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उवसंतकसायस्स कसाउषसामगाणं च पञ्चासत्तीए अमावस्स संदसणफलो। जेसि पञ्चासत्ती अस्थि तेसिमेगजोगो,xxx।
उपशान्तकषाय तथा कषायों का उपशमन करनेवालों में प्रत्यासत्ति अर्थात् समीपता नहीं रहती है, जिन जीवों के समीपता रहती है, उस वर्ग को कहा जाता है-एकयोग। ०६२ एयजोगसमाउत्तो (एतद्योगसमायुक्त) --उत्त० अ ३४ । गा २४ जिसमें सभी योग वर्तमान रहते हों ।
आरम्भाओ अधिरओ खुद्दो साहस्सिओ नरो।
एयजोगसमाउत्तो नीललेसं तु परिणामे ! नीललेश्या में परिणमन करनेवाले को x x x आरम्भ से अविरति, क्षुद्रता तथा साहस-इन योगों से युक्त रहने के कारण एतदद्योगसमायुक्त कहा गया है। .०६३ जोगसंगहे ( योगसंग्रह) -पण्हा० अ १०।दा ५ ।स १ । पृ० ७०४
योग-मन-वचन-काय के व्यापारों का संग्रह ।
मूल-एगे असंजमे । दो चेव राग-दोसा।xxx। जोगसंगहे सुरिंदा । xxxअमूढमण-वयण कायगुत्ते । ___टीका-जोगसंगहे ३२ अथ द्वात्रिंशत्योगसंग्रहा:-युज्यन्ते इति योगाः मनोवाक्कायव्यापारास्ते चेह प्रशस्ता विवक्षितास्तेषां शिक्षाचार्यगतानां आलोखनादिभिरपलापादिना प्रकारेण संग्रहणानि संग्रहाः प्रशस्तयोगसंग्रहत्वात् आलोचना अत एव तथोच्यते तेच द्वात्रिंशत् भवन्ति ।
संवराभिलाषी साधु के लिए करणीय शिक्षाचार्य के द्वारा आलोचनादि मन-वचनकाय के प्रशस्त व्यापारों का संग्रह-योग संग्रह ।
___आलोचनादि ३२ बत्तीस प्रकार योग संग्रह के अन्तभूत हैं, जो साधु के लिए करणीय है। .०६४ ओग्गहसमितिजोगेण ( अवग्रहसमितियोग)
किसी भी वस्तु के आज्ञा के बिना ग्रहण करने में संयम रखना ।
मूल-बितियं-आरामुज्जाण - काणण xxx ओग्गहसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा, xxx दत्ताणुण्णाय-ओग्गहरुई ।
___टीका - अवग्रहे अनुज्ञातेऽपि उपाश्रये मध्यगततृणाद्यपि अनुहां बिना प्रहीतुं न कल्पते एतावता तदपि न ग्राह्यम्, एतदेवाह यत्किश्चिदपि घिलोक्यते ( यस्मिन् ) तत् ( अहः तस्मिन् ) अहनि अहनि -प्रतिदिनं उपाश्रयाद्यनुशावत सर्व अनुशाप्य ग्रहीतव्यम् , एवं-उक्तसूत्रनीत्या अषप्रहसमितियोगेन, भाषितो-वासितो भवति अन्तरात्मा जीवः।
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