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________________ ( २८१ ) यद्यपि सूत्र में एकेन्द्रिय से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक औदारिकमिश्र काययोगी होते हैं-ऐसा कथन है, फिर भी देशविरत आदि क्षीणकषाय पर्यन्त गुणस्थानों में औदारिकमिश्र काययोग का सद्भाव नहीं होगा, क्योंकि प्रभृति शब्द के दो अर्थ होते हैव्यवस्था और प्रकार । इनमें से यहाँ पर प्रभृति शब्द का 'प्रकार' अर्थ लिया गया है ; जैसे सिंह आदि मृग माने जाते हैं। अतएव औदारिकमिश्र काययोग में देशविरत आदि क्षीणकषाय तक के गुणस्थानों का ग्रहण नहीं होता है। अथवा, ब्यवस्थावाची भी प्रभृति शब्द का ग्रहण करने पर कोई दोष नहीं आता है । अथवा, अग्रिम सूत्र 'ओरालियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं' अर्थात् औदारिकमिश्र काययोग अपर्याप्तकों में होता है-इसके बाधक होने के कारण भी पूर्वोक्त दोष नहीं रहता है । .१० आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो एक्कम्हि घेव पमत्तसंजद-वाणे। -षट • खं १ । १ । सू ६३ । पृ १ । पृ० ३०६ टीका-अप्रमादिनां संयतानां किमित्याहारकाययोगो न भवेदितिचेन्न, तत्र तदुत्थापने निमित्ताभाषात् । तदुत्थापने किं निमित्तमिति चेदाचाकनिष्ठतायाः समुत्पन्नप्रमादः असंयमबहुलतोत्पन्नप्रमादश्च । न च प्रमादनिबन्धनोऽप्रमादिनि भवेदतिप्रसङ्गात् । अथवा स्वभाषोऽयं यदाहारकाययोगः प्रमादिनामेवोपजायते, नाप्रमादिनामिति । ___ आहारक काययोग और आहारमिश्र काययोग एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही होते है। ___ अप्रमादी अर्थात प्रमादरहित संयतों में आहारक काययोग नहीं होने का कारण है उसके निमित्त कारण का अभाष । आहारक काययोग के उत्पन्न कराने में निमित्त कारण है-आशा-कनिष्ठता अर्थात आप्तवचन में सन्देहजनित शिथिलता के द्वारा उत्पन्न हुआ प्रमाद तथा असंयम की बहुलता से उत्पन्न प्रमाद । जो कार्य प्रमाद के निमित्त से उत्पन्न होता है यह प्रमादरहित जीवों में नहीं हो सकता है। अथवा, यह स्वाभाविक है कि आहारक काययोग प्रमत्त गुणस्थान में ही होता है, प्रमादरहित जीवों में नहीं। .११ वेउब्धियकायजोगो वेउब्धियमिस्सकायजोगो सण्णिमिच्छाइटिप्पहुडि जाप असंजदसम्माइद्विति। -षट् खं १।१ । सू ६२ । पु १ । पृ० ३०५ अत्र च शब्दः कर्तव्योऽन्यथा समुच्चयावगमानुपपत्ते रिति न, च-शब्दमन्तरेणापि समुच्चयार्थापगतेः यथा पृथिव्यप्ते जोवायुरित्यत्र। सम्यमिथ्याहप्टेरपि वैक्रियकमिश्रकाययोगः प्राप्नुयादिति चेन्न, उक्तोत्तरत्वात्। 'सम्मामिच्छाडि-हाणे णियमा पजता, वेउब्धिय-मिस्स-कायजोगो अपजत्ताण' ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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