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( १८ ) सिद्धाणंतिमभाग अभवसिद्धादणंतगुणमेव ।
समयपबद्ध बंधदि जोगवसादो दु विसरिस्थं ।। यद्यपि यह आत्मा, सिद्ध जीवराशि जो अनन्तानन्त रूप है तथा अभव्य जीवराशि जो जघन्य अनन्त रूप है उनसे अनन्तगुणे समय प्रबद्ध अर्थात् एक समय में बंधनेवाले परमाणु समूह को बाँधती है, परन्तु योगवश-योगी की अल्पता अर्थात् आत्मप्रदेश के कम सकम्प होने से कम परमाणुओं का बन्ध होता है और योग की अधिकता अर्थात आत्मप्रदेश के अधिक सकम्प होने से अधिक परमाणुओं का बन्ध होता है। '०११७ जोगवाहियत्ताते ( योगवाहितया)
-ठाण• स्था ६ । सू १३३ शास्त्रज्ञान की आराधना के लिए शास्त्रोक्त तपस्या करने वाला-समाधि में रहने वाला।
दसहि उणेहि जीवा आगमेसिभहत्ताए कम्म पगरेंति, तं जहा--अणिदाणताते, दिद्विसंपन्नयाए, जोगचाहियत्ताते ।
टीका- x x x योगवाहितया श्रुतोपधानकारितया योगेन वा समाधिना सर्वत्रानुत्सुकत्व लक्षणेन वहतीत्वेवं शीलो योगवाही तद्भावस्तत्तातया । •०११८ जोगसच्चे (योगसत्य)
-सम. सम २७ । सू १ । पृ० ७७ योग-मन-वचन-काय के व्यापारों की सत्यग्राहकता ।
मूल-सत्तावीसं अणगारगुणा पण्णत्ता, तंजहा-पाणातिवायवेरमणे xxx जोगसच्चेxxxi
टीका-योगसत्यं--योगानां - मनः प्रभृतीनामवितथत्वं ।
अनगार-साधुओं के द्वारा आचरणीय २७ गुणों में सतरहवाँ गुणविशेषयोगसत्य । •०११९ जोगसच्चे (योगसत्य)
-उत्त० अ२६ । सू५२ मन, वचन और काय के व्यापार का समुचित प्रयोग। जोगसच्चेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? जोगसच्चेणं जोगं विसोहे।। मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को शुद्ध करने का साधनभूत-योगसत्य । जोगसञ्च ( योगसत्य)
-भग० श १७ । उ३ ०१२० जोगसंगहा ( योगसंग्रह )
-सम• सम ३२ । सू१ योग-मन-वचन काय के व्यापारों का संग्रह अर्थात् आचरण । मूल-बत्तीसं जोगसंगहा पण्णत्ता, तंजहा-xxx।
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