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वैक्रियिक काययोग पर्याप्त देवनारकियों के मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानों में होता है । वैक्रियिक मिश्र काययोग मिश्र गुणस्थानमें तो नहीं होता। अतः देव व नारकियों के मिथ्याष्टि, सास्वादान और असंयत गुणस्थानों में ही होता है । जीव समास उनमें से वै कियिक में संशी पर्याप्त और वैकियिक मिश्र में संशी अपर्याप्त होता है।
श्वेताम्बर मान्यतानुसार उत्तर वैक्रिय मनुष्य और तिर्यचों में भी होता है। अतः उपर्युक्त दोनों योग चारों गति में होते है ।
अस्त लेश्याकोश, क्रियाकोश आदि की तरह योगकोश को हमने दशमलव वर्गीकरण से विभाजित किया है। हमने योग कोश को दो खण्डों में विभाजित किया है । जिसका प्रथम खण्ड आपके सामने हैं।
उन विद्वानों को धन्यवाद देते हैं जिन्होंने लेश्याकोश, क्रियाकोश, मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास, वर्धमान जीवन कोश के तीनों खण्डों पर अपनी-अपनी सम्मतियाँ भेजकर हमारा उत्साह वर्धन किया है ।
युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी तथा युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ की महान दृष्टि हमारे पर रही है जिसे हम भूल नहीं सकते। आचार्य तुलसी ने प्रस्तुत कोश पर आशीर्वाद लिखा -हम उनके प्रति कृतज्ञ है ।
हम जैन दर्शन समिति के सभापति - श्री अभयसिंह सुराना, मंत्री-श्री पदमचंद नाहटा, श्री जबरमल भंडारी, स्व• मोहनलाल बांठिया, श्री सुमेरमल सुराना. श्री मांगीलाल लूणिया, श्री इन्द्रमल भंडारी, कमलकुमार जैन आदि-आदि सभी बन्धुओं को धन्यवाद देते है जिन्होंने हमारे विषय कोश निर्माण कल्पना में हमें किसी न किसी रूप से सहयोग दिया है।
कलकत्ता युनिवर्सिटी के भाषा विज्ञान के प्राध्यापक डॉ. सत्यरंजन बनी को हम सदैव याद रखेंगे जिन्होंने हमारे अनुरोध पर योग कोश पर भूमिका लिखी।
-श्रीचन्द चोरड़िया, न्यायतीर्थ (व्य)
जैन दर्शन समिति १६/सी, डोवर लेन, कलकत्ता-७.००२६ १०-१२-१६६३
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