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न्तरमुच्यते, पुरुषाद् वाऽन्यः पुरुषोऽनन्तरोऽपि पुरुषान्तरमभिधीयते ; एवमिहापि एकस्मात् समयाद् योऽयमन्यः समयः सोऽयमनन्तरोऽपि सन्नेकान्तरमित्यभिधीयते । ततः किमुक्त' भवति १, इत्याह- एकस्मात् समयादनन्तरः समय एकान्तरमिति, एवं चानुसमय एव गृह ्मणाति, मुञ्चति चेति पर्यवसितं भवति ।
जिस प्रकार एक ग्राम से दूसरा ग्राम अनन्तर अर्थात् अभिन्न रहते हुए भी ग्रामान्तर कहा जाता है और एक पुरुष से दूसरा पुरुष अनन्तर रहते हुए भी पुरुषान्तर कहा जाता है उसी प्रकार एक समय से अन्य समय अनन्तर - एक समान आभासित होते हुए भी 'एकान्तर' कहा जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि एक समय से अनन्तर समय 'एकान्तर' है; अतः अनुसमय अर्थात् निरन्तर योगद्रव्यों का ग्रहण और निसर्ग होता रहता है 1
अन्ये तु 'एकान्तरम्' इत्येकैकेन समयेनाऽन्तरितं ग्रहणं, निसर्ग चेच्छन्ति इति दर्शयति
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केई एगंतरियं मण्णते गंतरंति, तेसि च । विच्छिन्नावलिरूपो होइ धणी, सुयविरोहो य ॥
टीका - इह केचिद् व्याख्यातारो मन्यन्ते – ग्रहणं, विसर्जनयैकेन समयेनाऽन्तरितमेकान्तरमुच्यते । एतच्चाऽयुक्तम्, यतस्तेषामेवं व्याच्यातॄणामन्तरान्तरविच्छिन्नरत्नावलीरूपो ध्वनिः प्राप्नोति, अन्तरान्तरग्रहणसमयेषु सर्वेष्वयश्रवणात् । तथा श्रुतविरोधश्च यत उक्त श्रुते - " अणुसमयमविरहिअं निरंतरंगिण्इहू" इति ; तथाहि - इदं सूत्रं प्रतिसमयग्रहणप्रतिपादकत्वात् प्रतिसमयनिसर्गप्रतिपादकमपि द्रष्टव्यम्, गृहीतस्य द्वितीयसमयेऽवश्यं निसर्गादिति ।
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— विशेभा० गा ३६६
कुछ आचार्यों का कथन है— ग्रहण और निसर्ग एक समय का अन्तर लेकर होता है तथा इस एक समय के अन्तर को 'एकान्तर' कहा जाता है । यह अयुक्त है, क्योंकि उन्हीं व्याख्याकारों के अनुसार जिस प्रकार मणिमाला में प्रत्येक मणि अन्तरित रूप में दिखाई देती है उसी प्रकार ध्वनि भी अन्तरित सुनाई देगी, क्योंकि इस प्रकार एक समय का अन्तर लेकर गृहीत ( वागद्रव्य ) सभी समयों में श्रवण नहीं होगा । श्रुतविरोध भी होता है, जैसा कि कहा गया है – “अनुसमय अर्थात् प्रत्येक समय अविरहित रूप से ग्रहण होता है ।" यद्यपि यह सूत्र प्रतिसमय ग्रहण मात्र का प्रतिपादन करता है तथापि इसको प्रतिसमय निसर्ग का भी प्रतिपादक मानना चाहिए, क्योंकि गृहीत द्रव्य का द्वितीय समय मैं निसर्ग अवश्य होता है ।
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