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( २८५ ) टीका-पर्याप्तावस्थायां वैक्रियकाययोगे सति तत्र शेषयोगाभावः स्यादिति चेन्न, तत्र वैक्रियकाययोग एवास्तीत्यवधारणाभावात् । अवधारणाभावेऽपर्याप्तावस्थायां शेषयोगानामपि सत्वमापतेदिति चेत्सत्यम्, कार्मणकाययोगस्य सत्त्वोपलम्भात् । न तद्वत्तत्र वाङ्मनसयोरपि सत्त्वमपर्याप्तानां तयोरभाषस्योकत्वात्।
वैक्रिय काययोग पर्याप्तों में होता है तथा वैक्रियमिश्र काययोग अपर्याप्तों में होता है।
यद्यपि पर्याप्त अवस्था में क्रिय काययोग माना सया है, अतः वहाँ पर अन्य योग नहीं होते है-ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि वहाँ पर 'वैक्रिय काययोग ही होता है, ऐसा अवधारण अर्थात निश्चय रूप से कथन नहीं किया गया है। यदि पर्याप्त अवस्था में कोई निश्चय नहीं है तो इसी आधार पर अपर्याप्त अवस्था में भी शेष योगों का सद्भाव माना जाय--यह कहना किसी अपेक्षा से ठीक नहीं है, क्योंकि अपर्याप्त अवस्था में वे क्रियमिभ के अतिरिक्त कामण काययोग का भी सद्भाव रहता है, किन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि कार्मण काययोग के समान ही अपर्याप्त अवस्था में यचनयोग और मनोयोग का सद्भाव रहता है, क्योंकि ये दोनों योग अपर्याप्त अवस्था में नहीं होते हैं।
.१५ आहारकायजोगो पजत्ता आहारमिस्सकायजोगो अपजत्ताणं।
__ -घट • खं० १ । १ । सू ७८ । पु १ । पृ. ३१७
टीका-आहारशरीरोत्थापकः पर्याप्तः संयतत्वान्यथानुपपत्तेः। तथा चाहारमिश्रकाययोगोऽपर्याप्तकस्येति न घटामटेदितिचेन्न, अनवगतसूत्राभिप्रायस्वात् तद्यथा, भवत्वसौ पर्याप्तकः औदारिकशरीरगतषट्पर्याप्त्यपेक्षया, आहारशरीरगतपर्याप्तिनिष्पत्त्यभाषापेक्षया त्वपर्याप्तकोऽसौ। पर्याप्तापर्याप्तत्वयोन्नैकत्राक्रमेण संभवो विरोधादितिचेन्न, पर्याप्तापर्याप्तयोगयोरक्रमेणैकत्र न सम्भवः इतीष्टप्यात् । कथं न पूर्षोऽभ्युपगमः इति घिरोध इति चेन्न, भूतपूर्वगतन्यायापेक्षयाविरोधासिद्ध। विनष्टौदारिकशरीरसम्बन्धषट्पर्याप्त रपरिनिष्ठिताहारशरीरपर्याप्त रपर्याप्तस्य कथं संयम इति चेन्न, संयमस्यास्रवनिरोधलक्षणस्य मन्दयोगेन सह विरोधासिछ। विरोधेवा न केवलिमोऽपि समुद्घातगतस्य संयमः तत्राप्यपर्याप्तकयोगास्तिस्वं प्रत्यविशेषात् । 'संजदासंजदहाणे णियमा पजत्ता' इत्यनेनार्षेण सह कथं न विरोधः स्यादिति चेन्न, द्रव्याथिकनयापेक्षया प्रवृत्तसूत्रस्याभिप्रायेणाहारशरीरनिष्पत्त्यवस्थायामपि षट्पर्याप्तीनां सत्त्वाविरोधात्। कार्मणकाययोगः पर्याप्त ध्वपर्याप्त भयत्र वा भवतीति नोक्तम्, तन्नि
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