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है । अतः वह चार गति सम्बन्धी विग्रहगति के काल में और सयोगी केवली के प्रतर और लोकपूरण समुद्घात के काल में होता है ।
गोम्मटसार में कहा है-सयोगी केवली के भी उपचार वश मनोयोग कहा गया है । अर्थात उपचार से मनोयोग का अस्तित्व माना गया है।
योगमार्गणा में कार्मण काययोगियों का जितना प्रमाण कहा है उतना ही अनाहारकों का प्रमाण है। चूँकि कार्मण काययोग का काल जघन्य एक समय, उत्कृष्ट तीन समय का है । औदारिक मिश्र काययोग का काल अंतर्मुहूर्त है । औदारिककाय योग का काल उससे संख्यात गुणा है ।' नेमीचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती ने गोम्मटसार में कहा है
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अर्थात् मध्यम अर्थात् असत्य और उभय मनोयोग और वचनयोग इन चार में संज्ञी मिथ्यादृष्टि से क्षीणकषाय पर्यन्त बारह गुणस्थान होते हैं । तथा सत्य और अनुभव मनोयोग और सत्यवचन योग में संज्ञी पर्याप्त मिथ्यादृष्टि से सयोगी केवली पर्यन्त तेरह गुणस्थान होते हैं । अनुभव बचन योग में विकलत्रय मिथ्यादृष्टि से तेरह गुणस्थान होते हैं ।
कम्मइयकायजोगी होदि अणाहारयाण परिमाणं । गोजी • गा ६७१
औदारिक काययोग एकेन्द्रिय स्थावर काय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि से सयोगी केवली पर्यन्त तेरह गुणस्थानों में होता है । औदारिक मिश्रकाय योग अपर्याप्त अवस्था में चार गुण स्थानों में होता है ( पहला, चौथा, दूजा व तेरहवाँ ) १
“ममि चउमणवयणे सष्णिप्पहुडिंतु जाव खीणोत्ति । सीमाणं जोगिन्ति य अणुभयवयणं तु वियलादो ||६७२ ||
औदारिक और औदारिक मिश्र योग मनुष्य तथा तिर्य च गति में होते हैं। गोम्मटसार में औदारिक काय योग में सात जीव के भेद पर्याप्त माने । तथा औदारिकमिश्र काय योग में सात भेद अपर्याप्त, और सयोगी केवली के एक जीव समास होता है । आठ जीव के भेद होते हैं।
इस तरह
कहा है
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ayod पते इदरे खलु होदि तस्स मिस्तु | सुरणिरय उडाणे मिस्से णहि मिस्स जोगोय ॥
गोजी० गा० ६७१
गोजी ० या ६७९
गोजी ० या ६६१
- गोजी ० ६८२
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