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( २८४ ) इति औदारिकमिश्रकाययोगः किमु न स्यादिति चेन्न, तत्र तस्य सतोऽपि जीपप्रदेशपरिस्पन्दस्याहेतुत्वात् । न पारम्पर्यकृतं तच तुस्वं तस्यौपचारिकत्वात् । न तदप्यविवक्षितत्वात् । अय स्यात्परिस्पन्दस्य बन्धहेतुत्वे संचरदभाणामपि कर्मबन्धः प्रसजतीति न, कर्मजनितस्य चैतन्यपरिस्पन्दस्यास्रबहेनुत्त्वेन विषक्षितत्वात् । न चाभूपरिस्पन्दः कर्मजनितो येन तद्ध तुतामास्कन्देत् ।
__औदारिक काययोग पर्याप्तों में होता है तथा औदारिकमिश्र काययोग अपर्याप्तों में होता है।
छः पर्याप्ति, पाँच पर्याप्ति या चार पर्याप्तियों से पूर्णता को प्राप्त मनुष्य और तिर्यच को पर्याप्ठ कहा जाता है। अब प्रश्न होता है- क्या कोई जीव एक पर्याप्ति से पूर्णता को प्राप्त कर पर्याप्त कहलाता है या सभी पर्याप्ठियों से पूर्णता को प्राप्त कर पर्याप्त कहलाता है ! सभी जीव शरीर पर्याप्ति के निष्पन्न होनेपर ही पर्याप्त कहलाते हैं।
पर्याप्ति को प्राप्त शरीर के आलम्बन द्वारा उत्पन्न हुए जीव-प्रदेश परिस्पदन से जो योग होता है उसको औदारिक काययोग कहते हैं ; और औदारिक शरीर की अपर्याप्तावस्था में औदारिकमिश्र काययोग होता है। अभिप्राय यह है कि कार्मण और औदारिक शरीर के स्कन्धों के निमित्त से जीव-प्रदेशों में उत्पन्न हुए परिस्पन्दन से जो योग होता है उसको औदारिकमिश्र काययोग कहते है।
यद्यपि पर्याप्त अवस्था में कार्मणशरीर का सद्भाव रहता है, अतः वहाँ पर भी कार्मण और औदारिक शरीर के स्कन्धों के निमित्त से आत्म-प्रदेशों में परिस्पन्दन रूप को औदारिकमिश्र काययोग मानना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं है, क्योंकि पर्याप्त अवस्था में कामणशरीर विद्यमान तो रहता है, किन्तु वह जीव-प्रदेश के परिस्पन्दन का कारण नहीं रहता है। पर्याप्त अवस्था में कार्मणशरीर को परम्परा से जीव-प्रदेशों के परिस्पन्दन का कारण मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि कार्मणशरीर को परम्परा से निमित्त मानना औपचारिक है। उपचारवश ग्रहण कर लेना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उपचारवश परम्परा रूप निमित्त ग्रहण करने की यहाँ पर विवक्षा नहीं है।
यद्यपि परिस्पन्द को बन्ध का कारण माना गया है, किन्तु संचरण करते हुए मेघ के परिस्पन्दनशील होने के कारण उनमें भी कर्मबन्ध का प्रसंग उपस्थित नहीं होता है, क्योंकि कर्म जनित चैतन्यपरिस्पन्द ही आश्रव का कारण है-ऐसा अर्थ यहाँ पर विवक्षित है। मेघों का परिस्पन्दन कमजनित नहीं होता है जिससे वह कर्मबन्ध के आश्रव का हेत माना जा सके।
.१४ वेउव्वियकायजोगो पजत्ताणं वेउब्धियमिस्सकायजोगो अपजत्ताणं ।
-षट वं१।१ सू ७७ । पृ १ पृ० ३१७
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