रहेगा; क्योंकि इन दोनों योगों में रहनेवाला अप्रमाद, असत्य और उभयमन के कारणभूत प्रमाद का विरोधी है । क्षपक और उपशमक प्रमादरहित होते है, अतः उनमें असत्यमनोयोग और उभयमनोयोग नहीं पाये जा सकते है-ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि आवरण कर्म से युक्त जीवों में विपर्यय और अनध्यवसाय रूप अज्ञान के कारणभूत मन का सद्भाव स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं आता है। परन्तु इसके सम्बन्ध से क्षपक और उपशमक जीव को प्रमत्त नहीं मानना चाहिए, क्योंकि प्रमाद मोह का पर्यायवाचक है । '३ पचनयोग किसके होता है ? वचिजोगो असञ्चमोसपचिजोगोबीइंदिय-प्पहुडि जाप सजोगि केलि -षट • खं १।१। सू५१ । पु १ । पृ २८७ टीका-असत्यमोषमनोनिबन्धनषचनमसत्यमोषपचनमिति प्रागुक्तम्, तद् दोन्द्रियादीनां मनोरहितानां कथं भवेदिति नायमेकान्तोऽस्ति सकलवचनानि मनस एव समुत्पद्यन्त इति मनोरहितकेवलिनां पचनाभाषसंजननात् । विकलेन्द्रियार्णा मनसा घिना न ज्ञानसमुत्पत्तिः। छानेन विना न पचनप्रवृत्तिरिति चेन्न, मनस एव ज्ञानमुत्पद्यत इत्येकान्ताभाषात्। भावे वा नाशेषेन्द्रियेभ्यो हानसमुत्पत्तिः मनसः समुत्पन्नत्वात। नैतदपि दृष्टश्रुतानुभूतषिषयस्य मानसप्रत्ययस्यान्यत्र वृत्तिविरोधात्। न चक्षुरादीनां सहकार्यपि प्रयत्नात्मसहकारिभ्यः इन्द्रियेभ्यस्तदुत्पत्त्युपलम्भात। समनस्केषु शानस्य प्रादुर्भावो मनोयोगादेवेति चेन्न, केवलज्ञानेन व्यभिचारात। समनस्कानां यत्क्षायोपशमिक ज्ञानं तन्मनोयोगात्स्यादिति चेन्न, इष्टत्वात् । मनोयोगाद्ववचनमुत्पद्यत इति प्रागुक्त तत्कथं घटत इति चेन्न, उपचारेण तत्र मामसस्य छानस्य मन इति संज्ञां विधायोक्तत्वात । कथं विकलेन्द्रियषचसोऽसत्यमोषत्वमिति चेदनध्यक्षसायहेतुत्वात। ध्वनिविषयोऽध्यवसायः समुपलभ्यत इति चेन्न, वक्तुरभि प्रायविषयाध्यवसायाभावस्य विवक्षितत्वात्।। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ) औधिक वचनयोग तथा विशेषरूप से अनुभयवचनयोग द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं। 1 अनुभय मन के निमित्त से जो वचन उत्पन्न होता है उसको अनुभबचन कहा जाता है यह पहले कहा जा चुका है, किन्तु मनरहित द्वीन्द्रियादि जीवों में अनुभयवचन होने का कारण यह है कि सभी वचन मन से ही उत्पन्न होते है- यह एकान्त नियम नहीं है। क्योंकि यदि सभी वचनों की उत्पत्ति मन से ही मान ली जाय तो मनरहित केवली के वचनों के अभाव का प्रसंग उपस्थित हो जायगा । ; यह भी नहीं कहा जा सकता है कि विकलेन्द्रिय जीवों में मन के बिना ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती है तथा ज्ञान के अभाव में वचन की प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी ; क्योंकि मन से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है—यह एकान्त नियम नहीं है। यदि इस एकान्त नियम को मान लिया जाय तो सम्पूर्ण इन्द्रियों से ज्ञान की उत्पत्ति महीं हो सकेगी, क्योंकि ज्ञान की उत्पत्ति मन से मानी गई है । अथवा, मन से समुत्पन्नत्वरूप धर्म इन्द्रियों में रह भी तो नहीं सकता है, क्योंकि दृष्टि, श्रत और अनुभूति को विषय करनेवाले मानसज्ञान का अन्यत्र सद्भाव मानने में विरोध आता है । यदि मन को चक्षु आदि इन्द्रियों का सहकारी कारण माना जाय सो भी नहीं हो सकता है, क्योंकि प्रयत्न और आत्मा सहकार की अपेक्षा रखनेवाली इन्द्रियों से इन्द्रियज्ञान की उत्पत्ति होती है । समनस्क जीवों में भी ज्ञान की उत्पत्ति मनोयोग से ही नहीं होती है, क्योंकि ऐसा मानने पर केवलज्ञान से व्यभिचार का प्रसंग उपस्थित हो जाता है । समनस्क जीवों में क्षायोपशमिक ज्ञान का कारण मनोयोग होना तो अभीष्ट ही है । यदि यह कहा जाय कि 'मनोयोग से वचम उत्पन्न होते हैं' - यह कैसे घटित होगा ? तो यह कोई दोषजनक नहीं है, क्योंकि यहाँ पर मानसज्ञान को उपचारवश 'मन' कहा गया । विकलेन्द्रियों के वचनों में अनुमयत्व होने का कारण यह है कि उनके वचन अनध्यवसाय रूप ज्ञान के कारण होते हैं । यद्यपि विकलेन्द्रिय के वचनों में ध्वनिविषयक अध्यवसाय अर्थात् निश्चय पाया जाता है, फिर भी उनको अनध्यवसाय का कारण कहने का तात्पर्य यह है कि यहाँ पर अनध्यवसाय से वक्ता के अभिप्राय विषयक अध्यवसाय का अभाव विवक्षित है । ४ मृषावचनयोग सत्यमृषावचन योग किसके होता है। मोसवचिजोगो समोसव विजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठिी-प्पहूडि जाब खीणकसाय- घीयराय-छदुमत्था त्ति । ० नं १ । १ । सू ५५ पु १ पृ० २८६ - षट् • - Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७३ ) क्षीणकषायस्य पचनं कथमसत्यमिति चेन्न, असत्यनिबन्धनाज्ञानसत्त्वापेक्षया तत्र तत्सत्त्वप्रतिपादनात् । तत एव नोभयसंयोगोऽपि विरुद्ध इति । पाचंयमस्य क्षीणकषायस्य कथं वाग्योगश्चेन्न, तत्रान्तर्जल्पस्य सत्वाविरोधात्। मृषावचनयोग और सत्यमृषावचनयोग संशी मिथ्यादृष्टि से लेकर, क्षीणकषाय वीतराग छमस्थ गुणस्थान तक होते हैं । जिसके कषाय क्षीण हो गये हैं ऐसे जीव के वचन असत्य कैसे हो सकते हैं ?ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि असत्य वचन का कारण अज्ञान है और वह बारहवें गुणस्थान तक रहता है-इस अपेक्षा से यहाँ कथन किया गया है और यही कारण है कि उभयसंयोगज सत्यमृषावचन का भी प्रतिपादन करना विरुद्ध नहीं है । वचनगुप्ति का पूरी तरह से पालन करनेवाले कषायरहित जीवों में वचनयोग प्राप्त होने का कारण यह है कि उनमें अन्तर्जल्प का सद्भाव स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं है। ५ आहारक-आहारकमिश्र काययोग किसके होता है आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो संजदाणमिड्ढिपत्ताणं । -षट • खं १ । १ । सू ५६ । पु १ । पृ २६७ टीका-आहारद्धिप्राप्तेः किमु संयताः ऋद्धिप्राप्ता उत वैक्रियकर्द्धिप्राप्तास्ते ऋद्धिप्राप्ता इति । किं चातः नाद्यः पक्ष आश्रयणयोग्यः इतरेतराश्रयदोषासंजननात् । कथम् ? यावन्नाहारद्धिरुत्पद्यते न तावत्तेषामृद्धिप्राप्तत्वम्, यावन्नद्धि प्राप्तत्वं न तावत्तेषामाहारद्धिरिति । न द्वितीयधिकल्पोऽपि ऋद्धरुपर्यभावात् । भावे वा आहारशरीरवतां मनःपर्ययज्ञानमपि जायेत विशेषाभावात् । न चैषमार्षेण सह विरोधादिति नादिपक्षोक्तदोषः समाढौकते । यतो नाहारद्धिरात्मानमपेक्ष्योत्पद्यते स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । अपि तु संयमातिशयापेक्षया तस्याः समुत्पत्तिरिति । ऋद्धिप्राप्तसंयतानामिति विशेषणमपि घटते तदनुत्पत्तावपि ऋद्धिहेतुसंयमः ऋद्धिः कारणे कार्योपचारात। ततश्चद्धिहेतुसंयमप्राप्ताः यतयः ऋद्धिप्राप्तास्तेषामाहारद्धिरिति सिद्धम् । संयमविशेषजनिताहारशरीरोत्पादनशक्तिराहारद्धिरिति वा नेतरेतराभयदोषः न द्वितीयधिकल्पोक्तदोषोऽप्यनभ्युपगमात् । नैषनियमोऽप्यस्स्येकस्मिन्नक्रमेण नद्धयो भूयस्यो भवन्तीति । गणभृत्सु सप्तानामपि ऋद्धीनामक्रमेण सत्त्वोपलम्भात्। आहारद्ध र्या सह मनःपयंयस्य Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७४ ) बिरोषो दृश्यत इति चेद्भवतु नाम दृष्टस्वात् । न चानेन विरोध इति सर्वाभिविरोधो वक्तुं पार्यतेऽव्यवस्थापत्तेरिति । आहारक काययोग और आहारकमिश्र काययोग ऋद्धिप्राप्त संयतों में होते हैं । अब यहाँ पर विचार किया जाता है कि संयतों को आहारक ऋद्धि की प्राप्ति होने से ऋद्धि प्राप्त समझना चाहिए अथवा उनको पहले वैक्रिय ऋद्धि प्राप्त है इसलिए ऋद्धि प्राप्त समझना चाहिए ? प्रथम पक्ष तो ग्रहण करने योग्य नहीं है, क्योंकि इतरेतराश्रय दोष आ जाता है ; यथा- जब तक उनमें आहारक ऋद्धि उत्पन्न नहीं होगी तब तक उनको ऋद्धि प्राप्त नहीं कहा जा सकता तथा जब तक वे ऋद्धि प्राप्त नहीं होंगे तब तक उनमें आहारक ऋद्धि उत्पन्न नहीं हो सकती है । दूसरा विकल्प भी स्वीकार करने योग्य नहीं है, क्योंकि उनमें उस समय दूसरी ऋद्धियों का अभाव रहता है। यदि सद्भाव मान भी लिया जाय तो आहारक ऋद्धिवालों में मन:पर्यय ज्ञान की उत्पत्ति भी माननी चाहिए; क्योंकि अन्य ऋद्धियों के समान इसके होने में कोई विशेषता नहीं है । किन्तु आहारक शरीरधारी में मन:पर्ययज्ञान माना नहीं जाता है, क्योंकि आगम से विरोध होता है । 1 वह तो आता नहीं है, क्योंकि तथा स्व से स्व की उत्पत्ति रूप संयतानाम्' यह विशेषण घटित प्राप्ति के हेतुभूत संयम को ही अतएव ऋद्धि के कारणभूत संयम प्रथम पक्ष में जो इतरेतराश्रय दोष दर्शाया गया है आहारक ऋद्धि स्व की अपेक्षा करके उत्पन्न नहीं होती है संयमातिशय की अपेक्षा से होती है । अतएव 'ऋद्धि प्राप्त होता है । यहाँ पर ऋद्धि की अप्राप्तावस्था में भी ऋद्धि कारण में कार्य का उपचार करके 'ऋद्धि' कहा गया है। को प्राप्त संयतों को ऋद्धि प्राप्त कहा गया है - ऐसे संयतों के आहारक ऋद्धि होती है यह बात सिद्ध हो जाती है । अथवा, संयमविशेष से उत्पन्न आहारक ऋद्धि के उत्पादन योग्य शक्ति को यहाँ आहारक ऋद्धि के उत्पादन योग्य शक्ति को यहाँ आहारक ऋद्धि कहा गया है, इसलिए इतरेतराश्रय दोष नहीं आता है। इसी प्रकार दूसरे विकल्प में दिखाया गया दोष भी नहीं आता है, क्योंकि एक ऋद्धि के साथ दूसरी ऋद्धि नहीं आती है, यह स्वीकार नहीं किया गया है। यह नियम भी नहीं है कि एक आत्मा में युगपत् अनेक ऋद्धियाँ उत्पन्न नहीं होती हैं, क्योंकि गणधरों में एक साथ सातों ही ऋद्धियों का सद्भाय देखा जाता है । आहारक ऋद्धि के साथ ममःपर्यय ज्ञान का विरोध होता है, इसलिए अन्य ऋद्धियों के साथ भी विरोध रहेगा - ऐसा नहीं कहा जा सकता है, अन्यथा अव्यवस्था उपस्थित हो जायगी । ६ वैक्रिय - वै क्रियमिश्र काययोग किसके होता है arooकायजोगो वेड व्विय निस्सकायजोगो देवणेरइयाणं । - षट् • खं १ । १ । सू ५८ । १ पृ० २६६ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७५ ) टीका-तिरश्चां मनुष्याणां च किमिति तदुदयो न भवेत् १ न, तिर्यङ्मनुष्यगतिकर्मोदयेन सह वैक्रियकोदयस्य विरोधात्स्वभावाद्वा। न हि स्वभावाः परपर्यनुयोगार्हाः अतिप्रसङ्गात् । तिर्यञ्चो मनुष्याश्च वैक्रियकशरीराः श्रूयन्ते तत्कथं घटत इति चेन्न, औदारिकशरीरं द्विविधं विक्रियात्मकमषिक्रियात्मकमिति । तत्र यतिक्रियात्मकं तद्वै क्रियकमिति तत्रोक्त न तदत्र परिगृ. ह्यते विविधगुणद्ध र्यभावात् । अत्र विषिधगुणद्ध र्यात्मक परिगृह्यते, तश्च देषनारकाणामेव। वैक्रिय काययोग और वैक्रिय मिश्र काययोग देव और नारकियों में होते हैं। तिर्यच और मनुष्यों में इन दोनों योगों के उदय नहीं होने का कारण यह है कि तियंच और मनुष्यगति कर्मोदय के साथ वैक्रिय नामकर्म के उदय का विरोध है; अथवा, स्वभावतः इनमें वैक्रिय मामकर्म का उदय नहीं होता है। स्वभाव दूसरे के प्रश्नों के योग्य नहीं होता है, क्योंकि अतिप्रसंग दोष उपस्थित हो जायगा। तिर्यच और मनुष्य भी वे क्रिय शरीरधारी होते हैं, ऐसा जो सुना जाता है उसका अभिप्राय है-औदारिक शरीर दो प्रकार के मामे गये है-विक्रियात्मक और अविक्रियात्मक । मनुष्य और तिर्य'चों के विक्रियात्मक शरीर कहा गया है, जिसका यहाँ पर ग्रहण नहीं किया गया है, क्योंकि उसमें विविध गुण और ऋद्धियों का अभाव है। यहाँ पर विविध गुण और ऋद्धि से युक्त वैक्रियशरीर का ग्रहण किया गया है जो देव और नारकियों में ही होता है। '७ औदारिक काययोग किसके होता है ? ओरालियकायजोगो ओरासियमिस्सकाथजोगो तिरिक्त्रमणुस्साणं। -षट खं १ । १ सू ५७ । पृ १ पृ. २६५ देवनारकाणां किमित्यौदारिकशरीरोदयो न भवेत् १ न, स्वाभाव्यात देषनरकगतिकर्मोदयेन सह औदारिककर्मोदयस्य विरोधाद्वा। न च तिरश्चा मनुष्याणां चौदारिककाययोग एवेति नियमोऽस्ति तत्र कार्मणकाययोगदीनामभाषापत्तेः किं नु औदारिककाययोगस्तियंङ मनुष्याणामेष । औदारिक काययोग और औदारिकमिश्र काययोग नियंच और मनुष्यों में होते है। देव और नारकियों में औदारिक शरीर नहीं होने का कारण इनका स्वभाव है। अथवा देवगति और नरकगति नामकम के उदय के साथ औदारिक शरीर नामकर्म के उदय का विरोध है। किन्तु तिर्यच और मनुष्य के औदारिक काययोग ही होता है-- ऐसा नियम नहीं है क्योंकि ऐसा नियम स्वीकार करनेपर तिर्य च और मनुष्यों में कामणकाययोग Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६ ) आदि के अभाव का प्रसंस उपस्थित हो जायगा, अतएव औदारिक काययोग तिर्यच और मनुष्यों में ही होता है - ऐसा समझना चाहिए । •८ कार्मण काययोग किसके होता है। कम्मइयकायजोगो विग्गहगइ- समावण्णाणं केवलीणं वा समुग्धाद गाणं | - षट् खं १ । १ सू ६० । पु १ पृ० २६८ टीका - विग्रहो देहस्तदर्था गतिः विग्रहगतिः औदारिकशरीरनामोदयास्वनिर्वर्तन समर्थात् विविधात् पुद्गलान् गृह्णाति विगृह्यतेऽसौ संसारिणा इति षां विग्रहो देहः । विग्रहाय गतिः विग्रहगतिः । अथवा विरुद्धो ग्रहो विग्रहः व्याघातः पुद्गलादान निरोध इत्यर्थः । विग्रहेण पुद्गलादाननिरोधेन गतिः विग्रहगतिः । अथवा विग्रहो व्याघातः कौटिल्यमित्यनर्थान्तरम् । विग्रहेण कौटिल्येन गतिः विग्रहगतिः । तां सम्यगापन्नाः प्राप्ताः विग्रहगतिसमापन्नाः, तेषां विग्रहगतिसमापन्नानाम् । सर्वाणि शरीराणि यतः प्ररोहन्ति तद्बीजभूतं कार्मणशरीरं कार्मणकाय इति भण्यते । वाङ्मनः कायवर्गणानिमित्तः आत्मप्रदेशपरिस्पन्दो योगो भवति । कार्मणकायकृतो योगः कार्मणकाययोगः । स विग्रहगतौ वक्रगतौ वर्तमानजीवानां भवति एतदुक्तम्, गतेत्यन्तरं व्रजतां प्राणिनां चतस्रो गतयो भवन्ति इषुगतिः पाणिमुक्ता लाङ्गलिका गोमूत्रिका चेति । तत्राचिग्रहा प्राथमिकी, शेषाः विग्रहवत्यः । ऋज्वी गतिरिषुगतिरै कसमयिकी । यथा पाणिना तिर्यक्प्रक्षिप्तस्य द्रव्यस्य गतिरेकविग्रहा गतिः तथा संसारिणामेकविग्रहा गतिः पाणिमुक्ता इसमयिकी । यथा लाङ्गलं द्विes तथा द्विविग्रहा गतिलङ्गिलिका त्रैसमयिकी । यथा गोमूत्रिका बहुवका तथा त्रिविग्रहा गतिगमूत्रिका यातुःसमयिकी । तत्र कार्मणकाययोगः स्यादिति । स्वस्थितप्रदेशादारभ्योऽवांध स्तियं गाकाशप्रदेशानां क्रमसन्निविष्टानां पङ्किः श्रेणिरित्युच्यते । तयैव जीवानां गमनं नोच्छू णिरूपेण । ततस्त्रिविग्रहा गतिर्न विरुद्धा जीवस्येति । घातनं घातः स्थित्यनुभययोबिनाश इति यावत् । कथमनुक्तमनधिकृतं वावगम्यत इतिचेन्न, प्रकरणवशात्तदवगतेः । उपरि घातः उद्घातः, समीचीन उद्घातः समुद्घातः । कथमस्य घातस्य समीचीनत्वमिति चेन्न, भूयः भूयः - कालनिष्पद्यमानघातेभ्योऽग्यैकसमयिकस्य समीचीनत्वाविरोधात् । समुद्घातं गताः समुद्घातगताः कथमेकस्मिन् गम्यगमकभावश्चेन्न, पर्यायपर्यायणां कथं Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७७ ) चिद् भेदविवक्षायां तदविरोधात् । तेषां समुद्घातगतानां केवलिनां कार्मणकाययोगो भवेत् । शब्दः समुच्चयप्रतिपादकः । ____ अथ स्यात्केवलिनां समुद्घातः सहेतुको निर्हेतुको वा ? न द्वितीयविकल्पः, सर्वेषां समुद्घातगमनपूर्वकं मुक्तिप्रसङ्गात्। अस्तु चेन्न, लोकव्यापिनां केवलिनां विंशतिसंख्यावर्षपृथक्त्वानन्तरनियमानुपपत्तेः। न प्रथमपक्षोऽपि तद्ध त्वनुपलम्भात् । न तावदघातिकर्मणां स्थित्यायुष्यस्थितेरसमानता हेतुः क्षीणकषायचरमावस्थायां सर्वकर्मणां समानत्वाभावात् सर्वेषामपि तत्प्रसङ्गादिति। अत्र प्रतिषिधीयते । यतिवृषभोपदेशात्सर्वघातिकर्मणां क्षीणकषायचरमसमये स्थितेः साम्याभावात्सर्वेऽपि कृतसमुद्घाताः सन्तो निवृतिमुपढौकन्ते । येषामाचार्याणां लोकव्यापिकेवलिषु विंशतिसंख्यानियमस्तेषां मतेन केचित्समुद्घातयन्ति, केचिन्न समुद्घातयन्ति ? के न समुद्घातयन्ति येषां संसृति व्यक्तिः कर्मस्थित्या समाना, ते न समुद्घातयन्ति, शेषाः समुद्घातयन्ति। अनिवृत्त्यादिपरिणामेषु समानेषु सत्सु किमिति स्थित्योर्वेषम्यम् ? न, व्यक्तिस्थितिघातहेतुप्यनिवृत्त- परिणामेषु समानेषु सत्सु संसृतेस्तत्समानत्वविरोधात् । संसारपिच्छित्तेः किं कारणम् ? द्वादशाङ्गावगमः तत्तीवभक्तिः केवलिसमुद्घातोऽनिवृत्तपरिणामाश्च । न चैते सर्वेषु सम्भवन्ति दशनवपूर्वधारिणामपि क्षपकश्रेण्यारोहणदर्शनात् । न तत्र संसारसमानकर्मस्थितयः समुद्घातेन विना स्थितिकाण्डकानि अन्तर्महर्तेन निपतनस्वभावानि पल्योपमस्यासंख्येयभागायतानि संख्येयापलिकायतानि च निपातयन्तः आयुः समानि कर्माणि कुर्वन्ति । अपरे समुद्घातेन समानयन्ति । न चैष संसारघातः केवलिनि प्राक् सम्भवति स्थितिकाण्डघातवत्समानपरिणामत्वात् । परिणामातिशयाभावे पश्चादपि मा भूद्घात इति चेन्न, पीतरागपरिणामेषु समानेषु सत्स्वन्येभ्योऽन्तर्मुहूर्तायुरपेक्ष्य आत्मनः समुत्पन्नेभ्यस्तद्घातोपपत्तेः अन्यैराचार्यैव्याख्यातमिममर्थ भणन्तः कथं न सूत्रप्रत्यनीकाः १ न, वर्षपृथक्त्वानन्तरसूत्रवशवर्तिनां तद्विरोधात । कामणकाययोग विग्रहगति को प्राप्त जीवों में तथा समुद्घातगत केवलियों में होता है। विग्रह देह को कहा जाता है, उसके लिए जो गति होती है यह विग्रह गति । