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________________ ( २६९ ) म, संशयानध्यवसायनिबन्धनषचनहेतुमनसोऽप्यसत्यमोषमनस्वमस्तीति तत्र तस्य सत्त्वाविरोधात्। किमिति केवलिनो वचनं संशयानध्यवसायजनकमिति चेत्स्वार्थानन्त्याच्छ्रोतुराधरणक्षयोपशमातिशयाभाषात । तीर्थकरवचनमनक्षरस्वात् ध्वषिरूपं तत एष तदेकम् । एकत्वान्न तस्य वैविध्यं घटत इति चेन्न, तत्र स्यादित्यादि असत्यमोषपचनसत्त्वतस्तस्य वनेरनक्षपरत्वासिद्ध। साक्षरत्वे च प्रतिनियतैकभाषात्मकमेव तद्वचनं नाशेषभाषारूपं भवेदिति चेन्न, क्रमविशिष्टवर्णात्मकभूयः पतिकदम्बस्य प्रतिप्राणिप्रवृत्तस्य बनेरशेषभाषारूपत्वाविरोधात्। तथा च कथं तस्य पनित्यमिति चेन्न, एतद्भाषारूपमेघेति निर्देष्टुमशक्यत्वतः तस्य ध्वनित्यसिद्ध। अतीन्द्रियज्ञानत्वान्न केवलिनो मन इति चेन्न, द्रव्यमनसः सत्त्वात्। भवतु द्रव्यमनसः सत्त्वं न तत्कार्य मिति चेद्भवतुतत्कार्यस्य क्षायोपशमिकज्ञानस्याभाषः, अपि तु तदुत्पादने प्रयत्नोऽस्त्येष तस्य प्रतिबन्धकस्वाभवात् । तेनात्मनो योगः मनोयोगः। विद्यमानोऽपि तदुत्पादने प्रयत्न किमिति स्पकार्य न विदध्यादिति चेन्न, तत्सहकारिकारणक्षयोपशमाभावात्। असतो मनसः कथं वचनद्वितयसमुत्पत्तिरित चेन्न, उपचारतस्तयोस्ततः समुत्पत्तिषिधानात् । ___ औधिक मनोयोग और विशेष रूप से सत्यमनोयोग तथा असत्यामृषामनोयोग संशी मिथ्यादष्टि से लेकर सयोगिकेवली पर्यन्त होते है। मनोयोग के चार भेदों के अतिरिक्त वह पाँचवाँ 'मनोयोग' कहाँ से प्राप्त हुआ ! वह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वह अपने चार भेदों में रहता है, अतः उसकी पाँचवीं संख्या स्वतः बन जाती है। यह सामान्य जो चारों मनोयोगों में प्राप्त होता है उसको मन की सदृशता से ग्रहण करना चाहिए। मन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है उसको मनोयोग कहते हैं। यदि पूर्व प्रयोग से प्रयत्न के बिना भी मन की प्रवृत्ति होती है तो हो, क्योंकि यहाँ पर 'मन से होनेवाले योग को 'मनोयोग' कहते है' यह अर्थ विविक्षित नहीं है ; किन्तु 'मन के निमित्त से जो परिस्पन्दन रूप प्रयत्नविशेष होता है वह मनोयोग है' यह अर्थ विवक्षित है। केवली में सत्यमनोयोग का सद्भाव तो रह सकता है, क्योंकि वहाँ पर वस्तु के बथार्थ ज्ञान का सद्भाव रहता है ; परन्त उनमें असत्यामृषामनोयोग का सद्भाव संभव नहीं है, क्योंकि उनमें संशय और अनध्यवसाय रूप शान का प्रभाव रहता है। संशय और अनध्यवसाय के कारणरूप वचन का कारण मन है और केवली में मन की सत्ता रहती है। अतः अनुभय मनोयोग स्वीकार कर लेने में कोई आपत्ति नहीं है। " केवली के वचन से संशय और अनध्यवसाय की उत्पत्ति होने में तात्पर्य यह है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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