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योग अस्रव है तथा इसके विपक्ष में अयोग संवर है। सम्पूर्ण रूप से अयोग संघर चौदहवें गुणस्थान में है। बीस संवर के भेदों में एक अयोग संवर है । अशुभ प्रवृत्ति सातवें गुणस्थान में सर्वथा रुक जाती है जबकि शुभ प्रवृत्ति तेरहवें गुणस्थान तक रहती है । उनका पूर्ण निरोध चौदहवें गुणस्थान में ही होता है। अपेक्षा भेद से आंशिक अयोग संवर छठे गुणस्थान से तेरहवे गुणस्थान तक है। किसी की मान्यता है कि सातवें से तेरहवें गुणस्थान तक आंशिक अयोग संवर होते हुए भी अयोग संवर नहीं होता है । एक चौदहवें गुणस्थान में ही पूर्ण अयोग संवर पूर्ण रूप से सधता है ।
पहले पुण्य का बंध होता है। योग की चंचलता के साथ शुभ कर्म वर्गणा का बंध हो जासा है।
भावक की सामायिक में छः कोटि से प्रत्याख्यान होता है। पालन आठ कोटि से होता है। कोटि का अर्थ-भंग-प्रकार। करना, करवाना और अनुमोदन, मन, वचन और काय --ये तीन योग और तीन करण से नो भंग बनते हैं। जैसे
१. करूँ नहीं-मन से, वचन से, काय से । २. करवाऊँ नहीं-मन से, वचन से, काय से ३. अनुमोदन नहीं करूँ-मन से, वचन से, काय से
एक मान्यना है कि श्रावक के मन से अनुमोदन करने का त्याग नहीं हो सकता। इसलिए उसकी सामायिक आठ कोटि से होती है। दूसरी मान्यता के अनुसार श्रावक मन, वचन और काय से अनुमोदन का त्याग नहीं कर सकता। अतः उसकी सामायिक छह कोटि की ही होती है । श्रावक की सामायिक को लेकर अद्भुत मान्यता भेद संघ के विभक्तीकरण का हेतु वन गया ।१
चतुर्थ गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान की प्राप्ति के समय शुभयोग, शुभलेश्या तथा प्रशस्त अध्यवसाय होते है।
सामायिक चारित्र, छेवोपस्थानीय चारित्र, परिहार विशुद्धि चारित्र, सूक्ष्म संपराय चारित्र और यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति के समय - शुभयोग-शुभलेश्या होते हैं। सूक्ष्म सम्पराय व यथाख्यात चारित्र में नियमतः शुभयोग होते हैं (चौदहवें गुणस्थान को छोड़कर) चूंकि चौदहवें गुणस्थान में यथाख्यात चारित्र है परन्तु अयोगी है। परिहार विशुद्धि चारित्र में प्रवेश और सम्पन्नता के समय शुभयोग-शुभलेश्या है। मध्यवर्ती काल में छओं लेश्या और शुभ-अशुभ दोनों योग होते है। ___ चारित्र-शुभ योग और अशुभ योग दोनों ही नहीं है क्योंकि चारित्र मोह कर्म का
१ नोट-आठ कोटि और छह कोटि-ये स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय की उपशाखाएँ है। श्रावक की सामायिक के आधार पर इन उपशाखाओं का उद्भव हुआ।
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