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७८ ) औदारिक आदि शरीर नामकर्म के उदय से जीव अपने शरीर की रचना करने में समर्थ अनेक प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण करता है, अतः संसारी जीव के द्वारा शरीर का ग्रहण किया जाता है, इसलिए विग्रह देह को कहा जाता है। ऐसे विग्रह अर्थांव शरीर के लिए जो गति होती है उसको विग्रहगति कहते हैं । अथवा, वि का अर्थ विरुद्ध और ग्रह का अर्थ घात करने से विग्रह का अर्थ व्याघात भी होता है, जिसका अर्थ होता है-पुदगलों के ग्रहण करने का निरोध। इसलिए विग्रह अर्थात् पुद्गलों के ग्रहण करने के निरोध के साथ जो गति होती है उसको विग्रहगति कहते है। अथवा विग्रह, व्याघात और कौटिल्यये एकार्थवाची है, इसलिए विग्रह से अर्थात् कुटिलता ( मोड़ ) के साथ जो गति होती है उसको विग्रहगति कहते हैं। इस विग्रहगति को पूर्ण रूपेण प्राप्त जीव विग्रहगति समापन्न कहलाते है। ऐसे विग्रहगति को प्राप्त जीवों में कामणकाययोग होता है। जिससे सम्पूर्ण शरीर उत्पन्न होते हैं उस बीजभूत कार्मणशरीर को कार्मणकाय कहते हैं। वचनवर्गणा, मनोवर्गणा और कायवर्गणा के निमित्त से जो आत्म प्रदेशों का परिस्पन्दन होता है उसको योग कहते हैं। कार्मणकाय से जो योग उत्पन्न होता है उसको कार्मणकाययोग कहते है। यह विग्रहगति अर्थात् वक्रगति में वर्तमान जीवों के होता है। ___ आगम में कहा गया है-एक गति से दूसरी गति में गमन करनेवाले जीव में चार प्रकार की गति होती है-इषुगति, पाणिमुक्ता गति, लांगलिका गति और गोमूत्रिका गति । इनमें से पहली गति विग्रहरहित होती है, शेष गतियाँ विग्रहसहित होती है। सरल अर्थात धनुष से छूटे हुए वाण के समान मोड रहित गति को इघुगति कहते हैं। इस गति में एक समय लगता है। हाथ से तिरछे फेंके गये द्रव्य की एक मोड़वाली गति होती है, इसी प्रकार संसारी जीव की एक मोड़वाली गति को पाणिमुक्ता गति कहते हैं। इस गति में दो समय लगता है। जेसे हल में दो मोड़ होते हैं, उसी प्रकार दो मोड़वाली गति को लांगलिका गति कहते है। इस गति में तीन समय लगता है। जैसे गाय के चलते अनेक मोड़ होते है उसी प्रकार तीन मोड़वाली गति को गोमूत्रिका गति कहते हैं । इस गति में चार समय लगता है। इषगति के अतिरिक्त शेष तीनों विग्रहगतियों में कामण काययोग होता है। जो प्रदेश जहाँ पर स्थित है वहाँ से लेकर ऊपर, नीचे और तिरछे क्रम से विद्यमान आकाश प्रदेशों की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं। इस श्रेणी के द्वारा ही जीवों का गमन होता है, न कि श्रेणी को उल्लंघन करके ; अतएव विग्रह गतिवाले जीव की त्रिविग्रहा अर्थाद तीन मोड़वाली गति विरोध को प्राप्त नहीं होती है, अर्थात ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ पहुँचने के लिए जीव को चार मोड़ की आवश्यकता हो । घात करना रूप धर्म को घात कहते है, जिसका प्रकृत में अर्थ होता है-कों की स्थिति और अनुभाग का विनाश । यद्यपि अभी तक कर्मों की स्थिति और अनुभाग का कथन नहीं किया गया है और न उसका अधिकार ही है, तथापि कर्मों की स्थिति और अनुभाग की विवक्षा यहाँ पर प्रकरण वश जानी जाती है, क्योंकि केवली समुद्घात में वे विवक्षित रहते हैं। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६ ) उत्तरोत्तर होनेवाले घात को उद्घात कहते हैं तथा समीचीन उद्घात को समुद्घात कहते हैं । इस घात को समीचीन कहने का अभिप्राय यह है कि बहुत काल में सम्पन्न होनेवाले घातों से एक समय में सम्पन्न होनेवाले इस घात को समीचीन कहने में कोई आपत्ति नहीं है । यद्यपि यहाँ पर एक ही पदार्थ में गम्य गमक भाव स्वीकार किया गया है, क्योंकि पर्यायी से पर्याय अभिन्न है; फिर भी यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि कथंचित् पर्याय और पर्यायी की भेद विवक्षा करनेपर गम्यगमक भाव बन जाता है, अतः कोई विरोध नहीं है । ऐसे समुदुघातगत केवलियों में कार्मण काययोग होता है। सूत्र में आया हुआ 'वा' शब्द समुच्चय अर्थ का प्रतिपादक है । अब प्रश्न होता है— केवलियों का समुद्घात सहेतुक होता है या निर्हेतुक | दूसरा विकल्प अर्थात 'निर्हेतुक होना' स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर सभी केवलियों को समुद्घात के अनन्तर ही मोक्ष-गमन का प्रसंग उपस्थित हो जायगा । यह भी कहना उचित नहीं है कि सभी केवली समुद्घातपूर्वक ही मोक्ष को प्राप्त करते हैं, क्योंकि ऐसे मानने पर लोकपूरण समुदघात करनेवाले केवलियों की वर्ष पृथक्त्व के अनन्तर नियत (२०) संख्या नहीं बन सकती है । प्रथम पक्ष अर्थात् सहेतुक समुद्घात भी मान्य नहीं है, क्योंकि कोई हेतु उपलब्ध नहीं होता है । यदि कहा जाय कि तीन अघाती कर्मों की असमानता ही समुद्घात का कारण है- यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि क्षीणकषाय गुणस्थान की चरमावस्था में सभी कर्म समान नहीं रहते हैं, अतः सभी केवलियों के समुद्घात का प्रसंग आ जायगा । यद्यपि यतिवृषभाचार्य के मतानुसार क्षीणकषाय गुणस्थान के चरम समय में सभी अघाती कर्मों की स्थिति समान नहीं रहती है, अतः सभी केवली समुद्घात करके ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं, तथापि जिन आचार्यों के मतानुसार लोकपूरण समुद्घात करनेवाले केवलियों की बीस संख्या नियत है, उनके अनुसार कितने केवली समुदघात करते हैं और कितने नहीं करते हैं। 1 वे केवली समुद्घात नहीं करते हैं जिनकी संसार व्यक्ति अर्थात् संसार में रहने का काल वेदनीय आदि कर्मों की स्थिति के समान है। शेष केवली समुद्घात करते हैं । अनिवृत्ति आदि परिणामों के समान रहने पर भी संसार व्यक्ति-स्थिति और कर्मों' की स्थिति में विषमता का कारण यह है कि संसार-व्यक्ति और कर्म स्थिति के घात के कारणभूत अनिवृत्तिरूप परिणामों के समान रहनेपर संसार को उन तीन कम की स्थिति के समान मान लेने में विरोध आता है । संसार - विच्छेद का कारण है- द्वादशांग का ज्ञान, उनमें तीव्र भक्ति, केवली समुद्धात और अनिवृत्ति रूप परिणाम | परन्तु ये सब कारण सभी जीवों में संभव नहीं हैं, Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८० ) क्योंकि दशपूर्वघर और नवपूर्वधर जीवों का भी क्षपकश्रेणी पर चढ़ना देखा जाता है, अतः वहाँ संसार-व्यक्ति के समान कर्मस्थिति नहीं पाई जाती है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त में नियम से नष्ट होनेवाले पल्योपम के असंख्यातवें भाग रूप अथवा संख्यात आवली रूप स्थिति काण्डको का विनाश करते हुए कितने ही जीव बिना समुद्घात के ही आयु के समान शेष कर्मों को कर लेते हैं तथा कितने जीव समुद्घात के द्वारा करते हैं । यह संसारघात पहले संभव नहीं है, क्योंकि पहले स्थिति काण्डक के घात के समान सभी जीवों के समान परिणाम पाये जाते है । जज कि परिणामों में कोई अतिशयता नहीं है तो पीछे भी संसार घात नहीं होऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वीतराग रूप परिणामों के समान रहने पर भी अन्तमुहूर्त प्रमाण आयुकर्म की अपेक्षा से आत्मा के उत्पन्न हुए अन्य विशिष्ट परिणामों से संसारघात बन जाता है । उपर्युक्त कथन का यद्यपि अन्य आचार्यों द्वारा व्याख्यान नहीं किया गया है तथापि इसको सूत्र - विरुद्ध नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि वर्षपृथक्त्व के अन्तराल का प्रतिपादन करनेवाले सुत्र के वशवर्ती आचार्यों का ही पूर्वोक्त कथन से विरोध आता है । .९ विविध योग जीव में कायजोगो ओरालियकायजोगो ओरालियमिस्सकायओगो एइंदिप्पहुड जाव सजोगिकेवलि त्ति । — षट् ० खं १ । १ । सू ६१ | पु १ पृ० ३०५ टीका - काययोग एवेत्यवधारणाभावान्न वाङ्मनसोरभावः । एवं शेषाणामपि वाच्यमिति । एकेन्द्रियप्रभृत्यासयोगकेवलिनः औदारिक-मिश्रकाययोगिनः इति प्रतिपद्यमाने देशविरतादिक्षीणकषायान्तानामपि तदस्तित्वं प्राप्नुयादिति चेन्न, प्रभृतिशब्दोऽयं व्यवस्थायां प्रकारे च वर्तते । अत्र प्रभृतिशब्दः प्रकारे परिगृह्यते, यथा सिंहप्रभृतयो मृगा इति । ततो न तेषां ग्रहणम् । व्यवस्थावाचिनोऽपि ग्रहणे न दोषः 'ओरालिय- मिस्स - कायजोगो अपजत्ताणं' ति बाधक सूत्र सम्भवाद्वा । औधिक काययोग, विशेष रूप से औदारिक काययोग और औदारिकमिश्र काययोग एकेन्द्रिय से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं । काययोग ही होता है, इस प्रकार का अवधारण - निश्चय नहीं होने के कारण उपर्युक्त गुणस्थानों में वचनयोग और मनोयोग का अभाव नहीं समझना चाहिए । इसी प्रकार अन्य योगों का भी कथन करना चाहिए । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८१ ) यद्यपि सूत्र में एकेन्द्रिय से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक औदारिकमिश्र काययोगी होते हैं-ऐसा कथन है, फिर भी देशविरत आदि क्षीणकषाय पर्यन्त गुणस्थानों में औदारिकमिश्र काययोग का सद्भाव नहीं होगा, क्योंकि प्रभृति शब्द के दो अर्थ होते हैव्यवस्था और प्रकार । इनमें से यहाँ पर प्रभृति शब्द का 'प्रकार' अर्थ लिया गया है ; जैसे सिंह आदि मृग माने जाते हैं। अतएव औदारिकमिश्र काययोग में देशविरत आदि क्षीणकषाय तक के गुणस्थानों का ग्रहण नहीं होता है। अथवा, ब्यवस्थावाची भी प्रभृति शब्द का ग्रहण करने पर कोई दोष नहीं आता है । अथवा, अग्रिम सूत्र 'ओरालियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं' अर्थात् औदारिकमिश्र काययोग अपर्याप्तकों में होता है-इसके बाधक होने के कारण भी पूर्वोक्त दोष नहीं रहता है । .१० आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो एक्कम्हि घेव पमत्तसंजद-वाणे। -षट • खं १ । १ । सू ६३ । पृ १ । पृ० ३०६ टीका-अप्रमादिनां संयतानां किमित्याहारकाययोगो न भवेदितिचेन्न, तत्र तदुत्थापने निमित्ताभाषात् । तदुत्थापने किं निमित्तमिति चेदाचाकनिष्ठतायाः समुत्पन्नप्रमादः असंयमबहुलतोत्पन्नप्रमादश्च । न च प्रमादनिबन्धनोऽप्रमादिनि भवेदतिप्रसङ्गात् । अथवा स्वभाषोऽयं यदाहारकाययोगः प्रमादिनामेवोपजायते, नाप्रमादिनामिति । ___ आहारक काययोग और आहारमिश्र काययोग एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही होते है। ___ अप्रमादी अर्थात प्रमादरहित संयतों में आहारक काययोग नहीं होने का कारण है उसके निमित्त कारण का अभाष । आहारक काययोग के उत्पन्न कराने में निमित्त कारण है-आशा-कनिष्ठता अर्थात आप्तवचन में सन्देहजनित शिथिलता के द्वारा उत्पन्न हुआ प्रमाद तथा असंयम की बहुलता से उत्पन्न प्रमाद । जो कार्य प्रमाद के निमित्त से उत्पन्न होता है यह प्रमादरहित जीवों में नहीं हो सकता है। अथवा, यह स्वाभाविक है कि आहारक काययोग प्रमत्त गुणस्थान में ही होता है, प्रमादरहित जीवों में नहीं। .११ वेउब्धियकायजोगो वेउब्धियमिस्सकायजोगो सण्णिमिच्छाइटिप्पहुडि जाप असंजदसम्माइद्विति। -षट् खं १।१ । सू ६२ । पु १ । पृ० ३०५ अत्र च शब्दः कर्तव्योऽन्यथा समुच्चयावगमानुपपत्ते रिति न, च-शब्दमन्तरेणापि समुच्चयार्थापगतेः यथा पृथिव्यप्ते जोवायुरित्यत्र। सम्यमिथ्याहप्टेरपि वैक्रियकमिश्रकाययोगः प्राप्नुयादिति चेन्न, उक्तोत्तरत्वात्। 'सम्मामिच्छाडि-हाणे णियमा पजता, वेउब्धिय-मिस्स-कायजोगो अपजत्ताण' ३६ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८२ ) इत्याभ्यां वा सूत्राभ्यामवसीयते यथा न सम्यमिथ्याप्टे! क्रियकमिश्रकाययोगः समस्तीति। वैक्रिय काययोग और वैक्रियमिश्र काययोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि तक होते हैं। समुच्चय अर्थ का बोध कराने के लिए सूत्र में 'च' शब्द का रहना अपेक्षित है, फिर 'च' शब्द के अभाव में भी कदाचित् समुच्चय रूप अर्थ का बोध होता है, यथा-'पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः' इस सूत्र में 'च' शब्द के अभाव में भी समुच्चय रूप अर्थ का बोध होता है। सूत्र के अनुसार सम्यग्मिथ्याडष्टि गुणस्थान में भी वैक्रियमिश्र काययोग होना चाहिए, किन्तु होता नहीं है, क्योंकि औदारिकमिश्र काययोग के प्रकरण में 'प्रभृति' शब्द को व्यवस्थावाची या प्रकारवाची माना गया है, अतः पूर्वोक्त दोष नहीं आता है। अथवा, 'सम्मामिच्छाइट्ठिाणे णियमा पजत्ता', 'वेग्वियमिस्स कायजोगो अपज्जताण'-अर्थाद सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में जीव नियम से पर्याप्त रहते हैं तथा वैक्रियमिथ काययोग अपर्याप्तों में होता है-इन दोनों सूत्रों के आधार पर सभ्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में वैक्रियमिश्र काययोग नहीं होता है । .१२ कम्मइयकायजोगो एइंदियप्पहुडि जाप सजोगिकेवलि त्ति । -षट् ० १ । १ सू ६४ पु १ । पृ० ३०७ टीका-देशषिरतादिक्षीणकषायान्तानामपि कार्मणकाययोगस्यास्तित्वं प्राप्नोत्यस्मात्सूत्रादिति चेन्न, 'संजदासंजदट्ठाणे णियमा पजत्ता' इत्येतस्मा सूत्रात्तत्र तदभावावगतः। न च समुद्घाताहते पर्याप्तानांकामणकाययोगोऽस्ति । किमिति स तत्र नास्तीति चेद्विग्रहगतेरभावात्। देवविद्याधरादीनां पर्याप्तानामपि वक्रा गतिरुपलभ्यते चेन्न, पूर्वशरीरं परित्यज्योत्तरशरीरमादातुं ब्रजतो चक्रगतेविवक्षितत्वात्। कार्मण काययोंग एकेन्द्रिय से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होता है। यद्यपि सूत्र के अनुसार देशविरत गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक भी कामणकाययोग का सद्भाव प्राप्त होता है, परन्तु ऐसा होता नहीं है, क्योंकि सूत्र है'संजदासजदठाणे णियमा पज्जत्ता' अर्थात् संयतासंयत गुणस्थान में जीव नियम से पर्याप्त होते हैं । ( इस सूत्र में संयतासंयत शब्द उपलक्षण है, अतः पंचम गुणस्थान से ऊपर सभी गुणस्थानों का सूचक है।) और, समुद्घात के अतिरिक्त पर्याप्त जीवों में कामण काययोग नहीं होता है। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८३ ) पर्याप्त जीवों में कामण काययोग नहीं होने का कारण यह है कि विग्रह गति का अभाव रहता है। देव और विद्याधर आदि पर्याप्त जीवों में वक्रगति नहीं पाई जाती है। क्योंकि पूर्व शरीर को छोड़कर आगे के शरीर को ग्रहण करने के लिए गमन करते हुए जीव के जो एक, दो या तीन मोड़णाली गति होती है उसी वक्रगति की यहाँ विवक्षा है। कायजोगो पजत्ताण वि अस्थि, अपजत्ताण वि अस्थि । -षट ° खं १।१ । सू ६६ । पृ १ । पृ० ३१० टीका-'अपि' शब्दः समुच्चयार्थे द्रष्टव्यः। कः समुश्चयः १ एकस्य निर्दिष्टप्रदेशद्विप्रभृतरुपनिपातः समुश्चयः। द्विरस्ति-शब्दो-पादानभनर्थकमिति बेन, विस्तररुचिसत्त्वानुग्रहार्थत्वात्। संक्षेपरुवयोनानुग्रहीताश्चेन्न, विस्तररुचिसत्त्वानुग्रहस्य संक्षेपरुनिसत्त्वानुग्रहा-विनाभावित्वात् । काययोग पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों में होता है । सूत्र में जो 'अपि' शब्द आया है वह समुच्चयार्थक है। समुच्चय का अर्थ होता है-- किसी एक बस्त के निर्दिष्ट स्थान में दो आदि बार प्राप्त होना । सूत्र में 'अस्ति' शब्द दो बार प्रयुक्त हुआ है, किन्तु वह निरर्थक नहीं है, क्योंकि विस्तार से समझने की रुचि रखनेवाले शिष्यों के अनुग्रह के लिए सूत्र में दो बार अस्ति शब्द का प्रयोग हुआ है। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि संक्षेप से समझनेवाले शिष्यों को अनुगृहीत नहीं किया गया है, क्योंकि संक्षेप से समझने की रुचि रखनेवाले जीवों का अनुग्रह विस्तार से समझने की रुचि रखनेवाले जीवों के अनुग्रह में अविनाभावी है। अर्थात विस्तार से कथन हो जाने पर संक्षेप से समझनेवाले शिष्यों का कार्य स्वतः चल जाता है । .१३ ओरालियकायजोगो पजत्ताणं ओरालियमिस्सकायजोगो अपजत्ताणं । - घट० खं १।१ । सु ७६ । पु १ । पृ० ३१५ टीका-षड्भिः पञ्चभिश्चतसृभिर्वा पर्याप्तिभिनिष्पन्नाः परिनिष्ठितास्तिर्यञ्चो मनुष्याश्च पर्याप्ताः । किमेकया पर्याप्त्या निष्पन्नः पर्याप्तः उत साकस्येन निष्पन्न इति १ शरीरपर्याप्त्या निष्पन्मः पर्याप्त इति भण्यते । तत्रौदारिककाययोगो निष्पन्नशरीरावष्टम्भवलेनोत्पन्नजीव-प्रदेशपरिस्पन्देन योगः औदारिककाययोगः। अपर्याप्तावस्थायामौदारिकमिश्रकाययोगः। कार्मणौदारिकस्कन्धनिबन्धमजीवप्रदेशपरिस्पन्देन योगः औदारिकमिश्रकाययोग इति यावत् । पर्याप्तावस्थायां कार्मणशरीरस्य सत्त्वात्तत्राप्युभयनिबम्धनात्मप्रदेशपरिस्पन्द Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८४ ) इति औदारिकमिश्रकाययोगः किमु न स्यादिति चेन्न, तत्र तस्य सतोऽपि जीपप्रदेशपरिस्पन्दस्याहेतुत्वात् । न पारम्पर्यकृतं तच तुस्वं तस्यौपचारिकत्वात् । न तदप्यविवक्षितत्वात् । अय स्यात्परिस्पन्दस्य बन्धहेतुत्वे संचरदभाणामपि कर्मबन्धः प्रसजतीति न, कर्मजनितस्य चैतन्यपरिस्पन्दस्यास्रबहेनुत्त्वेन विषक्षितत्वात् । न चाभूपरिस्पन्दः कर्मजनितो येन तद्ध तुतामास्कन्देत् । __औदारिक काययोग पर्याप्तों में होता है तथा औदारिकमिश्र काययोग अपर्याप्तों में होता है। छः पर्याप्ति, पाँच पर्याप्ति या चार पर्याप्तियों से पूर्णता को प्राप्त मनुष्य और तिर्यच को पर्याप्ठ कहा जाता है। अब प्रश्न होता है- क्या कोई जीव एक पर्याप्ति से पूर्णता को प्राप्त कर पर्याप्त कहलाता है या सभी पर्याप्ठियों से पूर्णता को प्राप्त कर पर्याप्त कहलाता है ! सभी जीव शरीर पर्याप्ति के निष्पन्न होनेपर ही पर्याप्त कहलाते हैं। पर्याप्ति को प्राप्त शरीर के आलम्बन द्वारा उत्पन्न हुए जीव-प्रदेश परिस्पदन से जो योग होता है उसको औदारिक काययोग कहते हैं ; और औदारिक शरीर की अपर्याप्तावस्था में औदारिकमिश्र काययोग होता है। अभिप्राय यह है कि कार्मण और औदारिक शरीर के स्कन्धों के निमित्त से जीव-प्रदेशों में उत्पन्न हुए परिस्पन्दन से जो योग होता है उसको औदारिकमिश्र काययोग कहते है। यद्यपि पर्याप्त अवस्था में कार्मणशरीर का सद्भाव रहता है, अतः वहाँ पर भी कार्मण और औदारिक शरीर के स्कन्धों के निमित्त से आत्म-प्रदेशों में परिस्पन्दन रूप को औदारिकमिश्र काययोग मानना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं है, क्योंकि पर्याप्त अवस्था में कामणशरीर विद्यमान तो रहता है, किन्तु वह जीव-प्रदेश के परिस्पन्दन का कारण नहीं रहता है। पर्याप्त अवस्था में कार्मणशरीर को परम्परा से जीव-प्रदेशों के परिस्पन्दन का कारण मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि कार्मणशरीर को परम्परा से निमित्त मानना औपचारिक है। उपचारवश ग्रहण कर लेना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उपचारवश परम्परा रूप निमित्त ग्रहण करने की यहाँ पर विवक्षा नहीं है। यद्यपि परिस्पन्द को बन्ध का कारण माना गया है, किन्तु संचरण करते हुए मेघ के परिस्पन्दनशील होने के कारण उनमें भी कर्मबन्ध का प्रसंग उपस्थित नहीं होता है, क्योंकि कर्म जनित चैतन्यपरिस्पन्द ही आश्रव का कारण है-ऐसा अर्थ यहाँ पर विवक्षित है। मेघों का परिस्पन्दन कमजनित नहीं होता है जिससे वह कर्मबन्ध के आश्रव का हेत माना जा सके। .१४ वेउव्वियकायजोगो पजत्ताणं वेउब्धियमिस्सकायजोगो अपजत्ताणं । -षट वं१।