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अस्तु भारतीय संस्कृति, जीवनदर्शन और साधना के विकास में भगवान् बुद्ध व भगवान् महावीर का अनन्य योगदान रहा है । डा० सर सी. वी रमन महान् वैज्ञानिक होने के साथ-साथ स्थिर चेता योगी भी थे । उन्होंने मन-वचन-काययोग को काफी स्थिर किया था। उनकी पत्नी का पूरा सहयोग रहा। सच्चा वैज्ञानिक वास्तव में योगी होता है ।
शुभ योग या शुभ अध्यवसाय के बिना सयोगी के निर्जरा नहीं हो सकती है और पुण्य का बंध भी नहीं हो सकता ! आत्मा की प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है - बाह्य और आभ्यंतर । जो बाह्य प्रवृत्ति होती है उसे योग कहते हैं और जो आभ्यन्तर प्रवृत्ति होती है। उसे अध्यवसाय कहते हैं। योग तथा अध्यवसाय से दोनों दो-दो प्रकार के होते हैं- शुभ और अशुभ । इनकी अशुभ प्रवृतिसे पापकर्म बंधता है और आत्मा मलिन होती है तथा शुभ प्रवृत्ति से निर्जरा होती है, आत्मा उज्ज्वल होती है और पुण्य बंधता है। शुभयोग मोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशय से तथा शुभ नाम के उदय से निष्पन्न होता है। वीर्यान्तराय कर्म का क्षय क्षयोपशम भी योग में उपादान कारण है। निर्जरा शुभयोग से होती है परन्तु शुभयोग आस्त्रव से नहीं । श्रीमद् जयाचार्य ने साधक-बाधक सोरठा में कहा है :
शुभ योगां ने सोय रे, कहिये आश्रव निर्जरा । वास न्याय अवलोय रे, चित्त लगाई सांभलो || शुभ जोगा करी तास रे, कर्म कटे तिण कारणे । कही निर्जरा जास रे, करणी लेखे जाणवी । ते शुभ जोग करीज रे, पुण्य बंधे तिण कारणे । आश्रव जास कही जे रे, बारू न्याय विचारिये ॥ छद्मस्थना शुभयोग रे, कर्म कटे छे तेह थी । क्षयोपशम भाव प्रयोग रे, शिव साधक छे तेहसूँ । छद्मस्थना शुभ योग रे, पुण्य बंधे छे तेहथी । उद्यभाव सूं प्रयोग रे, शिव बाधक इस कारणे ॥ तत्वतः शुभ योग से निर्जरा होती है अतः मुक्ति का साधक है और शुभ योग से पुण्य का बंध होता है अतः वह मुक्ति का बाधक है ।
समान जाति वाले पुद्गल स्कंध को वर्गणा कहते हैं । उनके अनेक भेद है जैसे—, मनोवर्गणा, भाषावर्गणा व कायवर्गणा आदि। इन तीनों वर्गणा का सम्बन्ध मनोयोग, वचनयोग और काय योग से है ।
१ - जिन पुद्गल समूहकी सहायता से आत्मा विचार करने में प्रवृत्त होती है उसको मनोवगंणा कहते हैं ।
२- जिन पुद्गल समूह की सहायता से आत्मा बोलने भाषावर्गणा कहते हैं ।
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प्रवृत्ति होती है उसको
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