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( ४१ )
तो जोई जीवो भोइठाणं जोगा सुया शरीरं कारिसंगं । कम्म पहा संजमजोगसम्ती होमं हुणामी इसिणं पसत्थं ! टीका- मनोवाक्काययोगास्ते सुखो दुव्यों ज्ञेयाः मनोवाक्काययोगैः शुभव्यापारा घृतस्यानीयास्तपोऽग्निप्रज्वालनज हेतवो वर्तन्ते ।
यहाँ पर तप को अग्नि, जीव को अग्निकुण्ड तथा योग को खुक् की उपमा दी गई है । तप रूपी अग्नि में कर्म रूपी हवन सामग्री को डालने के लिए आवश्यक शुभ योगयोग स्रुक् ।
'०१२८ जोगिचरिमोत्ति ( योगिचरिम )
योगयुक्त जीव का चरम समय ।
( समय ) ।
ओकट्टणकरणं पुण अजोगिसत्ताण जोगिचरिमोत्ति । खीणं सुहुमंताणं खयदेसं सावलीयसमयोन्ति ॥
अयोगी की सत्त्वप्रकृतियों का अपकर्षण करण होता रहनेवाला समययोगिचरम
- गोक• गा ४४५
*०१२९ जोगी ( योगी )
बृह० उ १ । निगा ६६० । पृ० ३०३
कोविज्जती कयं किंचि । जोगी वि नायव्वो ""
प्रशस्त मन-वचन-काय योग का प्रयोग करनेवाला । अहवण कत्ता सत्था, न तेण कत्ता इव सो कत्ता, एवं टीका X X x यथा 'तेन' तीर्थकरेण कृतं कार्य ं किञ्चिदपि न कोप्यते एवमसावपि गीतार्थो विधिना क्रियां कुर्वन् 'कर्ता इव' तीर्थंकर इवाको पनीयत्वात् कर्ता द्रष्टव्यः । एवं योग्यपि ज्ञातव्यः । किमुक्तं भवति ? यथा तीर्थ करः प्रशस्तमनोवाक्काययोगं प्रयुञ्जानो योगी भण्यते, एवं गीतार्थोऽप्युत्सर्गाऽपवादबलवेत्ता अपवादक्रियां कुर्वाणोऽपि प्रशस्तमनोवाक्काययोगं प्रयुञ्जानो योगीव
ज्ञातव्यः ।
यहाँ पर तीर्थंकर और गीतार्थ को समान रूप से 'योगी' कहा गया है। जिस प्रकार तीर्थ कर प्रशस्त मन, वचन और काय योग का प्रयोग करते हुए 'योगी' कहे जाते है। उसी प्रकार गीतार्थ भी उत्सर्ग और अपवाद बल के ज्ञाता होकर अपवाद क्रिया करते हुए भी प्रशस्त मन वचन और काय योग का प्रयोग करते हुए 'योगी' समझे जाते हैं ।
०१३० जोगिम्मि ( योगी )
- गोक० गा ४६४
योगयुक्त अर्थात् सयोगिकेवली ।
तिसु तेरं दस मिस्से णव सत्तसु छट्ठयकिम एक्कारा | जोगम्मि सत्त जोगा अजोगिठाणं
हवे सुण्णं ॥
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