१ सू ७७ । पृ १ पृ० ३१७ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८५ ) टीका-पर्याप्तावस्थायां वैक्रियकाययोगे सति तत्र शेषयोगाभावः स्यादिति चेन्न, तत्र वैक्रियकाययोग एवास्तीत्यवधारणाभावात् । अवधारणाभावेऽपर्याप्तावस्थायां शेषयोगानामपि सत्वमापतेदिति चेत्सत्यम्, कार्मणकाययोगस्य सत्त्वोपलम्भात् । न तद्वत्तत्र वाङ्मनसयोरपि सत्त्वमपर्याप्तानां तयोरभाषस्योकत्वात्। वैक्रिय काययोग पर्याप्तों में होता है तथा वैक्रियमिश्र काययोग अपर्याप्तों में होता है। यद्यपि पर्याप्त अवस्था में क्रिय काययोग माना सया है, अतः वहाँ पर अन्य योग नहीं होते है-ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि वहाँ पर 'वैक्रिय काययोग ही होता है, ऐसा अवधारण अर्थात निश्चय रूप से कथन नहीं किया गया है। यदि पर्याप्त अवस्था में कोई निश्चय नहीं है तो इसी आधार पर अपर्याप्त अवस्था में भी शेष योगों का सद्भाव माना जाय--यह कहना किसी अपेक्षा से ठीक नहीं है, क्योंकि अपर्याप्त अवस्था में वे क्रियमिभ के अतिरिक्त कामण काययोग का भी सद्भाव रहता है, किन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि कार्मण काययोग के समान ही अपर्याप्त अवस्था में यचनयोग और मनोयोग का सद्भाव रहता है, क्योंकि ये दोनों योग अपर्याप्त अवस्था में नहीं होते हैं। .१५ आहारकायजोगो पजत्ता आहारमिस्सकायजोगो अपजत्ताणं। __ -घट • खं० १ । १ । सू ७८ । पु १ । पृ. ३१७ टीका-आहारशरीरोत्थापकः पर्याप्तः संयतत्वान्यथानुपपत्तेः। तथा चाहारमिश्रकाययोगोऽपर्याप्तकस्येति न घटामटेदितिचेन्न, अनवगतसूत्राभिप्रायस्वात् तद्यथा, भवत्वसौ पर्याप्तकः औदारिकशरीरगतषट्पर्याप्त्यपेक्षया, आहारशरीरगतपर्याप्तिनिष्पत्त्यभाषापेक्षया त्वपर्याप्तकोऽसौ। पर्याप्तापर्याप्तत्वयोन्नैकत्राक्रमेण संभवो विरोधादितिचेन्न, पर्याप्तापर्याप्तयोगयोरक्रमेणैकत्र न सम्भवः इतीष्टप्यात् । कथं न पूर्षोऽभ्युपगमः इति घिरोध इति चेन्न, भूतपूर्वगतन्यायापेक्षयाविरोधासिद्ध। विनष्टौदारिकशरीरसम्बन्धषट्पर्याप्त रपरिनिष्ठिताहारशरीरपर्याप्त रपर्याप्तस्य कथं संयम इति चेन्न, संयमस्यास्रवनिरोधलक्षणस्य मन्दयोगेन सह विरोधासिछ। विरोधेवा न केवलिमोऽपि समुद्घातगतस्य संयमः तत्राप्यपर्याप्तकयोगास्तिस्वं प्रत्यविशेषात् । 'संजदासंजदहाणे णियमा पजत्ता' इत्यनेनार्षेण सह कथं न विरोधः स्यादिति चेन्न, द्रव्याथिकनयापेक्षया प्रवृत्तसूत्रस्याभिप्रायेणाहारशरीरनिष्पत्त्यवस्थायामपि षट्पर्याप्तीनां सत्त्वाविरोधात्। कार्मणकाययोगः पर्याप्त ध्वपर्याप्त भयत्र वा भवतीति नोक्तम्, तन्नि Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८६ ) श्चयः कुतो भवेत् ! 'कम्मइयकायजोगो विग्गहगइ- समावण्णाणं केवलीणं बा समुग्धाद-गदाणं' इत्येतस्मात्सूत्रादपर्याप्त ष्वेव कार्मणकाययोग इति निश्चीयते । आहारक काययोग पर्याप्तों में होता है और आहारकमिश्र काययोग अपर्याप्तों में होता हैं । यद्यपि आहारक शरीर का उत्थापन करनेवाला साधु पर्याप्त ही रहता है अन्यथा उसमें संयतत्व अर्थात् संयमपना नहीं बन सकता है; फिर भी 'आहारक मिश्र काययोग अपर्याप्त में होता है'- इस कथन में सन्देह उत्पन्न करना आगम के अभिप्राय को न समझना है । आगम का अभिप्राय है आहारक शरीर का उत्थापक औदारिक शरीरगत छः पर्याप्ति की अपेक्षा से पर्याप्त रहता है, किन्तु आहारक शरीरगत पर्याप्ति से पूर्ण होने की अपेक्षा वह अपर्याप्त रहता है । पर्यात्व और अपर्याप्तत्व- ये दोनों परस्पर विरुद्ध धर्म एक साथ एक जीव में रहना संभव नहीं है । यद्यपि एक साथ एक जीव पर्याप्त और अपर्याप्त सम्बन्धी योग नहीं रहता है यह तो इष्ट ही है, फिर भी पूर्वोक्त कथन अर्थात् पर्याप्तत्व और अपर्याप्तत्व का एक साथ एक जीव में रहना सम्भव नहीं है, भूतपूर्व न्याय की अपेक्षा से बिरुद्ध हैं । अर्थात् दारिक शरीर सम्बन्धी पर्याप्तत्व की अपेक्षा आहारकमिश्र अवस्था में पर्याप्तत्व का व्यवहार किया जा सकता है । जिसके औदारिक शरीर सम्बन्धी छः पर्याप्तियाँ नष्ट हो चुकी है तथा आहारक शरीर सम्बन्धी पर्याप्तियाँ अभी तक पूर्ण नहीं हुई है-- ऐसे अपर्याप्त साधु में संयम कैसे रह सकता है, यह भी नहीं कहा जा सकता है । क्योंकि जिस ( संयम ) का लक्षण आस्रव का निरोध करना है उसका मन्दयोग ( आहारकमिश्र ) के साथ होने में कोई विरोध नहीं रहता है । यदि इस मन्दयोग के साथ संयम के रहने में विरोध माना ही जाय तो समुद्घात को प्राप्त केवली में भी संयम नहीं रह सकेगा, क्योंकि वहाँ पर भी अपर्याप्त सम्बन्धी योग का सद्भाव रहता है, अतः इसमें कोई विशेषता नहीं है । यह भी नहीं कहा जा सकता है कि 'संयतासंयत से लेकर सभी गुणस्थानों में जीव नियम से पर्याप्त होते है' इस आर्षवचन के साथ उपर्युक्त कथन का बिरोध आ जाएगा; क्योंकि द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से प्रवृत्त इस सूत्र के अभिप्राय से आहारक शरीर की अपर्याप्त अवस्था में भी औदारिक शरीर सम्बन्धी छः पर्याप्तियों के रहने में कोई विरोध नहीं रहता है । कार्मण काययोग पर्याप्त में, अपर्याप्त में अथवा दोनों में होता है, इसके निश्चय के लिए कहा गया है - 'विग्रहगति' को प्राप्त अर्थात् एक शरीर को छोड़कर शरीरान्तर को प्राप्त करने के जाते हुए सभी जीवों में तथा समुद्घात को प्राप्त केवलियों ने होता है'- इस सूत्र के आधार पर सिद्ध होता है कि कार्मण काययोग अपर्याप्तकों में ही होता है। जी समूहो में योग Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८७ ) .१६.१ योग का स्वामित्व-त्रिसंयोगी मणजोगो पचिजोगो कायजोगो सण्णिमिच्छाइटिप्पहुडि जाप सजोगिकेवलि त्ति । --षट • खं० १ । १ । सू ६५ । पृ १ । पृ० ३०८ चतुर्णा मनसां सामान्यं मनः तजनितवीर्येण परिस्पन्दलक्षणेन योगो मनोयोगः । चतुर्णा वचसां सामान्य पचः, तजनितीर्येणात्मप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणेन योगो पाग्योगः । सप्तानां कायानां सामान्य कायः, तेन जनितेन वीर्येण जीवप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणेन योगः काययोगः। एते त्रयोऽपि योगाः क्षयोपशमापेक्षया व्यात्मकैकरूपमापन्नाः संशिमिथ्यादृष्टेरारभ्य आसयोगकेवलिन इति क्रमेण सम्भवापेक्षयावा स्वामित्वमुक्तम् । काययोग एकेन्द्रियेवप्यस्तीति चेन्न, पाङ्मनोभ्यामषिनाभाविनः काययोगस्य विवक्षितत्वात् । तथा घचसोऽप्यभिधातव्यम्। ___ मनोयोग, वचनयोग और काययोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली तक होते हैं। सत्यादि चार प्रकार के मन में जो अन्वय रूप से रहता है उसे सामान्य मन कहते है, उस मन से उत्पन्न हुए परिस्पन्दनरूप वीर्य के द्वारा जो योग होता है उसको मनोयोग कहते है। चार प्रकार के वचनों में जो अन्वयरूप से रहता है उसको सामान्य वचन कहते है, उस वचन से उत्पन्न हुए आत्मप्रदेश-परिस्पन्दन रूप वीर्य के द्वारा जो योग होता है उसको वचनयोग कहते हैं। सात प्रकार के कार्यों में जो अन्वयरूप से रहता है उसको सामान्यकाय कहते हैं, उस काय से उत्पन्न हुए आत्मप्रदेश-परिस्पन्दन रूप वीर्य के द्वारा जो योग होता है, उसको काययोग कहते हैं। ये योग तीन होते हुए भी क्षयोपशम की अपेक्षा एकात्मकता को प्राप्त कर संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होते है। __ काययोग एकेन्द्रिय जीवों के भी होता है, फिर यहाँ संशी पंचेन्द्रिय से कथन करने का कारण यह है कि वचनयोग और मनोयोग से आविनाभाव रखनेवाले काययोग की विवक्षा है। इसी प्रकार वचनयोग का भी कथन करना चाहिए, क्योंकि वचनयोग दीन्द्रिय जीवों से होता है। जीप समूहों में योग .१७.१ द्विसंयोगी पचिजोगो कायजोगो बीइंदियप्पटुडि जाव असण्णिपंचिंदिया त्ति । -षट् • खं० १ । १ । सू ६६ । पु१ । पृ० ३०६ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८८ ) टीका - अत्र सामान्यवाक्काय योर्विवक्षितत्वात् द्वीन्द्रियादिर्भवत्य संहिनश्च पर्यवसानम् । विशेषे तु पुनरवलम्ब्यमाने तुरीयस्यैव वचनः सत्त्वमिति । तदाद्यन्तव्यवहारो न घटामटेत्, उपरिष्टादपि वाक्काययोगौ विद्येते ततो नासंज्ञिनः पर्यवसानमिति चेन्न, उपरि त्रयाणामपि सत्त्वात् । अस्तु चेन्न, निरुद्धद्विसंयोगस्य त्रिसंयोगेन सह विरोधात् । वचनयोग और काययोग द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक होते हैं । यहाँ पर सामान्य वचन और काय योग की विवक्षा है अतः द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक दोनों योग पाये जाते हैं। विशेष अवलम्बन करने पर द्वीन्द्रिय से असंज्ञी तक वचनयोग के चौथे भेद ( अनुभय वचन ) का ही सद्भाव समझना चाहिए । उपर्युक्त दो योगों का द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक सद्भाव बताया गया है और इसमें आदि-अन्त का भी व्यवहार किया गया है, सो तो इससे आगे के जीवों में भी वचनयोग और काययोग का सद्भाव रहता है; फिर यहाँ 'असंज्ञी पर्यन्त' कथन का तात्पर्य यह है कि आगे के जीवों में तीनों योगों का सद्भाव अविनाभाव रूप से रहता है । यदि ऊपर के जीवों में तीनों योगों का सद्भाव रहता है तो रहे किन्तु इन दो योगों के कथन न करने का अभिप्राय यह है कि द्विसंयोगी योग का त्रिसंयोगी योग के साथ कथन करने में विरोध आता है ! .१८ मणजोगो बचिजोगो पजत्ताणं अस्थि, अपजत्ताणं णत्थि । षट् ० ० खं० १ । १ । सू ६८ । १ । पृ० ३१० टीका- क्षयोपशमापेक्षया अपर्याप्तकालेऽपि तयोः सत्त्वं न विरोधमारकन्देदिति चेन्न, वाङ्मनोभ्यामनिष्पन्नस्य तद्योगानुपपत्तेः । पर्याप्तानामपि विरुद्धयोगमध्यासितावस्थायां नास्त्यैवेति चेन्न, सम्भवापेक्षया तत्र तत्सत्त्वप्रतिपादनात्, तच्छत्तिसत्त्वापेक्षया वा । सर्वत्र समुच्चयार्थावद्योतक-व- शब्दाभावेऽपि समुच्चयार्थः पदै रेषावद्योत्यत इत्यवसेयः । मनोयोग और वचनयोग पर्याप्तों में होते हैं तथा अपर्याप्तों में नहीं होते हैं । क्षयोपशम की अपेक्षा से अपर्याप्त काल में भी वचनयोग औप मनोयोग का सद्भाव रहना विरुद्ध नहीं माना जाना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं हैं, क्योंकि जो क्षयोपशम वचनयोग और मनोयोग से उत्पन्न नहीं होता है उसको योग कहा नहीं जाता है। जिस प्रकार अपर्याप्त अवस्था में मनोयोग और वचनयोग नहीं होते हैं उसी प्रकार पर्याप्त अवस्था में भी किसी एक योग के रहने पर अन्य दो योगों का अभाव स्वीकार करना चाहिए, Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 258 ) किन्तु यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि पर्याप्त अवस्था में किसी एक योग के रहने पर शेष योग भी संभव है, इस अपेक्षा से वहाँ अन्य योगों का सद्भाव स्वीकार किया गया है; व्यथा, उस अवस्था में उन योगों की शक्ति विद्यमान रहती है, इस अपेक्षा से सद्भाव माना गया है 1 • २६ एकयोगी काययोगो एवं दियाणं । - षट्० खं० १ । १ सू ६७ । १ । पृ० ३०६ टीका - एकेन्द्रियाणामेकः काययोग एव, द्वीन्द्रियादीनाम संक्षिपर्यन्तानां काययोगो द्वावेव, शेषास्त्रियोगाः । एकेन्द्रिय जीवों में एक काययोग ही होता है । द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक वचन और काय - ये दो योग होते हैं, शेष जीवों में तीनों ही योग होते हैं । विभिन्न जीव और योग स्थिति .१ लयोगी जीव की सयोगीत्व की अपेक्षा स्थिति सजोगी णं भंते! सजोगि ति कालओ केषश्चिरं होइ ? गोयमा ! सजोगी अणादीए वा } दुविहे पण्णत्ते । तंजहा - अणादीए वा अपज्जयसिए ? सपज्जबसिए । मणजोगी णं भंते! मणजोगि प्ति कालओ के चचिरं होइ ? गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुद्दत्तं । एवं वयजोगी षि | कायजोगी णं भंते ! कायजोगी त्ति कालओ केवविरं होइ ? गोयमा ! जहण्जेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणव्फकालो । अजोगी णं भंते! अजोगिन्ति कालतो केवविरं होइ ? गोयमा ! सादीए १ अपज्जवसिए । - पण्ण० प १८ । सू १३२१-२५ । पृ० ३०६ सयोगी के दो भेद है - अनादि अपर्यवसित, अनादि सपर्यवसित । मनोयोगी-वचनयोगी की स्थिति जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त की होती है। काययोगी की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट अनंतकाल ( वनस्पतिकाल ) जितनी है। ३७ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • २ सयोगी जीब और स्थिति भंते! x x x जहणेण एक्कं समयं उक्कोसेण अंतोमुडुतं, एवं वइजोगीवि, कायजोगी x x x जहण्णेण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण षणस्पतिकालो, अजोगी सातीए अपजवसिए । - जीवा० प्रति ६ । ११४ से ११६ | पृ० ५०२ टीका -- कायस्थितिसिम्तायां मनोयोगी जघन्यत एकं समयं, विशिष्टमनोयोग्य पुद्गलग्रहणापेक्षमेतत्सूत्रं, ततो द्वितीये समये मरणेनोपरमतो भाषकवदेकसमयता प्रतिपत्तव्या, उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त्त तथा च जीवस्वभावतया नियमत उपरमात् भाषकवत्, मनोयोगरहितबाग्योगबानेष बाग्योगी द्वीन्द्रि यादिः, जघन्यत एक समयमुत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त्त एतदपि सूत्रं विशिष्टवागद्रव्यग्रहणापेक्षमव सातव्यं, काययोगी वाग्योगमनोयोगविकल एकेन्द्रियादिः, जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त द्वीन्द्रियादिभ्य उद्धृत्य पृथिव्यादिष्वन्तर्मुहूर्त्त स्थित्वा भूयः कस्यापि द्वौन्द्रियादिषु गमनात, उत्कर्षतः प्रागुक्तस्वरूपो वनस्पतिकालः; अयोगी सिद्धः, स च साद्यपर्यवसितः । 9 ( २६० ) मनोयोगी की स्थिति जघन्य एक समय की, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की होती है । इसी प्रकार वचनयोगी की स्थिति जघन्य एक समय की, उत्कृष्ट अन्तर्महूर्त की की होती है । " काययोगी की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त, उत्कृष्ट वनस्पतिकाल प्रमाण अनन्त काल की होती है । मनोयोगी जघन्य एक समय विशिष्ठ मनोयोग पुद्गल द्रव्य ग्रहण करता है । मनोयोगी मनोयोगी रूप के कम से कम एक समय तक रहता है और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। इसके बाद वह भाषक की तरह नियमतः उस योग से उपरित हो जाता है । इसी तरह से वचनयोगी वचनयोगी रूप से कम से कम एक समय तर्क और अधिक से अधिक एक अन्तर्मुहूर्त तक बना रहता है । बाद में वह भी उस योग से उपरित हो जाता है । वाग्योग द्वीन्द्रियादि के होता है । काययोग एकेन्द्रियादि को होता है । १३ सयोगी की स्थिति काययोगी का जो कायस्थिति काल जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त बतलाया गया है। वह काययोगी एकेन्द्रियादि जीव द्वीन्द्रियादि से उद्दवर्तना करके पृथ्वी आदि में एक अन्तमुहूर्तं रहकर पुनः द्वीन्द्रियादि में चला जाता है इस अपेक्षा से कहा गया है । एवं सजोगी चेव अजोगी चेव ( सजोगी दुविहे पन्नत्ते, अणादीए पा Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६१ ) अपज लिए अणाइए वा सपज्जवसिए । अजोगी सादिए वा अपज्जवलिए × × × । ) - जीवा० प्रति सयोगी के दो भेद है - अनादि अपर्यवसित, अनादि सपर्यवसित । अयोगी सादि पर्यवसित है । नोट - अभव्य सयोगी अनादि अपर्यवसित है । भव्य सयोगी अनादि सपर्यवसित है । • ४ सयोगी और अणाहारिक केवली भवत्य के बलिभणाहारए दुविहे पन्नत्ते, केवलिअणाहारए य अजोगिभषत्थ केवलिअणाहारएय । भवस्थ केवली अणाहारिक के दो प्रकार है - यथा सयोगी भवस्थ केवली अणाहारिक ( तीन समय की स्थिति है तथा केवल कार्मण काययोग होता है ) तथा अयोगी भवस्थ केवली अणाहारिक । सयोगी भवस्थ केवली अणाहारिक की स्थिति भयोगी भवस्थ केवली अणाहारिक की स्थिति जोगि भवत्थव जिभणाहारएणं भंते ! X xx कालओ के चिरं होइ ? अजहण्णमणुक्कोसेणं तिण्णि समया । की है। अंतोमुहूत्तं । तंजहा - सजोगिभवत्थ - जीवा० प्रति ६ अजोगि भवत्य के वलिभणाहारए जहण्णेणं अंतोमुहूत्तं अणाहारिक सयोगी भवस्थ केवली की स्थिति जघन्य तथा उत्कृष्ट तीन समय अणाहारिक अयोगी भवस्थ केवली की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट भी उक्को सेणचि - जीवा० प्रति ६ ४७,४८ .५ लेश्या और योग का तादात्म्य ( लेश्या परिणाम ) अयंच योग परिणामे सतिभवति, यस्यान्निरुद्धयोगस्य लेश्या परिणामोऽपैति, यतः समुच्छिन्नक्रियं ध्यानमलेश्यस्य भवति । ति लेश्या परिणामानन्तरं योग परिणाम उक्तः । - ठाण० स्थ] ६ । सू १८ । टीका योगपरिणाम के होने पर ही लेश्यापरिणाम होता है। योगनिरोध के समव लेश्यापरिणाम नहीं होता है क्योंकि समुच्छिन्न-क्रिय-ध्यान में लेश्या नहीं होती। लेश्या परिणाम के बाद योगपरिणाम होता है । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६२ ) .६ सयोगी और संवर की स्थिति जस्स जदा खलु पुण्णं जोगे पावं च णस्थि विरदस्स। संवरणं तस्स तदा सुहासुहकदस्स कम्मस्स । __-पंच० गा १४३ । पृ० २०७ टीका-यस्य योगिनो विरतस्य सर्वतो निवृत्तस्य योगे वाङ्मनः कायकर्माणि शुभपरिणामरूपं पुण्यमशुभपरिणामरूपं पापञ्च यदा न भवति तस्य तदा शुभाशुभभावकृतस्य द्रव्यकर्मणः संवरः स्वकारणभाषात्प्रसिद्ध यति। तदत्र शुभाशुभपरिणामनिरोधो भावपुण्यपापसंघरो द्रव्यपुण्यपापसंपरस्य हेतुः प्रधानोऽवधारणीयः। जो योगी ( साधक ) सब प्रकार के कर्मों से निवृत्त हो जाता है, ऐसे योगी के जब वाक, मन और काय के व्यापार द्वारा शुभ परिणाम रूप पुण्य तथा अशुभ परिणाम रूप पाप का बन्ध नहीं होता है तब उसके शुभाशुभ भाव के द्वारा किये हुए द्रव्यकम का संवर होता है अर्थात कर्मों का आगमन रुक जाता है। यह स्व-कारणभाव रूप से प्रसिद्धि पाता है। यहाँ पर शुभशुभ परिणाम निरोध रूप भावपुण्य-पाप संवर ( मानसिक भाव) द्रव्यपाप-पुण्य संवर का प्रधान हेतु है-ऐसा मानना चाहिए। नोट-पूर्ण रूप के आश्रव का निरोध चौदहवें गुणस्थान के प्रथम समय में होता है। पाँच ह्रस्वाक्षर के उच्चारण में जितना समय लगता है उतनी इस गुणस्थान की स्थिति है। .६ बर्धमान महावीर और परिनिर्वाण के पूर्व योग निरोध कम-तिजोय-सुणिदोडु अणिहउ । किरिया-छिण्णइ झाणि परिहिउ ॥ -वीरजि० संधि शकड १ भगवान ने परिनिर्वाण के पूर्व-मन, वचन, काय इन तीनों योगों का सम्यग् प्रकार निरोध करके छिन्न क्रिया-निवृत्ति नामक ध्यान धारण किया । अतः योग के विणाभी ध्यान हो सकता है । नोट-अयोगी अवस्था की स्थिति पाँच ह्रस्वाक्षर मान होती है। अ-इ----। इनके उच्चारण में जितना समय लगता है उतनी स्थिति होती है। .७ प्रथमानुगम की अपेक्षा कृति ०१ पंचमनोयोगी ०२ पंचषचनयोगी Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६३ ) .३ काययोगी ०४ बैंक्रिय काय योगी ०५ आहारक काययोगी xxx पंचमणजोगी - पंचपचिजोगि - कायजोगि - वेउब्धिकायजोगि xxx पत्तब्धमेदेसिमुषकमणंत (दसणादो) (जहा नेरइया)। ___णेरइया पढमसमए सियाकदी xxx । सिया णो कदी xxx। सिया अवत्तव्यकदी। xxx अपदमा कदी च एव । xxx। · षट ० ख० ४ । १ । सू ६६ । टीका । पू६ । पृ० २७८ पंचमनयोगी, पंचवचनयोगी, काययोगी, वैक्रिययोगी जीव प्रथम समय में कचित् कृति संख्यक, कथंचित नोकृति संख्यक, अथवा अवक्तव्य कृति संख्यक होते हैं। लेकिन अप्रथम समय में केवल कृति संख्यक ही होते हैं। .