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थिर-कयजोगाणं पुण मुणीण झाणे सुनिश्चलमणाणं । गामंमि जणाइणणे सुण्णे रण्णे व ण विसेसो ॥
टीका - तत्र स्थिराः -- संहनन - धृतिभ्यां बलवन्त उच्यन्ते, कृता - निर्वर्तिता अभ्यस्ता इति यावत्, के ? - युज्यन्त इति योगाः - ज्ञानादिभावनाव्यापाराः सत्त्व-सूत्र- तपःप्रभृतयोचा यैस्ते कृतयोगाः, स्थिराश्य ते कृतयोगाश्चेति विग्रहस्तेषाम्, अत्र व स्थिर कृतयोगयोश्चतुर्भङ्गी भवति, तद्यथा - 'थिरे णामेगे णो कयजोगे' इत्यादि, स्थिरा वा - पौनःपुन्यकरणेन परिचिताः कृता योगा यैस्ते तथाविधाः × × ×
जिसने संहनन और धैर्य के बल से योगों - ज्ञानादि भावनात्मक व्यापारों को अथवा सत्त्व, सूत्र, तपस्या प्रभृति को स्थिर कर लिया है - वह स्थिरकृतयोग |
अथवा बार-बार के अभ्यास के द्वारा योगों में अभिज्ञाता प्राप्त कर ली है वह स्थिर कृतयोग ।
• ०१४९ थोबजोगेण ( स्तोकयोग )
*०१५० दुगयोगो ( द्विकयोग )
- षट् ० खं ४,
योग का लघुतम व्यवसाय ।
किम जहण्णजोगेण चेब ( णाणावरणीयं कम्म ) बंधाविदो थोचकम्मपदेसागमणः । थोषजोगेण कम्मागमत्थोषतं कधं णव्वदे ? दव्वविहाणे जोगट्ठाणपरुवणण्णाहाणुववत्तीदो ।
स्तोकयोग जघन्ययोग का पर्यायवाची है 1
ज्ञानावरणीय के स्तोक कर्मप्रदेशों को बाँधने का कारणभूत — स्तोकयोग ।
दो भावों का एक स्थान में रहना ।
। सू ५४ । टीका । पृ १० | पृ० २७४
दुगजोगो सिद्धाणं केवलिसंसारियाण तियजोगो 1 ऊजोगजुअं वसुचि गईसु मणुयाण पणजोगो ||
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-- प्रवसा० गा १२६७
'दुगे' त्यादि, दशसु द्विकसंयोगेषु मध्ये क्षायिकपारिणामिकभावद्वयfaourat नवमोद्विक संयोगः सिद्धानां संभवति, शेषास्तु नव प्ररूपणमात्रं ।
दस प्रकार का द्विकयोग होता है, जिनमें नौ को प्ररूपणा मात्र कहा गया है तथा सिद्धों में होनेवाले क्षायिक और पारिणामिक रूप दो भावों से निष्पन्न द्विकसंयोग को द्विसंयोग कहा गया है ।
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