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- ठिइ-परसा ऽणुभावभिन्नं सुहासुहविहत्तं । जोगाणुभावजणियं कम्मविवागं वितेिज्जा 11
टीका- 'योगानुभावजनितं मनोयोगादिगुणप्रभवं कर्म विपाकं विचिन्तदिति Xx x अणुभावो जीवगुण एव, स च मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमाद
कषायाः × × ×।
योग – मनोयोगादि तथा अनुभाव - जीवगुण अर्थात् मिथ्या दर्शन, अविरति, प्रमाद और कषाय-ये कर्मबन्ध के कारण हैं । प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध तथा प्रदेशबन्ध - ये योगानुभावजनित हैं ।
'०१२५ जोगावास ( योगावास )
जीव में योग की स्थिति |
सुमणिगोदजीवेसु जहण्णाणि उक्कस्साणि च जोगट्ठाणाणि अत्थि । तत्थ पारण समयाविरोहेण जहण्णजोगट्ठाणेसु चेव परिणामियं बंधदि । x x x किमट्ठ जहण्णजोगेण चेव बंधाविदो ? थोधकम्मपदेसागमणडौं । थोवजोगेण कम्मगमत्थोवत्तं कथं णव्वदे ? दव्वाविहाणे जोगट्ठाणपरूवणण्णहाणुववत्तदो । × × × । एवं जोगावासो सुहमणिगोदेसु परूविदो ।
-- षट्० नं ४,२,४ । सू ५४ । टीका । पु१० | पृ० २७५
सूक्ष्मनिगोद जीवों में जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार के योगस्थान होते हैं । आगम के अनुसार जघन्य योगस्थानों में ही उनमें ज्ञानावरण कर्म का बन्ध होता है, उनकी संभावना न रहने पर एक बार उत्कृष्ट योग स्थान को भी प्राप्त होता है । इस प्रकार सूक्ष्म निगोद जीवों में योगावास अर्थात् योग की स्थिति कही गई है ।
*०१२६ जोगावासो ( योगावास )
विशेष |
- षट्० ० खं ४,२,४ । सू २६ टीका । पु १० | पृ० ५६ योग का आश्रय लेकर जीव का शरीर में अवस्थान । आउअमणुपालें तो बहुसो बहुसो उक्कस्साणि जोगट्टाणाणि गच्छदि ।
टीका - एदेण जोगावासो परुविदो |
आयु का उपयोग करते हुए जीव का बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त करना - योगावास ।
• ०१२७ जोगा सुया ( योग सुक् )
उत्त० अ १२ । गा ४४
कर्मों की निर्जरा हेतु शुभ योग रूपी सुक् -- हवन के लिए काष्ठनिर्मित साधन
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