८ संचयानुगम में क्षेत्रानुगम की अपेक्षा योगी जीवों की क्षेत्र-स्थिति खेत्तानुमेण x x x पंचमणजोगी-पंचवचजोगी वेउब्धियदुग-आहारकदुग xxx लोगस्स असंखेजदिभागत्तणेण भेदाभावदो। xxx। कायजोगि ( कदि-णोकदि-अषत्तव्य-संचिदा केडिखेत्ते ? सव्वजोगे। कुदो १ आणंतियादो ) आणतियं पडि भेदाभावादो।xxx ओरालिय कायजोगि-ओरालियमिस्स कायजोगि-कम्मइकायजोगि ( सध्यलोए ) भेदाभाषादो। xxx वेत्ताणुगमो समत्तो। -षट् • खं० ४ । १ । सू६६ । पु९ पृ. २८५४७ क्षेत्रानुगम की अपेक्षा पाँच मनोयोगी तथा पाँच वचनयोगी वैक्रियद्विग तथा आहारकद्विग जीवों में कृति, नोकृति तथा अवक्तव्य संचित जीव लोग के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। काययोगी जीव सर्वलोक में रहते हैं। क्योंकि ये अनन्त है। औदारिक कायबोगी, औदारिकमिभ काययोगी, कामर्णकाययोगी सर्व लोक में रहते हैं । ५ स्पर्शानुगम से संचित योगी जीवों का स्पृष्ट क्षेत्र पोसणाणुगमेण xxx कायजोगि ( सम्धलोगो फोसिदं)। xxx आहारकदुग (जोगस्स असंखेजदिभागो)। xxx पंचमणजोगि-पंचपछि जोगिसु तिण्णिपदेहिं केवडियं खेत्तं फोसिदं १ बोगस्ल असंखेजदिमागो अटू चोइसभागा देसूणा सम्घलोगो। कुदो ? मुक्कमारंणतियल्स षि मण-पचिजोगसंभषादो। ओरालिय कायजोगि-ओरालियमिस्म-कायजोगि-कम्मइयकाय Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६४ ) जोगिणं खेतभंगो। वेउन्षियकायजोगिसु तिण्णिपदेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगल्स असंखेजदिभागो अह-तेरह वोहसभागा देसूणा । वेउग्वियमिस्सकायजोगीणं खेत्तभंगो। xxx । -षट • खण्ड ४ । १ । सू ६६ । पु६ । पृ २८७६० तीनों पद संचित काययोगी जीव सर्व लोक को स्पृष्ट करके है। आहारक द्विग जीव लोक के असंख्यात भाग को स्पृष्ट करते हैं। पाँच मनोयोगी तथा पाँच वचनयोगी जीव लोक का असंख्यात भाग अथवा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग लोक अथवा सर्वलोक स्पृष्ट है। इसका कारण मुक्त मारणन्तिक के भी मनोयोग-वचनयोग की सम्भावना है । औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्र काययोगी तथा कार्मण काययोगी जीव सव लोक से स्पृष्ट हैं। वे क्रिमकाययोग लोक का असंख्यात वा भाग अथवा कुछ कम आठ व तेरह बटे चौदह भाग स्पृष्ट है। वैक्रियमिश्र काययोगी लोक के असंख्यातवा भाग स्पृष्ट करके है। .१० अयोगी जीष अनाहारक होते हैं। केवलि समुहय विग्गह-गइ-गेय । अरुह अजोइ सिद्ध परमप्पय॥ ते ण लेंति आहारु पियारिय। सेस जीव जाणहि आहारिय ॥ -वीरच संधि १२ । कड ४ जो जीव केवलि समुद्घात कर रहे हैं ( आठ समायों में तीसरा, चौथा, पाँचवाँ समय अनाहारक), विग्रहगति में तथा जो अरहंत अयोगी व सिद्ध परमात्मा हो चके है । वे आहार नहीं लेते, अतः वे अनाहारक है। .११ सिद्ध-योग पलेश्या रहित होते हैं। बाल णड वुड्ढ, णउ मुक्ख सुधिषड्ढ। xxx । णिग्वेय णिज्जोय xxx । णिग्वेस णिल्लेस xxx। -वीरजि० संधि १२ । कड ८ वे सिद्ध जीव न बालक होते है, न वृद्ध, न मुर्ख और न चतुर । न मन, वचन, कायरुप योगों का भेट है, न द्वेष है, न लेश्या है। .२२ विशेष जीवों में .१ कलई आदि पनस्पति काय में कलाय-मसूर-तिल-मुग्ग-मास-निप्फाय-कुलत्थ-आलिसदंग-सडिण-पलि Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६५ ) पंथगाणं x x x एवं मूलादीया दस-उद्देसगाभाणियव्या जहेच सालीणं निरषसेसं तहेव। -भग० श २१ । व ३ । उ १ से १० ।प्र। कलह, मसूर, तिल, मूंग, अरहड़, वाल, कुलत्थी, आलिसंदक, सटिन, पालिपंथक, वनस्पति के मूल, कन्द, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र में तथा पत्र-पुष्प-फल वीज आदि वनस्पति काय के जीव मनोयोगी वचनयोगी नहीं होते हैं काययोगी होते है। '' .२ अलसी आदि बनस्पति-काय में अह भंते ! अवसि-कुसंभ-कोहव-कंगु-दालग, तुपरी-कोदुसा-सण-सरि. सवमूलग बीयाणं xxx एवं एत्थवि मूलादीया दस उसगा जहेव सालीर्ण निरवसेसं तहेव भाणियध्वं । -भग० श २१ । व ३ । उ १ से १० । प्र१ अलसी, कुसम्भ कोद्रव, कांग, दाल, कुवेर, कोदुआ, सण, सरिसव, मूलक बीज वनस्पति के मूल, कन्द-स्कंध-त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र के जीव काययोगी होते है। । .३ बांस आदि बनस्पति काय में अह भंते ! बंस-वेणु-कणग-ककावंस-चारवंस-दण्डा-कुडा-विमाचण्डावेणुया कल्लाणीणं xxx । एवं एत्थघि मूलादीया दस उहेसगा जहेष सालीण xxx -भग श २१ । व ४ बांसवेणु, कनक, ककविंश, चारुवंश, दण्डा, कुडा, विया, चण्डा, वेणुका, कल्याणी, इनके मूल यावत् बीज के जीव काययोगी होते हैं। .४ इक्षु बनस्पति-काय में अह भंते ! उपखु-इक्खु-पाडिया, पीरणा, इकड-भमास-सुंठि-सत्त-वेत, तिमिर-सयपोरग नलाणं x x x एवं जहेच सपाणे तहेव, एत्थाषि मूलादीया इस उहेसगा। -भग श २१ । व ५ - इक्षु, इक्षुवाटिका, वीरण, इक्कडभमास-सूठ-शर-वेत्र, तिमिर सयपोरग, नल में काययोग होता है। .५ सेडिय आदि तृण विशेष वनस्पति काय में अह भंते ! सेडिय-भंतिय-दन्भ-कोतिय-दम्भकुस-पव्वग-पादेइल-अन्जुणआसाढग-रोहिय-समु-अक्खीर-भुस एरंड-कुरुकंद करकर-सुंठ-षिभंगु- महुरयण पुरग-लिप्पिष-संकुलितणाणं xxx एवं एत्थषि दस उहेसगा निरषसेसं जहेष वंसवग्गो। -भग० श २१ । व६ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९६ ) बेडिय, भंतिय (भंडिय) दर्भ, कोतिय, दर्भकुशपर्वक, पोइदेल ( पोइदइल ) अर्जुन (अंजन) आषाढक, रोहितक, समु, तवखीर, भुस, एरण्ड, कुरुकंद, करकद, सुंठ, विभंग मधुरयण ( मधुवयण ), थुरग, शिल्पिक, सकूलितृण-इनके मूल यावत् बीज में काययोग होता है। .६ अभूरूह आदि वनस्पति-काय में अह भंते ! अब्भरुह-वायण-हरितग-तंदु-लेजग-तण-पन्थुल-पोरग मजारपाई-बिल्ली पालक-वगपिप्पलिय-दग्वि-सोत्थिय-सायमंडुकि - मूलग - सरिसवअंबित साग जियंतगाणं x x ४ । एवं पत्थ वि दस उद्देसगा जहेव वंसघग्गो। - भग° श २१ । व ७ अभूरुह, वायण, हरितक, तांदलजी, तृण, वत्थुल, पोरक, मार्जादिक, विल्लि (चिल्ली) पालक, दगपिप्पली, दरिब ( दर्वी ) स्वस्तिक, शाकमंडकी, मुलक, सरसव, अंबिलशांक, जियतंग-इनके मूल यावत बीज काययोगी होते हैं । मुखसी आदि वनस्पति-काय में . अहमते ! तुलसी-कण्ह-दराल-फणेजा-अजा-चूतणा-चोरा-जीरा-दमणामुरुया-इंदीवर-सयपुप्फाण xxx | एत्थवि दस उद्देसगा निरवसेसं जहा ब्रसाणं। -भग० श २१ । व८ तसली, कृष्ण, दराल, फणेज्जा, अज्जा, चूतणा, चोरा, जीरा, दमणा, मरुया, इंदीबर, शतपुष्प-इनके मूल यावत बीज काययोगी होते हैं। .८ ताल-तमाल आदि बनस्पति काय में .... अह भंते! ताल-तमाल-तक्कलि-तेतलि-साल-सरला-सारगल्लाणं जाग केयतिकदलो-कंदाल-चम्मरुषख-गुंतरुक्ख - हिंगुरुक्ख - लवंगरुक्ख - पूयफलखजूरि-नाल एदीणं-मूले-कन्दे-खंधेतयाए सालेय एएसु पंएसु उद्देसगेसु देखो न उपवजा। xxx | पवाले पत्ते पुष्फे फले वीए xxx। -भग० श २२ । व १ ताड, तमाल, तक्कलि-तेतलि-साल-देवदार, सारागाल यावत् केतकी, केला, कंदली, बमवृक्ष, गुंदवृक्ष, हिंगुवृक्ष, लवगवृक्ष, सुपारीवृक्ष, खजूर, नारिकेल-इनके मुल, कंद (स्कंध), त्वचा (छाल ) शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल, बीज काययोगी होते है। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६७ ) .९ नीमड़ा, आम्र आदि वनस्पतिकाय में __ अह भंते ! निबंबजंबुकोसंबतालअंकोलपीलुसेलुसल्ल मोयइमालुयपडलपलास करंज पुत्तजीवगरिट बहेड गइरियग भल्लाय उबरियखीरणि धायइ पियाल पूइयणिधाय गरनेण्हयपासिय सीसवअयसि पुण्णायगनागरुक्खसी घण्णअसोगाणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति एवं मूलादीया दस उद्देसगा कायव्वा निरवसेसं जहा तालवग्गो। -भग श २२ । व २ निम्ब, आम्र, जांबू, कोशंव, ताल, अंकोल्ल, पीलु, सेलु, सल्लकी, मोचकी, मालुक, वकुल, पलाश, करंज, पुत्रजीवक, अरिष्ट, बड़ेढा, हरड़, भिलाया, उबेभरिकी, क्षीरिणी, धावड़ा, प्रियाल, पूतिनिम्व, सेण्हय, पासिय, सीसम, अतसी, नागकेसर, नागवृक्ष, श्रीपर्णी, अशोक-इनके मूल, कंद, स्कंध, त्वचा शाखा के, प्रबाल, पत्र, पुष्प, फल, बीजमें काययोग होता है। .१० अगस्तिक भादि घनस्पतिकाय में अह भंते ! अस्थि यातिदुय बोरकविठ्ठअंबाड गमाडलिंगबिल्लामलग फणसदाडिम आसत्थ उंबरवडणग्गोहनंदिरुक्खपिप्पली सतरपिनक्खुरुक्ख काडंबरिय कच्छंभरिय देवदालि तिलगलउय छत्तोसिरीस सत्त वण्णदहिवणं लोद्धधवचंदण अज्जुण णीवकुडुग कप्पदाणं एएसिणं जे जीषा मूलत्ताए वक्कमंति तेणं भंते ! एव एत्थवि मूलादीया दस उद्देसगा सालघग्गसरिसा णेयचा जावं बीयं। -भग० २ २२ । व २ अगस्तिक, तिंदुक, बोर, कोठी, अम्बाडग, बीजोरु, बिल्ब, आमलक, पनस, दाडिम, अश्वत्थ (पीपल ), उंवर, वड, न्योग्रोध, नन्दिवृक्ष, पीपर, सतर, प्लक्षवृक्ष, काकोदुम्बरी, कस्तुम्भरि, देवदालि, तिलक, लकुच, छत्रोध, शिरिष, सप्तवर्ण, दधिपण, लोधक, धव, चन्दन, अर्जुन, नीव, कुटज, कदम्ब-इनके मूल, कन्द; स्कंध, त्वचा, शाखा में, प्रवाल पत्र, पुष्प, फल, बीज काययोगी होते हैं । .११ बेंगन आदि वनस्पतिकाय में । अह भंते ! वाईगणिअल्लइ पोंडइ एवं जहापण्णवणाए गाहाणुसारेणं णेयव्वं जाव गंजपाउ लावासि अंकोल्लाणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति एवं एस्थवि मूलादीया दस उद्देसगा तालघग्गसरिसा णेयव्या जाव बीयंति निरषसेसं जहा वंसवग्गो। --भग० श २२ । व ४ ___ बेंगन, अल्लइ, ( सल्लई ) पोंडइ, [ थंडकी, कच्छुरी जासुमणा, रूपी आढकी, नीली, Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६८ ) तुलसी, मातलिंगी, कस्तंभरी पिप्पलिका, अलसी, वल्ली, काकमाची, बुच्चु पिटोल कंदली, विउवा, वत्थुल, बदर, पत्तउर, सीयउर, जवसय, निगुंडी, कस्तुवादि, अत्थई, तलउडा, शण, पाण, कासमद, अग्घाडग, श्यामा, 'सिन्दुवार, करमद, अहरु सग, कटीर, ऐरावण, महित्थ, जाउलग, भालग, परिली, गजमारिणी, कुव्वकारिया, भंडी, जीवंती, केतकी ] गंज, पाटला, वासी अल्कोल-इनके मूल यावत बीज में काययोग होता है। .१२ सिरियक आदि वनस्पतिकाय में अह भंते ! सिरियकाण पनालिय कोरंटगबंधु जीवगमणोजा जहा पण्णवणाए पढमपए गाहाणुबसारेणं जाव नलनीय कंदमहाजाईणं एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति एष एत्थवि मूलादीया दस उद्देसगा निरवसेसं जहा सालीणं । -भग श २२ । व ५ सिरियक, नवमालिका, कारंटक, बंधुजीवक, मणोज्जा (पिइय, पाण, कणेर, कुज्जय, सिंढुवार, जाती, मोगरोध यूथिका, मल्लिका वासन्ती, वत्थुल, कत्थुल, सेवाल, ग्रन्थी, मृगदंतिका चंपक जाति), नवणीइया, कंद, महाजाति-इनके मूल यावत बीज काययोगी होते हैं। .१३ पूसफलिका आदि वनस्पतिकाय में ___अह भंते ! पूसफलिकाकालिंगी तुंधीतउसीएला पालुंकी एच पयाणिछिदियवाणि पण्णवणा गाहाणुसारेण जहा तालवग्गे जाव दधि फोल्लइकाकलिसोक्कलिअक्कचोदीणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए पक्कमति एवं मूलादीया दस उद्देसगा कायव्वा जहा तालवग्गो णवरं फल उद्देसे ओगाहणाए जहण्णेणं अगुलस्सं असंखेजइभागं उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं, ठिई सव्वत्थ जहण्णेणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेण वासपुहुत्तं सेसं तं चेव । -भग° श २२ । व ७ पूसफलिका, कालिंगी, तुंबडी, त्रपुवी, एलवालुकी, घोषातकी, पंडोला, पंचागुलिका, नीली, कण्डूइया, कडुइगा, ककोडी, कादेली, सुयवा, कुयधाय, वागुलीया, पावगाली, देवदाली, अप्पोया, अतिमुक्त, नागलता, कृष्णा, सूरवलकी, संघहा, सुमणया, जासुवण, कविंदवल्ली, मुद्दिया, द्राक्षनावेला, अंवाबल्ली क्षीदविदारिका, जयंती, गोपाली, पाणी, मायावल्ली, गुंजावल्ली, वच्छाणी, शशविंदु, गोत्तफुसिया, गिरिकर्णिका संउकी, अंजनकी, दधिपुष्पिका, काकली, सोकली, अर्क वोदी; इनके मूल यावर बीज में काययोग होता है । नोट-अंक '५५ से ५५.१३ तक वर्णित वनस्पतियाँ प्रत्येक वनस्पतिकाय है। उनमें केवल काययोग होता है । .१४ आलुक आदि साधारण वनस्पति काय में अह भंते । आलुय मूलगसिंग बरेहालिहरुक्खकंडरिय जास च्छोर Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६ ) faraकि कंदुकण्ह कउडसुमहुपयलइ महुसिंगिणिसहारुष्पसुगंधछिण्ण रुहा atree हाणं एएसिं णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति एवं मूलदीया दस उद्देस सगा कायव्वा वंसवग्गसरिसा । -भग० श २३ व १ आलुक, मूल, आदु, हलदी, सस, कण्डरिक, जीरु, क्षीरविराली, किट्टी, कुन्दु, कृष्ण, कडसु, मधु, पयलइ, मधुसिंगी, निरुहा, सर्प सुगंधा, छिन्नरुहा, बीजरुहा इनके मूल यावत् बीज में काययोगी होते हैं । • १५ लोही आदि वनस्पति काय में अह भंते ! लोही णीहू थीहू थिभगा अस्सकण्णी सोहकण्णी सीउ ढी संढी पसि णं जे जीवा मूलत्ताए बक्कमंति एवं एत्थवि दस उद्देसगा जहेच आलुयवग्गा । -- भग० श २३ । व १ लोही, नीहू, थी, थिभगा, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, सीउद्धी, मुसुंदी, इनके मूल यावत बीज के जीव काययोगी होते हैं । .१६ आय आदि वनस्पति काय में अह भंते ! आय काय कहुणा कुंदुरुक्क उव्वेहलिय सफासजा छत्तावंसाणिय कुमाराणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए एवं एत्थषि मूलादीया दस उद्देगा निरवसेसं जहा आलुवग्गो । - भग० श २३ । व ३ आय, काय, कुहुणा, कुन्दुरुक्क उव्वेहलिय, सफा, सेज्जा, छत्रा, वंशानिका, कुमारी इनके मूल यावत् बीज काययोगी होते हैं । -१५.१७ पाठा आदि वनस्पति काय में अह भंते! पाढामिय वालुंकिमहुररसा रासवल्लिय उमामोंढरिदति चंडीणं एएसि णं जे जीवा मूल एवं एत्थवि मूलादीया दस उद्देसगा आलुयवग्गसरिसा । - भग० श २३ । व ४ पाठा, मृगवालुंकी, मधुररसा, राजवल्ली, पद्मा, मोढकी, दंती, चंदी इनके मूल यावत वीज में काययोगी होते हैं । . १८ अह भंते ! मासवण्णी मुग्गपण्णी जीवगसरिसवकरेणुय काओलिखीरकाकोलि भंगिणहि किमिरासि भद्दमुच्छणंगलइ पओय किंणापडलपाढेहरेणुया लोहीणं एएसि णं जे जीबा मूल० एवं एत्थवि दस उद्देसगा निरवसेसं आलुयषग्गसरिसा | - भग० श २३ । व ५. Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०० ) मासवर्णी, मुदगपर्णी, जीवक, सरसव, करेणुक, काकोली, क्षीरकाकोली, भंगी, णही, कृमिराशि, भद्रमुस्ता, लांगली, पउय, किण्णापउलय, पाढ, रेणुका, लोही इनके मुल यावत् बीज में काययोगी होते हैं । एवं एत्थ पंचमुषि घग्गेसु पन्नास उद्देसगा भाणियव्या सव्वत्थ xxx। -~भग• श २३ । व ६ से १० उपरोक्त ( १५.१४ से '१५.१८ तक ) साधारण वनस्पतिकाय काययोगी होते हैं, मनोयोगी तथा वचनयोगी होते हैं । .१९ पृथ्वीकाय में .१ सूक्ष्म पृथ्वीकाय में (सुहुम पुढविकाइया) तेणं भंते! जीवा किं मणजोगी, वजोगी कायजोगी ? गोयमा! नो मणजोगी, नो वइजोगी, कायजोगी ? -जीवा० प्रति १ । २ । सूत्र ३१ सूक्ष्म पृथ्वीकाय के जीव मनोयोगी वचनयोगी नहीं होते है, काययोगी होते हैं । .२ बादर पृथ्वीकाय में (बादर पुढविकाइया ) अवसेसं जहा सुहुमपुढवि काइयाणं । -जीवा० प्रति १ । २ । सू ५६ बादर पृथ्वीकाय के जीव काययोगी होते हैं, मनोयोगी तथा वचनयोगी नहीं होते हैं । .२० अपकाय में .१ सूक्ष्मअपकाय में (सुहुम आउकाइयाणं) नहेच सुहुम पुढविकाइयाणं। -जीवा प्रति १।२ । सू ६४ सूक्ष्म अपकाय जीव कायजोगी होते हैं, मनोयोगी व वचनयोगी नहीं होते हैं। .२ वादर अप्काय में ( बादर आउक्काइयाणं) जहा बादर पुढविक्काइयाणं -जीवा० प्रति १ । २ । सू ६५ बादर अप्काय के जीव काययोगी होते हैं, मनोयोगी व वचनयोगी नहीं होते हैं । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२१ वनस्पतिकाय में .१ सूक्ष्म वनस्पतिकाय में (सुहुम घणस्सइकाइया ) अवसेसं जहा पुढविक्काइयाणं । -जीवा० प्रति १।२। सू ६७ सूक्ष्म वनस्पतिकाय के जीव काययोगी होते हैं । .२ बादर घनस्पतिकाय में ( बादर वणस्सइकाइया) तहेव जाव बादर पुढविक्काइयाणं। -जीवा प्रति १।२। सू७४ बादर वनस्पतिकाय के जीव काययोगी होते हैं । .२२ तेउकाय में .१ ( सुहुम तेउक्काइया ) जहा सुहुम पुढविकाइयाणं -जीवा० प्रति १।२ । सू७७ .२ (बादर तेउक्काइया) सेसं तंचेव । -जीवा० प्रति १।२ । सू ७६ सूक्ष्म तेउकायके जीव काययोगी होते है। बादर तेउकायके जीव काययोगी होते है । .२३ षायुकाय में .१ (सुहुम पाउकाइया) जहा तेउक्काइया। .२ ( बादर घाउकाइया) सेसं तं चेव (मुहुम पाउकाइया) -जीवा. प्रति०१।२ । सू८०,८२ सूक्ष्म वायुकाय के जीव काययोगी होते है। बादर वायुकाय के जीव काययोगी होते हैं । .२४ द्वीन्द्रिय में (वेई दिया ) नो मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी। -जीवा० प्रति १ । २ । सू८७ द्वीन्द्रिय के जीव मनोयोगी नहीं होते हैं, वचनयोगी व काययोगी होते है। .२५ त्रीन्द्रिय में (तेइंदिया ) तहेव जाव वेइ दियाणं -जीवा० प्रति १ । २ । सू८९ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०२ ) त्रीन्द्रिय के जीव मनोयोगी नहीं होते हैं, वचनयोगी व काययोगी होते हैं । .२६ चतुरिन्द्रिय में ( चउरिदिया) सेसं जहा तेइ दियाणं चतुरिन्द्रिय के जीव काययोगी व वचनयोगी होते हैं । .२७ नारकी में ( रयणप्पभा पुढचिनेरइया जाब अहेसत्तमपुढवि नेरइया ) तिविजोगे I - जीवा प्रति १ । २ । सू ६२, ६६ - रत्नप्रभा पृथ्वी से तमतमाप्रभा पृथ्वी के जीवों में तीनों योग होते हैं --मनोयोग वचनयोग व काययोग | - जीवा० प्रति १ । २ । सू ६० .२८ संमुच्छिम तिर्यच पंचेन्द्रिय में -१ जलचर संमुच्छिम तिर्य व पंचेन्द्रिय में संमुच्छिम पंचेदियतिरिषखजोणिया XXX जलयरा दुबिहे जोगे । - जीवा० प्रति १ । २ । सू ६८, १०१ जलचर संमि तिर्यंच पंचेन्द्रिय में दो योग होते हैं - काययोग व वचनयोग । .२ स्थलचर संमुच्छिम तिर्य व पंचेन्द्रिय में (क) वउप्पय थलयर संमुच्छिम पंचेन्दिय-तिरिषख जोणिया × × × जहा जलयराणं । - जीवा० प्रति १ । २ | सू १०२, ११२ चतुष्पाद स्थलचर संमुच्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय में दो योग होते हैं— काययोग व वचनवोग | (ख) उरपरिसर्प स्थलचर संमुच्छिम में उरयपरिसप्पसंमुच्छिमा xxx जहा जलयराणं । तथा वचनयोग | उरपरिसर्पस्थलसचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय में दो योग होते हैं यथा - काययोग - जीवा • प्रति १ । २ । सू ११२ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०३ ) (ग) भुजपरिसर्प स्थलचर संमुच्छिम में (भुयपरिसप्प समुच्छिम थलचरा ) जहा जलयराणं। -जीवा० प्रति १ । २ । स ११२ भुजपरिसर्प स्थलचर संमुच्छिम तिर्यच पंचेन्द्रिय में दो योग होते है काययोग व वचनयोग। .