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( १७८ ) ०९.०१ सप्तम के अपर्याप्त नारकियों में
देखो पाठ द्वितीय पृथ्वी के अपर्याप्त नारकी ०४.०१ ।
सप्तम पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में एक मिथ्याढष्टि गुणस्थान होता है तथा वैक्रियमिश्र और कार्मणकाय-दो योग होते । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि सप्तम पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में उपर्युक्त दो योग होते हैं। .०९.०२ सप्तम पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में
देखो पाठ द्वितीय पृथ्वी के पर्याप्त नारकी .०४.०२ ।
सप्तम पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में आदि के चार गुणस्थान होते हैं तथा चार मन के, चार वचन के और वैक्रियकाय-नौ योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि सप्तम पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में उपर्युक्त नौ योग। सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि सप्तम पृथ्वी के पर्याप्त नारकी ही होते हैं और इनमें उपयुक्त नौ योग होते हैं। .०१० औधिक तियचों में
(क) तिरिक्खगईए तिरिक्खाणं भण्णमाणे xxx अस्थि पंच गुणट्ठाणाणि xxx एगारह जोग xxx। संपहि तिरिक्ख-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि xxx एगारह जोग xxx। तिरिक्ख-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि xxx एगारह जोग x x x | तिरिक्ख-सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि xxx णव जोग x x x | तिरिक्ख-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि xxx एगारह जोग xxx| तिरिक्ख-संजदासंजदाणं भण्णमाणे अस्थि xxx णव FIT X X X/
-घट ० खं० १, १ । टीका । पु २ । पृ० ४७१-८१ (ख) ते णं भंते ! (तिरिक्खजोणिया ) जीवा कि मणजोगी वइजोगी कायजोगी? गोयमा ! तिविधाधि। --जीवा० प्रति ३ । उ १ । सू ६७ । पृ० १३३
(ग) तिविहे जोगे पन्नत्ते, तनहा-मणजोगे वतिजोगे कायजोगे, एवं णेरतिताणं विगलिंदियषज्जाणं जाच वेमाणियाणं ।।
-ठाण० स्था ३ । उ १ । सू १३ । पृ. ५४१ औधिक तियंचों के पाँच गुणस्थान होते हैं और इनमें चार मन के, चार वचन के, औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग और कामणकाय-- ग्यारह योग होते हैं। गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादष्टि तिर्यचों में उपर्युक्त ग्यारह योग। सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यचों में उपयुक्त ग्यारह योग । सम्यग्मिथ्यादृष्टि तियचों में चार मन के, चार वचन के, और औदारिककाय--नौ योग/असंयत-सम्यग्दृष्टि तिर्यचों में चार मन के, चार वचन के,
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