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________________ ( ११८ ) स्वीकार करते हैं यह आप भी बतायें । आचार्य को कथन है - यह तो ठीक है, किन्तु इसमें विषय - विभाग देखना चाहिए । .०७ गहणावेrखाइ तओ निरंतरं जम्मि जाई गहियाइ । न वितम्मि चेव निसिरह जह पढमे निसिरणं नत्थि ॥ - विशेभा • aaisal निसर्गों ग्रहणापेक्षया भाषाद्रव्योपादानापेक्षया पूर्व ग्रहणमपेक्षयेत्यर्थः, 'सान्तर उक्तः' इति शेषः, न तु समयापेक्षया ग्रहणवत्समयापेक्षया तस्य नैरन्तर्येणैव प्रवृत्तेः । कथं पुनर्ग्रहणापेक्षया सान्तरत्वम् ? इत्याह'निरन्तरमित्यादि' यतो यस्मिन् प्रथमादिसमये यानि भाषाद्रव्याणि गृहीतानि, न तानि तस्मिन्नेव ग्रहणसमये नैरन्तर्येण निसृजति, किन्तु ग्रहणसमयादनन्तरसमये निसृजति, यथा प्रथमसमयगृहीतानां न तस्मिन्नेव समये निसर्जनं निसर्गः किन्तु द्वितीयसमये, एवं द्वितीयसमयगृहीतानां तृतीयसमये, तृतीयसमयगृहीतानां चतुर्थ समये निसर्ग इत्यादि सर्वसमयेष्वपि भावनीयम् । तदेवं ग्रहणापेक्षया निसर्गः सान्तर एव, अगृहीतानां निसर्गायोगात् । समयापेक्षया त्वसौ निरन्तर एव द्वितीयादिषु सर्वेष्वपि समयेषु निरन्तर तद्द्भावादिति ॥ आहयद्येवम्, ग्रहणमपि निसर्गापेक्षया सान्तरमेवाऽस्तु । नैवम्, ग्रहणस्य स्वतन्त्रत्वात्, निसर्गस्य तु ग्रहणपरतन्त्रत्वात् । कुतः ? इत्याह • गा ३६६ यह निसर्ग भाषाद्रव्यों के पूर्व - पूर्व में ग्रहण की अपेक्षा से सान्तर कहा गया है, न कि ग्रहण की तरह उसकी ( निसर्ग ) निरन्तर प्रवृत्ति होती 1 ग्रहण की अपेक्षा से सान्तरत्व कैसे होता है ? इसके उत्तर में कहा जाता है - जिस प्रकार, जिस प्रथमादि समय में, जिन भाषाद्रव्यों का ग्रहण होता है उनका उसी ( ग्रहण के ) समय निरन्तर निसर्ग नहीं होता है, किन्तु ग्रहण समय से अनन्तर समय में निसर्ग होता है, यथा प्रथम समय में जिनका ग्रहण होता है उनका उसी समय में निसर्ग कहीं है किन्तु दूसरे समय में होता है, इसी प्रकार द्वितीय समय में गृहीत द्रव्यों का तीसरे समय में तथा तृतीय समय में गृहीत द्रव्यों का चतुर्थ समय में निसर्ग होता है - ऐसा ही सर्वत्र भावना करनी चाहिए। इसी प्रकार ग्रहण की अपेक्षा से निसर्ग को सान्तर कहा गया है, क्योंकि अगृहीत द्रव्यों का निसर्ग संभव नहीं है । समय की अपेक्षा से तो यह निरन्तर ही है जो द्वितीयादि सभी समयों में निरन्तर हो सकता है। कहा है-यदि ऐसा है तो ग्रहण भी निसर्ग की अपेक्षा से सान्तर ही हो। ऐसा नहीं हो सकता है, क्योंकि ग्रहण स्वतन्त्र है और निसर्ग ग्रहण परतन्त्र है । कैसे ? इसके उत्तर में कहा गया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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