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( १२२ ) होनेवाला वीर्य कार्यद्रव्य की निकटता से कुछ प्रदेशों में अधिक, कुछ प्रदेशों में मन्द तथा कुछ प्रदेशों में मन्दतर रूप से आभासित होता है। इस प्रकार का आभास जीवप्रदेशों के परस्पर सम्बन्ध-विशेष रहने पर होता है, जैसे शृखलागत अवयवों का परस्पर सम्बन्ध रहता है। शृखला के अवयवों का परस्पर सम्बन्ध बने रहने पर एक अवयव में परिस्पन्दन होने पर दूसरे अवयव भी परिस्पन्दित होने लगते हैं, इतना अवश्य होता है कि कहीं स्पन्दन अधिक होता है और कहीं कम । सम्बन्ध विशेष के अभाव में एक के चलमान होने पर दूसरे का भी चलमान होना आवश्यक नहीं हैं, यथा- गाय और पुरुष में । इसलिए कार्य द्रव्य की निकटता से तथा जीवप्रदेशों के सम्बन्ध विशेष से वीर्य ( योग) कुछ जीवप्रदेशों में अधिक, कुछ प्रदेशों में अल्प तथा कुछ प्रदेशों में अल्पतर रूप से उत्पन्न होता हैइसमें कोई विरोध नहीं है।
..१० लेश्या और कर्म
कर्म और योग शाश्वतभाव है। कर्म और योग पहले भी है, पीछे भी है, अनानुपूर्वी है । इनका कोई क्रम नहीं है । न कर्म पहले है और न योग पीछे ; न योग पहले है, न कम पीछे। दोनों पहले भी है, पीछे भी है, दोनों शाश्वत भाव है, दोनों अनानुपूर्वी है। दोनों में आगे-पीछे का क्रम नहीं है (देखो .६४)। भावयोग जीवोदय निष्पन्न है (देखो .५२.५)! द्रव्यलेश्या अजीवोदय निष्पन्न है (देखो .५१.१४)। यह जीवोदय-निष्पन्नता तथा अजीवोदय निष्पन्नता किस-किस कर्म के उदय से है-यह पाठ उपलब्ध नहीं हुआ है। तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य का कहना है कि अशुभयोग मोह कर्मोदय निष्पन्न है तथा शुभयोग नामकर्मोदय-निष्पन्न है । शुभयोग कर्मों की निर्जरा में सहायक होता है ।
यन्यतेन तु योग परिणामो लेश्या तदभिप्रायेण योगत्रयजनक कर्मोदय प्रभवाः, येवां त्वष्टकर्म परिणामो लेश्या स्तन्मतेन संसारित्वासिद्धत्वपद् अष्टप्रकार कर्मोदयजाइति !
-चतुर्थ कर्म• गा ६६/टीका जिनके मत में लेश्या योग परिणाम रूप है उनके अनुसार जो कर्म तीन योगों के जनक है वह उन कर्मों के उदय से उत्पन्न होने वाली है ।
कई आचार्यों का कथन है कि योग कर्म बंधन का कारण भी है, निर्जरा का भी। कौन योग कब बंधन का कारण तथा कब निर्जरा का कारण होता है-यह विवेचनीय प्रश्न है ।
.०११ सलेशी-सयोगी
जिहाँ सलेशी तिहाँ सयोगी, जोग कही तिहाँ लेस । जोग लेश्या में कोई फर्क छ-जाण रहा जिन रेस ॥
---झीणीचर्चा ढाल ,
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