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पर्याप्त असंशी पंचेन्द्रिय तियं च योनिक जीव जो असुरकुमारों में उत्पन्न होता है, उसकी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग की कही है। यह पल्योपम का असंख्यातवां भाग, पूर्वकोटि रूप समझना चाहिए क्योंकि सम्मूच्छिम तिर्यच का उत्कृष्ट आयुष्य पूर्व कोटि प्रमाण होता है और अपने आयुष्य के समान ही उत्कृष्टदेव आयुष्य को बाँधता है, अधिक नहीं बाँधता है, चूर्णिकार ने भी यही कहा है-यथा
"उक्कोसेणं सतुल्यपुवकोडी आउयत्तं णिव्वत्तेइ ण य सम्मुच्छिम्मे पव्वकोडी आउयत्ताओ परो अस्थि ।”
अर्थाव समुच्छिम तिर्यच की आयुध्य पूर्वकोटि से अधिक नहीं होती है अतः वह देवभव में भी पूर्व कोटि परिमाण की आयुष्य बांधता है परन्तु अधिक नहीं बाँधता है।
असंशी तिर्यच पंचेन्द्रिय की जघन्य स्थिति अंतमहूर्त भी होती है और नरक में जाने वाले के अध्यवसाय स्थान अप्रशस्त होते हैं । आयुष्य की दीर्घ स्थिति हो तो-प्रशस्तअप्रशस्त दोनों प्रकार के अध्यवसाय हो सकते हैं।
संशी तिर्यच पंचेन्द्रिय-जिसकी स्थिति जघन्य स्थिति हो तो वह यदि नरक में उत्पन्न हो तो अप्रशस्त अध्यवसाय तथा लेश्या तीन अशुभ होती है-योग भी अशुभ होते हैं । जिस मनुष्य ने अपने जीवन में अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान तथा आहारक शरीर को प्राप्त किया है वह उससे पतित होकर नरक में जा सकता है। चूर्णिकार ने कहा है-ओहिणाणमणपज्जव आहारयशरीराणि लद्धणं परिसाडित्ता उववज्जति
-भग• श० २४॥चूर्णि अर्थात जो मनुष्य अवधि ज्ञान, मनः पर्यवज्ञान, आहारक शरीर प्राप्त करते है, वहाँ से गिरकर नरक में उत्पन्न हो सकते हैं ।
___xxx ऐसे एकेन्द्रिय को जीव प्रथम-प्रथम समय कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेन्द्रिय कहते है । ६
प्रथम समयोत्पन्न होते हुए भी कृतयुग्म-कृतयुग्म राशि का पूर्व भव में अनुभव किया हुआ होनेसे उन्हें एकेन्द्रिय जीव प्रथम-अप्रथम समय कृतयुग्म-कृतयग्म एकेन्द्रिय कहते हैं । ७
प्रथम समयवर्ती और चरम समय अर्थात मरण समयवतीं होने से इन्हें प्रथम-चरम समय कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेन्द्रिय कहते हैं। ८
प्रथम समय में वर्तमान तथा अचरम अर्थात एकेन्द्रियोत्पत्ति के समयवती एकेन्द्रिय जीवों को प्रथम-अचरम समय कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेन्द्रिय कहा है।
कृतयुग्म-कृतयुग्म संख्या के अनुभव के चरम और चरम समय अर्थात मरण समयवर्ती एकेन्द्रियों को चरमचरम समय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय कहा है । १.
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