३ खेचर संमुच्छिम तिर्यच पंचेन्द्रिय में (समुच्छिम पंचेन्दियतिरिक्त जोणिया xxx खहयरा) जहा जलयराणं। -जीवा० प्रति १ । २ । सू १२५ खेचर संमुच्छिम तिर्यच पंचेन्द्रिय में दो योग होते है -वचनयोग व काययोग। .२९ गर्भज तिर्य च पंचेन्द्रिय में .१ जलचर गर्भज तिर्यच पंचेन्द्रिय में (गम्भवतिय पर्चेदियतिरिक्त जोणिया xxx जजयरा) जोगे तिधिहे। -जीवा० प्रति १ । २ । सू ११६ गर्भज जलचर तिर्य च पंचेन्द्रिय में तीन योग-मनोयोग वचनयोग व काययोग होते हैं। .२ स्थलचर गर्भज तिर्यच पंचेन्द्रिय में चतुष्पाद स्थलचर गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय में गम्भवक्कंतिय पंचेंदिय तिरिषखजोणिया xxx थलचरा xxx वउप्पया x x x जहा जलयराणं। -जीवा० प्रति १।२।२१२१ चतुष्पाद स्थलचर गर्भज तिर्यच पंचेन्द्रिय में तीन योग होते है। उरपरिसर्प स्थलवर गर्भज तिर्यच पंचेन्द्रिय में ___ गमवक्कंतिय पंचेन्दियतिरिक्ख जोणिया xxx थनवरा xxx परिसप्पाxxx उरपरिसप्पा जहा जलयराणं । -जीवा० प्रति १ । २ । सू १२१ उरपरिसर्प स्थलचर गर्भज तिर्यच पंचेन्द्रिय में तीन योग होते हैं । भुजपरिसर्प स्थलचर गर्भज तिर्यच पंचेन्द्रिय में Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०४ ) गग्भवक्कंतिय पंचेन्दियतिरिषख जोणिया Xxx परिसप्पा Xx x भुजपरिसप्पाए जहा उरपरिसप्पा | भुजपरिसर्प गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय में तीन योग होते हैं । मनयोग, वचनयोग व काययोग । . ३ खेचर गर्भज तिर्यच पंचेन्द्रिय में Torariतिय पंचेंदियतिरिक्खजोणिया xxx खहयश xxx जहा जलयराणं । - जीवा० प्रति १ । २ । सू १२५ खेचर गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय में तीन योग होते हैं - मनोयोग वचनयोग तथा काययोग | .३० मनुष्य में • १ संमुच्छिम मनुष्य में समुच्छिम मणुस्साणं पुच्छा XXX जहा पुढचिकाइयाणं । मि मनुष्य में काययोग होता है । में - जीवा० प्रति १ । २ । सू १२१ होते हैं । थलचरा × × × •२ गर्भज मनुष्य ( गव्भवक्कंतिय मणुस्सा ) मणजोगि वि, बहकायजोगि वि अजोगी वि । - जीबा० प्रति १ । २ । सु १३३ • ३१ औधिक देव में गर्भज मनुष्य मनोयोगी भी, वचनयोगी भी व काययोगी भी होते हैं । अयोगी भी ( देवा ) तिविहेजोगे । - जीवा० प्रति १ । २ । सू १२८ देवों में तीन योग होते हैं - मनोयोग, वचनयोग व काययोग | - जीवा० प्रति १ । ५ । सू १३५-१३६ * ३२ गुणस्थान के अनुसार जीवों में *३२ १ (क) प्रथम गुणस्थान के जीवों में तेरह योग ( आहारककाय आहारकमिश्र काययोग को बाद देकर ) (देखें क्रमांक ५६ ) होते हैं । (ख) द्वितीय गुणस्थानके जीवों में तेरह योग (आहारक व आहारक मिश्र काययोग को बाद देकर ) ( देखें क्रमांक ५६ ) होते हैं । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०५ ) (ग) तृतीय गुणस्थान के जीवों में दस योग-४ मन के योग, ४ वचन के योग, ___ औदारिक तथा वे क्रिय काययोग होते हैं । क्रमांक .५६ (घ) चतुर्थ गुणस्थान के जीवों में तेरह योग ( आहारक, आहारकमिश्र काययोग को बाद देकर ) होते हैं । क्रमांक ,५६ (ङ) पंचम गुणस्थान के जीवों में बारह योग ( ४ मन के योग, ४ वचन के योग, औदारिक, औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रिय तथा वैक्रियामश्र काय होग) होते हैं । क्रमांक .५६ (च) छठे गुणस्थान के जीवों में चौदह योग ( कार्मण कायोग को बाद देकर ) कमांक .५६ (छ) सप्तम गुणस्थान के जीवों में पाँच योग ( सत्यमनोयोग, व्यवहार मनोयोग, सत्यवचन योग, व्यवहार वचनयोग, औदारिक काययोग ) होते हैं । क्रमांक .५६ (ज) अष्टम गुणस्थान के जीवों में सप्तम गुणस्थान की तरह पाँच योग होते है । (झ) नववे गुणस्थान के जीवों में उपयुक्त पाँच योग होते हैं । (ञ) दसवें गुणस्थान के जीवों में उपर्युक्त पाँच योग होते हैं । (ट) ग्यारवे गुणस्थान के जीवों में उपर्युक्त पाँच योग होते हैं । (ठ) बारहवें गुणस्थान के जीवों में उपर्युक्त पाँच योग होते है । (ड) तेरहवें गुणस्थान के जीवों में सात योग ( सत्यमनोयोग, व्यवहारमनोयोग, सत्यवचन, व्यवहारवचन के योग, औदारिक, औदारिकमिश्र काययोग व कार्मण काययोग) () चौदहवें गणस्थान के जीवों में अयोगी होते हैं। क्रमांक ५६ '३३ चौदह जीव भेद के अनुसार जीव में '३३.१ (क) प्रथम जीव के भेद में सूक्ष्म अपर्याप्त एकेन्द्रिय में तीन योग-औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग तथा कार्मण काययोग । (ख) द्वितीय जीव के भेद में पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय में-एक औदारिक काययोग । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ग) तृतीय जीव के भेद में-अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय में तीन योग-औदारिक, ___ औदारिकमिश्र काययोग व कार्मण काययोग । (घ) चतुर्थ जीव के भेद में - पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय में पाँच योग-१. औदारिक काययोग, २. औदारिकमिश्र काययोग, ३. वैक्रिय काययोग, ४ वैक्रियमिश्र काययोग तथा (५) कामण काययोग । (ङ) पाँचवे जीव के भेद में-अपर्याप्त द्वीन्द्रिय में-तीन योग औदारिक, औदारिक मिश्र काययोग व कार्मण काययोग । (च) छठे जीव के भेद में पर्याप्त द्वीन्द्रिय में दो योग होते है-औदारिक काय योग तथा व्यवहार भाषा । (छ) सातवें जीव के भेद में अपर्याप्त तेइन्द्रिय में तीन योग होते है-औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग तथा कार्मण काययोग। (ज) आठवें जीव के भेद में-पर्याप्त तेइन्द्रिय में दो योग होते है-औदारिक काययोग व व्यवहार भाषा। (झ) नववें जीव के भेद में-अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय में सातवे जीव भेद की तरह तीन योग होते है। (ञ) दसर्वे जीव के भेद में पर्याप्त चतुरिन्द्रिय में आठवें जीव भेद की तरह दो योग होते है। (ट) ग्यारवें जीव के भेद में-अपर्याप्त असंशी पंचेन्द्रिय में सातवें जीव भेद की तरह तीन योग होते हैं । (ठ) बारहवे जीव के भेद में-पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय में आठवें जीव भेद की तरह दो योग होते हैं। (ड) तेरहवें जीव के भेद में-अपर्याप्त संशी पंचेन्द्रिय में चतुर्थ जीव भेद की तरह पाँच योग होते हैं। (ढ) चौदहवें जीव के भेद में पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में पन्द्रह योग होते हैं। .५५ जीव और योग समपद .१ समयोगी या विसमयोगी-नारकी यावत् वैमानिक देव दो भंते णेरड्या पढमसमयोषवण्णगा कि समजोगी, कि विसमजोगी ? Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०७ ) गोयमा ! सिय समजोगी, सिय विसमजोगी। से केण?णं भंते ! एवं बुधर'सिय समजोगी, सिय विसमजोगी १ गोयमा! आहारयाओ वा से अणाहारए, अणाहारयाओ चा से आहारए सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिय अब्भहिए। जइ होणे असंखेजहभागहोणे चा, संखेजइभागहीणे घा, असंखेजगुणहीणे वा, संखेजगुणहीणे बा। अह अब्भहिए असंखेजइभागमभहिए था, संखेजइभागमम्महिए वा, संखेजगुणमभहिए वा, असंखेजगुणमभहिए वा, से तेण?णं जाव सिय 'विसमजोगी। एवं जाब वेमाणियाणं। -भग० श २५ । उ १ । प्र ४ प्रथम समय उत्पन्न दो नै रयिक कदाचित् समयोगी और कदाचित् विसमयोगी होते हैं। आहारक नारक से अनाहारक नारक और अनाहारक नारक से आहारक नारक कदाचित हीनयोगी, कदाचित तुल्ययोगी और कदाचित अधिकयोगी होता है। यदि वह होनयोगी होता है, तो असंख्यातवें भाग हीन, संख्यात भाग हीन, संख्यात गुणहीन या असंख्यात गुणहीन होता है। यदि अधिक योगी होता है तो असंख्यातवें भाग अधिक, संख्यातवें भाग अधिक, संख्यातगुण अधिक या असंख्यातगुण अधिक होता है। इस कारण कहा गया है कि कदाचित समयोगी, कदाचिव विषमयोगी होता है। इस प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए। .५६ सयोगी जीव और अन्तरकाल .२ मणजोगिस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वणस्सइकालो, एवं वर जोगिस्स वि, कायजोगिस्स जहणेण एक्कं समयं उक्कोसेण अंतोमुहुर, अयोगिस्स णस्थि अंतरं। -जीवा० प्रति ६ । सू २५७ । पृ• WE अन्तरचिन्तायां मनोयोगिनोऽन्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तत ऊर्ध्व भूयो विशिष्टमनोयोग्यपुद्गलग्रहणसम्भवात् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, तावन्तं कालं स्थित्वा भूयो मनोयोगिवागमनसम्भवात्, एवं वाग्योगिनोऽपि जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तरं भावनीयं, औदारिककाययोगिनो जघन्यत एक समयं, औदारिकलक्षणं कायमपेक्ष्यैतत्सूत्र, यतो द्विसामयिक्यामपान्तरालगतावेकः समयोऽन्तरं, उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त, इदं हि सूत्रं परिपूर्णौदारिकशरीरपर्याप्ति परिसमाप्त्यपेक्षं, तत्र विग्रहसमयादारभ्य यावदौदारिकशरीरपर्याप्ति परिसमाप्तिस्तावदन्तमहूर्त, तत उक्तमुत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०८ ) मनोयोगी का अंतरकाल जघन्य अंतमुहूर्त, उत्कृष्ट वनस्पतिकाल-अनंतकाल जितना है। इसी प्रकार वचनयोगी का अंतरकाल जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट वनस्पतिकाल जितना है। काययोगी का अंतरकाल जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त का है। अयोगी का अंतरकाल नहीं है। मनोयोगी का अन्तर जघन्य में एक अन्तर्महूर्त का और उत्कृष्ट वनस्पति काल प्रमाण है । इसके बाद पुनः वहजीव विशिष्ट मनोयोग्य पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण करता है इतना ही अन्त वचनयोगी का जानना चाहिए। काययोगी का अन्तर जघन्य एक समय का है। जघन्य रूप से अन्तर प्रतिपादन करने वाला यइ सूत्र औदारिक काययोग की अपेक्षा से कहा गया है क्योंकि दो समयवाली अपातकाल गति में एक समय का अंतर होता है और उत्कृष्टतः जो एक अन्तमहूर्त का अन्तर कहा गया है वह परिपूर्ण औदारिक शरीर पर्याप्त की परिसमाप्ति की अपेक्षा से कहा गया है क्योंकि विग्रह समय से लेकर औदारिक शरीर पर्याप्ति की पूर्णता तक एक अंतर्मुहूर्त का अन्तर रहता है। .२ सयोगी-भवस्थ-केवली-अणाहारका का अंतर .३ अयोगी भवस्थ केवली अणाहारक का अंतर सजोगि-भवस्थ-केवलि-अणाहारागस्स जहन्नेण अंतोमुहूत्तं उक्कोसेणविxxx| अजोगि भवत्थ केवलि अणाहारागस्स नस्थि अंतरं। -जीवा० प्रति सयोगी भवस्थ केवली अणाहारिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहुर्त है । अयोगी भवस्थ केवली अणाहारिक का अन्तर नहीं है। टीका x x x ते चाष्टसामयिक केवलि-समुद्घातावस्थायां त्रिचतुष्पंचमरूपाः तेषु समबत्रयेषु केवलकार्मणकाययोगभाषात। उक्तञ्च-कार्मण शरीरयोगी चतुर्थके पचमे तृतीय च समयत्रयोऽपि तस्माद्भवत्यनाहारको नि"मात। -जीवा• प्रति ६ प्रमेयद्योतिकी टीका केवली समुद्घातके अप्ट समयो में तीसरे, चौथे व पाँचवे समय में अणाहारिक स्थिति बनती है। वह भवस्थ केवली अणाहारिक है। इसके सिवाय अनाहारिक स्थिति नहीं बनती है। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *५७ जीव समूहों में कितने योग १ पृथ्वीकायिक जीव समूहों में योग यि भंते! जाव चत्तारि पंच पुढविकाइया × × × । xxx पुढविकाइया पत्तेयाहारा पत्तेयपरिणामा पत्तेयंसरीरं बंधंति, प०२, बंधिता तओपच्छा आहारेति वा परिणामेति वा सरीरं वा बंधंति । ××× । तेणं भंते! जीवा किं मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी ? गोयमा ! णो वयजोगी, कायजोगी । जो मणजोगी, ( ३०६ ) कदाचित् दो यावत् चार, पाँच पृथ्वीकायिक जीव मिलकर साधारण शरीर नहीं बांधते हैं क्योंकि पृथ्वीकायिक जीव पृथक्-पृथक् आहार करने वाले हैं और उस आहार को पृथक्पृथक् परिणमन करते हैं अतः वे पृथक्-पृथक् शरीर बांधते हैं और इसके पश्चात् आहार करते हैं, उसे परिणामाते हैं और फिर शरीर बांधते है । पृथ्वीकायिक जीव मनोयोगीवचन योगी नहीं होते हैं, काययोगी होते हैं । २ अप्कायिक जीव समूहों में योग ( आउकाइया) एवं जो पुढविकाइयाणं गमो सोचेव भाणियब्बो X X X I -भग श १६ । उ ३ । सू २१ ३ अग्निकायिक जीव समूहों में योग ४ बाउकायिक जीव समूहों में योग ( ते उक्काइया ) एबं चेव ( वाउकाइयाणं ) एवं चैव - भग० श १६ पृथ्वी कायिक की तरह अप्कायिक जीव मनोयोगी और वचनयोगी नहीं होते हैं परन्तु काययोगी होते हैं । | उ ३ | सू १ । ६ ༥ -भग० श १६ । उ ३ । सू २२, २३ अग्निकायिक तथा वाउकायिक जीवों समूहों - मनोयोगी, वचनयोगी नहीं होते हैं काययोगी होते है । वनस्पतिकायिक जीव समूहों में योग सिय भंते! जाव यत्तारि पंच वणस्लइकाइया० पुच्छा - गोयमा ! णो इसम | अणंताबणस्लइकाइया एगयओ साहारणसरीरं बंधंति । xxx सेसं जहा तेडक्काइयाणं । -भग० श १६ । ३ । सू १६ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१० ) कदाचित दो, तीन, चार या पाँच आदि वनस्पतिकायिक जीव इकठे होकर साधारण शरीर नहीं बांधते है। अनंत वनस्पतिकायिक जीव मिलकर एक साधारण शरीर बाँधते है उनमें लेश्या तीन-कृष्ण-नील-कापोत होती है योग-मन-वचन कायोग नहीं होता है परन्तु काययोग होता है। '६ द्वीन्द्रिय जीव समूहों में योग '७ त्रीन्द्रिय जीव समूहों में योग ८ चतुरिन्द्रिय जीव समूहों में योग ९ पंचेन्द्रिय जीव समूहों में योग सिय भंते ! जाव-चत्तारि पंच वेंदिया एगयो साहारण सरीरं बंधंति xxx णो इणढे सयह। xxx। पतेयसरीरं बंधंति। xxx णो मणजोगी, वइजोगी वि कायजोगी वि। एवं तेइ दिया वि, एवं चउरिदिया वि। x x x सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच पंचिदिया एगयओ साहारण ०१ एवं जहा बेंदियाणं xxx तिविहो जोगो। -भग० श २० । उ १ । सू १ से ४ द्वीन्द्रिय यावत् चतुरिन्द्रिय जीव समूह साधारण शरीर नहीं बांधते है, प्रत्येक शरीर वांधते है इन जीव समूहों में मनोयोग नहीं है । वचनयोग भी व काययोग भी है। __पंचेन्द्रिय जीव समूह भी साधारण शरीर नहीं बांधते है, प्रत्येक शरीर बांधते है। इन जीव समूहों में तीन योग होते हैं। .६ से .८ सयोगी जीप .६१ सयोगी जीव और समपद .६१.१ सयोगी जीव दंडक और समपद सब सयोगी नारकी सम सयोगी-सम लेशी नहीं है। विषम सयोगी है (देखो '५५) सब सयोगी असुरकुमार यावत् स्तनित कुमार सम सयोगी नहीं है । सब सयोगी पृथ्वीकाय सम सयोगी नहीं है। इसी प्रकार सयोगी अपकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय सम सयोगी नहीं है, विषम सयोगी है । सर्व सयोगी तिर्यच पंचेन्द्रिय सम सयोगी नहीं है, तथा न सम लेशी है। सर्व सयोगी मनुष्य सम सयोगी नहीं है, विषम सयोगी है । सर्व सयोगी वाणव्यंतर, ज्योतिषी तथा वैमानिक देव भी सम सयोगी नहीं है, विषम सयोगी है । समलेशी भी नहीं है विषम लेशी है । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .६२ सयोगी जीव और प्रथम-अप्रथम .६२.१ सजोगी, मणजोगी, पयजोगी, कायजोगी एगतपुहुत्तेणं जहा आहारए, णवरं जस्स जो जोगो अस्थि। (आहारक भंग-आहारए णं भंते! जीवे आहारभावेणं किं पढमे अपढमे १ गोयमा! णो पढमे अपढमे। xxx प्र०५) अजोगी जीव मणुस्स सिद्धा एगत्तपुहुत्तेणं पढमा, णो अपढमा। -भग० श १८ । उ १ । प्र १५ सयोगी, मनयोगी, वचनयोगी और काययोगी-ये सभी एकवचन और बहुवचन से आहारक जीवों के समान अप्रथम होते है। जिन जीवों के जो योग हो, वह उसी प्रकार जानना चाहिए। अयोगीजीव, मनुष्य और सिद्ध -ये सभी एकवचन और बहुवचन से प्रथम है, अप्रथम नहीं हैं। नोट-प्रथम अप्रथम की व्याख्या : जो जेण पत्तपुग्वेभावो, सो तेण अपढमो हो । सेसेसु होइ पढमो, अपत्तपुवेसु भावेसु ।। अर्थात जिस जीव ने जो भावपूर्व भी प्राप्त किया है उसकी अपेक्षा वह अप्रथम, कहलाता है। जो भाव जीव को कभी प्राप्त नहीं हुआ, उसे प्राप्त करना, उस भाव की अपेक्षा 'प्रथम' कहलाता है। .६२.२ अयोगी जीव और प्रथम-अप्रथम अजोगी जीव-मणुस्स-सिद्धा एगत्तपुष्टुत्तेणं पढमा, णो अपढमा। -भग० श १८ । उ १ प्र १५ अयोगी जीव, मनुष्य और सिद्ध-ये सभी एक वचन और बहुवचन से प्रथम है, अप्रथम नहीं है। .६३ सयोगी जीव और चरम-अचरम सजोगी जाव कायजोगी जहा आहारओ, जस्स जो जोगो अस्थि । (आहारक-भंग-आहारए सव्वत्थ एगत्तेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे, पुष्टुत्तेणं चरिमा वि अचरिमा वि। xxx । प्र २३) अजोगी जहा णोसण्णीणोअसण्णी। (नोसंही-मोअसंज्ञी-भंग-xxx णोसण्णी-णोअसण्णी जीवपए सिद्धपए य अचरिमे, मणुस्सपए चरिमे एगत्तपुहुत्तेणं। प्र२५)। -भग० श १८ । उ १ । प्र ३१ सयोगी, मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी ( आहारक की तरह ) सर्वत्र एक वचन Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१२ ) से कदाचित् चरम, कदाचित् अचरम होते हैं । बहुवचन से सयोगी यावत् काययोगी चरम भी होते हैं और अचरम भी । जिस दंडक में जो योग हो वही कहना चाहिए। अयोगी (नो संज्ञी नो असंज्ञी की तरह ) - जीव और सिद्ध अचरम है । परन्तु अयोगी मनुष्य एक वचन और बहुवचन की अपेक्षा चरम है । नोट :- जिसका कभी अन्त होता है वह चरम कहलाता है और जिसका कभी अन्त नहीं होता है वह अचरम कहलाता है । जीवत्व की अपेक्षा जीव का कभी अन्त नहीं होता अतः वह चरम नहीं, अचरम है। सिद्धत्व का कभी अन्त नहीं होता है अतः वह अचरम है । .६४ सयोगी जीव की सयोगीत्व की अपेक्षा स्थिति .६४.१ सयोगी जीव की स्थिति : सयोगी जीव सयोगोत्व की अपेक्षा दो प्रकार के होते है - ( १ ) अनादि अपर्य वासत तथा (२) अनादि सपर्यवसित ( देखो ५३ ) नोट :- अभव्यत्वकी अपेक्षा सयोगी जीव की स्थिति अनादि - अपर्यवसित है; भव्यत्वकी अपेक्षा सयोगी जीव की स्थिति अनादि सपर्यवसित है । .६४.२ मनोयोगी जीब की स्थिति मनोयोगी जीव की स्थिति मनोयोग की अपेक्षा जघन्य एक समय की स्थिति तथा उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त की है (देखो ५३ ) • ६४.३ वचनयोगी जीव की स्थिति वचनयोगी जीव की स्थिति जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त की है (देखे '५३) .६४.४ काययोगी की स्थिति काययोगी जीव की स्थिति जघन्य अंतमुहूर्त, उत्कृष्ट अनंतकाल की है । (देखें५३) ६४.५ अयोगी जीव की स्थिति अजोगी णं भंते! साइए अपजवसिए अयोगी जीव सादि-अपर्यवसित होते हैं । होदि ? . ६५ सयोगी जीव का सयोगी की अपेक्षा अंतरकाल .