________________
(43
लेश्या कहते हैं और उनके सहायक पुद्गलों को द्रव्य लेश्या कहते हैं । विचारधारा की शुद्धि - अशुद्धि में अनंत गुण तरतम रहता है ।
गति - अंतराल गति का एक प्रकार है । इस अवस्था में औदारिक मिश्र काययोग या वैक्रियमिश्र काय योग होता है । इस अवस्था में आदि के दो समुद्घात होते हैंयथा-वेदना- कषाय समुद्घात । वक्रगति में तीन योग मिल सकते हैं – औदारिकमिश्र, वै क्रियमिश्रकाय तथा कार्मण काययोग । समुद्घात उपर्युक्त दो ही होते हैं ।
षट्षंडागम के टीकाकार आचार्य वीरसेन ने कहा है
संपहि मिच्छाइट्ठी ओघालावे भण्णमाणे अस्थि x x x । आहार- दुग्गेण विणा तेरह जोग ।
- षट् ० ० १ । १ । टीका ा पृ० २ | पृ० ४१५
अर्थात् मिथ्यादृष्टि में आहारक काययोग तथा आहारकमिश्र काययोग को बाद देकर तेरह योग होते हैं । अध्यवसाय आत्मा का सूक्ष्म परिणाम है । लेश्या-योग अशुभ होते हुए भी अध्यवसाय प्रशस्त भी हो सकते हैं। चौबीस ही दंडकों में अध्यवसाय प्रशस्त भी होते हैं, अप्रशस्त भी होते हैं ।' अभिधान राजेन्द्र कोष में कहा है
सूक्ष्मेषु आत्मनः परिणामविशेवेषु ।
―
- अभिधान० भाग १ | पृ० २३२
अर्थात् अध्यवसाय आत्मा का सूक्ष्म परिणाम है । अध्यवसाय से लेश्या व योग स्थूल है । अध्यवसाय चिन्तार्या- प्रज्ञापना पद ३४) अध्यवसाय सूक्ष्म चिन्तनात्मक है। शुभपरिणाम में योग भी आ जाता है।
Jain Education International
योग की क्रिया पच्चीस प्रकार की है। इनमें से २४ सपरायिकी है और एक पथिकी। पथिकी तो मात्र योग से ही संबंधित रहती है परन्तु सांपरायिकी क्रियाएँ कषाय से अनुप्राणित है। इन सब में योग प्रवृत्ति रहते हुए भी इन्हें सांपरायिक नाम दिया है।
वीर्यान्तकाय कर्म के
जीव का योग दूसरे
आत्म प्रदेशों के परिस्पंदन ( कंपन ) को योग कहते हैं । क्षयोपशमादि की विचित्रता से योग के पन्द्रह भेद होते हैं। किसी जीव की अपेक्षा जघन्य ( अल्प ) होता है और किसी जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट होता है । सबसे जघन्य योग सूक्ष्म अपर्याप्त एकेन्द्रिय के होता है। क्योंकि उनका शरीर सूक्ष्म और अपर्याप्त होने से दूसरे सभी जीवों के योगों की अपेक्षा उसका योग सबसे अल्प होता है और यह कार्मण शरीर द्वारा औदारिक शरीर ग्रहण करने के प्रथम समय में होता है । तत्पश्चात् समय-समय योगों की वृद्धि होती है और उत्कृष्ट योग तक बढ़ता है ।
१. प्रज्ञापना पद ३४ / सू० २०४७, ४८
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org