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१ - चारगति, छहकाय, छहभाव लेश्या, चार कषाय, तीन वेद- मिथ्यादृष्टि, अवती, असंशित्व, अज्ञानित्व, आहारता, संसारता, असिद्धत्व, अकेबलित्व, छद्मस्थता और सयोगित्व |
इनमें आहारकत्व और मयोगित्व सावद्य - निरवद्य दोनों है । साधु आहार करता है वह शुभयोग है उससे पुण्य का बंध होता है । इसके विपरीत गृहस्थ का आहार करना अशुभ योग है, उससे पाप का बंध होता है ।
कषायकुशील चौथे निर्ग्रथ में कार्मण काययोग को बाद देकर चतुर्दश योग होते हैं । चूँकि तेरहवें गुणस्थान में सयोगी व चौदहवें गुणस्थान में अयोगी होते हैं । सिद्ध भी योग रहित होते हैं । जयाचार्य ने झीणीचर्चा में छट्ठ गुणस्थान में चौदह योग कहे हैं ( ढाल २१।१४ )
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तीन योग - मानसिक- वायिक काचिक प्रवृत्ति से हिंसा की जाती है वह प्राणातिपत आस्रव है । क्रोध से विकृत ( तप्त ) जीव प्रदेश को कषाय आस्रव कहा है। उदीरणापूर्वक किये जाने वाले क्रोध को अशुभ योग कहा जाता है। नौवें और आठवें गुणस्थान
शुद्धया और शुभयोग होता है फिर क्रोधादि से जीव प्रदेशों को कषाय आस्रव कहा जाता है । अशुभ योग की लालिमा सातवें गुणस्थान से लेकर आगे के गुणस्थान में नहीं है । द्रव्य क्रोध, मान, माया और लोभ चतुःस्पर्शी है लेकिन अशुभयोग चतुःस्पर्शी तथा अष्टस्पशीं दोनों है ।
मद्यपान, विषय, उदीरणापूर्वक होने वाला कषाय, भावनिद्रा एवं विकथा - ये पाँचों योग रूप प्रमाद है। लब्धि का प्रयोग करना अशुभ योग है। उसे अपेक्षा से प्रमाद कहा है तथा वह योग आस्रव में है ।
अस्तु प्रमाद के दो भेद है : १ – आन्तरिक अनुत्साह रूप व २ -- विषय कषाय आदि अशुभ योग की प्रवृत्ति रूप । यदि साधु के अशुभ योग की प्रवृत्ति होती है तो उससे उत्कृष्टतः छह मासिक प्रायश्चित आता है ।
छट्ठे गुणस्थान प्रमाद आस्रव निरन्तर होता है। आसव निरन्तर होता है । उनसे निरन्तर पाप लगता है । कहलाता है ।
दसवे गुणस्थान तक कषाय वह तीनों योगों से पृथक्
मद्य-पान, विषय तथा कषाय आदि प्रबल प्रवृत्तियों को पाँच प्रमाद कहा है। वे भी अशुभ योग और असमाधि के कारण पाँचवें आखव योग के अन्तर्गत होते है । छ प्रमत्त संयंत गुणस्थान में निरंतर प्रमाद स्वीकार किया है ।
तीर्थंकरों के समुद्घात नहीं होता हैं। सामान्य केवली के यदि केवली समुद्घात होता है तो उस समय उनके काय संबंधी तीन योग होते हैं। शेष योग नहीं होते । केवली
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