०१ मनोयोगी और वचनयोगी का एक जीव की अपेक्षा अंतर जोगाणुवादेण पंचमणजोगि पंचवविजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो - षट्० खं० २ । ३ । सू ५६ | ७ | पृ० २०५ - जीवा० प्रति ६ । सू २६६ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१३ ) तरीका-सुगम। जहण्णेण अंतोमुहुतं । -षट खं• २।३ । सू ६० । पृ ७ । पृ० २०५ सौका-कुदो १ मणजोगादो कायजोगं पचिजोगं वा गंतूण सम्पजहण्णमंतोमुत्तमच्छिय पुणो मणजोगमागदस्स जहण्णेणंतोमुटुत्तरुषलंभादो । सेसचत्तारिमणजोगीणं पंचवविजोगीणं च एवं चेव अंतरं परूवेयध्वं, भेदाभाषादो। पत्थ एगसमओ किण्ण ब्भदे ? ण, वाघादिदे मुदे वा मण-पचिजोगाणमणंतरसमए मणुषलंभादो। टक्कस्सेण अणंतकालमसंखेजपोग्गलपरिय। -षट खं० २।३ । सू ६१ । पु ७ | पृ. २०५। ६ रीका-कुदो ? मणोगादो पचिजोगं गंतूण तत्थ सव्वुकस्लमद्धमच्छिय पुणो कायजोगं गंतूण तत्थ वि सव्वचिरं कालं गमिय एइंदिए सुप्पनिक भाषलियाए असंखेजदिभागमेत्तपोग्गलपरियडणाणि परियहिय पुणो मणजोगं मदस्स तदुषलंभादो। सेसचत्तारिमणजोगीणं पंचवचिजोगीणं च एवं चेष अंतरं परवेदव्वं, बिसेसाभावादो। योगमार्गणा के अनुसार पाँच मनोयोगी और पाँच वचनयोगी जीवों का अन्तरकाल जघन्यतः अन्तर्महूर्त है ; क्योंकि मनोयोग से काययोग में अथवा वचनयोग में जाकर सबसे कम अन्तर्महूतं मात्र रहकर पुनः मनोयोग में आनेवाले जीव के अन्तर्महूर्त रूप जघन्य अन्तर पाया जाता है। शेष चार मनोयोगी और पाँच वचनयोगी जीवों का भी जघन्व अन्तरकाल इसी प्रकार समझना चाहिए, क्योंकि इस अपेक्षा से कोई भेद नहीं है। इन पाँच मनोयोगी तथा पाँच वचनयोगी जीवों का एक योग से दूसरे योग में जाकर पुनः उसी योग में लौटने पर एक समय रूप अन्तर न होने का कारण यह है कि जब एक मनोयोग या वचनयोग का विघात हो जाता है या विवक्षित योगयुक्त जीव का मरण हो जाता है, तब केवल एक समय के अन्तर से पुनः अनन्तर समय में उसी मनोयोग या वचनयोग की प्राप्ति नहीं हो सकती है। पाँच मनोयोगी और पाँच वचनयोगी जीवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन रूप अनन्तकाल तक होता है। क्योंकि मनोयोग से वचनयोग में जाकर वहाँ अधिक काल तक रहकर पुनः काययोग में जाकर और वहाँ भी सबसे अधिक काल व्यतीत करके एकेन्द्रियों में उत्पन्न होकर आवली के असंख्यातवें भाग रूप पदमल परिवर्तन परिभ्रमण कर पुनः मनोयोग में आये हुए जीव के उक्त रूप अन्तरकाल प्राप्त होता है। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१४ ) शेष चार मनोयोगी और पाँच वचनयोगी जीवों का भी उत्कृष्ट अन्तरकाल इसी प्रकार जानना चाहिए, क्योंकि इस अपेक्षा से इनमें कोई भेद नहीं है । मनोयोगी तथा वचनयोगी का मनोयोग तथा वचनयोग की अपेक्षा अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहुर्त तथा उत्कृष्ट अनन्तकाल ( वनस्पतिकाल ) का है (देखें ५४ ) .०२ काययोगी का एक जीव की अपेक्षा अंतर कायजोगीणमंतरं केथविरं कालादो होदि ? - षट् ० ० खं० २ । ३ । सू ६२ | ७ | पृ० २०६ टीका - सुगमं । जहणेण एगसमओ । - षट् ० खं० २ । ३ | सू ६३ | पृ ७ | पृ० २०६ टीका - कुदो ? कायजोगादो मणजोगं कविजोगं वा गंतॄण एगसमयमच्छिय विदियसमए मुदे वाघादिदे वा कायजोगं गदस्स एगसमयअंतरुष भादो । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । होदि ? - षट् ० ० २ । ३ | सू ६४ | पु ७ | पृ० २०६ टीका - कुदो ? कायजोगादो मणजोगं वचिजोगं च परिवाडीए गंतून दो चि सव्वकसकालमच्छिय पुणो कायजोगमागदस्स अंतोमुहुत्तमेत्तं तरुवजंभादो 1 काययोगी जीवों का जघन्य अन्तरकाल एक समय तक होता है, क्योंकि काययोग से मनोयोग में या वचनयोग में जाकर एक समय रहकर दूसरे समय में मरण करने या योग के व्याघातित होनेपर पुनः काययोग को प्राप्त हुए जीव के एक समय का जघन्य अन्तर प्राप्त होता है । काययोगी जीवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त मनोयोग और वचनयोग में क्रमशः जाकर तथा उन कालतक रहकर पुनः काययोग में खाये हुए जीव के प्राप्त होता है । काययोगी का जघन्य अन्तर एक समय का उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त का है ( देखें ५४ ) .०३.४ औदारिक काययोगी तथा औदारिक मिश्रकाय योगी का एक जीव की अपेक्षा अन्तर होता है, क्योंकि काययोग से दोनों योगों में उनके सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त रूपकाययोग का अन्तर ओरालियका यजोगी-ओरालियमिस्सकायजोगीणमंतरं केषश्चिरं कालादो - षट्० खं० २ । ३ । सू ६५ | पु ७ | पृ० २०७ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डीका - सुगमं । ( ३१५ ) जहणेण एगसमओ I ० खं० २ । ३ । सू ६६ । पृ ७ पृ० २०७ -षट् ० टीका - कुदो ? ओरालियकायजोगादो मणजोगं बचिजोगं वा गंतूण एगसमय मच्छिय विदियसमए वाघादव सेणगदस्स एगसमयअंतरुवलं भादो । ओरालिय मिस्सकायजोगिस्स अपजत्तभावेण मण वचिजोगविरहियस्स कधमंतरल्स पगसमओ ? ण, ओरालियमिस्लकायजोगादो एगविग्गहं करिय कम्मइयजोगम्मि एगसमयमच्छिय बिदियसमए ओरालियमस्तं गदस्ल एगसमयअंतरुवलंभादो । उक्कस्सेण तेचीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । • खं० २ । ३ । सू ६७ | ७ | पृ० २०७-८ -षट् • टीका - कुदो ? ओरालियकायजोगादो चत्तारिमण चत्तारिवचिजोगेसु परिणमियकालं करिय तेत्तीस उट्ठदिएसु देवेसुवधजिय सगट्ठिदिमच्छिय दो fart काढूण मणु से सुप्पजिय ओरालिय- मिस्सकायजोगेण दीहकालमच्छिय पुणो ओरालियकायजोगं गदस्स णवहि अंतोमुहुत्ते हि वेहि समएहि सादिरेयतेत्तीस सागरोपमेत्तं तरुवलं भादो । एवमोराजिय मिस्लकायजोगस्स वि अंतरं बत्तन्वं । णवरि अंतोमुहुत्तणपुञ्चकोडीए सादिरेयाणि तेत्तीससागशेवमाणि अंतर होदि, रइए हितो पुव्वकोडाउअमणुस्से सुप्पजिय ओरानियमिस्सकायजोगस्स आदिकरिय सम्बलहुं पजत्तीभो समाणिय ओरालियकायजोगेणंतरिय goaकोर्डि देसूणं गमिय तेत्तीसाउट्ठिदिदेवे सुप्प जिय पुणो विग्गहे काढूण ओराजिय मिस्सकायजोगं गद्स्स तदुबलंभादो । औदारिक काययोगी और औदारिकमिश्र काययोगी जीवों का जधन्य अन्तर एक समय होता है, क्योंकि औदारिक काययोग से मनोयोग या वचनयोग में जाकर एक समय रहकर दूसरे समय में योग का व्याघात होने से औदारिक काययोग में आये हुए जीव के औदारिक काययोग का अन्तर एक समय होता है । यद्यपि औदारिक मिश्र काययोगी अपर्याप्त अवस्था में होता है, जबकि जीव के मनोयोग और वचनयोग होता ही नहीं है तथापि उसके एक समय का अन्तर होने का कारण यह है कि औदारिकमिश्र काययोग से एक विग्रह करके कार्मण योग में एक समय रहकर सम Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१६ ) दूसरे समय में औदारिकमिश्र योम में आये हुए जीव के एक समय का अन्तर प्राप्त होता है । औदारिक काययोगी तथा औदारिकमिश्र काययोगी जीवों का उत्कृष्ट अन्तर सातिरेक तैंतीस सागरोपम रूप होता है। क्योंकि औदारिक काययोग से चार मनोयोगों तथा चार वचन योगों में परिणमित हो मरण कर तैंतीस सागरोपम प्रमाण आयुस्थिति वाले देवों में उत्पन्न होकर, वहाँ अपनी स्थितिप्रमाण रहकर पुनः दो विग्रह कर मनुष्यों में उत्पन्न औदारि मिश्र काययोग सहित दीर्घकाल रहकर पुनः औदारिक काययोग में आये हुए जीब के नौ अन्तर्मुहूर्तों व दो समय अधिक तैंतीस सागरोपम रूप अन्तर प्राप्त होता है । इसी प्रकार औदारिकमिश्र काययोग का अन्तर कहना चाहिए। केवल विशेषता यह है कि औदारिकमिश्र काययोग का अन्तर अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि से अधिक तैंतीस सागरोपम रूप होता है, क्योंकि, नारकी जीवों में से निकलकर पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हो, औदारिकमिश्र काययोग का प्रारम्भ कर कम से कम काल पर्याप्तियों को पूर्ण कर, औदारिक काययोग के द्वारा औदारिकमिश्र काययोग का अन्तर कर कुछ कम पूर्व कोटिकाल व्यतीत कर तैंतीस सागरोपम की आयुवाले देवों में उत्पन्न हो पुनः विग्रह करके औदारिकमिश्र काययोग में जाने वाले जीव के उपर्युक्त काल रूप अन्तर प्राप्त होता है । .०५ वैक्रिय काययोगी का एक जीव की अपेक्षा अंतर darकायजोगीणमंतरं केवखिरं कालादो होदि ? - षट् खं २ । ३ । सू ६८ | ७ | पृ० २०८ टीका - सुगमं । जहणेण एगसमभो । ——षट् खं २ । ३ । सू ६६ | पृ ७ | पृ २०६ टीका - वेडव्वियकायजोगादो मणजोगं वविजोगं वा गंतूण तत्थ एगसमयमच्छिय विदियसमए वाघादव सेण वेडब्धियकायजोगं गदस्स तदुवलंभादो । उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेजपोग्गलपरियहौं । - षट्० खं० २ । ३ । सू ७० पु० ७ पृ० २०६ टीका - अंतरस्स पाहण्णियादो एगवयणं णवुंसयन्तं च जुज्जदे । सेसं सुगमं । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१७ ) वैक्रिय काययोगियों का जघन्य अन्तर एक समय है, क्योंकि बैक्रिय काययोग से मनोयोग या वचनयोग में जाकर वहाँ एक समय तक रहकर दूसरे समय में उस योग का व्याघात हो जाने के कारण वे क्रिय काययोग में जाने वाले जीव के एक समय रूप अन्तर प्राप्त होता है। वैक्रिय काययोगियों का उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुदगल-परिवर्तन रूप अनन्तकाल है। .०६ क्रियमिश्र काययोगी का एक जीप की अपेक्षा अन्तरकाल घेउब्धियमिस्सकायजोगीणमंतर केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण दसषाससहस्साणि सादिरेयाणि ।। -षट० खं० २ । ३ । सू ७१-७२ । पु ७ । पृ० २०६ टीका-कुदो १ तिरिक्खेहितो मणुस्सेहितो वा देवेसु णेरइएसु वा उप्पजिय दीहकालेण धप्पजत्तीओ समाणिअ वेउब्धियकायजोगेण अंतरिय देसूणदसवाससहस्साणि अच्छिय तिरिक्खेसु मणुस्सेसु वा उपजिय सवजहण्णेण कालेण पुणो आगंतूण वेउव्यियमिस्सं गदस्स सादिरेयदसवस्ससहस्समेत्तं - तरुवलंभादो। कधमेदेसि सादिरेयत्तं १ ण, वेउम्वियमिस्सद्धादो तिरिक्तमणुल्सपजत्ताणं गम्भजाणं जहण्णाउवस्स बहुत्तुवलंभादो। उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेजपोग्गलपरियह। -षट • खं० २ । ३ । सू ७३ । पु ७ । पृ० २१० टीका-कुदो? वेउब्धियमिस्सकायजोगादो वेउब्धियकायजोगं गंतूर्णतरिख असंखेनपोग्गजपरियहाणि परियट्टिय वेउब्धियमिस्सं गदस्स तदुषणभादो। वैक्रियमिश्र काययोगियों का जघन्य अन्तर कुछ अधिक दस हजार वर्ष होता है; क्योंकि, तियचों या मनुष्यों से देवों या नारकियों में उत्पन्न होकर दीर्घकाल द्वारा छः पर्यापियाँ पूरी कर बेक्रिय काययोग के द्वारा वैक्रियमिभ काययोग का अन्तर करके, कुछ कम दस हजार वर्ष तक वहीं रहकर तिर्यचों या मनुष्यों में उत्पन्न हो, सबसे कम काल में पुनः देव या नरक गति में आकर वैक्रियमिश्र काययोग को प्राप्त हुए जीव के सातिरेक दस दस हजार वर्ष रूप जघन्य अन्तर प्राप्त होता है । दस हजार वों की सतिरेकता का कारण यह है कि वैक्रिय मिश्र योग के काल की अपेक्षा तिर्यच और मनुष्य पर्याप्त गर्भज जीवों की जघन्य आयु बहुत पायी जाती है । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१८ ) वैक्रियमिश्र काययोगियों का उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गल परिवर्तन रूप अनन्तकाल है ; क्योंकि वैक्रियमिश्र काययोग से वैक्रिय काययोग में जाकर, वैक्रियमिभ काययोग का अन्तर प्रारम्भ कर, असंख्मात पुद्गल परिवर्तन परिभ्रमण कर पुनः वैक्रियमिश्र काययोग को प्राप्त करनेवाले जीव के उपर्युक्त रूप अन्तर प्राप्त होता है। .०७-.८ आहारक काययोगी तथा आहारक मिश्रकाययोगी का एक जीव की अपेक्षा अन्तर आहारकायजोगि-आहारमिस्सकायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? -~षट् • खं• २।३ । सू ७४ । पु ७ । पृ० २१. रीका-सुगम। जहण्णेण अंतोमुहुत्तं। -षट० खं० २ । ३ । सू ७५ । पु ७ । पृ. २१०-११ टीका-कुदो १ आहारकायजोगादो अण्णजोगं गंतूण सव्वलहुमंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो आहारकायजोगं गदस्त अंतोमुहुत्तरुषलंभादो। एगसमओ किण्ण लब्भदे १ ण, आहारकायजोगस्स पाघादाभावादो। ९षमाहारमिस्सकायजोगस्स वि वत्तन्वं । णवरि आहारसरीरमुट्ठाषिय सव्वजहण्णेण कालेण पुणो वि उहावेतस्स पढमसमए अतिरपरिसमत्ती कायब्धा । ___ उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियह देसूर्ण।। - षट • खं• २ । ३ । सू ७६ । पू७ । पृ० २११ रीका-कुदो १ अणादियमिच्छादिहिस्स अद्धपोग्गलपरियादिसमए उसमसम्मत्तं संजमं च जुगवं धेत्ण अंतोमुहूत्तमच्छिय (१) अप्पमत्तोहोदूण (२) आहारसरीरं बंधिय (३) पडिभग्गो होदूण (४) आहारसरीर मुट्ठाषिय अंतोमुहुत्तमच्छिय (५) आहारकायजोगी होदूण आदि करिय एगसमयमच्छिय कालं काउण अंतरिय उवठ्ठपोग्गलपरियह भमिय अंतोमुठुत्तावसेसे संसारे अद्धमंतरं करिय (६) अंतोमुहुत्तमच्छिय (७) अबंधभावं गमस्स जहाकमेण अट्ठहि सत्तहि तोमुटुत्तेहि ऊणअद्धपोग्गलपरियट्टमेत्ततरुषलंमादो। आहारक काययोगी और आहारकमिश्र काययोगी जीवों का जघन्य अन्तर अन्तमहूत होता है; क्योंकि आहारक काययोग से अन्य योग में जाकर सबसे कम अन्तर्महुत रहकर पुनः आहारक काययोग को प्राप्त हुए जीव के अन्तमहूत रूप अन्तर प्राप्त होता है। . . . Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१६ ) आहारक काययोग का एक समय मात्र अन्तर प्राप्त नहीं होने का कारण यह है कि बाहारक काययोग का व्याघात नहीं हो सकता है। ___ इसी प्रकार आहारकमिश्र का प्रयोग का भी अन्तर समझना चाहिए । विशेषता यह है कि आहारक शरीर को उत्पन्न करके सबसे कम काल में पुनः आहारक शरीर को उठाने के प्रधम समय में अन्तर की समाप्ति कर देनी चाहिए। .... आहारक काययोगी और आहारक मिश्र काययोगी जीवों का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्ध पुद्गल परिवर्तन रूप है; क्योंकि, एक अनादि मिथ्यादष्टि जीव अर्ध पुदगलपरिवर्तन रूप संसार शेष रहने के आदि समय में उपशम-सम्यक्त्व और संयम दोनों को एक साथ ग्रहण कर, उसमें अन्तर्मुहूर्त रहकर (१) अप्रमत्त होकर (२) आहारक शरीर का बन्ध करके (३) प्रतिभग्न अर्थात् अप्रमत्त से च्युत हो प्रमत्त होकर (४) आहारक शरीर को उत्पन्न करके अन्तम हुतं रहा (५) और आहारक काययोगी होकर उसका प्रारम्भ करके एक समय रहकर मर गया। इस प्रकार आहारक काययोग का अन्तर प्रारम्भ हुआ। पश्चात वही जीव उपार्धपुदगल-परिवर्तन भूमण करके संसार के अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहने पर अन्तरकाल समाप्त कर अर्थात् पुनः आहारक शरीर उत्पन्न कर (६) अन्तमहूर्त रहकर (७) अबन्धक भाव को प्राप्त हो गया। ऐसे जीव के यथाक्रम आठ या सात अर्थात आहारक काययोग का आठ और आहारकमिश्र काययोग का सात अन्तर्मुहूर्त कम अर्धपुद्गल परिवर्तन मात्र अन्तरकाल प्राप्त होता है । .०९ कार्मणकाययोगी का एक जीब की अपेक्षा अंतर कम्मइयकायजोगीणमंतर केवचिरं कालादो होदि १ __ -षट् • खं० २ । ३ । सू ७८ । पु ७ । पृ० २१२ टीका-सुगमं। जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं । षट० खं० २ । ३ । सू ७७ । पृ ७ । पृ० २१२ टीका-तिण्णि विग्गहे काऊण खुद्दाभवग्गहणम्मि उप्पजिय पुणो विग्गह काऊण णिग्गयस्स तिसमऊणखुद्दाभवग्गहणमेत्ततरुवलंभादो। उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेजदिभागो-असंखेजासंखेजाओ ओसप्पिणिउस्सप्पिणीओ। -षट् • खं० २ । ३ । सू ७६ । पृ ७ । पृ. २१२ टीका-कुदो १ कम्मइयकायजोगादो ओरालियमिस्सं वेउब्धियमिस्सं गंतूण असंखेजासंखेज मोसप्पिणी-उस्लप्पिणीपमाणमंगुलस्स असंखेजविभागमेत्तकालमच्छिय विग्गहं गदस्स तदुवलंमादो । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२० ) ... कार्मण काययोगी जीवों का जघन्य अन्तर तीन समय कम क्षुद्रभवग्रह मात्र होता है, क्योंकि तीन विग्रह करके क्षुद्रभव ग्रहण बाले जीवों में उत्पन्न हो पुनः विग्रह करके निकलनेवाले जीव के तीन समय कम क्षुद्र भवग्रहण मात्र कार्मण काययोग का जघन्य अन्तर प्राप्त होता है। कार्मण काययोगियों का उत्कृष्ट अन्तर अंगुल के असंख्यातवें भाग रूप असं. ख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल पर्यन्त होता है क्योंकि, कार्मण काययोग से औदारिकमिश्र या वैक्रियमिश्र काययोग में जाकर असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी रूप अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र काल तक रहकर पुनः विग्रह गति को प्राप्त हुए जीव के कामण काययोग का उपर्युक्त अन्तर काल प्राप्त होता है । .