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(१२) बारह योग-श्रावक में-आहारक, आहारकमिश्र तथा कार्मण को छोड़कर । (१३) तेरह योग-तिय च एवं स्त्री में- आहारक एवं आहारकमिश्र को छोड़कर । (१४) चौदह योग-आहारक में कार्मण को छोड़कर । (१५) पन्द्रह योग-सइन्द्रिय में ।
धर्म और पुण्य दो है। धर्म आत्मा की सत्प्रवृत्ति है और पुण्य शुभयोग के द्वारा आत्मा के चिपकने वाले शुभकर्म पुद्गल है ।
सयोगी केवली गुणस्थान-केवली होने पर भी जो मन, बचन तथा काय की प्रवृत्तिवाला होता है, उसकी आत्मविशुद्धि ।
अयोगी केवली गुणस्थान-जो केवली योगकी प्रवृत्ति रहित होता है, उसकी आत्मविशुद्धि।
पृथ्वी, पानी,अग्नि तथा वनस्पति में योग तीन-औदारिक, औदारिकमिश्र व कार्मण योग होते है। वायुकाय में पाँच योग होते हैं। तीन ऊपर के तथा वैक्रिय, वैक्रियमिश्र होता है।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय में योग चार-औदादिक, औदारिकमिश्र, व्यवहार भाषा व कार्मण होते है।
तिर्यंच पंचेन्द्रिय में तेरह योग होते है-(आहारिक-आहारिकमिभ काययोग को छोड़कर)।
मनुष्य में योग पन्द्रह होते हैं तथा देव-नारकी में ग्यारह योग होते है-४ मन के, ४ वचन के, वै क्रिय, वैक्रियमिश्र व कार्मण काययोग होते है ।
कों की निर्जरा योग आत्मा से भी होती है, योग आत्मा के बिना चौदहवें गुणस्थान में भी निर्जरा होती है।
कर्म की कर्ता तीन आत्मा है---योग, कषाय व दर्शन। योग आत्मा-भावजीव है परन्त द्रव्य जीव नहीं है।
उदयभाव-तीन आत्मा है --कषाय-योग व दर्शन । उपशमभाव तीन आत्मा-योग, दर्शन, वचारित्र । योग आत्मा-आशाश्वत भी है ।
योग, दर्शन आत्मा सावध भी है, निरवद्य भी है। सावद्य-निरवद्य काम करने वाली आत्मा एक-योग।
भगवती सूत्र में कहा हैमणजोगे, वइजोगे य चउफासे, कायजोगे अठ्ठफासे । -भग• श० १२।११७
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