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.६२ सयोगी जीव और प्रथम-अप्रथम .६२.१ सजोगी, मणजोगी, पयजोगी, कायजोगी एगतपुहुत्तेणं जहा आहारए, णवरं जस्स जो जोगो अस्थि। (आहारक भंग-आहारए णं भंते! जीवे आहारभावेणं किं पढमे अपढमे १ गोयमा! णो पढमे अपढमे। xxx प्र०५) अजोगी जीव मणुस्स सिद्धा एगत्तपुहुत्तेणं पढमा, णो अपढमा।
-भग० श १८ । उ १ । प्र १५ सयोगी, मनयोगी, वचनयोगी और काययोगी-ये सभी एकवचन और बहुवचन से आहारक जीवों के समान अप्रथम होते है। जिन जीवों के जो योग हो, वह उसी प्रकार जानना चाहिए। अयोगीजीव, मनुष्य और सिद्ध -ये सभी एकवचन और बहुवचन से प्रथम है, अप्रथम नहीं हैं। नोट-प्रथम अप्रथम की व्याख्या :
जो जेण पत्तपुग्वेभावो, सो तेण अपढमो हो ।
सेसेसु होइ पढमो, अपत्तपुवेसु भावेसु ।। अर्थात जिस जीव ने जो भावपूर्व भी प्राप्त किया है उसकी अपेक्षा वह अप्रथम, कहलाता है। जो भाव जीव को कभी प्राप्त नहीं हुआ, उसे प्राप्त करना, उस भाव की अपेक्षा 'प्रथम' कहलाता है।
.६२.२ अयोगी जीव और प्रथम-अप्रथम अजोगी जीव-मणुस्स-सिद्धा एगत्तपुष्टुत्तेणं पढमा, णो अपढमा।
-भग० श १८ । उ १ प्र १५ अयोगी जीव, मनुष्य और सिद्ध-ये सभी एक वचन और बहुवचन से प्रथम है, अप्रथम नहीं है। .६३ सयोगी जीव और चरम-अचरम
सजोगी जाव कायजोगी जहा आहारओ, जस्स जो जोगो अस्थि । (आहारक-भंग-आहारए सव्वत्थ एगत्तेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे, पुष्टुत्तेणं चरिमा वि अचरिमा वि। xxx । प्र २३) अजोगी जहा णोसण्णीणोअसण्णी। (नोसंही-मोअसंज्ञी-भंग-xxx णोसण्णी-णोअसण्णी जीवपए सिद्धपए य अचरिमे, मणुस्सपए चरिमे एगत्तपुहुत्तेणं। प्र२५)।
-भग० श १८ । उ १ । प्र ३१ सयोगी, मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी ( आहारक की तरह ) सर्वत्र एक वचन
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