१० अजोगी णं भंते ! अंतरंकालओ केवश्चिरं होइ ? गोयमा! साइल्स अपजवसियस्स णस्थि अंतरं । -जीवा० प्रति ६ । सू २६६ अयोगी जीव का अन्तरकाल नहीं है सादि-अपर्यवसित का अन्तर नहीं होता है। प्रा Acharyalal Basu ला वर्ग अध्ययन, गाथा, सूत्र आदि की संकेत सूची अध्ययन, अध्याय प्राभूत अधिकार प्रपा प्रतिप्रामृत उद्देश, उद्देशक भा भाध्य गाथा भाग भाग चरण लाइन चूणीं चूलिका वार्तिक टीका वृत्ति दशा शतक द्वार शीलांका शीलांकाचार्य नियुक्ति श्रतस्कन्ध श्लोक पंक्ति सम समवाय पृष्ठ पैरा स्था स्थान सिद्ध सिद्धसेन प्रकीर्णक हारीभद्रीय प्रतिपत्ति संधि प प . पद .. पद . Aaroga प्रकी प्रति संधि Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९१ ) संकलन सम्पादन अनुसंधान में प्रमुख ग्रन्थों की सूची १से ४ अंगसूत्ताणि आयारो-सूयगडो-ठाणं-समबाओ वाचना प्रमुख-आचार्य तुलसी, संपादक-मुनि नथमल ( वर्तमान नाम-युवाचार्य भी महाप्रज्ञ )। प्रकाशक-जेन विश्वभारती, लाडणूं। अंगसूत्ताणि भगवई-संकेत-भग. वाचना प्रमुख-आचार्य तुलसी, संपादक-मुनि नथमल ( वर्तमान नाम-युवाचार्य श्री महाप्रश) प्रकाशक-जेन विश्वभारती, लाडण । ६ से ११ अंगसूत्ताणि णायाधम्मकहाओ - उवासगदसाओ • तगडदसाओ• अणुत्तरोषषाइदसामो-पहाषागराणं विषागसूयं । वाचना प्रमुख-आचार्य तुलसी, संपादक-मुनि नथमल ( वर्तमान नाम-युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ ) प्रकाशक-जैन विश्व भारती, लाडणूं। १२ से १४ उपसगसूत्ताणि (खंड १) ओषाइयं-रायपसेणिय-जीवाजीपात्रिगमे वाचना प्रमुख-आचार्य तुलसी, संपादक-युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ। प्रकाशकजैन विश्व भारती, लाड" । १५ से २३ उपसगसूत्ताणि ( खंड २) पण्णषणा जंवुदीषण्णत्ती - चंदपण्णत्ती-सूरपण्णत्ती - निरयापलियामो कप्पडिसियामओ-पुफियाओ-पुप्फचूलियाओ-पण्हिदसाओ। वाचना प्रमुख-आचार्य तुलसी, संपादक-युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ, प्रकाशक-जैन विश्व भारती लाडणूं। २४ से ३२ आषस्लयं - दसवेमाजिय - उत्तरज्झयाणी - नंदी-अणुमोगदाराई दसाओ-कप्पो-पवहारो-निसीहज्मयणं । वाचना प्रमुख-आचार्य तुलसी, संपादक-युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ, प्रकाशकजैन विश्वभारती, लाडनूँ । ३३ कप्पनुत्त-संकेत-कप्पसु. प्रकाशक-साराभाई मणिलाल, अहमदाबाद । ४१ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३९ ४० ४१ ४२ ४३ ४४ ४५ ४६ ४७ ४८ ( ३२२ ) सभाध्यतत्त्वार्थ सूत्र - संकेत - तत्त्व० प्रकाशक --- परमश्रुत प्रभावक मंडल, खाराकुआ, बम्बई- २ तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि-संकेत तत्त्वसर्व • प्रकाशक- भारतीय ज्ञान पीठ, वाराणसी । तत्त्वार्थपार्तिक ( राजवार्तिक) संकेत तत्त्वराज० प्रकाशक- भारतीय ज्ञान पीठ, वाराणसी-आगर तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार-संकेत - तत्त्वश्लो० प्रकाशक - रामचन्द्र नाथारंग, बम्बई, तत्त्वार्थसिद्धसेन टीका संकेत तत्त्वसिद्ध० भाग - २ प्रकाशक - जीवचन्द साकेरचंद जवेरी, बम्बई । कर्म ग्रन्थ- संकेत कर्म० भाग-६ प्रकाशक - श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर । - गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ) संकेत- गोजी ० प्रकाशक - - परमश्रत प्रभावक मंडल, बम्बई । गोम्मटार (कर्मकाण्ड ) संकेत- गोक० प्रकाशक - परमश्रुत प्रभावक मंडल, बम्बई । अभिधान राजेन्द्र कोश- संकेत अभिधा० प्रकाशक - श्री सौधर्म बृहत्तयागच्छीय, जैन श्वेताम्बर समस्त संघ, रतलाम | पाइ असहमहण्णवो संकेत पाइअ० प्रकाशक- हरगोविन्दलाल त्री० सेठ, कलकत्ता । महाभारत- संकेत- महा० प्रकाशक - गीता प्रेस, गोरखपुर, नीलकण्ठा टीका बेंकटेश्वर, बम्बई । पातञ्जल योगदर्शन - संकेत-पायोग० अंगुत्तरनिकाय संकेत- अगु प्रकाशक - बिहार राज्यपालि प्रकाशन मंडल, नालंदा, पटना । समयसार - संपादन- - प्रा० ए० चक्रवृत्ति, काशी १६५० । प्रकाशक- भारतीय ज्ञान पीठ, ज्ञानसार - भाग १ से २ संपादन – मुनि श्री भद्रगुप्त विजय, प्रकाशन - श्री विश्व कल्याण, प्रकाशन - हारीज, उत्तर गुजरात, १६६७ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२३ ) - वर्धमान जीवनकोश, द्वितीय खण्ड पर प्राप्त समीक्षा डा० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ यह युग विधिवद्ध खोज व शोध का है। अन्वेषक कार्य को सहज और सुगम करने के लिए ही विभिन्न प्रकार के संदर्भ ग्रन्थों की बड़ी उपयोगिता है। इस संदर्भ ग्रन्थों से भी अधिक उपयोगिता है वर्गीकृत कोषों की। वर्गीकृत कोश ग्रन्थ जैसा कि वर्धमान जीवन कोश द्वितीय खण्ड, पूर्व प्रकाशित सभी ग्रन्थों से भिन्न है । इस कार्य के लिए आगम ग्रन्थ उनकी टीकायें, श्वेताम्बर व दिगम्बर आगमेतर ग्रन्थ, कुछ बौद्ध एवं ब्राह्मण्य ग्रन्थ एवं परवर्तीकालीन कोश, अभिधान आदि का भी उपयोग किया है। इस खण्ड में उनके ३३ या २७ भवों का विवरण जो कि श्वेताम्बर व दिगम्बर परम्परा से लिया गया है। इससे तुलनात्मक अध्ययन सुगम ही हो जाता है । इसके अतिरिक्त इसमें भगवान महावीर के पाँचों कल्याणक, नाम एवं उपनाम, उनकी स्वतियाँ, समवसरण, दिव्यध्वनि, संघविवरण, इन्द्रभूति आदि ग्यारह गणधरों का पृथकविवरण आदि संकलित है। आर्या चन्दना का भी विवरण प्रस्तुत ग्रन्थ में दिया गया है। इस भाग में संकलित अनेक विषय बहुधा प्रथम भाग में संकलित विषयों के परिपूरक है। विषयों को इसमें अंतर्जातीय दशमलव के रूप में विभाजित व संकलित किया गया है जैसा कि सम्पादकों ने उपरोक्त वर्गीकृत कोश ग्रन्थों में किया है। विद्वानों व अन्वेषकों के लिए तीर्थकर भगवान महावीर के इस भाँति के वर्गीकृत कोष ग्रन्थों की उपादेयता के विषय में कोई दो मत नहीं हो सकता। परिश्रम साध्य व समय सापेक्ष इस कार्य को इतने सुचारु रूप से संपादन करने के लिए हम विद्वान पण्डित श्रीचन्द चोरडिया का आन्तरिक भाव से अभिनन्दन करते हैं। साथ ही जैन दर्शन समिति और उनके कार्यकर्ताओं को भी इसके प्रकाशन के लिए धन्यवाद देते है । मुनिश्री जसकरण, सुजान, बोरावड़ ( सुजानगढ़ वाले ) ता०६-५-८७ वर्धमान जीवन कोश (द्वितीय खण्ड ) में भगवान महावीर के जीवन सम्बन्धित अनेक भवों की विचित्र एवं महत्वपूर्ण उपलब्धि है। यह कार्य अति उत्तम एवं प्रशंसनीय है। इसके लेखक मोहनलाल जी बांठिया तथा भीचन्द जी चोरड़िया के श्रम का ही सुफल है। यह ग्रन्थ इतना सुन्दर एवं सुरम्य बन सका है। शोधकर्ताओं के लिए यह ग्रन्थ काफी उपयोगी होगा-ऐसा विश्वास है। रिसर्च करने वालों की भगवान वर्धमान के संबंध में सारी सामग्री इस ग्रन्थ में उपलब्ध हो सकेगी। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३४ ) मानकमल बोढा, दीनापुर ( नागालैंड) ता०३-६-८७ वधमान जीवन कोश (द्वितीय) कड़ी मेहनत से तैयार किया है। इस समय का यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ मंथन है । यह पढ़ने बालों से भी मनन करने वालों के लिए सरत और बिल्कुल सही साबित हुआ है और होता रहेगा। इसमें प्रसंग क्रमशः है परन्तु ऐसा होते हुए भी अलग-अलग है। साध्वीश्री यशोधरा, ता० २९-८-८७ प्रस्तत समीक्ष्य ग्रन्थ 'वर्धमान जीवन कोश' का द्वितीय खण्ड अपने आपमें अनूठा और अद्वितीय है। महावीर-जीवन सम्बन्धी सन्दर्भ ग्रन्थ में सम्पादक द्वय का भागीरथ प्रयत और गम्भीर अध्ययन प्रतिबिम्बित हो रहा है। आगमों में यत्र-तत्र बिखरी सामग्री को एकत्र कर इस तरीकेसे सजाया है कि शोध विद्यार्थियोंके लिए बड़ी सुगमता कर दी है। प्रस्तुत ग्रन्थ के संकलन-संपादन में शताधिक ग्रंथोंका उपयोग संपादककी 'एग्गा चित्तोभविस्सामित्ति' एकाग्र चित्तता का अवबोधक है । आगम-सिन्धुका अवगाहनकर अनमोल मोतियों के प्रस्तुतीकरण का यह प्रयास सचमुच महनीय और प्रशस्य है। -मुनि चन्द्रप्रभसागर भीचन्द्र जी चोरडिया का 'वर्धमान-जीवन-कोश द्वितीय खण्ड' समाप्त हुआ। ग्रंक्प्रेषण हे आभार-शापन । __ भगवान महावीर पर सम्प्रति-पर्यन्त बहुविध स्तरीय कार्य हुए है, किन्तु यह ग्रन्थ अपने आप में अभूतपूर्व है। शोध-स्नातकों के लिए तो यह ग्रंथ सारस्वत वरदान सिद्ध होगा, ऐसा मेरा आत्म-विश्वास है। 'वर्धमान जीवन-कोश' का प्रथम खण्ड भी पादेय सिद्ध हुमा था। यद्यपि सामान्यतया लोग कोश-निर्माण के कार्य को महत्ता की रष्टि से नहीं देखते, परन्तु मेरा विचार है कि मौलिक चिन्तनमूलक ग्रंप-लेखन उतना बेतुण्यान और श्रमसाध्य नहीं है, जितना कि कोश-संग्रहीत करना। मैं ऐसे ग्रंथों का हृदय हे स्वागत किया करता हूँ। शिवस्ते पन्थाः। वर्धमान जीवन कोश-प्रथम खण्ड पर प्राप्त समीक्षा डा० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ यह ग्रन्थ भगवान महावीर के जीवन सम्बन्धी संदर्भो का विस्तृत विश्वकोश है। लेश्या कोश तथा क्रिया कोश की भाँति इसका निर्माण भी अन्तरराष्ट्रीय बशमलव वर्गीकरण पद्धति से किया गया है। इसमें सन्देह नहीं है कि शोधार्थियों के लिए यह ग्रन्ध अतीन उपयोगी सिद्ध होगा। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) सा. नेमीचन्द जैन, इन्दौर 'वर्धमान जीवन कोश' जैन विद्या के क्षेत्र का एक अपरिहार्य, अपूर्व बहुमूल्य संदर्भ ग्रन्थ है। पूर्व प्रकाशित लेश्याकोश व क्रियाकोशों का जो स्वागत देश-विदेशमें हुआ है वह उजागर है। इसी तरह का मूल्यवान संदर्भ ग्रन्थ यह भी है। अस्त कोश उपयोगी है और भगवान महावीर के जीवन के सम्बन्ध में बहुविध जानकारी दे रहा है । मुनिश्री बालचन्द (श्रमण संघीय), कलकत्ता 'श्री वर्धमान जीवन कोश' प्रथम खण्ड देखने को मिला। यह पुस्तक सर्वप्रथम पुस्तक है जिसमें भगवान महावीर की जीवनी यथार्थ रूप से लिखने में आई है। श्री कन्हैयालाल सेठिया, कलकत्ता __ सम्पायक इय का गहन अध्ययन और अथक श्रम इस ग्रन्थ में प्रतिम्बित हुआ है। शोधार्षियों के लिए यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी है। मखिल भारतीय प्राच्यषिया सम्मेलन, ३१वां अधिवेशन में जैन दर्शन समिति (-१६ सी डोवर लेन, कलकत्ता-२६ ) द्वारा श्री श्रीचन्द चोरडिया के सम्पादन में 'वर्धमान जीवन कोश' कृति का प्रकाशन हुआ है। प्रारम्भ में स्वनामधन्य आदरणीय जैनरत श्री मोहनलालजी बांठिया इस योजना के प्रवर्तक थे। भी चोरदियाजी के सहयोग से यह ग्रन्थ तैयार हुआ था। भगवान महावीर की जीवनी से सम्बन्धित सामग्री को प्रस्तुत करने वाला वह ग्रंथरत्न अत्यन्त उपयोगी एवं संग्रहणीय है। ___ प्राकृत एवं जैन विद्या विभाग–अध्यक्षीय भाषण २९ से ३१-१०-८२ डा० भागचन्द्र जैन, नागपुर प्रस्तत समीक्ष्य ग्रन्थ 'वर्षमान जीवन कोश' का प्रकाशन जैन विषय कोश योजना के अन्तर्गत हुआ। सम्पादक द्वय ने इस ग्रंथ की सामग्री साम्प्रदायिकता दायरे से हठकर उपलब्ध समस्त वाङ्मय से एकत्रित की है। प्रस्तुत प्रकाशित प्रथम खण्ड में तीर्थंकर महावीर के जीवन विषयक, च्यवन से परिनिर्वाण तक का विषय संयोजित हुआ है। सामग्री की प्रस्तुति में सम्पादन कला का निर्दोष उपयोग हुआ है। यशपाल जैन, दिनी ____ भगवान् महावीर के जीवन से सम्बन्धित यह विश्व कोश है। भगवान महावीर के जीवन और-सिद्धांतों के विषय में विपुल साहित्य की रचना हुई है, किन्तु वह इतना फेला हुआ है कि शोधकर्ताओं को इसकी पूरी जानकारी प्राप्त करने में बड़ी कठिनाई होती है। मालोच्य कोश ने उस कठिनाई को बहुत कुछ अंगों में दूर कर दिया । भंवरलाल माहरा, कलकत्ता भगवान महावीर की जीवनी सम्बन्धी समस्त पहलुओं के अवतरणों का संग्रह करने Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६ ) में विद्वान् सम्पादकों ने बड़े ही धैर्यपूर्वक श्रतसमुद्र का अवगाहन कर बहुत ही महत्वपूर्ण भागीरथ प्रयत्न किया है। मंगलप्रकाश मेहता, वाराणसी यह ग्रन्थ जैन आगम और आगमेतर साहित्य पर शोध कर रहे छात्रों के लिए विशेष उपयोगी सिद्ध होगा । डा० नरेन्द्र भाणावत, जयपुर वर्धमान महावीर के जीवन की आधारभूत सामग्री का यह प्रामाणिक सन्दर्भ ग्रंथ शोधार्थियों के लिए अत्यन्त ही उपयोगी और पथ-प्रदर्शक है । श्री रतनलाल डोशी, सैलाना यह ग्रंथ अपने आप में अद्वितीय अनूठा और विद्वानों के लिए बहुमूल्य निधि है । इसके पीछे सूझ-बूझ के साथ कष्ट साध्य पुरुषार्थ हुआ है । भगवान् के जीवन सम्बन्धी जो और जितनी सामग्री इसमें संकलित हुई है, पहले किसी ग्रंथ में नहीं हुई। जिस निष्ठा, अनुभव और धैर्य से यह कोश सम्पन्न हुआ है, वह अभिवन्दनीय है । मंगलदेव शास्त्री, राजगृह महाश्रमण भगवान् महावीर पर अब तक अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है, पर प्रस्तुत ग्रन्थ का अपना विशेष महत्व है । यह सम्पादक द्वय की उदार एवं समन्वयवादी दृष्टि को उजाकर करता है । प्रस्तुत ग्रंथ विद्वानों के लिए, विशेष रूप से शोध छात्रों के लिए विशेष उपयोगी है । श्री भँवरलाल जैन, न्यायतीर्थ, जयपुर भगवान् महावीर के च्यवन से परिनिर्वाण तक का विस्तारपूर्वक विवेचन इस कोष में किया गया है। दिगम्बर श्वेताम्बर एवं जैनेतर सामग्री का यथास्थान संकलन कर इतिहास प्रेमियों एवं शोध छात्रों के लिए इसे एक संदर्भ ग्रन्थ बना दिया है। कंबर साहब मानसिंहजी, लावा सरदारगढ़ भगवान महावीर के जीवन की अपूर्व विशद सामग्री है। इस कार्य को पूरा कर दिखाने में यह आपके परिश्रम तप का ही फल है । युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी इसमें भगवान् महावीर के जीवन से सम्बन्धित काफी सामग्री एकत्रित है। इस विषय में शोध करने वालों के लिए यह ग्रन्थ बहुत ही उपयोगी बन सकेगा - ऐसा विश्वास है । इसमें भगवान महावीर का समय जीवनकथा के विषय में जो सामग्री आगमों में उपलब्ध होती है उसका संकलन हुआ ही है । साथ ही उस मूल सामग्री को बाद के आचार्यों ने किस प्रकार सजाया है उसका भी ज्ञान इस कोश से जिज्ञासुकों को सहज ही में हो जाता है । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमें मूल श्वेताम्बर जैन आगमों तो सामग्री ली ही गई है और आगमों की टीकाओं-नियुक्ति, भाष्य, चर्णि, संस्कृत का से भी सामग्री एकत्र की गई है। इतना ही नहीं उसके अलावा दिगम्बर मौलिक ग्रन्थों कसाय-पाहुड आदि का भी उपयोग किया गया है इतना ही नहीं किन्तु श्वेताम्बर और दिगम्बर पुराणों और आचार्यों द्वारा लिखित संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश भाषा में लिखे गए महावीर के चरित ग्रन्थों से भी सामग्री का संकलन किया गया है। इस तरह यह वास्तविक रूप से 'वर्धमान जीवन कोश' नाम को सार्थक करता है। -दलसुख मालपणिया __ वर्धमान जीवन कोश प्रथम भाग में मनीषी लेखक ने च्यवन से परिनिर्वाण तक सामग्री को सजाया है। बड़ी सजगता से विषय का प्रतिवादन हुआ है -कस्तुरचंद ललवानी सर्वांगीण रूप से 'वर्धमान जीवन कोश' में भगवान महावीर के जीवन वृत्त का प्रतिपादन हुआ है। -बच्छराज संचेती मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास पर प्राप्त समीक्षा विद्वान लेखक ने 'मिथ्यात्वी के आध्यात्मिक विकास विषय पर शोधपूर्ण सामग्री प्रस्तुत की है । इसके लिए लेखक बधाई के पात्र है । -कस्तुरचंद बलवानी मनीषी लेखक ने 'मिथ्यात्वी के आध्यात्यिक विकास के संबंध में शोधपूर्ण सामग्री प्रस्तुत की है। -जबरमल भंडारी श्रीचंदजी चोरडिया ने मिथ्यात्वी की शुद्ध क्रिया से जिज्ञासा के अन्तर्गत अनेक उद्धरणों से सिद्ध किया है। इसके लिए वे बधाई के पात्र है। -सूरजमल पुराना 'मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास पुस्तक से पढ़कर हृदय गद्-गद् हुआ। बड़े मनोयोग से चिन्तन पूर्वक पुस्तक लिखी है। मानो मैं एक उपन्यास पढ़ रहा हूँ। डॉ० राजाराम जैन ___ मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास' पुस्तक पढ़कर यह अनुभूति हुई कि सदक्रियाओं से मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास होता है । इसमें दो मत नहीं है। जिनेश मुनि श्री चोरड़ियाजी ने इस विषय में जो परिश्रम किया है वह धन्यवाद के पात्र है। यह ग्रंथ इसके पूर्व प्रकाशित लेश्या-कोश, क्रिया-कोश की कोटिका ही है। इन ग्रंथों में भी चोरडियाजी का सहकार था। हमें आशा है कि वे आगे भी इस कोटि के ग्रंथ देते रहेंगे। विशेषता यह है कि आगामों में जितने भी अवतरण इस विषय में उपलब्ध थेउनका संग्रह किया है। इतना ही नहीं आधुनिक काल के ग्रन्थों के भी अवतरण देकर ग्रंथ को संशोधकों के लिए अत्यन्त उपादेय बनाया है- इसमें सन्देह नहीं है। .. दलसुख मालपणिया, अहमदावाद Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२८ ) Glory of India, faert 'मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास' यह पुस्तक अनेक विशिष्टतामों से युक्त है। एक मिथ्यात्वी भी सद्-अनुष्ठानिक क्रिया से अपना आध्यात्मिक विकास कर सकता है। साम्प्रदायिक मतभेदों की बातें या तो आई ही नहीं है अथवा भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों का समभाव से उल्लेख कर दिया गया है। भी चोरड़ियाजी ने विषय का प्रतिपादन बहुत ही सुन्दर और तत्तस्पर्शी ढंग से किया है। विद्वज्जन इसका मूल्यांकन करें। निःसन्देह दार्शनिक जगत के लिए चोरडियाजी की यह एक अप्रतिम देन है । मुगिनी जशकरण, सुजानगढ़ अनुमानतः लेखक ने इस ग्रंथ को लिखने के लिए अनेकानेक ग्रंथों का अवलोकन किया है। टीका भाष्यों के सुन्दर संदर्भो से पुस्तक अतीव आकर्षक बनी है। डॉ० भागबन्द्र जैन, नागपुर विद्वान् लेखक ने यह स्पष्ट करने का साधार प्रयत्न किया है कि मिथ्यात्वी का कर और किस प्रकार विकास हो सकता है। लेखक और प्रकाशक इतने सुन्दर ग्रंथ के प्रकाशन के लिए बधाई के पात्र हैं। डॉ. दामोदर शास्त्री, दिल्ली लेखक ने अपने इस ग्रंथ में शोधसार समाविष्ट कर शोधार्थी विद्वज्जनों के लिए मार्ग प्रशस्त किया है । यत्र-तत्र पेचीदे प्रश्नों को उठाकर उसका सोदाहरण व शास्त्र सम्मत समाधान भी किया गया है। मुनिश्री राकेशकुमार, कलकत्ता भीचंद चोरड़िया के विशिष्ट ग्रंथ "मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास' में शास्त्रीय दार्शनिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण प्रतिपादन हुआ है। जैन धर्म के तात्विक चिन्तन में रूचि रखनेवालों के लिए तो यह पुस्तक ज्ञानवर्द्धक और रसप्रद है ही, किन्तु साम्प्रदायिक अनाग्रह और वैचारिक उदारता के इस युग में हर बौद्धिक और चिन्तनशील व्यक्ति के लिए इसका स्वाध्याय उपयोगी भी है। भंवरलाल जैन न्यायतीर्थ, जयपुर पुस्तक में नौ अध्याय है-विभिन्न दृष्टिकोणों से मिथ्यात्वी अपना आत्म विकास किस रूप में किस प्रकार कर सकता है-यह दर्शाया है। जैन सिद्धान्त के प्रमाणों के माधार पर इस विषय को स्पष्टतया पाठकों के समक्ष लेखक ने सरल सुबोध भाषा में रखा है। जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं। शास्त्रीय चर्चा को अभिनय रूप में प्रस्तुत करने में लेखक सफल हुए है। (बीर वाणी) Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६ ) राम सूरी ( डेलावाला ), कलकत्ता 'मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास' पुस्तक में आलेखित पदार्थों के दर्शन से जैन दर्शन व जैनागमों की अजैनों की तरफ उदात्त भावना और आदरशीलता प्रकट होती है । एवं जैन धर्म को अप्राप्त आत्माओं में कितने प्रमाण में आध्यात्मिक विकास हो सकता हैइत्यादिक विषयों का आलेखन बहुत सुन्दरता से जैनागमों के सूत्रपाठों से दिखाया गया है। इसलिए विद्वान श्रीचन्द चोरड़िया का प्रयास बहुत प्रशंसनीय है और यह ग्रन्थ दर्शनीय है। डॉ. नरेन्द्र भणावत, जयपुर लेखक की यह कृति पाठकों का ध्यान एक नई दिशा की ओर खींचती है। शास्त्र मर्मज्ञ विद्वानों को विविध विषयों पर गहराई से चिन्तन करने की ओर प्रवृत्ति करने में यह पुस्तक सहायक बनेगी। डॉ. ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ प्रायः यह समझा जाता है कि मिथ्यात्वी व्यक्ति धर्माचरण का अधिकारी नहीं है और उसका आध्यात्मिक विकास नहीं हो सकता। भ्रान्ति का निरसन विद्वान लेखक ने सरल-सुबोध किन्तु विवेचनात्मक शैली में और अनेक शास्त्रीय प्रमाणों की पुष्ठिपूर्वक किया है। जमनालाल जैन, वाराणसी __ यह अपने विषय की अपूर्व कृति है। मनीषी लेखक ने लगभग दो सौ ग्रन्थों का गम्भीर परायण एवं आलोडन करके शास्त्रीय रूप में अपने विषय को प्रस्तुत किया है। परिभाषाओं और विशिष्ट शब्दों में आबद्ध तात्विक प्ररूपणाओं एवं परम्पराओं को उन्मुक्त भाव से समझने के लिए यह कृति अतीव मूल्यवान है । ( श्रमण पत्रिका) भंवरलाल नाहटा, कलकत्ता शास्त्र प्रमाणों से परिपूर्ण इस ग्रन्थ में विद्वान लेखक ने नौ अध्यायों में प्रस्तुत विषय पर अच्छा प्रकाश डाला है । पं० चन्द्रभूषणमणि त्रिपाठी, राजगृह लेखक ने काफी विस्तार के साथ उस चर्चा को पुनः चिन्तन का आयाम दिया है। पुस्तक एक अच्छी चिन्तन सामग्री उपस्थित करती है । ४२ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या-कोश पर विद्वानों की सम्मति प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी संघवी, अहमदाबाद लेश्या-कोश के प्रारम्भिक ३४ पृष्ठों को पूरा सुन गया हूँ। अगला भाग अपेक्षा के अनुसार ही देखा है। पर उसका पूरा ख्याल आ गया है। प्रथम तो यह बात है कि एक व्यापारी फिर भी अस्वस्थ तबियतवाला इतना गहरा श्रम करे और शास्त्रीय विषयों में पूरी समझ के साथ प्रवेश करे यह जैन समाज के लिए आश्चर्य के साथ खुशी का विषय है। आपने कोशों की कल्पना को मूर्त बनाने का जो संकल्प किया है वह और भी आश्चर्य तथा आनन्द का विषय है। इतना बड़ा भारी जवाबदेही का काम निर्विघ्न पुरा हो- यही कामना है। Dr. A. N. UPADHYA, M. A. D. Litt., Shivaji University Kolhapur. I have read the major portion of this KOSA You are to be congratulated on having brought out a valuable source book on the Lasya Doctrine I appreciate your methodology and have all praise for the painsyou have taken in collecting and systematically presenting the material. Such works really advance the cause of Jainological studies. Please accept my greatings on this useful work and convey the same to your colleagues who have collaborated with you in this project. Such Kosas for 'PUDGAL' etc. would be welcome in the interest of the progress of Jainological studies." Dr. P. L. VAIDYA, M. A D. Litt. Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona. "I am very grateful to you for your sending me a copy of your book Lesya Kosa. I have read a goodly portion of it and am deeply impressed by yeur meihodical work on an important topic of Lesya in Jain Philosophy. All students of Jain Literature and Philosophy would surely be grateful to you for your having placed in their hand a work of tremendous utility.” Dr. SUNITI KUMAR CHATTERJEE, National Professor of India, Calcutta. "I am not a student of Philosophy, much less of Jain Philosophy. But I have learnt a lot from your work which is very thorough study, with a wealth of quotations from both Prakrita and Sanskrita, on the concept of Lesya. This, as it would appear, is not known in Brahmanical and Buddhistic philosophy. I did not know anything about it before I got your book. This as it would appear from your study, is a vary important concept in Jain Philo Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३१ ) sophy with regard to the nature of Soul, both in the static or contemplative and its dynamic or active aspect I am sure specialists will give a welcome accord to your " book 'Wishing you all success in your noble work of interpreting one of the most important aspects of our Indian civilisation and thought namely, the Jaina" Dr. PROF L. ALSDORF, Seminar fur Kultur and Geschichte Indiens. Universitat Hamburg "I acknowledge Recnipt of your Lesya-Kosa and acceptmy verysincere thanks for this most vailuable and welcome gift. The theory of Kaman of which Lesya Doctrine is an integral part is the very centre and heart of Jainism at the same time it is a most intricate & complex subject the study of which presents a great many ditficulties and problems not allof which have been solved so far. With orudition and acumen you have furnished a most useful contribution and successfully advanced our knowledge" JANERT. Director, Institut fur Indologie PROF. Dr. K L Der Universitat Zu Koln. "I have received your book Lesya-Kosa I also owe you a valuable addition to my Library. It is always a metter of great satisfaction to me to see a scholar not recoil from the arduous task of compiling dictionaries indexes etc.- even that great English Critic and Lexicographer, Dr. Samuel Johnson, called it drudgery some two hundred years ago, and it is of course only diligent collection and comparison of all relevent material that genuine advance in knowledge is based on so we shall have to thank you for having made work easier for those who come after you. PROF. PADAMANATH S. Jain. Dept. of Linguistics, The University of Michigan, U. S. A. "Please forgive me for the delay in acknowledging the receipt of your excellent gift of the Lesya-Kosa. This is an extraordinary work and you deserve our gretitude for publishing it. You have opened a new field of research and have established a new model for all future Jain studies The subject is fascinating not only for its antiquity but also for its value in the study of Indian Psychology." Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश पर प्राप्त समीक्षा PRAJNACHAKSHU PANDIT SUKHLAL D. Litt , Ahmedabad. After Lesya-Kosa I have received your Kriya-kosa, thanks. I have heard the Editorial. Forward, Preface in full and certain portions thereafter. I am surprised to find such diligence such concentration and such devotion to learning. Particularly so because such person is rearly found in business community who dedicates himself to learning like a BRAHMIN. Dr. ADINATH NEMINATH UPADHYA D. Litt. Shivaji University, Kolhapur I am in receipt of the copy of the ‘Kriya-Kosa' so kindly sent by you. It is a remarkable source book which brings in one place so systematically the references and extracis which shed abundant light on the usage of the term Kriya in Jainism. The Kosas that are being brought out by you will prove of substantial help to the future compliation of an encyclopaedia on Jainism. I Shall eagerly look forth to the publication of your DHYAN KOSA. With felicitation on your scholarly achievements Dr. P.L. VAIDYA, D.Litt Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona-4. I am very grateful to you for your sending me a copy of your Cyclopaedia of Kriya I have read a few pages already and find it as useful as your Lesya Kosa. Please do bring out similar volumes on different topics of Jain Philosophy, of course, this may not bring you any material wealth, but I am sure students of Jain Literature will surely bless you for having offered them a real help in their study. PROF HIRALAL RASIKDAS KAPADIYA, Surat Bombay. This work ( Kriya Kosa ) will be very useful to scholars interested in Jainology. The learned editors deserve hearty congratulations for having undertaken such a laborious and tedious task. Mithyatvi Ka Adhyatmika Vikasa Written by Sri Srichand Choraria: Jain Darsana Samiti 16C, Dovor Lane, Calcutta-29 P. P. 24 and 360. This is a philosophical treatise. It describes carefully the manifestation of the soul according to Jain tradition. It deals with the problem whether the mithyatva can have a manifestation and the author has proved that in a possible way. Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 9 ) The book is divided into nine chapters including conclusion. Each chapter has several sub sections, or rather points on which the author has discussed a lot each section of each chapter is replete with ample quotations proving the conclusion of the author. This book shows the masterly scholarship of Sri Srichand Choraria over the subject. The language of the outhor is simple but forceful and the analysis is praise worthy. The author has ed quite a number of books and has given a substained effort for the better production of the thesis. The work is more than a D. Lit. The printing of the book is good and the binding as well. The book must be in the shelf of the library of every learned scholar. University of Calcutta --SATYA RANJAN BANERJEE 20 Sept. 1984 VARDHAMANA-JIVANA-KOSHA compiled and edited by Mohanlal Banthia and Srichand Choraria, Jain Darsan Samiti, 16C, Dover Lane, Calcutta-700 029, 1980 p.p. 51 +584. The publication of Vardhamana-Jivana-Kosha (Cyclopaedia of the life of Vardhamana, compiled and edited by Mohanlal Banthia and Srichand Choraria, is a unique contribution to the scholarly world of Jainistic studies. The conception of compiling a dictionary on the life and teaching of Lord Mahavira is itself a new one, and the compilers must be thanked for such a venture. This type of cyclopaedia has been a dessideratum for a long time. The book is divided into several sections as far as 99 and sub-divided into several other decimal points for the easy reference. The system followed in this classification is the international decimal system. Each decimal point is arranged in accordance with the topic connected with the life and history of Vardhamana Mahavira. In each section and under each topic the original quotations from nearly 100 books followed by Hindi translation are given. These quotations are not only valuable, but they represent the authenticity of the incidents of the life of Mahavira. To compile such quotations in one place is a monumental one and tremendous labour is involved therein. Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (29x) This Jain Darsana samiti has published two other Kosas Les'ya Kos'a (1966) and Kriya Kos'a (1969) The Pudgala Kos'a and the Dhyana-Kosa seen to have been compiled and awaiting publications for a decade now. The Vardhamana Jivana kosa is not only unique but also very useful for the handy reference, to the source material on Mahavira's life story. The author has ransacked both the Svetambara and Digambara materials. This is an exceptionally good book and must be used by all scholars who want to work on Jainism, particularly on Mahavira's life. The book is well-printed and carefully executed. The printing mistakes are exceptionally few. The book is well bound as well. I hope this book will receive goon demand from the libraries of the world. University of Calcutta --SATYA RANJAN BANERJEE 20th Sept 1984 VARDHAMAN-JIVAN-KOSA, compiled and edited by Mohanlal Banthia and Srichand Choraria, Jain Darshan Samiti, 16C Dover Lane, Calcutta-700029, 1988, Pages 80+ 448. Price Rs. 75 00. The Voiume three of Vardhaman-Jivan-Kosa compiled and edited by Mohanlal Banthia and Srichand Choraria is a valuable source-book on the life and teachings of Vardhamana Mahavira. Some few years ago, the two other volumes (Vol. 1, 1980 and Vol. 11, 1984) of the same series came out. In all the volumes the plan and scope are the same series came out. In all the Volumes the plan and scope are the same. The methodology adopted in all these volumes is not only unique of its kinds, but also totally new in this type of cyclopaedic work. The material collected in all these volumes is very systematic, and will remain as a source-book for years to came to the scholarly world. The book is well-printed and the binding is carefully executed. The printing mistakes are exceptionally few. It superse previous volumes. For preparing a Dictionary on the life and teachings of Vardhamana, the erudite editors are to be thanked for presenting such a research work. The book is divided into several sections Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 374) as far as 99 and these sections are again sub divided into several other decimal points for easy references. Each decimal point is arranged in accordance with the subject matter connected with the life and teachings of Lord Mahavira. The table of contents of this work will tell us how to use this Cyclopaedia. All the facts of Mahavira's life are authenticated by quotations from over 100 books followed by Hindi translations. These quotations are necessary for making this volume useful. This unique feature of the book shows the critical outlook & deep scholarship of the editors. The project of this research work indicates that there could be some two or more volumes of this Vardhaman-Jivan.Kosa The Jain Darshan Samiti is to be heartily congratulated for undertaking such a laborious and tedious project on Jainism This Cyclopadia of Vardhamana will be very useful for the sourcematerial on the life and story of Lord Mahavira. As the editor has ransacked both the Svetambara and Digambara sourcebooks, this volume is free from all sorts of parochial outlook. I hope, this book must be in the library of every learned scholar. -Dr SATYARANJAN BANERJEE "atta ag 678' 97 979 19T" The present work is the third volume in the series of Cyclopaedia of Jainism proposed to be published on behalf of Late Shri Mohan Lal Banthia. The first volume was the Cyclopaedia of Lesya and the second volume was the cyclopaedia of kriya. Both these volumes promed to be the complete cyclopaedia of two highly technical subjects of Jain Philosophy. Now, this third volume, which is an exhaustive collection of material related to the life of Bhagawan Mahavira, whose birth-name was vardhamans. The learned compilers of this cyclopaedic work. Late Shri Mohan Lal Banthis and Shri Shrichand Choraria. have taken pains to collect all the available material concerning the life of Bhagawan Mahavira from all literary sources--the Jain canons, the commentaries on the Jain canons, the later non-canonical Prakrit and Sanskrit works, the Buddhist Pali texts, as well as other available sources. Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३६ ) The present work is only the first part of the volume, which will be published in three parts The decimal system used for classification of topic signifies a scientific approach in topical classification and makes it easy to find out any sub-topic. It is definitely an unique work on the life of Bhagawan Mahavira, elucidating simultaneously all the aspects including those of historical significance. The combedeo deserve congratulations for their hard labour. The cyclopaedic publications in the series will become a valuable repository of Jain learning for ages to come. MUNI SHRI MAHENDRA KUMAR (Disciple of Acharya Shri Tulsi) The "Spiritual Development of a Perverted One" elucidates one of the most difficult topics of Jain Philosophy. The subject itself is controversial and requires a very through understanding of the subtle points of Jain Ethics. In this work the author has substantiated the view that even a perverted one can partially make an advancement in the direction of spiritual development. The author has collected all the evidence from the available Jain sources-the Shvetamber as well as the Digamber Canonical Texts. At some places, he also quotes the non-Jain Texts which Clearly accept the thense. The whole work is a logical treatment based on the authentic texts and authentic commentaries. The book itself has become a sort of "cyclopaedia" on the subject. Incidentally, the author has explained many other topics concerning other aspects of Jain Philosophy, such as the nature of jnana and ajnana, darsana labdehis; etc. It is hoped that the work will go a long way in helping the Jain students and scholars for understanding the technical subjects which are otherwise very difficult to comprehand. MUNI SHRI MAHENDRA KUMAR (Disciple of Acharya Shri Tulsi) Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Education International