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मनोयोगी, वचनयोगी व काययोगी में छओं लेश्या होती है। सयोगी गुणस्थान में एक शुक्ल लेश्या होती है परन्तु अयोगी जीव लेश्या रहित ही होते हैं। भग० श २६
उदय के तेतीस बोलों में-आहारता सयोगी ये दो बोल सावद्य-निरपद्य दोनों है । सयोगी-नाम तथा मोहनीय कर्म का उदय है ।
___कतिपय आचार्यों ने छः लेश्वा आहारता-सयोगी को योग आत्मा के अंतर्गत माना है। धर्म में आत्मा तीन योग, दर्शन-चारित्र, अधर्म में तीन आत्मा-कषाय-योग-दर्शन माना है। दया में दो आत्मा योग और चारित्र ; हिंसा में आत्मा एक योग माना है ।
शुभयोग में पाँच भाव, अशुभ योग में भाव दो उदय व पारिणामिक । आत्मा केवल योग माना है।
शुभयोग नव तत्व में तीन-आस्रव-जीव-निर्जरा, अशुभ योग नव तत्व में-जीव, आभव माना है।
(१) एक योग अपर्याप्तक अनाहारक में-कार्मणकाययोग । (२) दो योग-विकलेन्द्रिय के पर्याप्तक में-औदारिक और व्यवहार भाषा । (३) तीन योग-वायुकाय के अतिरिक्त चार स्थावर में-औदारिक, औदारिकमिभ
और कार्मण काययोग। (४) चार योग-विकलेन्द्रिय में-औदारिक, औदारिकमिश्र, व्यवहार भाषा और
कार्मण। (५) पाँच योग-वायुकाय में-औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिभ और
कामण। (६) छह योग-असंज्ञी प्राणी में-औदारिक-औदारिकमिश्र, वैकिय, वैक्रियमिभ,
व्यवहार भाषा और कार्मण । (७) सात योग-केवली में-सत्यमन, सत्यमाषा, व्यवहार मन, व्यवहार भाषा,
औदारिक, औदारिकमिश्र और कामण । (८) आठ योग-संशी के अलब्धक आहारक-असंशी तथा सर्वश में सत्य मन,
सत्यभाषा, व्यवहार मन, व्यवहार भाषा, औदारिक, औदारिकमिभ, वैक्रिय
तथा वैक्रियमिश्र । (E) नव योग-पूर्ण आहारक शरीर में-चारमन के, चार वचन के और आहारक । (१०) दस योग-मिश्र गुणस्थान में-चार मन के, चार वचन के, वैक्रिय तथा
औदारिक। (११) ग्यारह योग-नारक एवं देवों में, चारमन के, चार वचन के, वैक्रिय, वैक्रिय
मिभ एवं कार्मण।
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