________________
( २८६ )
श्चयः कुतो भवेत् ! 'कम्मइयकायजोगो विग्गहगइ- समावण्णाणं केवलीणं बा समुग्धाद-गदाणं' इत्येतस्मात्सूत्रादपर्याप्त ष्वेव कार्मणकाययोग इति निश्चीयते ।
आहारक काययोग पर्याप्तों में होता है और आहारकमिश्र काययोग अपर्याप्तों में होता हैं ।
यद्यपि आहारक शरीर का उत्थापन करनेवाला साधु पर्याप्त ही रहता है अन्यथा उसमें संयतत्व अर्थात् संयमपना नहीं बन सकता है; फिर भी 'आहारक मिश्र काययोग अपर्याप्त में होता है'- इस कथन में सन्देह उत्पन्न करना आगम के अभिप्राय को न समझना है । आगम का अभिप्राय है आहारक शरीर का उत्थापक औदारिक शरीरगत छः पर्याप्ति की अपेक्षा से पर्याप्त रहता है, किन्तु आहारक शरीरगत पर्याप्ति से पूर्ण होने की अपेक्षा वह अपर्याप्त रहता है ।
पर्यात्व और अपर्याप्तत्व- ये दोनों परस्पर विरुद्ध धर्म एक साथ एक जीव में रहना संभव नहीं है । यद्यपि एक साथ एक जीव पर्याप्त और अपर्याप्त सम्बन्धी योग नहीं रहता है यह तो इष्ट ही है, फिर भी पूर्वोक्त कथन अर्थात् पर्याप्तत्व और अपर्याप्तत्व का एक साथ एक जीव में रहना सम्भव नहीं है, भूतपूर्व न्याय की अपेक्षा से बिरुद्ध हैं । अर्थात् दारिक शरीर सम्बन्धी पर्याप्तत्व की अपेक्षा आहारकमिश्र अवस्था में पर्याप्तत्व का व्यवहार किया जा सकता है ।
जिसके औदारिक शरीर सम्बन्धी छः पर्याप्तियाँ नष्ट हो चुकी है तथा आहारक शरीर सम्बन्धी पर्याप्तियाँ अभी तक पूर्ण नहीं हुई है-- ऐसे अपर्याप्त साधु में संयम कैसे रह सकता है, यह भी नहीं कहा जा सकता है । क्योंकि जिस ( संयम ) का लक्षण आस्रव का निरोध करना है उसका मन्दयोग ( आहारकमिश्र ) के साथ होने में कोई विरोध नहीं रहता है । यदि इस मन्दयोग के साथ संयम के रहने में विरोध माना ही जाय तो समुद्घात को प्राप्त केवली में भी संयम नहीं रह सकेगा, क्योंकि वहाँ पर भी अपर्याप्त सम्बन्धी योग का सद्भाव रहता है, अतः इसमें कोई विशेषता नहीं है । यह भी नहीं कहा जा सकता है कि 'संयतासंयत से लेकर सभी गुणस्थानों में जीव नियम से पर्याप्त होते है' इस आर्षवचन के साथ उपर्युक्त कथन का बिरोध आ जाएगा; क्योंकि द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से प्रवृत्त इस सूत्र के अभिप्राय से आहारक शरीर की अपर्याप्त अवस्था में भी औदारिक शरीर सम्बन्धी छः पर्याप्तियों के रहने में कोई विरोध नहीं रहता है ।
कार्मण काययोग पर्याप्त में, अपर्याप्त में अथवा दोनों में होता है, इसके निश्चय के लिए कहा गया है - 'विग्रहगति' को प्राप्त अर्थात् एक शरीर को छोड़कर शरीरान्तर को प्राप्त करने के जाते हुए सभी जीवों में तथा समुद्घात को प्राप्त केवलियों ने होता है'- इस सूत्र के आधार पर सिद्ध होता है कि कार्मण काययोग अपर्याप्तकों में ही होता है।
जी समूहो में योग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org